अखिल भारतीय न्यायिक सेवा ही क्यों, अखिल भारतीय राजनीतिक सेवा के लिए भी तो परीक्षा हो सकती है, अपराधियों का राजनीतिकरण तो नहीं होगा

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू

रायसीना पर्वत शिखर (नई दिल्ली) : पिछले दिनों भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आयोजित संविधान दिवस समारोह में बोलते कही थी देश में एक अखिल भारतीय न्यायिक सेवा हो सकती है जो प्रतिभाशाली युवाओं का चयन कर सकती है और उनकी प्रतिभा को निचले स्तर से उच्च स्तर तक पोषित और बढ़ावा दे सकती है। राष्ट्रपति महोदया यह भी कही कि बेंच की सेवा करने की इच्छा रखने वालों को देश भर से चुना जा सकता है ताकि प्रतिभाओं का एक बड़ा समूह बनाया जा सके। ऐसी प्रणाली कम प्रतिनिधित्व वाले सामाजिक समूहों को भी अवसर प्रदान कर सकती है। बहुत बेहतर विचार है सम्मानित राष्ट्रपति महोदया का।

संविधान के अनुच्छेद 312 में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) की स्थापना का प्रावधान है, जिसमें जिला न्यायाधीश से कमतर कोई पद शामिल नहीं होगा। संवैधानिक प्रावधान जिला न्यायाधीश स्तर पर AIJS के निर्माण को सक्षम बनाता है। सरकार के विचार में, समग्र न्याय वितरण प्रणाली को मजबूत करने के लिए एक उचित रूप से तैयार अखिल भारतीय न्यायिक सेवा महत्वपूर्ण है। यह एक उचित अखिल भारतीय योग्यता चयन प्रणाली के माध्यम से चयनित उपयुक्त रूप से योग्य नई कानूनी प्रतिभाओं को शामिल करने का अवसर प्रदान करेगा और साथ ही समाज के हाशिए पर पड़े और वंचित वर्गों को उपयुक्त प्रतिनिधित्व प्रदान करके सामाजिक समावेशन के मुद्दे को संबोधित करेगा।

राष्ट्रपति ने कहा कि आज हम संविधान में निहित मूल्यों का जश्न मनाते हैं और राष्ट्र के दैनिक जीवन में उन्हें बनाए रखने के लिए खुद को फिर से समर्पित करते हैं। न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्य वे सिद्धांत हैं जिन पर हम एक राष्ट्र के रूप में खुद को संचालित करने के लिए सहमत हुए हैं। इन मूल्यों ने हमें स्वतंत्रता हासिल करने में मदद की। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इनका प्रस्तावना में विशेष उल्लेख है और ये हमारे राष्ट्र निर्माण प्रयासों का मार्गदर्शन करना जारी रखते हैं। उनका कहना था कि न्याय का उद्देश्य सबसे बेहतर तरीके से तभी पूरा हो सकता है जब इसे सभी के लिए सुलभ बनाया जाए। इससे समानता भी मजबूत होती है। हमें खुद से पूछना चाहिए कि क्या हर नागरिक न्याय पाने की स्थिति में है। आत्मनिरीक्षण करने पर हमें पता चलता है कि इस राह में कई बाधाएं हैं। लागत सबसे महत्वपूर्ण कारक है। भाषा जैसी अन्य बाधाएं भी हैं, जो अधिकांश नागरिकों की समझ से परे हैं।

राष्ट्रपति ने कहा कि बेंच और बार में भारत की अनूठी विविधता का अधिक विविध प्रतिनिधित्व निश्चित रूप से न्याय के उद्देश्य को बेहतर ढंग से पूरा करने में मदद करता है। इस विविधीकरण प्रक्रिया को तेज करने का एक तरीका एक ऐसी प्रणाली का निर्माण हो सकता है जिसमें न्यायाधीशों को योग्यता आधारित, प्रतिस्पर्धी और पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से विभिन्न पृष्ठभूमि से भर्ती किया जा सके। एक अखिल भारतीय न्यायिक सेवा हो सकती है जो प्रतिभाशाली युवाओं का चयन कर सकती है और उनकी प्रतिभा को निचले स्तर से उच्च स्तर तक पोषित और बढ़ावा दे सकती है। बेंच की सेवा करने की इच्छा रखने वालों को देश भर से चुना जा सकता है ताकि प्रतिभाओं का एक बड़ा समूह बनाया जा सके। ऐसी प्रणाली कम प्रतिनिधित्व वाले सामाजिक समूहों को भी अवसर प्रदान कर सकती है।

