4 नवम्बर 1974 जेपी पर लाठी प्रहार: उस महिला को सभी भूल गए जिसने जेपी को बचाने के लिए अपने सर पर अश्रु गैस के गोले गिरने दी

वह ऐतिहासिक दिवस जयप्रकाश नारायण रघु रॉय और रीता सिंह

पटना / नई दिल्ली: सन 1974 और उसके बाद पटना की धरती पर जो अवतरित हुए होंगे, भले उनकी आयु आज 50 वर्ष की होगी, लेकिन जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति को किताबों में ही पढ़े होंगे। प्रदेश की वर्तमान आवादी का लगभग 30+ फीसदी उस ऐतिहासिक दृश्य को देखने, समझने से अछूता रह गया जहाँ भीड़ में खड़ा एक आम आदमी पटना की सड़कों से दिल्ली सल्तनत का तख़्त उखाड़ फेंका था। देश को ब्रितानिया हुकूमत से आज़ाद हुए महज 27 वर्ष हुए थे। दिल्ली के लाल किले पर 15 अगस्त, 1947 को राष्ट्रध्वज का झंडोत्तोलन हुआ था। लेकिन विगत 27 वर्षों में तत्कालीन सरकार, विशेषकर प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के आने के बाद, राष्ट्र के लोगों को आज़ाद भारत में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक सम्मान नहीं मिला सका था, जिसके वे हकदार थे और जिसके लिए आज़ादी के दौरान हज़ारों-लाखों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दिए थे। खैर। यह तो राजनीति की बात थी। सन 1974 के बाद उस आंदोलन से कुकुरमुत्तों की तरह जन्म लिए नेताओं ने लोगों को क्या दिए – वे भलीभांति जानते हैं। 

उस दिन 4 नवम्बर था सन 1974 साल का। मैं एक अखबार विक्रेता था। पटना के टी.के. घोष अकादमी में दसवीं कक्षा का छात्र था और माध्यमिक परीक्षा देकर परिणाम के इंतज़ार में था। सन सत्तावन का जंगे आज़ादी तो नहीं देखा था, लेकिन स्वतंत्र भारत में सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार को पदच्युत करने के लिए राजनेता कैसे लड़ाई करते हैं, पटना की सड़कों पर, चौराहों पर, विद्यालयों में, महाविद्यालयों में, विश्वविद्यालयों में, जिलों में, प्रखंडों में, थानों में, गली की नुक्कड़ों पर देख रहे थे। उन दिनों कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले में नेता जन्म ले रहे थे, लेकिन चेहरे की किल्लत थी। कोई ऐसा चेहरा नहीं था जो लोगों के दिल-और-दिमाग पर अपना आधिपत्य जमा सके । पटना विश्वविद्यालय के अतिरिक्त बिहार के अन्य विश्वविद्यालयों में, महाविद्यालयों में कुकुरमुत्तों की तरह छात्र नेता जन्म ले रहे थे। कइयों की मूंछ निकल रही थी तो कई इंकलाब-जिंदाबाद नारा के साथ जिला कारावास से पटना के केंद्रीय कारा में बंद हो रहे थे। 

@अखबारवाला001(209✍ #पद्मश्रीरघुराय: #फोटोग्राफी एक #दृष्टि है 👁 एक #साधना है जो स्वयं करना होता है

पटना से उन दिनों चार प्रमुख अखबार प्रकाशित होते थे। आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाइट और प्रदीप। समाचार पत्र के दफ्तरों में शासन और व्यवस्था की तरह, राजनीतिक पार्टियों की तरह, नेताओं की तरह ‘पत्रकार’ और उनकी पत्रकारिता’ भी बंटी हुई थी। जो कांग्रेसी हवाओं में सांस लेते थे, उनके शब्द सड़कों पर हो रहे आंदोलन, पथराव, जुलुस, लाठीप्रहार के पक्ष में होते थे। जो सत्ता में परिवर्तन के पक्षधर थे वे हिंदी भाषा के 54 और अंग्रेजी भाषा के 26 अक्षरों से नित्य नए-नए शब्दों का सृजन कर रहे थे। उन दिनों आज की तरह एफएम का तो नामोनिशान नहीं था। आकाश में वह भी अपने अस्तित्व के लिए युद्ध कर रहा था। आकाशवाणी सरकारी होने के कारण बहुत बातें उद्घोषित नहीं हो पाता था । संचार के प्रचार-प्रसार के लिए पटना से प्रकाशित (अपवाद छोड़कर जिला मुख्यालयों से प्रकाशित अख़बारों को छोड़कर) अखबार ही एक मात्र साधन था। शाम साढ़े सात बजे ‘ये आकशवाणी है, अब आप अनंत कुमार से प्रादेशिक समाचार सुनिए,’ के अलावे रात 8.45 बजे ‘ये आकशवाणी है, अब आप देवकी नंदन पांडे से समाचार सुनिए’ – के अलावे कोई दूसरा विकल्प नहीं था। 

