केंद्रीय मंत्रिमंडल की ओर जाने वाली ‘पटना-जम्मू अर्चना एक्सप्रेस’ में नहीं ‘बैठा’ सके नीतीश कुमार अपने शयनकक्ष तक आने वाले तीन ‘संजयों’ में संजय झा को, ‘कुर्सी’ पर ललन सिंह का ‘कब्ज़ा’

श्री राजीव रंजन सिंह @ ललन सिंह और श्री संजय झा

रायसीना हिल (नई दिल्ली) : दिल्ली के पत्रकारों को शायद गूगल पर यह नहीं मिले, लेकिन पटना के श्री भोला बाबू की बात कल फिर सच साबित हो गयी। बाइस-वर्ष बाद भी 3289-3290 पटना-जम्मू अर्चना एक्सप्रेस के आगे जनता दल (यूनाइटेड) के आलाकमान और भारतीय जनता पार्टी समर्थित जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार सरकार की नहीं चली। केंद्रीय मंत्रिमंडल की दिशा में ‘अर्चना एक्सप्रेस’ की गति इतनी तेज थी कि नीतीश कुमार अपने शयनकक्ष तक आने वाले तीन ‘संजयों’ में एक श्री संजय झा को केंद्रीय मंत्रिमंडल की कुर्सी पर नहीं बैठा पाए। यह इस बात को सिद्ध करता है कि ‘आज भी नीतीश कुमार को श्री राजीव रंजन @ ललन सिंह के प्रति संजय झा से अधिक “स्नेह” है और यह “स्नेह” विगत दिनों पटना में नीतीश कुमार के प्रति दिए गए “अपशब्दों” का परिणाम भी हो सकता है। रामचरितमानस में उद्धृत भी है “भय बिनु होत न प्रीत।”

जब अटल बिहार वाजपेयी दूसरी पारी में सरकार बनाए थे, उनके मंत्रिमंडल में ‘समता पार्टी’ के रूप में नीतीश कुमार केंद्रीय मंत्रिमंडल में ‘रेल मंत्री’ के रूप में रेल भवन में विराजमान हुए। यह कालखंड 19 मार्च, 1998 से 5 अगस्त, 1999 का था। नीतीश कुमार कुल एक वर्ष 139 दिन स्वतंत्र भारत के 27वें रेल मंत्री थे। वाजपेयी – III में बाबू नीतीश कुमार 20 मार्च, 2001 से 22 मई, 2004 तक तीन वर्ष 363 दिनों के लिए पुनः रेल भवन में अपनी उपस्थिति दर्ज किये केंद्रीय रेल मंत्री के रूप में। इसी काल खंड में 3289-3290 संख्या के रूप में पटना से जम्मू के लिए एक नई ट्रेन चलाई गई जिसमें 15 डब्बे लगाए गए और पटना से जम्मू की करीब 1500 किलोमीटर की दूरी वाराणसी-लखनऊ-मोरादाबाद-सहारनपुर-अम्बाला कैंट-लुधियाना के रास्ते इस ट्रेन अपने गंतव्य पर पहुँचने के लिए 30 घंटे का समय दिया गया। वैसे नीतीश बाबू के मन में ‘शायद’ वैष्णोदेवी की पूजा-अर्चना के निमित्त इस ट्रेन को चलाना था, इसलिए इस ट्रेन का नाम ‘पटना-जम्मू अर्चना एक्सप्रेस’ रखा गया।

लेकिन पटना से दिल्ली तक के राजनीतिक गलियारे में बिजली की तरह यह बात फ़ैल गयी कि ट्रेन का नामकरण “श्री राजीव रंजन सिंह @ लल्लन सिंह ​एक निकट संबंधी का नाम पर किया गया है।” संयोग से “अर्चना” उनका नाम है। इस ट्रेन के उद्घाटन के बाद पटना में शायद की कोई राजनेता थे, चाहे जनता दल (युनाइटेड) के हों या राष्ट्रीय जनता दल के या लोक शक्ति पार्टी के या अन्य, जो “अर्चना एक्सप्रेस’ के नाम को “ललन सिंह की बहन से नहीं जोड़े थे। लालू प्रसाद यादव, उनकी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी आदि नेता तो खुलेआम ‘सार्वजनिक’ रूप से इस बात को उठाया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीसरी पारी की तैयारी

