नाम बदलने की प्रक्रिया ‘कर्तव्य पथ’ के रास्ते रायसीना पहाड़ी के ‘दरबार हॉल’, ‘अशोक हॉल’ तक पहुंचा, अब क्रमशः ‘गणतंत्र मंडप’ और ‘अशोक मंडप’ के नाम से जाना जायेगा

रायसीना पहाड़ से (नई दिल्ली) : नाम बदलने की प्रक्रिया ‘कर्तव्य पथ’ के रास्ते रायसीना पहाड़ी के दरबार हॉल, अशोक हॉल तक पहुंचा। स्वतंत्र भारत के 15 वें राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति कार्यालय में अपने दो साल पुरे होने के अवसर पर दो ऐतिहासिक फैसले लीं –  ‘दरबार हॉल’ और ‘अशोक हॉल’ का नाम बदलकर क्रमशः ‘गणतंत्र मंडप’ और ‘अशोक मंडप’ कर दीं । राष्ट्रपति भवन, भारत के राष्ट्रपति का कार्यालय एवं निवास है, राष्ट्र का प्रतीक और लोगों की एक अमूल्य विरासत है। कहते हैं कि इसे लोगों के लिए और अधिक सुलभ बनाने हेतु लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। राष्ट्रपति भवन के वातावरण को भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों एवं लोकाचार के अनुरूप बनाने की दिशा में लगातार प्रयास किए गए हैं।

सत्ता के गलियारों के लोगों का कहना है कि वैसे ‘दरबार हॉल’ राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान करने जैसे महत्वपूर्ण समारोहों एवं उत्सवों का स्थल है, परन्तु, ‘दरबार’ शब्द का आशय भारतीय शासकों व अंग्रेजों के दरबार एवं सभाओं से लगता था । जबकि भारत के गणतंत्र बनने के बाद इसकी प्रासंगिकता समाप्त हो गई। ‘गणतंत्र’ की अवधारणा प्राचीन काल से भारतीय समाज में गहराई से निहित है, इसलिए इस आयोजन स्थल के लिए ‘गणतंत्र मंडप’ एक उपयुक्त नाम है। जबकि ‘अशोक हॉल’ मूलतः एक बॉलरूम था। ‘अशोक’ शब्द का आशय एक ऐसे व्यक्ति से है जो “सभी कष्टों से मुक्त” या “किसी भी दुःख से रहित” हो। इसके अलावा, ‘अशोक’ का आशय एकता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के प्रतीक सम्राट अशोक से है। भारत गणराज्य का राष्ट्रीय प्रतीक सारनाथ के अशोक का सिंह शिखर है। यह शब्द अशोक वृक्ष को भी संदर्भित करता है जिसका भारतीय धार्मिक परंपराओं के साथ-साथ कला और संस्कृति में भी गहरा महत्व है। ‘अशोक हॉल’ का नाम बदलकर ‘अशोक मंडप’ करने से भाषा में एकरूपता आती है और ‘अशोक’ शब्द से जुड़े प्रमुख मूल्यों को बरकरार रखते हुए अंग्रेजीकरण के निशान मिट जाते हैं। 