इन्ही अवसरों का लाभ उठाया जाता था पटना से प्रकाशित अख़बारों के द्वारा जो ‘प्रातः संस्करण’ के अलावे विशेष घटना होने पर दो पन्ने का विशेष अखबार (बुलेटिन) निकाल देते थे ताकि पाठक स्थित से अवगत होते रहें । उन दिनों सूचना का अधिकार का जन्म नहीं हुआ था। एक अखबार विक्रेता के रूप में, खासकर जब घर में चूल्हे अपने निश्चित समय पर नहीं जल पाता था, चूल्हे भी टुकुर-टुकुर घर के सदस्यों को देखते रहता था की कोई उसकी ओर आ रहा है अथवा नहीं – उन अख़बारों को पटना की सड़कों पर बेचकर, दो पैसे कमाकर माँ को देता था ताकि चूल्हा भी खुश हो और घर के सदस्यों की उदर पूर्ति भी हो सके। वैसे आज की महंगाई की तुलना उन दिनों की महंगाई से कर भी नहीं सकते (अस्सी पैसे किलो आटा, पांच रुपये किलो करुआ तेल, दस पैसे किलो नमक, सो प्यासे किलो आलू,डेढ़ रुपये किलो अरहर/मसूर दाल) लेकिन नेता लोग कहते थे कि ‘बहुत मंहगाई’ है। कानून व्यवस्था खराब हो गई है। शिक्षा की स्थिति अच्छीं नहीं है। बहुत सारी बातें थी जिसका राजनीतिकरण कर राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए पटना ही नहीं, देश के अन्य कोने में भी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए सड़कों पर चूल्हे बनाये गए थे।  

तस्वीर: रघु रॉय

उस ज़माने के लोग, जो उस आंदोलन के प्रथम द्रष्टा हैं, भुक्तभोगी हैं, वे अगर अपने कलेजे पर हाथ रखकर स्वयं से पूछेंगे कि उस आंदोलन से उत्पन्न नेताओं ने प्रदेश को देश को क्या दिया?  शायद ह्रदय विदारक स्थिति में चले जायेंगे। सन 1974 के आंदोलन में जो नेता (आज बड़े-बड़े मंत्री, संत्री बने हैं डाक बंगला चौराहे पर उधारी में खाना खाते थे, नेता बनने के बाद दूकान को ही खा लिए। जो नेता हिंदी और अंग्रेजी के ‘अक्षरों’ को पहचानने में हिचकी लेने लगते थे,आंदोलन के बाद  शिक्षा मंत्री, शिक्षा जगत के आला अधिकारी बने बैठे हैं। कल जो महाराणा प्रताप का उदाहरण देकर यह कहते थे कि वे ‘घास खाकर’ जीवित रहे, नेता बनने के बाद वे जानवरों के भोजनों को ही बिना डकार लिए निगल गए। सन 1974 के आंदोलन से जन्म लिए तलवे कद के नेता से लेकर, घुटने कद के नेता के रास्ते आदमकद बने नेता तक उस व्यक्ति को वह सम्मान नहीं दे सके जिनके कंधे पर पैर रखकर चलना, बोलना सीखे थे। खैर समय सभी को देखता है – उन्हें भी देख रहा है जो उनके साथ छल किये, प्रपंच किये अपने-अपने हितों के लिए । 

बहरहाल, विगत दिनों आज के ‘ऐतिहासिक फोटो-पत्रकार/संपादक’ श्री रघु राय से मिला था। रघु राय जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के चश्मदीद गवाह थे। जिस दिन जय प्रकाश नारायण पर पटना की सड़कों पर लाठी प्रहार हुआ था, रघु राय उनके बगल में, उसी जीप पर सवार थे चालक के पास लटके हुए। जेपी पर लाठी प्रहार की वह तस्वीर दो दिन बाद दिल्ली से प्रकाशित स्टेट्समैन अखबार के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी। उधर संसद अपने सत्र में था। उस तस्वीर को देखकर एक और जहाँ सत्ता पक्ष के लोग लाठी प्रहार को गलत कह रहे थे, सत्ता से पदच्युत करने वाले सत्ताधारियों की तीव्र आलोचना कर रहे थे। रघु राय की वह तस्वीर भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में भूचाल ला दी थी उन दिनों। पटना से लेकर भारत के प्रत्येक राज्यों में, दिल्ली में रघु राय ‘राय साहब’ हो गए। 