इस घटना के बाद नीतीश – ललन बाबू के बीच ‘दरार’ पड़ा और वह दरार रेलवे ठेकेदारी में ललन सिंह की ‘कटौती’ सार्वजनिक ‘गाली-गलौज’ की राजनीति में बदल गया । पटना के वातानुकूलित कक्ष में अनेकों बार संवाददाता सम्मेलन कर ललन सिंह नीतीश कुमार को खुलेआम अपशब्दों से अलंकृत किये। इतना ही नहीं, समयांतराल, एक बार ललन सिंह जनता दल (यूनाइटेड) के सात विधायकों को राष्ट्रीय जनता दल के दरवाजे तक ले गए। नीतीश कुमार ‘हक्का-बक्का’ थे कहीं सरकार नं गिर जाय। पटना से लेकर दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई के अख़बारों में ‘अर्चना एक्सप्रेस के बहाने नीतीश कुमार – ललन सिंह की कहानियां ‘अपशब्दों’ के साथ ‘शब्दों’ में बसरने लगे।

बहरहाल, वैसे दिल्ली के बड़े-बड़े ‘स्वयंभू महारथ’ पत्रकार बंधु-बांधव से लेकर वातानुकूलित कक्ष में सिगरेट और विस्की का सेवन कर कलम और कंप्यूटर पर राजनीतिक समीक्षा लिखने वाले दावा करते हैं की वे बिहार के बख्तियारपुर वाले नीतीश कुमार को गर्दन भर पहचानते हैं। लेकिन पटना के डाक बंगला चौराहे से जो रास्ता गांधीमैदान की ओर उन्मुख है, नुक्कड़ पर बैठा भोला बाबू अपने प्रदेश के छात्र नेता से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले श्री कुमार साहब को भलीभांति जानते यहीं, पहचानते भी हैं। आधुनिक बिहार के राजनीतिक इतिहास में शायद श्री भोला बाबू से बेहतर बिहार के किसी भी नेता को नहीं जानने वाला नहीं है ।

पटना के पत्रकार बंधु बांधव जो सन सत्तर के प्रारंभिक वर्षों से पत्रकारिता कर रहे हैं, श्री भोला बाबू के पास जानकारी लेने पहुँचते हैं। भोला बाबू पटना के गांधी मैदान की ओर जाने वाली सड़क पर दाहिने हाथ लखनऊ स्वीट्स हॉउस के सामने पान की दुकान से बीस कदम आगे पटना टेलीफोन विभाग के जम्फर के पास जूता की सिलाई मुद्दत से करते थे। उन दिनों उनकी ‘बैठकी’ के बगल में एक ‘नऊआ’ की दुकान भी थी जो पटना के मूंछ उभरती नेताओं का बाबड़ी सीटते थे। उसके बाद राजधानी होटल, एक परचून की दूकान आदि थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीसरी पारी की तैयारी

श्री भोला बाबू कहते थे “जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद कुकुरमुत्तों की तरह जितने नेता जन्म लिए, जब वे बूढ़े हो जायेंगे, दंतहीन हों जाएँ, लेकिन बत्तीस क्या बासठ दांत बड़ी और छोटी अमाशय में विराजमान रहेगा। नीतीश कुमार जी को जो मुंह के दांत से नहीं, पेट के दांत से ऐसा काटेंगे, सामने वाला समझ भी नहीं पाएंगे। यह कार्य प्रदेश के विकास के लिए, लोगों के रोजी-रोटी के लिए नहीं, बल्कि अपने हितों के रक्षार्थ किया जायेगा। मूंछ नहीं रखने वाले भी मूंछ की लड़ाई लड़ेंगे।” श्री भोला बाबू की बातें भले पचास वर्ष पुरानी हो गई है, लेकिन जिस समय इन शब्दों का उल्लेख हुआ था, उस समय पटना के डाक बंगला चौराहे पर, फ़्रेज़र रोड पर, बुद्ध मार्ग पर, आकाशवाणी के पास यही नेता लोग मक्खी जैसा भिनभिनाते थे ताकि समाचार एजेंसी से श्री बी एन झा जी, श्री केशरी जी, श्री धैर्या बाबू, श्री दुर्गानाथ झा, श्री सीता शरण जी, श्री केश्वाव कुमार, श्री फिलीप साहब, श्री मुक्त किशोर, श्री कृपाकरण जी, श्री उपाध्याय जी कुछ शब्द निर्गतकर दें, कुछ शब्द अख़बारों के पन्नों पर प्रकाशित कर दें। खैर।