राष्ट्रपति ने कहा कि न्याय तक पहुँच को बेहतर बनाने के लिए हमें समग्र प्रणाली को नागरिक-केंद्रित बनाने का प्रयास करना चाहिए। हमारी प्रणालियाँ समय की देन हैं; अधिक सटीक रूप से कहें तो उपनिवेशवाद की देन हैं। इसके अवशेषों को मिटाने का काम जारी है। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि हम अधिक सचेत प्रयासों से सभी क्षेत्रों में उपनिवेशवाद के उन्मूलन के शेष भाग को गति दे सकते हैं। राष्ट्रपति ने कहा कि संविधान दिवस मनाते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि संविधान आखिरकार एक लिखित दस्तावेज ही है। यह तभी जीवंत होता है और जीवंत बना रहता है जब इसकी विषय-वस्तु को व्यवहार में लाया जाता है। इसके लिए व्याख्या की आवश्यकता होती है। उन्होंने हमारे संस्थापक दस्तावेज की अंतिम व्याख्याकार की भूमिका को बखूबी निभाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की सराहना की। उन्होंने कहा कि इस न्यायालय के न्यायाधीशों ने न्यायशास्त्र के मानकों को लगातार ऊंचा उठाया है। उनकी कानूनी सूझबूझ और विद्वता सर्वोत्कृष्ट रही है। हमारे संविधान की तरह हमारा सर्वोच्च न्यायालय भी कई अन्य देशों के लिए आदर्श रहा है। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि एक जीवंत न्यायपालिका के साथ, हमारे लोकतंत्र का स्वास्थ्य कभी भी चिंता का विषय नहीं होगा।

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू और उप-राष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ अपनी पत्नी के साथ

अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) के गठन के लिए एक व्यापक प्रस्ताव तैयार किया गया था और नवंबर, 2012 में सचिवों की समिति द्वारा इसे मंजूरी दी गई थी। देश में कुछ बेहतरीन प्रतिभाओं को आकर्षित करने के अलावा, यह न्यायपालिका में हाशिए के वर्गों और महिलाओं से सक्षम व्यक्तियों को शामिल करने में भी मदद कर सकता है। अप्रैल, 2013 में आयोजित मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में इस प्रस्ताव को एजेंडा आइटम के रूप में शामिल किया गया था और यह निर्णय लिया गया था कि इस मुद्दे पर आगे विचार-विमर्श और विचार-विमर्श की आवश्यकता है।​ प्रस्ताव पर राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों की राय मांगी गई थी। अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन पर राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों के बीच मतभेद था। जहाँ कुछ राज्य सरकारें और उच्च न्यायालय प्रस्ताव के पक्ष में थे, वहीं कुछ अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन के पक्ष में नहीं थे, जबकि कुछ अन्य केंद्र सरकार द्वारा तैयार किए गए प्रस्ताव में बदलाव चाहते थे।

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जिला न्यायाधीशों के पदों पर भर्ती में सहायता करने तथा सभी स्तरों पर न्यायाधीशों/न्यायिक अधिकारियों की चयन प्रक्रिया की समीक्षा के लिए न्यायिक सेवा आयोग के गठन का मामला भी 3 और 4 अप्रैल, 2015 को आयोजित मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन के एजेंडे में शामिल किया गया था, जिसमें यह संकल्प लिया गया था कि जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए रिक्तियों को शीघ्रता से भरने के लिए मौजूदा प्रणाली के भीतर उपयुक्त तरीके विकसित करने के लिए संबंधित उच्च न्यायालयों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाए । उच्च न्यायालयों तथा राज्य सरकारों से प्राप्त विचारों के साथ अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन का प्रस्ताव भी 5 अप्रैल, 2015 को आयोजित मुख्यमंत्रियों तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन के एजेंडे में शामिल किया गया था ।

अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना के प्रस्ताव पर 16 जनवरी 2017 को विधि एवं न्याय मंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में पात्रता, आयु, चयन मानदंड, योग्यता, आरक्षण आदि बिंदुओं पर फिर से चर्चा की गई। इस बैठक में विधि एवं न्याय राज्य मंत्री, भारत के अटॉर्नी जनरल, भारत के सॉलिसिटर जनरल, न्याय विभाग, विधिक मामलों के विभाग और विधायी विभाग के सचिव उपस्थित थे। मार्च, 2017 में संसदीय परामर्शदात्री समिति और 22.02.2021 को अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी संसदीय समिति की बैठक में भी एआईजेएस की स्थापना पर विचार-विमर्श किया गया। प्रमुख हितधारकों के बीच मौजूदा मतभेद को देखते हुए, वर्तमान में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना के प्रस्ताव पर कोई आम सहमति नहीं है।