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लेकिन उसी जीप पर जयप्रकाश नारायण के अधिकाधिक ढ़ाई-फीट पीछे एक नई नवेली विवाहित महिला थी, जिसके सर पर पटना पुलिस / केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल द्वारा फेंके जा रहे अनंत अश्रु गोले में एक गोला गिरा था, आज कोई नहीं जानता। सन 1973 में वह महिला अंतर्जातीय विवाह की थी। जय प्रकाश नारायण के अलावे तत्कालीन गैर-कांग्रेसी नेता नव वर-वधु को आशीष दिए थे। आंदोलन की यही गति होती हैं। अवसरवादी लोग, चाहे महिला हों अथवा पुरुष, कुछ अवसर का लाभ उठाने के लिए ही जन्म लेते हैं, आगे बढ़ते हैं। कई अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर स्वयं शांत हो जाते हैं। उन्हीं में वह महिला थी – श्रीमती रीता सिंह। मुझे विश्वास है कि सत्ता के गलियारे में आज कुर्सी से चिपके लोग, जो जयप्रकाश नारायण के कन्धों पर चढ़कर, उसे कुचलकर आज मठाधीश बने बैठे हैं, श्रीमती रीता सिंह को नहीं जानते होंगे। और जो जानते हैं वे सम्मानित जगह पर रहने के बाद भी शर्म से नजर उठाकर उन्हें देख नहीं सकते। रीता सिंह के अलावे उस आंदोलन में कुछ और महिलाएं थी – सुश्री कंचन बाला, सुश्री विजया सिंह – कोई जानते हैं उन्हें?

रघु रॉय

बहरहाल, आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम से बातें करते हुए तत्कालीन स्टेट्समैन के मुख्य छायाकार (1966-1976) श्री रघु राय कहते हैं: “उस दिन 4 नवम्बर था। मैं दिल्ली से पटना पहुँच गया था। सुबह-सवेरे तैयार होकर, कैमरे उठाकर मैं जयप्रकाश नारायण के कदमकुआं स्थित घर पर पहुँचने निकल गया था। घर पर बहुत उथल-पुथल नहीं था। शांति थी। एक जीप सामने लगी थी। कुछ तीन-चार छात्र वाहिनी के युवक-युवतियां उपस्थित थी। लोगों की उपस्थिति नहीं देखकर किसी ने जेपी साहब को सलाह दिया कि या तो यात्रा रोक देते हैं अथवा कुछ समय और प्रतीक्षा करते हैं। इन शब्दों को सुनकर जेपी साहब कहते हैं ‘ना’ ‘ना’, हम जो भी हैं निकलेंगे और निकल लिए।

“जब चलने की बात आई तब मैं जेपी साहब से कहा कि क्या मैं चालक के तरफ रह सकता हूँ? मैं किसी तरह कुछ स्थान बनाकर चालक की ओर खड़ा हो गया। तस्वीर लेने के लिए हमें कुछ स्थान भी चाहिए था और सामने जेपी साहब भी। हम लोग जब निकले अधिकाँश लोगों के घरों के द्वार बंद थे। कुछ चलने पर एक-दो- मंजिले मकान की खिड़कियों पर खड़े दो-चार लोग दिखे जो जेपी साहब को नमन कर रहे थे, हौसला बढ़ा रहे थे। जिंदाबाद – जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। यह देखकर हम सबों का मनोबल बढ़ा। मैं और मेरा कैमरा अपना काम कर रहा था – क्लिक-क्लिक।”

राय साहब कहते हैं: “जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गए दो, चार, दस, बीस लोग साथ होते गए। सड़क पर स्थानीय प्रशासन के तरफ से बहुत अधिक मात्रा में सुरक्षा की व्यवस्था थी। स्थानीय पुलिस (पटना पुलिस, बिहार पुलिस) के अलावे केंद्रीय रिजर्व पुलिस के बल तैनात थे। लेकिन टुकड़ियों में लोगों का हम लोगों के साथ मिलने के कारण जन सैलाब क्रमशः बढ़ रहा था। जैसे-जैसे घडी की सुई आगे बढ़ रही थी, जेपी साहब के प्रति लोगों का विस्वास भी बढ़ रहा था। उनके घर से आगे निकलने पर धीरे-धीरे उनके जीप के पीछे, आगे, दाहिने-बाएं सैकड़ों, हज़ारों की संख्या में लोग चलने लगे थे। रास्ते में विशाल जन सैलाब हो गया था।” 