ज्ञातव्य हो कि 12 दिसंबर को 1911 का दिल्ली दरबार किंग जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में आयोजित किया गया। दरबार में सबसे महत्त्वपूर्ण घोषणा जिसे लगभग एक लाख लोगों ने सुना, ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से बदलकर दिल्ली करना था। कलकत्ता को वाणिज्य केंद्र के रूप में जाना जाता था जबकि दूसरी ओर, दिल्ली शक्ति और शान का प्रतीक थी। घोषणा के पश्चात, शाही आवास की खोज अत्यावश्यक हो गई थी। उत्तर का किंग्जवे कैंप पहली पसंद थी। एक ब्रिटिश वास्तुकार सर एडविन लुट्येन्स को भारत की नई राजधानी की योजना बनाने के लिए चुना गया और वह दिल्ली नगर योजना समिति का भाग थे जिसका कार्य स्थल और उसके नक्शे का निर्माण करना था। सर लुट्येंस और उनके सहयोगी, जो स्वच्छता विशेषज्ञ थे, को उत्तरी क्षेत्र यमुना नदी के समीप होने के कारण बाढ़ के प्रति अधिक संवेदनशील लगा। इस प्रकार, दक्षिणी ओर की रायसीना पहाड़ी, जहां खुलादार और ऊंचा स्थान और बेहतर जल निकासी थी, वायसराय हाऊस के लिए उपयुक्त स्थान प्रतीत हुआ।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने सही कहा है, ‘‘इस पहाड़ी पर प्रासाद दृश्यावली का मुकुट लगती है। मीलों दूर से दिखने वाला यह प्रासाद क्षितिज पर एक ऐसे स्मारक की भांति स्थित है जो बिलकुल अलग प्रतीत होता है। यह इमारतों में एक कंचनजंघा है जिसे दिल्ली की गर्मी की धूल भरी धुंधलाहट तथा इसकी सर्दियों का कोहरा ढक देता है, अनावृत्त कर देता है और पुनः ढक देता है। एक आकर्षक ढांचा जो निकट भी और दूर भी लगता है, यह एकदम नजदीक प्रतीत होता है परंतु आवरण के पीछे छिप जाता है।’’

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अन्य भवनों के अलावे इस ऐतिहासिक राष्ट्रपति भवन का वास्तुकार सर एडविन लुटियंस थे जो 1912-29 में बनाया गया था। महलनुमा घर में चार पंख और एक केंद्रीय खंड है जो 180 फीट (55 मीटर) ऊंचे तांबे के गुंबद से ढका है। इकतीस चौड़ी सीढ़ियां पोर्टिको और दरबार हॉल के मुख्य प्रवेश द्वार की ओर जाती हैं। हॉल एक गोलाकार संगमरमर का प्रांगण है, जो लगभग 75 फीट (23 मीटर) चौड़ा है। इस भवन में 300 से अधिक कमरे, कार्यालय, रसोई, एक डाकघर और आंगन हैं। घर 600 फीट (183 मीटर) से अधिक लंबा है और 4.5 एकड़ (1.8 हेक्टेयर) क्षेत्र में फैला है।

इतिहासकार कहते हैं कि इसके निर्माण के समय चुने गए स्थान की चट्टानी पहाडि़यों को विस्फोट से तोड़ा गया तथा वायसराय के आवास और अन्य कार्यालयी भवनों के निर्माण के लिए भूमि समतल की गई। इस स्थान पर शिलाओं ने मजबूत नींव के रूप में अतिरिक्त फायदा पहुंचाया। निर्माण सामग्री के लाने ले जाने के लिए इमारतों के चारों ओर विशेष तौर पर एक रेलवे लाइन बिछाई गई। चूंकि नगर की योजना नदी से दूर बनाई गई थी और दक्षिण में कोई नदी नहीं बहती थी इसलिए पानी की सभी जरूरतों के लिए जमीन के भीतर से पम्प द्वारा पानी निकाला गया। इस क्षेत्र की अधिकतर भूमि जयपुर के महाराजा की थी। राष्ट्रपति भवन के अग्रप्रांगण में खड़ा जयपुर स्तंभ दिल्ली को नई राजधानी बनाने की स्मृति में जयपुर के महाराजा, सवाई माधो सिंह ने उपहार में दिया था। 