क्या ऐसे विचार राजनीतिक क्षेत्र में लागू नहीं हो सकता है। पंचायत से संसद तक चुनाव पद्धति को समाप्त कर एक राज्यीय-राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा का आयोजन किया जा सकता है? पंचायत से लेकर विधान सभा, विधान परिषद के रास्ते लोकसभा और राज्यसभा में अपना स्थान प्राप्त करने के लिए अभ्यर्थियों को परीक्षा में बैठना और उत्तीर्ण करना आवश्यक और बाध्यकारी नहीं बनाया जा सकता ? जब भारत का निर्वाचन आयोग पर ही समय-समय पर ‘उंगलियां उठती’ रही है। राज्यपालों या राष्ट्रपति की नियुक्ति राष्ट्रीय मेधावी परीक्षा के आधार पर नहीं हो सकता है? अगर ऐसा होता है तो पंचायत से लेकर विधानसभा, विधान परिषद्, लोकसभा और राज्यसभा में सदस्यों की गुणवत्ता तो बढ़ेगी ही, इन संवैधानिक सभाओं में शिक्षित, विचारवान, संवेदनशील व्यक्तियों का जमघट होगा। इससे राष्ट्र का कल्याण तो होगा ही, समाज के प्रत्येक स्तर पर गुणवत्ता का स्तर भी बढ़ेगा।

चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार, लोकसभा चुनाव 2024 में 8,337 उम्मीदवारों में से 20 प्रतिशत ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। लगभग 14 प्रतिशत ने गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं जिनमें बलात्कार, हत्या, हत्या के प्रयास और महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित आरोप शामिल हैं। एडीआर ने इन आम चुनावों में 8,360 उम्मीदवारों में से 8,337 के स्व-शपथ पत्रों का विश्लेषण किया। इनमें से 1,333 उम्मीदवार राष्ट्रीय पार्टियों से, 532 उम्मीदवार राज्य पार्टियों से, 2,580 उम्मीदवार पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियों से और 3,915 उम्मीदवार स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ रहे हैं। एडीआर द्वारा विश्लेषण किए गए लोकसभा चुनाव 2024 में 8,337 उम्मीदवारों में से 1,643 (20 प्रतिशत) ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं।

एडीआर के अनुसार, लोकसभा चुनाव 2024 में चुनाव लड़ने वाले लगभग 1,191 (14 प्रतिशत) उम्मीदवारों ने गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जिनमें बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध आदि से संबंधित आरोप शामिल हैं। पार्टियों में भारतीय जनता पार्टी के 440 उम्मीदवारों में से 191 (43 प्रतिशत), कांग्रेस के 327 उम्मीदवारों में से 143 (44 प्रतिशत), बसपा के 487 उम्मीदवारों में से 63 (13 प्रतिशत), बसपा के 487 उम्मीदवारों में से 33 (63 प्रतिशत) एडीआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि सीपीआई (एम) द्वारा मैदान में उतारे गए 52 उम्मीदवारों और 3,903 निर्दलीय उम्मीदवारों में से 550 (14 प्रतिशत) ने अपने हलफनामों में अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं।

यह तो लोकसभा की बात हुई। एडीआर के अनुसार भारत भर में राज्य विधानसभाओं में लगभग 44 प्रतिशत विधायकों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। विश्लेषण में देश भर में राज्य विधानसभाओं और केंद्र शासित प्रदेशों में वर्तमान विधायकों के स्व-शपथ पत्रों की जांच की गई। यह डेटा विधायकों द्वारा उनके हालिया चुनाव लड़ने से पहले दायर किए गए हलफनामों से निकाला गया था। विश्लेषण में 28 राज्य विधानसभाओं और दो केंद्र शासित प्रदेशों में सेवारत 4,033 व्यक्तियों में से कुल 4,001 विधायकों को शामिल किया गया। एडीआर ने कहा कि विश्लेषण किए गए विधायकों में से 1,136 या लगभग 28 प्रतिशत ने अपने खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जिनमें हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित आरोप शामिल हैं।

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भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू संसद की ओर

