बनारस: यह तो बनारस ही है जहाँ दो दीवारों भी इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है एक-दूसरे के प्रति। लोगबाग के प्रेम और स्नेह को तो शब्दों में लिखा ही नहीं जा सकता। बस बनारस आइये तभी समझ पाएंगे असली प्रेम की परिभाषा। और गलियों में घूमना भूलेंगे नहीं। क्योंकि यदि बनारस की गलियों का आनन्द नहीं लिए, तो जीवन व्यर्थ।
लेकिन एक बात कबहुँ नहीं भूलियेगा – इस प्रेम के लिए किसी राजनेता को धन्यवाद नहीं देंगे। ऊ तो आते रहेंगे – जाते रहेंगे। बनारस की गलियों और दीवारों का प्रेम तो अनन्तकाल तक रहेगा।
बाबा विश्वनाथ मन्दिर मुख्य द्वार से दशास्वमेध घाट की ओर चल रहा था। दाहिने कंधे पर कैमरा बाबू लटक रहे थे। निकलने से पहले कैमरा बाबू से गुफ़्तगू हो चूका था विषय पर और उस दिन बनारस की गलियों में घूमना था तस्वीरों के लिए। सामने बनारस पुलिस की गाडी खड़ी थी। समय सुवह का कोई आठ बजा होगा। पुलिस बाबू की गाड़ी से पांच कदम पर एक गोलगप्पा बेचने वाला खड़ा था। यह भी कोई गोलगप्पा बेचने का समय है, लेकिन कुछ बच्चे सुवह-सुवह गोलगप्पा का आनन्द ले रहे थे। गोलगप्पा बेचने वाला बोलने में उस्ताद था। वैसे भी बनारस तो उस्तादों से ही भरा पड़ा है। लगातार बोलते जा रहा था शिवगंगा ट्रेन की तरह। और अगल-बगल के लोगबाग सुन भी रहे थे। तभी पहलवान के तरह एक नौजवान वहां आया और दूकानदार को खिलाने के लिए इशारा किया। पलक अभी नीचे भी नहीं हुआ था तभी गोलगप्पा बेचने वाला कहता है:
”मर्दाना जाय खटाई से – जनाना जाय मिठाई से”
यह सुनते ही पुलिस बाबू ठहाका लगाए और उनके साथ बगल में खड़े कुछ और लोग भी हँस दिए। इस दसक में पहली बार किसी पुलिस बाबू को इतना खुलकर ठहाका लगाते देखा था। पहलवान जी का गोलगप्पा मूंह में ऐसा पचका की गंजी (बनियान) का अगला भाग मटमैला हो गया। वे पैसा देकर अपना रास्ता ले लिए। पुलिस बाबू मेरे कंधे पर कैमरा देखकर कहते हैं ‘पत्रकार बाबू इसका मतलब समझे?” मैं हँसते हुए कहा: ‘तभी तो पहलवान जी निकल पड़े।”
यही है बनारस और इस बनारसी कहावत का मतलब है यदि पुरुष अधिक खट्टा खाये तो उसका पुरुषत्व लुढ़कने लगेगा, कम होता जायेगा और जब महिला मिठाई का अधिक सेवन करें तो मासिक धर्म में बिघ्न-बाधाएं आने लगेगी। अब अईसन – अईसन कहावत कहाँ सुनियेगा ?