राष्ट्रपति भवन के निर्माण में सत्रह वर्ष से अधिक समय लगा। लॉर्ड हॉर्डिंग, तत्कालीन गवर्नर जनरल तथा वायसराय जिनके शासन काल में निर्माण कार्य आरंभ हुआ था, चाहते थे कि इमारत चार वर्ष में पूरी हो जाए। परंतु 1928 के शुरू में भी इमारत को अंतिम रूप देना असंभव था। तब तक प्रमुख बाहरी गुंबद बनना शुरू भी नहीं हुआ था। यह विलंब मुख्य रूप से प्रथम विश्व युद्ध के कारण हुआ था। अंतिम शिलान्यास भारत के वायसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन ने किया और वह 6 अप्रैल, 1929 को नवनिर्मित वायसराय हाउस के प्रथम आवासी बने। मुख्य भवन का निर्माण हारून-अल-रशीद ने किया जबकि अग्रप्रांगण को सुजान सिंह और उनके पुत्र शोभा सिंह ने बनाया। ऐसा अनुमान है कि इस महलनुमा इमारत के निर्माण में सात सौ मिलियन ईंटें और तीन मिलियन क्यूबिक फुट पत्थर लगा और तकरीबन तेईस हजार श्रमिकों ने काम किया। वायसराय हाऊस के निर्माण की अनुमानित लागत 14 मिलियन रुपए आई।

आखिरी पत्थर भारत के वाइसराय और गवर्नर-जनरल लॉर्ड इरविन, और 6 अप्रैल, 1 9 2 9 को नवनिर्मित वाइसराय हाउस के पहले अधिवासर द्वारा रखे गए थे। मुख्य भवन हरान-अल-रशीद ने बनाया था, जबकि फोरकोर्ट द्वारा किया गया था सुजन सिंह और उनके पुत्र सोभा सिंह यह अनुमान लगाया गया है कि सात सौ मिलियन ईंट और तीन लाख क्यूबिक फीट पत्थर इस विशाल संरचना के निर्माण के लिए चले गए थे जिसमें करीब 21 हजार मजदूर काम कर रहे थे। वाइसराय हाउस के निर्माण की अनुमानित लागत रू। 14 मिलियन लगा। सर एडविन लुट्येंस का मानना था, ‘‘वास्तुशिल्प अन्य किसी कला से कहीं अधिक प्राधिकारी की बौद्धिक प्रगति को प्रस्तुत करता है।’’ लुट्येंस इस भवन के वास्तुशिल्प और अभिकल्पना के बारे में बहुत संजीदा थे तथा प्राचीन यूरोपीय शैली को पसंद करते थे। एच आकार का भवन एक भव्य शैली में विस्तृत भौगोलिक भिन्नताओं को दर्शाता है।

इसके बावजूद, इस वास्तुशिल्पीय डिजायन में भारतीय वास्तुशिल्प की अनेक विशेषताएं समाहित की गई हैं। उदाहरण के रूप में, गुंबद सांची के स्तूप से प्रेरित था; छज्जे, छतरी और जाली तथा हाथी, कोबरा, मंदिर के घण्टे आदि जैसे नमूनों पर भारतीय छाप है। इस परियोजना में उनके सहयोगी हरबर्ट बेकर थे जिन्होंने नॉर्थ ब्लॉक और साऊथ ब्लॉक का निर्माण किया था। लुट्येंस और बेकर ने दिल्ली के बहुत सारे डिजायन बनाए जिनमें से अधिकांश को राष्ट्रपति भवन संग्रहालय में संरक्षित और प्रदर्शित किया गया है।

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स्वतंत्र भारत के इतिहास से भी इन दोनों कक्षों का गहरा नाता है। दरबार हॉल में जहां 15 अगस्त 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी, तो अशोक हॉल में बाद के ज्यादातर प्रधानमंत्रियों ने।मौजूदा दौर में दरबार हॉल का इस्तेमाल राजकीय, नागरिक और सैन्य अलंकरणों को प्रदान करने के लिए मोटे तौर पर होता है, तो अशोक हॉल में विदेशी मिशनों के प्रमुख अपना पहचान पत्र पेश करते हैं।  दरबार हॉल आज से गणतंत्र मंडप के तौर पर जाना जाएगा तो अशोका हॉल को अब अशोक मंडप के तौर पर पुकारा जायेगा। जिस कक्ष में स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री ने शपथ ली हो, वो आजादी के सात दशक बाद तक दरबार हॉल के तौर पर ही क्यों पुकारा जाता रहा, ये बड़ा सवाल है। ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि के तौर पर यहां वायसराय अपना दरबार लगा सकता था, इसलिए इसे दरबार हॉल कहा गया था।  