“कई घंटे बाद हम सभी आयकर चौराहे के पास पहुंचे थे। वहां की सुरक्षा व्यवस्था बहुत ही मजबूत थी। एक तरफ जनसैलाब था तो दूसरे तरफ वर्दी-टोपी धारी पुलिस बल। अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि कुछ होने वाला है। मैं तो जेपी के साथ था, इसलिए यह देख नहीं पाया कि और कितने छायाकार है। तभी अचानक पहले अश्रु गैस के गोले चले और फिर लाठी प्रहार। उस भगदड़ में कैमरा और स्वयं को सँभालते, सुरक्षित रखते क्लिक-क्लिक करता रहा।”

राय साहब आगे कहते हैं: “उन दिनों समाचार या तस्वीर भेजने में जो मसक्कत करना पड़ता था, वह कहा नहीं जा सकता। हम कुछ तस्वीरें रेडियो-फोटो के माध्यम से दिल्ली भेजे। अगले दिन तो नहीं लेकिन दूसरे-तीसरे दिन यह तस्वीर स्टेट्समैन अखबार के प्रथम पृष्ठ पर बड़ा आकार में प्रकाशित हुई । संसद अपने सत्र में था। वह फोटो  दिल्ली के अख़बारों में एकलौता था। स्वाभाविक है वह तस्वीर संसद में कोहराम मचा दी। लेकिन जिस प्रकार संसद में सत्तारूढ़ और विपक्ष के लोग थे, मेरी तस्वीर को भी कई लोग यहाँ तक की तत्कालीन गृह मंत्री के ब्रह्मानंद रेड्डी ने भी जेपी पर लाठी प्रहार को गलत बताया था। अगले दिन स्टेट्समैन की प्रति उनके मुख पर फेंका गया। बाद में वे माफ़ी भी मांगे।” 

तस्वीर: रघु रॉय

सन 1977-1980 तक आनंद बाजार पत्रिका समूह का संडे पत्रिका का छाया संपादक (पिक्चर एडिटर) और बाद में एक दशक तक ‘इण्डिया टुडे’ के पिक्चर एडिटर विजुअलाइजर-फोटोग्राफर रहे रघुराय से पूछा कि उनके ज़माने में छायाकारों-पत्रकारों के साथ प्रशासन का कैसा सम्बन्ध होता था? रघुराय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को उद्धृत करते कहते हैं: “आज जैसा तो नहीं ही था। उन दिनों कांग्रेस अधिवेशन या किसी भी समय हम प्रधानमंत्री से दस हाथ की दूरी पर रहते थे। अगर बीच में कोई आ जाता था जिससे तस्वीर लेने में कोई कठिनाई होती थी, हम सभी सीधा कहते हैं ‘इंदिरा जी देखिये और उनकी नजर ही उस व्यक्ति विशेष  के लिए हिदायत होता था। उन दिनों सुरक्षा की इतनी भीषण समस्या नहीं थी। यह अलग बात है कि उनकी मृत्यु सुरक्षाकर्मी के हाथों हुई। आज समय कुछ अलग है। आज तो स्थिति ऐसी है कि छायाकारों को पचास फीट दूर रस्सी में बाँध कर रखा जाता है। इतनी दूरी से  कौन क्या देख सकता है, क्या विषय को समझ सकता है, तस्वीर खींच सकता है। यहाँ तो दो-दो मिनट के लिए समय दिया जाता है और दो-दो मिनट में सिर्फ क्लिक-क्लिक किया जा सकता, तस्वीर का भाव नहीं लिया जा सकता।”

जब पूछा कि आप इंदिरा गांधी से बहुत नजदीक थे? उन्होंने कहा ” “नहीं। मेरा कोई निजी तालुकात नहीं था लेकिन जब मेरी या किसी भी फोटोग्राफर की तस्वीर अख़बारों के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित होती थी तो मंत्री, अधिकारी के साथ-साथ प्रधान मंत्री भी देखती थी। एक बार तो वे यह भी कहीं कि यह फोटोग्राफर कहाँ-कहाँ देखता है। गजब की तस्वीर होती है इसकी।” राय साहब आगे कहते हैं कि “एक बार वे किसी कार्यक्रम में कश्मीर की खूबसूरती की बात की, तस्वीरों की बात की। मैं एक पत्र लिखा कि मैं उनकी तस्वीरें खींचना चाहता हूँ। आप विस्वास नहीं करेंगे मुझे डेढ़ घंटे का समय मिला और उनकी सैकड़ों तस्वीरें प्राकृतिक छटाओं के साथ खींची।” 