श्री भोला जी यह भी कहते थे कि “आदमी के शरीर में छोटी और बड़ी अमाशय की लम्बाई मिलकर 15 से 16 फुट होता है। लेकिन बिहार के इन नेताओं का अमाशय उनकी शरीर की लम्बाई से पांच-छह गुना अधिक है। आने वाले दिनों में देखिएगा कि कब ये सभी नेता लोग अपने-अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए सामने वाले को अपने अमाशय में लपेट लेते हैं। आज पचास वर्ष बाद भोला जी बहुत याद आ रहे हैं, खासकर विगत दिनों जब श्री नरेंद्र दामोदर मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार और तेलगु देशम पार्टी के श्री चंद्रबाबू नायडू के समर्थन से तीसरी बार रायसीना हिल पर शपथ ले रहे थे। अगर नीतीश कुमार और श्री नायडू आगे नहीं आते तो सम्मानित श्री नरेंद्र मोदी अपने दूसरे कालखंड में अपने द्वारा बनाये गए नए संसद भवन में तीसरी पारी कैसे खेलते ?

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लेकिन उससे भी बड़ा प्रश्न तो अभी आने वाला है। बस समय का इतंज़ार करें क्योंकि क्योंकि नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडु इन बातों का चिंतन जरूर करेंगे कि कहीं आने वाले दिनों में उन्हें वह दिन देखना नहीं पड़े, जब एक दिन सुबह वह उठेंगे तो उनके सारे सांसद मय पार्टी के भाजपा में शामिल हो चुके होंगे और वे निपट अकेले खड़े होंगे। में श्री नरेंद्र मोदी की महारथ उनके कनिष्ठ और गृह मंत्री श्री अमित शाह से बहुत काम हैं। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि आने वाले दिनों में भारत के विद्यालयीय और उच्चतर विद्यालयीय पाठ्यक्रमों में ‘राजनीतिक कूटनीति’ में श्री शाह के लिए एक अलग अध्याय जुड़ जाय क्योंकि शरद पवार और उद्धव ठाकरे यह दर्द झेल चुके हैं।

राजीव रंजन सिंह कैबिनेट मंत्री का शपथ लेने के बाद हस्ताक्षर करते

इतना ही नहीं, भारतीय राजनीतिक उठापटक का वर्तमान इतिहास इस बात का गवाही देता है कि कई वर्ष तक पर्दे के पीछे से बार बार भाजपा की मदद करने वाले नवीन पटनायक आज अपने राज्य से बेदखल हो चुके हैं। न जाने किस अज्ञात दबाव में भाजपा से डरने वाली मायावती जी भारत की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी से शून्य पर पहुँच चुकी है। कभी पंजाब में दबदबा रखने वाले भाजपा के लंबे समय से गठबंधन सहयोगी रहे अकाली आज एक सीट पर सिमट गए हैं। भाजपा की सोहबत में रह कर कभी तमिलनाडु की बहुत बड़ी शक्ति होने वाली जयललिता की पार्टी आज मृतप्राय हो चुकी है। हरियाणा में कुछ साल पहले नई शक्ति के तौर पर उभरी जजपा एक ही बार भाजपा के मोहपाश में फंसी और राजनीतिक रसातल में पहुंच गई। भाजपा के साथ कश्मीर में सरकार चलाने वाली महबूबा मुफ्ती की पार्टी का आज कुछ पता नहीं है। और ख़ुद नीतीश कुमार बिहार की सबसे बड़ी शक्ति से घटकर विधानसभा चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बन गए थे। भाजपा से पुराने रिश्तों के कारण ही चंद्रबाबू नायडू एक ज़माने में आंध्र प्रदेश के सर्वोच्च नेता से घटते घटते ग़ायब हो गए थे और फिर क़िस्मत से वापस आए हैं। ममता बनर्जी ने समय रहते भाजपा से अपना संबंध खत्म कर दिया था और वे आज भी शान से बंगाल की मुख्यमंत्री है। खैर।