स्वतंत्र भारत में, जब 26 जनवरी 1950 से भारत औपचारिक तौर पर गणतंत्र बन गया हो, तब भी ये दरबार हॉल ही कहा जाता रहा, किसी का इस तरफ ध्यान नहीं गया। ये सिर्फ लापरवाही की वजह से हुआ या फिर ये हमारी उस मानसिकता का प्रतीक रहा, जिसमें सर्वश्रेष्ठ हमेशा अंग्रेज या उनके दिये हुए नामों को माना जाता रहा, कहना मुश्किल है। अच्छी बात ये है कि द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति के तौर पर दो साल पूरे करने का अवसर इस जरूरी बदलाव का विचार आया।  

राष्ट्रपति दौपदी मुर्मू को आज दो साल हो गये। इस अवसर पर उन्होंने राष्ट्रति भवन के दो महत्वपूर्ण कक्षों के नाम बदल दिए।  आम तौर पर राष्ट्रपति भवन की जब चर्चा होती है, तो दरबार हॉल और अशोक हॉल की ही चर्चा सबसे अधिक होती है। आखिर ये दोनों हॉल ही इसके दो सबसे खूबसूरत, भव्य कक्ष हैं। अशोक हॉल को तो अपनी भव्यता के कारण ही लार्ज जुइल बॉक्स के तौर पर भी जाना जाता है मुर्मू ने अपने समय में राष्ट्रपति भवन की लाइब्रेरी पर भी खास ध्यान दिया है, जिस लाइब्रेरी को अब सरस्वती के नाम से जाना जाता है। इस लाइब्रेरी में भारतीय मूल्यों और संकेतों की झलक रही है, डिजाइन के वक्त इसकी फर्श पर जहां स्वास्तिक संगमरमर से बनाया गया, तो उस दीवाल पर विघ्नहर्ता गणेश विराजमान किये गये, जिसके नीचे लगी टेबल- कुर्सी का इस्तेमाल तमाम राष्ट्रपति लाइब्रेरी में आने पर करते रहे हैं। 

आजादी पूर्व अंग्रेजी शासन के दौरान वायसराय हाउस को ब्रिटिश अधिनायकवाद और सार्वभौमिक सत्ता के सबसे बड़े प्रतीक के तौर पर बनाया गया था, जिसमें सम्राट के प्रतिनिधि के तौर पर वायसराय का निवास था। इसलिए इसे वायसराय हाउस कहा जाता था। 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता हासिल होने के बाद इसे गवर्नमेंट हाउस कहा जाने लगा, जिसमें पहले भारतीय गवर्नर जनरल के तौर पर 21 जून 1948 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी यानी राजा जी का प्रवेश हुआ।भारतीय संविधान के लागू होने के बाद 26 जनवरी 1950 से ये राष्ट्रपति भवन के तौर पर जाना गया, राजेंद्र प्रसाद पहले राष्ट्रपति के तौर पर इसमें करीब सवा बारह वर्षों तक रहे। राजेंद्र बाबू के बाद एक के बाद एक तमाम राष्ट्रपतियों का निवास स्थल रहा। राजाजी के समय से ही देश के सर्वोच्च संवैधानिक आसन पर बैठने वाले सभी सोलह लोगों ने वायसराय के इस्तेमाल के लिए बने कमरों का कभी इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि उसे गेस्ट हाउस में तब्दील कर अपेक्षाकृत छोटे कमरों में निवास किया। द्रौपदी मुर्मू भी उसी परंपरा का पालन कर रही हैं। 