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राय को भारत के नागरिक सम्मान पद्मश्री से अलंकृत किया गया। सन 1992 में नेशनल ज्योग्राफि द्वारा प्रकाशित’ ह्यूमन मैनेजमेंट ऑफ़ वाइल्डलाइफ इण्डिया’ कहानी पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा फोटोग्राफर ऑफ़ द ईयर’ सम्मान से नवाजा गया था। कई बार वर्ल्ड प्रेस फोटो कॉन्टेस्ट और यूनेस्को इंटरनेशनल फोटो कांटेस्ट के सम्मानित जूरी होने के अलावे इनकी तस्वीरें टाइम, लाइफ, जीइओ, न्यूयॉर्क टाइम्स, सन्डे टाइम्स, न्यूजवीक, इंडिपेंडेंट आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। रघु राय की हज़ारों-लाखों तस्वीरों में एक तस्वीर आज भी जीवित है वह है ‘भोपाल गैस कांड का जिसमें एक बच्चे का मृत शरीर मुंड जमीन के अंदर और खुली आँखों के साथ मुंड दिख रहा था। 

रघु राय की दिल्ली (1992), दी सिख्स (1984, 2002) कलकत्ता (1989), खजुराहो (1991), ताजमहल (1986) तिब्बत इन एग्जाइल (1991), इण्डिया (1985), मदर टेरेसा (1971, 1996 2004) के अलावे दर्जनों तस्वीरों वाली किताबों को बनाने वाले रघु राय से जब पूछा कि आज की पत्रकारिता को आप कैसे देखते हैं जब प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी स्वयं ट्वीट करते हैं, फोटो प्रेषित करते हैं ? वे जोर से हंसे और कहते हैं: “अब तो कोई काम ही नहीं करना है, सभी बना-बनाया आता है। ” वे आगे कहते हैं: “वैसे मुझे विश्वास है कि प्रधानमंत्री के पास इतना समय नहीं होगा कि वे स्वयं लिखेंगे, स्वयं तस्वीरों का चयन करेंगे और स्वयं ट्वीट करेंगे।”  

तस्वीर: रघु रॉय

उनका कहना है कि “आज डिजिटल युग में सभी बातें आसान हो गई है। उन दिनों हम कैमरा को हाथ में लेते थे, देखते थे, विषय को देखते थे, फोकस करते थे। आज तो डिजिटल कैमरा सभी बातों को आसान कर दिया है। आपको कुछ नहीं करना है। सब काम कैमरा करेगा। उन दिनों कैमरा सिर्फ तस्वीर खींचता था, शेष काम हमें करने होते थे। हम दो कैमरा काम से काम लेकर निकलते थे एक रंगीन तस्वीर के लिए और एक श्याम-श्वेत के लिए। आज आप एक तस्वीर को जो चाहें, जिस रंग में चाहे बदल सकते हैं।”

न्यूयॉर्क के मैग्नम संस्था, जो दुनियाभर के छायाकार शामिल है जो  20वीं सदी की ऐतिहासिक घटनाओं, मसलन परिवारिक जीवन, ड्रग्स, धर्म, युद्ध, गरीबी, अकाल, अपराध, सरकार, मशहूर हस्तियों की तस्वीरों को जीवंत बनाते  है, कहते हैं “आज साधना की कमी हो गयी है। फ़ास्ट-फ़ूड के युग में सभी जल्दी-जल्दी चाहिए। तस्वीरों में जल्दवाजी नहीं होती। बहुत साधना करना पड़ता है। मैं तो अपने बेटे को भी कहा कि मैं तुम्हें कैमरा हाथ में दे सकता हूँ, लेकिन साधना तो तुम्हें ही करना होगा।” बहरहाल, समय के साथ चलना होगा।  