बहरहाल, श्री नरेन्द्र मोदी 9 अगस्त से दो माह पूर्व 9 जून, 2024 को राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक समारोह में लगातार तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु ने प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगियों को शपथ दिलाई।प्रधानमंत्री ने एक्स पर पोस्ट किया: “आज शाम आयोजित समारोह में प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। मैं 140 करोड़ देशवासियों की सेवा करने तथा देश को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए मंत्रिपरिषद के साथ काम करने के लिए प्रतिबद्ध हूं।” इस बार, मोदी और नयी मंत्रिपरिषद के शपथ ग्रहण समारोह में राजनीतिक नेताओं और समाज के विभिन्न क्षेत्रों की जानी-मानी हस्तियों के अलावा ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों के साथ ही सफाई कर्मचारी और मजदूर भी शामिल हुए. इस भव्य आयोजन के लिए राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में लगभग 9,000 लोग उपस्थित थे।

प्रधानमंत्री ने यह भी लिखा कि “आज शपथ लेने वाले सभी साथियों को बहुत-बहुत बधाई। मंत्रियों की यह टीम युवा जोश और अनुभव का बेहतरीन संगम है। हम सभी देशवासियों का जीवन बेहतर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। मैं शपथ ग्रहण समारोह का हिस्सा बनने वाले सभी विदेशी गणमान्य व्यक्तियों का आभारी हूँ। भारत हमेशा मानवता की प्रगति की दिशा में अपने सम्मानित सहयोगियों के साथ मिलकर काम करेगा। राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में आज शाम हुए समारोह में मैंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। मैं और मंत्रिपरिषद के मेरे सहयोगी, 140 करोड़ देशवासियों की सेवा करने और देश को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। एनडीए सरकार में मंत्री के रूप में शपथ लेने वाले सभी साथियों को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं। मंत्रियों की इस टीम में युवा जोश और अनुभव का अद्भुत संगम है। हम सभी देशवासियों का जीवन बेहतर बनाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेंगे। मैं शपथ ग्रहण समारोह का हिस्सा बने दुनियाभर के गणमान्य अतिथियों का भी हृदय से आभारी हूं। विश्व बंधु के रूप में भारत सदैव अपने निकट साझेदारों के साथ मिलकर मानवता के हित में काम करता रहेगा।”

नरेंद्र मोदी के साथ, राजनाथ सिंह, अमित शाह, नितिन गडकरी, निर्मला सीतारमण और एस जयशंकर सहित भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने राष्ट्रपति भवन में कैबिनेट मंत्रियों के रूप में शपथ ली। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मोदी और 30 कैबिनेट मंत्रियों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। 73 वर्षीय मोदी ने ईश्वर के नाम पर शपथ ली। जवाहरलाल नेहरू के बाद मोदी लगातार तीसरी बार यह उपलब्धि हासिल करने वाले दूसरे प्रधानमंत्री हैं। वैसे हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनावों में, भाजपा बहुमत हासिल करने में विफल रही। इस वजह से वह उन सहयोगी दलों पर निर्भर हो गई, जिनके सांसदों ने कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ली। मोदी की कैबिनेट में उनके अलावा 30 मंत्री शामिल हुए जिसमें पांच मंत्रियों (स्वतंत्र प्रभार) को जगह मिली। इसके अलावा 36 राज्य मंत्रियों को शपथ दिलाई गई। शपथ ग्रहण कार्यक्रम में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी शामिल हुए। भारत के पड़ोसी देशों के नेता, मसलन मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू, बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना, नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ और भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे ने समारोह में हिस्सा लिया।