इतना ही नहीं, रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2016-17 और 2021-22 के बीच 10,122.03 करोड़ रुपये के दान की घोषणा की, इसके बाद कांग्रेस (1,547.43 करोड़ रुपये) और तृणमूल कांग्रेस (823.30 करोड़ रुपये) का स्थान रहा। इसमें कहा गया है कि भाजपा द्वारा घोषित कुल चंदा अन्य सभी राष्ट्रीय दलों द्वारा घोषित कुल चंदे से तीन गुना से अधिक है। 4,614.53 करोड़ रुपये का दान, कुल का लगभग 28 प्रतिशत, कॉर्पोरेट क्षेत्र से प्राप्त हुआ और 2,634.74 करोड़ रुपये (16.03 प्रतिशत) अन्य स्रोतों से प्राप्त हुआ। एडीआर ने कहा कि 80 प्रतिशत से अधिक दान, लगभग 13,190.68 करोड़ रुपये, राष्ट्रीय दलों को और 3,246.95 करोड़ रुपये (19.75 प्रतिशत) क्षेत्रीय दलों को प्राप्त हुए।

काश !!! राष्ट्रपति महोदया कभी देश में विधायकों और सांसदों पर ‘उनके विधानपालिका और संसदीय क्षेत्रों के विकास के नाम पर होने वाले खर्चों की तुलना उक्त क्षेत्रों में हुए विकासों से करती। लेकिन ऐसा नहीं होता। सरकारी आंकड़ों को यह जोड़-घटाव-गुणा करते हैं तो सं 2011-12 से लेकर आज तक देश के 4123 विधायकों और लोक सभा के 543 तथा राज्य सभा के 245 सांसदों को उनके कोष में 256100 करोड़ रुपयों का आवंटन किया गया है। राशियां पानी की तरह बहाया भी गया है। लेकिन शायद विकास का कार्य भी उसी पानी में बह गया। अगर ऐसा नहीं है तो आज भारत के विभिन्न राज्यों के सम्मानित विधायक और विभिन्न रेयान तथा केंद्र शासित प्रदेशों से दिल्ली में लोकसभा और राज्यसभा में बैठने वाले सांसद इतने अमीर कैसे होते? आज सैकड़ों विधायक और सांसद ऐसे हैं जिनके विरुद्ध भारत के विभिन्न न्यायालयों में मुकदमें चल रहे हैं, लंबित हैं।

लोक सभा के 543 और राज्य सभा के 245 सांसदों के अलावे देश से २८ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुछ 4123 विधायक हैं। मसलन: आंध्र प्रदेश – 175, अरुणाचल प्रदेश – 60, असम – 126, बिहार – 243, छत्तीसगढ़ – 90, दिल्ली – 70, गोवा – 40, केरल – 140, मध्यप्रदेश – 288, मणिपुर – 60, मेघालय – 60, मिजोरम – 40, नागालैंड – 60, ओडिशा – 147, पुडुचेरी – 30, त्रिपुरा – 60, उत्तर प्रदेश – 403, उत्तराखंड – 70, पश्चिम बंगाल – 294, गुजरात – 182, हरयाणा – 90, हिमाचल प्रदेश – 68, जम्मू और कश्मीर – 90, झारखण्ड – 81, कर्नाटक – 224, पंजाब – 117, राजस्थान – 200, सिक्किम – 32, तमिल नाडु – 234, तेलंगाना – 119 – आंकड़ों के अनुसार राज्यों के विधायकों को उनके विधानपालिका क्षेत्र के विकास हेतु प्रत्येक वर्ष 3 करोड़ रुपये (3 करोड़ x 5 वर्ष = 15 करोड़) और सांसदों को 5 करोड़ प्रतिवर्ष (5 करोड़/वर्ष x 5 वर्ष = 25 करोड़) दिए जाते हैं। जिससे वे अपने क्षेत्र का विकास कर सकें। लेकिन आज जो स्थिति हैं वह सर्वविदित हैं।

वापस संविधान की बात करते हैं। आज़ादी के बाद और खासकर भारत का संविधान देश में लागू होने के बाद विगत 74 वर्षों में अब तक 103 संशोधन किये गए हैं संविधान में और इसके लिए 124 संविधान संशोधन विधेयक पारित किये गए।28 मार्च 1989 संविधान के 61 वें संशोधन कर मताधिकार के लिए उम्र 21 से घटाकर 18 किया गया, क्या जिस उद्देश्य से यह किया गया था, उस उद्येश्य को प्राप्त कर सका? 12 दिसंबर, 2002 को संविधान के 86 संसोधन के द्वारा चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा का अधिकार प्रदान किया गया। एएसईआर के एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 3-16 वर्ष की आयु के 50 से अधिक फीसदी बच्चे पढ़-लिक नहीं सकते। इतना ही नहीं 5 वर्ष से 16 वर्ष की आयु वाले बच्चों को गणितीय ज्ञान नहीं है। आकंड़ा तो यह भी कहता है की देश में 2021 तक 287 मिलियन भारतीय पढ़-लिख नहीं सकते।