सुरेंद्र किशोर और उनकी अर्धांगिनी

चलिए वापस चलते हैं जयप्रकाश नारायण की जीप के पास उस विवाहित महिला से मिलने जिसके माथे पर अश्रु गैस के गोले गिरे थे। कहते हैं कि जेपी उस क्षण झुके हुए थे। अगर वे खड़े होते तो शायद वह अश्रु गोला उनके सर पर गिरता। लेकिन प्रारब्ध कुछ और था। उस ऐतिहासिक अश्रु गोला को जेपी की अनुयायी रीता सिंह अपने सर पर ली। जयप्रकाश नारायण जीवन पर्यन्त उसके कर्जदार हो गए थे। उस दिन हज़ारों-हज़ार की भीड़ को समाप्त करने के लिए सीआरपीएफ के जवान स्थानीय प्रशासन के आदेश से सज्ज थे। किसी भी प्रकार की सीमाओं को लांघने के लिए तैयार थे। उधर केंद्रीय आलाकमान की मुहर से अब्दुल गफ्फूर बिहार के मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान थे। स्थानीय पुलिस को आदेश था कि वह जेपी और अन्य आंदोलनकारियों को उस सीमा रेखा से आगे नहीं आने दें।

ऐसी बात नहीं है कि उस घटना के चश्मदीद गवाह आज जीवित नहीं हैं। चाहे अधिकारी हों या पदाधिकारी, मंत्री हों या मुख्यमंत्री। लेकिन उस घटना के बात उस महिला को जो सम्मान मिलनी चाहिए थी, जिसकी वह हकदार थी, नहीं मिल पायी । श्रीमती रीता सिंह छात्र वाहिनी कीबहुत ही सक्रीय सदस्य थीं। सन 1973 में पत्रकार सुरेंद्र ‘अकेला’ के साथ परिणय सूत्र में बंध गयी। एक लेखनी में धनुर्धर हो रहे थे तो एक क्रांति में। उस दिन जब रघु राय जेपी के घर कदमकुआं पहुंचे थे और सभी जीप से निकले थे, श्रीमती रीता सिंह भी जेपी के बगल में पीछे खड़ी थी। कदमकुंआ से कुछ लोगों के साथ निकला जुलुस आगे जन सैलाब में बदल गया था। पिरमोहनी, बुद्धमूर्ति, लालजी टोला, एग्जिविशन रोड, बारी रोड, डाक बंगला, जक्कनपुर, कंकरबाग, राजेंद्र नगर, नया टोला, भिखना पहाड़ी, मुसल्लहपुर, बोरिंग रोड, बेली रोड, गर्दनी बाग़ – पटना के सभी इलाकों से लोग चलकर गंतव्य की और आ रहे थे टुकड़े-टुकड़े में, ताकि प्रशासन के हथ्थे नहीं चढ़ जाएँ। 

आयकर गोलंबर के पास जा सुरक्षा दल-बल जेपी और आंदोलनकारियों को रोकी, वातावरण गर्म हो रहा था। सभी आगे बढ़ने के लिए बचनबद्ध थे। इसी बीच सीआरपीएफ के जवानों ने भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए अश्रु गैस के गोले छोड़ने शुरू कर दिए। उन्हीं गोलों में से एक गोला जीप पर आया। जेपी उस समय झुके हुए थे और श्रीमती रीता सिंह खड़ी थी जेपी के बगल में। अश्रुगैस का गोला रीता सिंह के सर पर गिरा। वे बेहोश हो गयीं। भीड़ में भी भगदड़ हो गया था। सभी जेपी को बचाने, सुरक्षित रखने में लग गए। तभी पुलिस के जवान उसे मृत समझकर नाले में फेंक दी। वही एक महिला थी जो बिहारी साव लेन की रहने वाली थी, रीता सिंह को देखी। वह तक्षण दौड़कर वहां आयी और उसे अपनी बेटी बताकर पुलिस की चंगुल से मुक्त की। उस क्षण जो घायल हुए थे उन्हें राजेंद्र सर्जिकल वार्ड में भेजा जा रहा था। नाना देशमुख और अली हैदर जिस वाहन से जा रहे थे, उसी कार में श्रीमती रीता सिंह को घायलावस्था में राजेंद्र सर्जिकल वार्ड ले गयी। लम्बे समय तक वह यहां इलाज में थी। जयप्रकाश नारायण का इलाज भी वही हो रहा था। कहते हैं कि जेपी, नाना देशमुख जैसे नेता कई बार रीता सिंह को देखने, हालचाल पूछने उनके वार्ड में आया करते थे।लेकिन आज रीता सिंह को कौन जानता है ?