मोदी ‘मॉडिफाइएड’ वाली तीसरे कालखंड में राजनाथ सिंह, अमित शाह, नितिन गडकरी के अलावे जेपी नड्डा, शिवराज सिंह, निर्मला सीतरमण, एस जयशंकर, मनोहर लाल खट्टर, एचडी कुमारस्वामी, पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान, जीतनारम मांझी, राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह, सर्वानंद सोनेवाल, डॉक्टर वीरेंद्र कुमार, राम मोहन नायडू, प्रह्लाद जोशी, जुएल ओरांव, गिरिराज सिंह, अश्विनी वैष्णव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, भूपेंद्र यादव, गजेंद्र सिंह शेखावत, अन्नपूर्णा देवी, किरण रिजिजू, हरदीप पुरी, मनसुख मांडविया, जी किशन रेड्डी, चिराग पासवान और सीआर पाटिल कैबिनेट मंत्री बने। इसके अलावे राव इंद्रजीत सिंह, जितेंद्र सिंह, अर्जुन राम मेघवाल, प्रतापराव गणपतराव जाधव और जयंत चौधरी को राज्यमंत्री (स्वतंत्र भार) दिया गया जबकि जितिन प्रसाद, श्रीपद यशो नाइक, पंकज चौधरी, कृष्णपाल गुर्जर, रामदास अठावले, रामनाथ ठाकुर, नित्यानंद राय, अनुप्रिया पटेल, वी सोमन्ना, चंद्रशेखर पेम्मासानी, एसपी सिंह बघेल, शोभा करांदलाजे, कीर्तिवर्धन सिंह, बीएल वर्मा, शांतनु ठाकुर, सुरेश गोपी, एल मुरगन, अजय टमटा, बंदी संजय, कमलेश पासवान, भागीरथ चौधरी, सतीश दुबे, संजय सेठ, रवनीत सिंह बिट्टू, दुर्गादास सुइके, रक्षा खडसे, सुकांता मजूमदार, सावित्री ठाकुर, तोखन साहू, राजभूषण चौधरी, श्रीपति वर्मा, श्रीनिवास वर्मा नरसापुरम, हर्ष मल्होत्रा, नीमूबेन बमभानिया, मुरलीधर मोहोल, जॉर्ज कुरियन और पबित्रा मार्गेरिटा राज्यमंत्री बने ।

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नीतीश कुमार से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नवनिर्वाचित सांसद चिराग पासवान ने नरेंद्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में मंत्री पद की शपथ ली। दिवंगत पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान का राजनीतिक सफर काफी महत्वपूर्ण रहा है। वे 2014 में लोकसभा के लिए चुने गए थे और अपने कार्यकाल के दौरान विभिन्न समितियों के सदस्य रहे. सितंबर 2020 से वे उद्योग संबंधी स्थायी समिति के सदस्य थे। 2024 के लोकसभा चुनाव में चिराग पासवान हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र से जीते। 2014 के चुनाव में चिराग पासवान ने जमुई लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा था। उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल के निकटतम प्रतिद्वंद्वी सुधांशु शेखर भास्कर को हराकर सीट जीती थी। पासवान ने 2019 के चुनाव में अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी भूदेव चौधरी को हराकर अपनी सीट बरकरार रखी।

ये तो बात हुई मंत्री और मंत्रिमंडल बनने की। लेकिन दिल्ली के द्वारका सेक्टर-4, जहाँ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र, वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ-साथ उनके ‘शयन कक्ष’ तक बेरोक-टोक के तीन संजयों – संजय गाँधी, संजय कुमार सिंह और संजय कुमार झा) में संजय झा का भी आलीशान आवास है, के लोगों का कहना है कि “यह तो महज एक शुरुआत है। बिहार के मतदाता की सोच इतनी नहीं है कि वे अपने हितों की बात सोचे। समय दूर नहीं है जब बिहार को विशेष दर्जा की बात को लेकर नीतीश कुमार खेला करेंगे। दुर्भाग्य यह है कि आजादी के बाद 76 वर्षों में विगत 34 वर्षों से (1990 के बाद) कांग्रेस पार्टी बिहार में नहीं है। अगर बिहार को नेश्तोनाबूद करने में कांग्रेस के नेताओं का हाथ रहा (यह सच है), तो इन 34 वर्षों में गैर-कांग्रेसी नेताओं ने भी बिहार का कोई भला नहीं किया चाहे लालू प्रसाद यादव हों, उनकी पत्नी मुख्यमंत्री श्रीमती राबड़ी देवी हों, जीतन राम मांझीं हों या नितीश कुमार हो । अगर 76 वर्ष आज़ादी के बाद आज भी बिहार को जीवित रहने के लिए, रखने के लिए ‘भीख’ ही मांगना पड़े ‘विशेष दर्जा’ के रूप में, तो इससे शर्म की बात और क्या हो सकती है।