आज तो कुछ और हो रहा है। विद्यालय के किताबों से संविधान का प्रस्तावना ही हटा दिया गया है। एनसीईआरटी की किताबों से संविधान की प्रस्तावना को हटा दिया गया है। छोटी क्लास से ही बच्चे संविधान और देश को मिली आजादी का महत्व इस प्रस्तावना के जरिए जानना शुरू करते हैं लेकिन ठीक उसी वर्ग को अब संविधान की प्रस्तावना पढ़ने से रोक दिया गया है। अब यह प्यारा शब्द …हम भारत के लोग… छोटी क्लास के बच्चे नहीं पढ़ सकेंगे। इस साल, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने कक्षा 3 और कक्षा 6 की कई पाठ्यपुस्तकों से संविधान की प्रस्तावना को हटा दिया है। प्रस्तावना की जगह भाषा और पर्यावरण अध्ययन (ईवीएस) जैसे विषय पढ़ाए जा रहे हैं। प्रस्तावना पहले दोनों ग्रेडों की पुस्तकों के पहले पन्नों में छपती थी। प्रस्तावना कक्षा III की सभी पाठ्यपुस्तकों में नहीं है, हालाँकि यह कक्षा VI की केवल दो पुस्तकों में शामिल है: हिंदी पुस्तक मल्हार और विज्ञान पुस्तक क्यूरियोसिटी। हाल ही में लागू राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा को ध्यान में रखते हुए इस वर्ष कक्षा III और VI के लिए नई पाठ्यपुस्तकें जारी की गई हैं।

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एनसीईआरटी के पाठ्यचर्या अध्ययन और विकास विभाग की प्रमुख प्रोफेसर रंजना अरोड़ा के अनुसार, इस दावे का समर्थन करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है कि प्रस्तावना को एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया गया। प्रस्तावना, मौलिक कर्तव्य, मौलिक अधिकार और राष्ट्रगान भारतीय संविधान के उन पहलुओं में से हैं जिन पर एनसीईआरटी अब पहली बार उच्च प्राथमिकता दे रहा है। यह समझ कि केवल प्रस्तावना ही संविधान और संवैधानिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करती है, त्रुटिपूर्ण और संकीर्ण सोच है। बच्चों को प्रस्तावना के साथ-साथ मौलिक कर्तव्यों, मौलिक अधिकारों और राष्ट्रगान से संवैधानिक मूल्य क्यों नहीं प्राप्त होने चाहिए? हम समग्र विकास के लिए इन सभी को समान महत्व देते हैं।” एनसीईआरटी और अन्य स्कूल बोर्डों ने तो महात्मा गांधी, भगत सिंह, अंबेडकर से जुड़े कई चैप्टर पिछले साल ही हटा दिए थे। मुगलों से जुड़े इतिहास के कई चैप्टर तमाम किताबों से हटा दिए गए हैं। अकबर को महान बताने वाले चैप्टर हटाए जा चुके हैं। यह सब एक साजिश के तहत हो रहा है। देश की आजादी से जुड़ा दक्षिणपंथियों का कोई इतिहास नहीं है, इसलिए यह सारी छटपटाहट दिखती है। जिनकी भूमिका आजादी की लड़ाई में रही है, वे उनका नामोनिशान मिटाने पर तुल गए हैं।

फिर वापस न्यायपालिका के तरफ चलते हैं। कभी सोचे हैं कि भारत में तक़रीबन 1,99,404.76 लोगों पर एक अदालत है। अदालतों में हम जिला अदालत से लेकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक मानते हैं। भारत में कुल 25 उच्च न्यायालय हैं और कुछ केंद्र शासित प्रदेशों का न्यायिक भार एक से अधिक उच्च न्यायालयों पर है। देश में तक़रीबन 672 जिला न्यायालय हैं और एक सर्वोच्च न्यायालय। यानी 698 न्यायालय। देश की आवादी अगर हम 134 करोड़ माने तो इस संख्या के आधार पर और देश में उपलब्ध न्यायालयों की संख्या के आधार पर देश के कुल 199404.76 लोगों को न्यायिक न्याय दिलाने का भार एक न्यायालय पर है। देश में तक़रीबन 14 लाख ‘निबंधित’ सम्मानित अधिवक्तागण हैं। आज दिल्ली में जिस कदर न्यायालय ‘सुरक्षा कवच’ के अधीन है, अथवा कुछ ख़ास प्रदेश के मुख्यालयों में स्थित न्यायालयों को जो ‘सुरक्षा-कवच’ के अधीन रखा गया हैं; को छोड़कर देश के अन्य न्यायालयों में उपलब्ध सुरक्षा व्यवस्था – एक शोध का विषय है, आप माने अथवा नहीं।