बनारस प्राचीन जीवंत शहरों में एक है। ‘वामन पुराण’ के अनुसार वरूणा और असि नदियां काल के प्रारंभ में स्वत: ही आद्य पुरूष के शरीर से निकली हैं। इन दोनो नदियों के मध्य की भूमि ही बनारस है।
अँग्रेजी के प्रख्यात साहित्यकार मार्क ट्वेन बनारस की पवित्रता और मिथकीय विश्वास से अभिभूत थे। एक बार उन्होंने लिखा-“बनारस इतिहास से प्राचीन है, परंपरा से प्राचीन है, मिथकों से भी प्राचीन है और इतना प्राचीन दिखता है, जैसे इन सभी को एक साथ रख दिया गया हो।”
विश्वनाथ मुखर्जी (बना रहे बनारस) के अनुसार शैतान की आंत की भांति यह भूल-भुलैया संसार का एक आश्चर्यजनक दर्शनीय स्थान है। इन गलियों में कितनी आजादी है। नंगे घूमें, गमच्छा पहनकर चलें, जहां जी में आये बैठ जाएँ, जहां जी आए सो जाएँ । कोई बिगड़ेगा नहीं, भगाएगा नहीं और न ही डांटेगा। गावटी का गमच्छा या सिल्क का कुरता पहने बनारसी रईस भी इन गलियों में छाता लगाए चलते हैं। शायद आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस गली में सूर्य की रोशनी नहीं पहुंचती, बरसात का मौसम नहीं है, फिर भी लोग वहां छाता लगाकर क्यों चलते हैं? कारण है - गंदगी।
मान लीजिए आप बाजार से लौट रहे हैं, अचानक ऊपर से कूड़े की बरसात हो गई। यह बात अच्छी तरह जान लीजिए-बनारसी तीन मंजिले या चार मंजिले पर से बिना नीचे झांके थूक सकता है, पानी फेंक सकता है और कूड़ा गिरा सकता है। दुकान झाड़ बटोरकर आपके चेहरे पर सारा गर्द फेंक सकता है। यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, नीचे इस सत्कार्य से घायल व्यक्ति जब गालियां देता है तब सुनकर भाई लोग प्रसन्न हो उठते हैं। उनका रोम-रोम गाली देनेवाले को साधुवाद देगा। अगर कहीं वे सज्जन चुपचाप चले गए तो इसका उन्हें अपार दुख होगा और उस दुख को मिटाने के लिए मुख से अनायास ही निकल जाएगा- ‘मुर्दार निकसल!’
किसी-किसी गली में बनारसी रईसों का पनाला इस अदा से चूता है कि फुहारे का मजा आ जाता है। गर्मी के दिनों में रात को ऐसी गलियों से गुजरना और खतरनाक होता है। सोते समय ‘शंका समाधान’ के लिए बनारसी अपने को अधिक कष्ट नहीं देगा। परिणाम स्वरुप छत के पनाले से आप पर ‘शुद्ध गंगाजल’ बरस सकता है। गुस्सा उतारने के लिए ऐसे घरों में आप घुसने की हिम्मत नहीं कर सकते। एक तो बाहर का भारी दरवाजा बंद है, दूसरे भीतर जाने पर भी यह पता चलना मुश्किल है कि यह सत्कार्य किसने किया है। मुंह आपका है, गालियां बक लीजिए और राह लीजिए, बस! खासकर नंगे पैर चलना तो और भी मुश्किल है। घर के बच्चे ‘ दीर्घशंका’ गलियों में रात को कर देते हैं।
अगर इन गलियों में भगवान शंकर के किसी मस्ताने वाहन से भेंट हो गई अर्थात उसने नाराज होकर आपको हुरपेटा तो जान बचाकर भागना मुश्किल हो जाएगा। खासकर उन गलियों में जो आगे बंद मिलती है। क्योंकि आप पीछे भाग नहीं सकते, आगे रास्ता बंद है, बगल के सभी मकानों में भीतर से भारी सांकल लगी है और इधर सांड महाराज हुरपेटे आ रहे हैं! साल में दो एक व्यक्ति इन सांडों के कारण काशी-लाभ करते हैं। लगे हाथ एक उदाहरण सुन लीजिए। लिंकन के बाद जनरल ग्रांट अमेरिका के राष्ट्रपति हुए थे। एक बार जब वे हिंदुस्तान में दौरे पर आए तब बनारस भी आए थे। उन्होंने इस शहर को ‘एक सिटी ऑफ लेंस’ अर्थात गलियों का शहर कहा है। कहा जाता है कि उनकी पत्नी को शंकर भगवान के वाहन ने अपने सींग पर उठा लिया था।
बहरहाल,
“काशी कबहुँ न छोड़िये, विश्वनाथ को धाम,
मरने पर गंगा मिले, जियते लंगड़ा आम !!”