श्रीमती रीता सिंह जिस दिन जयप्रकाश नारायण पर लाठी प्रहार हुआ था, अपने सर पर अश्रु गैस के गोले को सही थी। समय बीता। आंदोलन अपने मुकाम पर पहुंचा। सत्ता में परिवर्तन हुआ। जो चालाक थे सत्ता परिवर्तन का भरपूर लाभ उठाये।लेकिन जयप्रकाश नारायण रीता सिंह को नहीं भूले। यह अलग बात है की रोजी-रोटी की तलाश में रीता सिंह अपने आप को आंदोलन से अलग कर ली थी। आपातकाल के समय आंदोलनकारियों को जेपी से साथ छुड़ाने के लिए बड़े पैमाने पर बिहार में शिक्षकों की नियुक्ति कर रही थी। नियुक्ति करने के पीछे एक मात्र उद्देश्य आंदोलनकारियों को नौकरी देकर आंदोलन को कमजोर करना। रीता सिंह के पास शैक्षणिक योग्यता थी। अतः उन्होंने भी आवेदन प्रेषित की। जब अन्तर्वीक्षा का समय आया तो उसमें प्रमुख थे श्री राम जयपाल सिंह यादव। अन्तर्वीक्षा में यह पूछा गया कि अगर नौकरी नहीं देंगे तो क्या करोगी जीने के लिए – रीता सिंह तक्षण जबाब दी की पुनः आंदोलन में चली जाउंगी, सक्रीय हो जाउंगी। श्री यादव अभ्यर्थी की बातों को सुनकर नौकरी दे दिए । 

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यह भी कहा जाता है कि आपातकाल के बात लोक सभा का चुनाव हो गया था और प्रदेशों में विधानसभा के चुनाव होने थे। बिहार में भी विधानसभा का चुनाव हो रहा था। उन दिनों विधानसभा के टिकट के लिए, खासकर जो आंदोलन के दौरान भूमिका निभाए थे, अपना आवेदन भेजते थे जयप्रकाश नारायण के पास। एक दिन जेपी कार्यालय में उपस्थित लोगों से पूछा भी कि आंदोलन के दौरान छात्र वाहिनी की जिस कार्य कर्ता ने अपने सर पर अश्रु गोले लिए थे हमें बचने के लिए, उसका आवेदन आया है या नहीं ? उत्तर नकारात्मक था। 

इसी बीच सुरेंद्र किशोर (अब तक सुरेंद्र अकेला ‘सुरेंद्र किशोर’ हो गए थे। ऐतिहासिक बड़ोदा डाइनामाईट मामले में एक अभियुक्त थे और केन्द्री अन्वेषण ब्यूरो के जांचकर्ता उन्हें ढूंढ रहे थे। उन दिनों मुख्यमंत्री कार्यालय में मुख्यमंत्री के निजी सचिव थे शिवनंदन पासवान। जब सीबीआई के लोग उनसे उनके बारे में जानकारी लिए, वे ना तो नहीं कर सकते थे जानकारी देने में,परन्तु  दूसरे ही क्षण सुरेंद्र किशोर के घर जाकर उन्हें सचेत किये और पटना से भाग जाने को कहे। सुरेंद्र किशोर लम्बे समय तक मेघालय में भूमिगत रहे।  

आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम जब रीता सिंह के पति श्री सुरेंद्र जी से पूछा कि ‘सुरेंद्र’अकेला’ से ‘सुरेंद्र किशोर’ कब हो गए ? सुरेंद्र जी पहले हँसे और फिर कहते हैं कि “पत्रकारिता की शुरूआती दिनों में जब अख़बारों में लिखते थे तो विवाह  नहीं हुआ था। अकेले रहते थे। तभी अपने नाम के आगे ‘अकेला’ शब्द जोड़ लिया। इस नाम से काफी दिन लिखे। रामबृक्ष बेनीपुरी द्वारा स्थापित ‘जनता साप्ताहिक’ जिसे बाद में रामानंद तिवारी जी चलाये, मैं वहां सहायक संपादक था। जो भी लिखता था सुरेंद्र ‘अकेला’ के नाम से प्रकाशित होता था। सन 1973 में जब सुश्री रीता जी से विवाह हुआ तब ‘अकेलापन’ समाप्त हो गया और यह से सुरेंद्र अकेला सुरेंद्र किशोर हो गया ।” हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में, या यूँ कहें कि हिंदी के पाठक ‘सुरेंद्र अकेला’ को भले नहीं जानते हों, लेकिन आज शायद ही कोई पाठक होंगे जो सुरेंद्र किशोर को नहीं जानते हैं। 