विगत दिनों रामप्रसाद बिस्मिल, अस्फाकुल्लाह खान, रोशन सिंह, प्रेम कृष्णा खन्ना, बनवारी लाल, हरगोविंद, इंद्रभूषण, जगदीश, बनारसी इत्यादि जैसे क्रांतिकारियों, जिन्होंने मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए कुछ भी कर गुजरने को सज्ज थे, किये; उनके ही शहर शाहजहांपुर में एक 57-वर्षीय अधिवक्ता को ‘भूमि विवाद’ में अदालत के प्रांगण में ढ़िशूम-ढ़िशूम कर दिया गया। अधिवक्ता मृत्यु को प्राप्त किये। मोहनदास करमचंद गाँधी के चम्पारण में, जहाँ से गाँधी भारत की आज़ादी और अंग्रेजी अफसरानों के अत्याचार के खिलाफ अपना आंदोलन प्रारम्भ किये थे, कुछ अपराधी किस्म के लोग अदालत परिसर में ही एक कर्मचारी को ठांय-ठांय कर मृत्यु को प्राप्त करा दिए। इसी तरह पंजाब के सोलान के एक अदालत में एक कैदी को, जब उसे एक मुकदमें की सुनवाई के लिए अदालत में पेश किया जा रहा था, ढ़िशूम-ढ़िशूम कर दिया और वह वहीँ अंतिम सांस लिया।आपको याद भी होगा कि विगत दिनों दिल्ली के रोहिणी अदालत में दो दिल्ली पुलिसकर्मी सहित एक अधिवक्ता पर बेतहाशा गोलियों की बारिश की गयी। तीन व्यक्ति वहीँ मृत्यु को प्राप्त किये। तीन महिला विधवा हो गई। तीनों के बच्चे अनाथ हो गए। जब घटना घटी, सम्मानित न्यायमूर्ति अदालत में उपस्थित थे।

भारत सरकार के एक आंकड़े के अनुसार इस वर्ष के मई महीने तक भारत के विभिन्न अदालतों में – सर्वोच्च न्यायालय से जिला न्यायालयों तक – कुल चार करोड़ सात लाख मुकदमें लाल रंग के वस्त्रों में बंधे हैं। इसमें तक़रीबन 87.4 फीसदी सबॉर्डिनेट कोर्ट्स में लंबित हैं। करीब 12.4 फीसदी उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। इसी तरह कुल 71,411 मुकदमें देश के सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मुकदमों में कुल 56,365 सीविल मुकदमें हैं और 15,076 आपराधिक मुकदमें लंबित हैं। इतना ही नहीं, करीब 10,491 लंबित मुकदमें ‘डिस्पोजल’ के लिए दशकों के पड़े हैं। इसी तरह देश के सभी 25 उच्च न्यायालयों में कुल 59,55,907 मुकदमें, जिसमें 42,99,954 सिविल मुकदमे हैं और 16,55,953 आपराधिक मुकदमे हैं। कई मुकदमे ऐसे हैं जिसमें “आदेश” नहीं लिखा गया है और “लंबित” हैं। न्यायिक व्यवस्था से जब भी आवाज उठती है सरकार अपना पल्लू झाड़ने की कोशिश करती है। लेकिन कभी किसी भी न्यायालयों से सम्बंधित कार्यकारिणी के सम्मानित लोग, निजी तौर पर देश की न्यायिक व्यवस्था को किस कदर वादी-प्रतिवादी के बीच ‘फ्रेंडली’ बनाया जाय, अपने-अपने कक्षों से बाहर निकलकर देश के न्यायालयों में आये, शायद नहीं। वैसी स्थिति में आखिर सम्मानित न्यायमूर्ति, सम्मानित न्यायाधीश, सम्मानित अधिवक्तागण क्या कर सकते हैं ?

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