तीसरी पारी की तैयारी

द्वारका सेक्टर-4 आवासीय क्षेत्र में बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के लोग (अधिकारी-पदाधिकारी सहित) बहुत ऐसे लोग रहते हैं जो सत्ता के गलियारे में अपना हस्ताक्षर कर चुके हैं। उन लोगों का कहना है कि “मॉडिफाइएड मोदी-III मंत्रिमंडल में जाना तो झाजी को था, लेकिन ललन सिंह के सामने न केवल संजय झा बौना हुए, बल्कि नीतीश कुमार भी बौना हो गए। उनका कहना है कि “प्रदेश को विशेष दर्जा की मांग प्रदेश के विकास के लिए नहीं, बल्कि प्रदेश के विकास के निमित्त केंद्रीय कोषागार से आर्थिक मदद की बात है। वैसे आज तक प्रदेश के विधायक और सांसद अपने विधायक-सांसद कोषों का भरपूर इस्तेमाल कर अपने-अपने क्षेत्रों का विकास किये होते तो शायद प्रदेश के विधानपालिका और संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं का यह हश्र नहीं होता। हकीकत तो यह है कि विशेष दर्जा के नाम पर केंद्रीय पैसों का लूट कैसे हो, मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है।”

विशेष दर्जा की राजनीति नीतीश कुमार आज से नहीं कर रहे हैं। हालांकि चौदहवां वित्त आयोग बिहार को विशेष दर्जा देने के मुद्दे पर कानून में प्रावधान नहीं होने की बात कह खारिज कर चुका है। लेकिन जैसा लोग कह रहे हैं “मोदी है तो मुमकिन है”, वैसी स्थिति में सत्ता में बने रहने के लिए अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारत के मतदाताओं पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करारोपण कर, करारोपण के नए तरीके निकालकर बिहार ही नहीं, सभी 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को ‘विशेष दर्जा’ दे ही दिए, तो उनका क्या जाता है। वे जब संविधान बदल सकते हैं तो नई परिस्थिति में कानून में फेर बदल भी कर सकते हैं। आखिर सत्ता और कुर्सी की बात है।

राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि बिहार जैसे गरीब राज्य के लिए नीतीश कुमार विशेष दर्जा प्राप्त कर आने वाले विधानसभा चुनाव में वहां की जनता को विशेष उपहार सौंपना चाह रहे हैं। इतना ही नहीं, 94 लाख लोगों को जो गरीबी रेखा से नीचे हैं उन्हें दो लाख रूपये देने के वादे को भी नीतीश पूरा करना चाहते हैं। नितीश कुमार चाहते हैं कि विधान सभा में विपक्ष समाप्त हो जाय और इसके लिए ‘विशेष दर्जा’ बहुत बड़ा ब्रह्मास्त्र हो सकता है।

साल 1969 में पहली बार पांचवें वित्त आयोग ने गाडगिल फॉर्मूले के आधार पर तीन राज्यों जम्मू-कश्मीर, असम और नागालैंड को विशेष राज्य का दर्जा दिया था। इसका आधार इन तीनों राज्यों का सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक पिछड़ापन था. विशेष राज्य का दर्जा देने का उद्देश्य इन राज्यों का पिछड़ापन दूर करना था। इसके अलावा राष्ट्रीय विकास परिषद की ओर से राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा देने को कुछ मापदंड भी बनाए गए थे। इनमें इस बात का ध्यान रखा जाता है कि किसी राज्य के संसाधन क्या हैं, वहां प्रति व्यक्ति आय कितनी है, राज्य की आमदनी का जरिया क्या है? जनजातीय आबादी, पहाड़ी या दुर्गम इलाका, जनसंख्या घनत्व, प्रतिकूल स्थान और अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास स्थित होने के कारण भी राज्यों को विशेष दर्जा दिया जा सकता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और ‘विशेष राज्य का दर्जा’ हेतु गुलदस्ता