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राष्ट्रपति के पद पर रामनाथ कोविंद के रहते हुए ही ये शुरू हो गया था, जो मोदी शासनकाल में बने पहले राष्ट्रपति थे। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने शासन के सभी अंगों में भारतीय मूल्यों को बढ़ाने पर जोर दिया है, उसकी झलक अब राष्ट्रपति भवन में भी दिखाई दे रही है।  आजादी के बाद अगले सात दशकों तक राष्ट्रपति भवन के बाकी कक्षों और हिस्सों के नाम ज्यों के त्यों रहने दिये गये थे, जो ब्रिटिश काल में वायसराय की जरूरतों के हिसाब से थे, ब्रिटिश मूल्यों के हिसाब से थे। लेकिन मोदी काल में इसके भारतीयकरण की रफ्तार ने जोर पकड़ी. राष्ट्रपति के तौर पर रामनाथ कोविंद के रहते हुए कई नाम बदले गये, जो सिलसिला मौजूदा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के दौर में भी जारी हैं. दरबार हॉल का गणतंत्र मंडप होना और अशोक हॉल का अशोक मंडप होना इन्हीं निरंतर प्रयासों का नतीजा है।  

इन्हीं प्रयासों की वजह से राजकीय भोज के लिए उपयुक्त होने वाला बैंक्वेट हॉल अब ब्रह्मपुत्र के तौर पर जाना जाता है।विदेशी मेहमानों के सम्मान में यहां राष्ट्रपति की तरफ से भोज दिया जाता है। भोजन भी अब शाकाहारी ही होती है, शराब परोसना भी बंद कर दिया गया।  राष्ट्रपति मुर्मू जिस कक्ष में आगंतुकों से मिलती हैं, वो कक्ष अब साबरमती के तौर पर जाना जाता है। भारत की प्रमुख नदियों के नाम पर ही राष्ट्रपति भवन के ज्यादातर कक्षों को नया नाम दिया गया है। मसलन जिस लांग ड्राइंग रूम में राष्ट्रपति की तरफ से हर साल राज्यपालों और उपराज्यपालों के सम्मेलन की मेजबानी की जाती है, वो जगह अब तुंगभद्रा के तौर पर जानी जाती है। 

दरबार हॉल के बगल में मौजूद जिस नॉर्थ ड्राइंग रूम में मेहमान राष्ट्राध्यक्षों से राष्ट्रपति की मुलाकात होती है, उस कक्ष का नया नाम सरयू कर दिया गया है। सरयू के किनारे ही बसी है भगवान राम की अयोध्या, भारत की पवित्रतम नदियों में से एक के तौर पर सरयू की गिनती होती है। जिस मॉर्निग रूम में अमूमन राष्ट्रपति की रूटीन बैठकें होती हैं, उसे अब दक्षिण की मशहूर नदी कावेरी का नाम दिया गया है. यमुना, गोदावरी, महानदी और नर्मदा जैसी पवित्र नदियों पर भी कई महत्वपूर्ण कक्षों के नाम रखे गये हैं। कमेटी रूम का नया नाम यमुना है तो ग्रे डाइनिंग रूम का नया नाम है नर्मदा। इन सबका ही अलग-अलग प्रयोजनों पर इस्तेमाल करती है। 

राष्ट्रपति मुर्मू ने आज के दिन उस प्रणब मुखर्जी लाइब्रेरी को भी आम जनता के लिए खोल दिया, जिसका इस्तेमाल पहले सिर्फ राष्ट्रपति भवन से जुड़े हुए कर्मचारी और प्रेसिडेंट एस्टेट के अंदर रहने वाले लोग कर सकते थे। अब राष्ट्रपति भवन संग्रहालय को देखने के लिए आने वाला कोई भी व्यक्ति इस लाइब्रेरी में आकर राष्ट्रपति भवन से लेकर भारतीय संविधान की यात्रा और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में भी जानकारी हासिल कर सकता है। 
(सभी तस्वीरें राष्ट्रपति भवन पुरालेख से)

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