तस्वीर: रघु रॉय

अन्य लोगों के अलावे, सत्तर-अस्सी-नब्बे के दशक में पत्रकारिता के क्षेत्र में बिहार में जो हस्ताक्षर थे, कई पत्रकार ऐसे थे जो पटना की सड़कों पर पैदल चलते दीखते थे। सभी युवक वर्ग में थे। उनमें अरुण सिन्हा, अरुण रंजन और सुरेंद्र किशोर का नाम लिया जा सकता है। इन तीनों में सुरेंद्र किशोर की ही ‘शारीरिक’ लम्बाई उन दोनों की तुलना में तनिक कम थी, अन्यथा कद-काठी में तीनो सामान थे। अरुण रंजन की एक विशेषता थी, वे ‘स्टील चेन बेल्ट’ वाली घड़ी कहते थे, वह भी दाहिने हाथ में और सिगरेट खूब पीते थे । उनकी एक विशेषता और थी कि वे ‘फोटोक्रोमिक’ चश्मा लगते थे। धुप में शीशे का रंग काला। अधिकतर बुशर्ट, पैंट और चप्पल में ‘आर्यावर्त-दी इंडियन नेशन के दफतर में आना उनका नित्य था। फिर यहाँ से इन अख़बारों के मित्रमंडलियों के साथ या तो ‘पिंटू होटल’ अथवा डाक बांग्ला चौराहा के दाहिने कोने पर लखनऊ स्वीट हॉउस के बगल में ‘कॉफी हॉउस’ पर अड्डा।

समाजवादी विचारधारा से जुड़े सुरेंद्र किशोर एक ईमानदार पत्रकार रहे हैं। उनके पास क्लिपिंग का बड़ा भंडार है। बहुत सारी पत्रिकाओं के सभी अंक उनके पास हैं। वे एक चलता-फिरता पुस्तकालय हैं। यह सच हैं कि कागज के पन्नों पर जब कोई शब्द ‘सुरेंद्र किशोर’ के नाम से प्रकाशित होता है, शब्द और वाक्य का मोल स्वतः बढ़ जाता है। विगत दिनों बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री कर्पूरी ठाकुर को जब भारत रत्न से अलंकृत किया गया था, उसी सूची में वरिष्ठ पत्रकार और श्री ठाकुर के निजी सचिव सुरेंद्र किशोर को ‘पद्मश्री’ नागरिक सम्मान सेभी अलंकृत किया गया। आज सुरेंद्र किशोर और उनकी अर्धांगिनी श्रीमती रीता सिंह उन दिनों को याद कर खुश होते हैं।

बहरहाल, सुरेंद्र जी के मित्र श्री ज्ञानवर्धन मिश्र सन 1974 के मार्च महीने के 18 तारीख की घटना को याद करते कहते हैं : “तब मैं पटनासिटी छात्र संघर्ष समिति का महासचिव था। समिति के अध्यक्ष श्री नंदकिशोर यादव ( अभी बिहार विधान सभा के अध्यक्ष ) थे। आंदोलनकारियों को अलग-अलग क्षेत्र बार जिम्मा दिया गया था। उस दिन सिटी चौक का मुआयना करता सिटी रेलवे स्टेशन पहुंचा। पूर्वी केबिन की ओर जमात को खदेड़ने के लिये पुलिस फायरिंग हो रही थी। स्टेशन के बाहर भारी भीड़ थी। पुलिस की ओर से आंसू गैस के गोले दागे जा रहे थे। वहीं छायाकार कृष्ण मुरारी किशन भी दिखे। तत्कालीन एसडीओ की मुझ पर नजर पड़ी नहीं कि वे मेरे पीछे पड़ गए । स्टेशन के सामने गलियों में भी पुलिस घुस चुकी थी। धवलपुरा पुलिस चौकी के पीछे से लल्लू बाबू कूंचा होते मैं जालान स्कूल के पास से होता हुआ अशोक राज पथ पर हाजीगंज निकला और पैराडाइज होटल के पीछे मस्जिद में जा छिपा। होटल मेरे  चाचा की ही थी। सो कोई दिक्कत नहीं हुई। सड़क पर सायरन बजती पुलिस व एम्बुलेंस की गाड़ियों की घुड़दौड़ से आभास जो चला था बड़ी घटना घटी है। होटल के एक स्टाफ ने चाचा जी को सूचना दे दी। चाचा देवकी नंदन मिश्र कट्टर कांग्रेसी थे, मस्जिद से निकाल मुझे बगल में ही स्थित अपने घर ले गए। सूर्यास्त होते मैं वहां से खिसक निकला।”

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