विशेष श्रेणी का दर्जा (SCS) एक ऐसा दर्जा है जो किसी राज्य को उसकी विकास दर और पिछड़ेपन के आधार पर दिया जाता है। अगर कोई राज्य भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हो, तो उसे यह दर्जा दिया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य उन राज्यों को वित्तीय और अन्य सहायता प्रदान करना है ताकि वे भी राष्ट्रीय औसत के बराबर विकास कर सकें। अनुच्छेद 371 के जरिए राज्यों के लिए विशेष प्रावधान कर, उनकी विरासत और स्थानीय लोगों के अधिकारों को बचाया जाता है। विशेष राज्य का दर्जा मिलने पर किसी राज्य को खास छूट के साथ ही खास अनुदान भी मिलता है। देश में योजना आयोग के समय तो केंद्र सरकार के कुल योजनागत खर्च का लगभग 30 फीसदी हिस्सा इन्हीं राज्यों को मिल जाता था। इस धन को खर्च करने के लिए भी विशेष राज्यों को छूट थी। यदि केंद्र से दी गई धनराशि किसी एक वित्त वर्ष में पूरी तरह से खर्च नहीं हो पाती थी तो वह अगले वित्त वर्ष के लिए जारी कर दी जाती थी। अमूमन किसी एक वित्त वर्ष में जारी राशि खर्च नहीं होने पर लैप्स हो जाती है। इसके अलावा विशेष राज्यों को कर्ज स्वैपिंग स्कीम और कर्ज राहत योजना का लाभ भी मिलता था. इन सबका उद्देश्य ऐसे राज्यों में विकास को आगे बढ़ाना होता है।

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उधर, चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी की ओर से जो सबसे जरूरी शर्त रखी गई है, वो है लोकसभा अध्यक्ष का पद। यानी कि चंद्रबाबू नायडू चाहते हैं कि सरकार के समर्थन के बदले उनकी पार्टी को केंद्रीय कैबिनेट में तो जगह मिले ही मिले, लोकसभा अध्यक्ष का पद भी उनकी ही पार्टी के पास रहे। चंद्र बाबू नायडू की पार्टी का जो इतिहास रहा है और बतौर लोकसभा अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू की पार्टी के सांसद ने इतिहास में बीजेपी के कद्दावर नेता अटल बिहारी वाजपेयी के साथ जो किया है, उसे शायद ही बीजेपी के लोग भूल पाए होंगे। तो आखिर इतिहास में टीडीपी ने ऐसा क्या किया है कि बीजेपी नायडू की पार्टी को लोकसभा अध्यक्ष का पद देने से हिचकिचा रही है और आखिर क्या है वो कहानी, जिसे अगर तेलगु देशम पार्टी दोहरा दे तो फिर नरेंद्र मोदी के लिए प्रधानमंत्री के पद पर बने रहना बहुत बड़ी चुनौती हो जाएगी।

भारतीय संविधान के आर्टिकल 93 और 178 में लोकसभा के अध्यक्ष पद का जिक्र है। इन्हीं दो आर्टिकल में लोकसभा अध्यक्ष की ताकत का भी विस्तार से जिक्र किया गया है। लोकसभा अध्यक्ष की सबसे बड़ी ताकत तब होती है, जब सदन की कार्यवाही चल रही होती है। यानी कि संसद का सत्र चल रहा हो, तो लोकसभा अध्यक्ष ही उस सत्र का कर्ता-धर्ता होता है. लोकसभा और राज्यसभा के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करने की जिम्मेदारी भी स्पीकर की ही होती है। लोकसभा में विपक्ष के नेता को मान्यता देने का काम भी स्पीकर का ही होता है। स्पीकर ही तय करता है कि बैठक का एजेंडा क्या है। सदन कब चलेगा, कब स्थगित होगा, किस बिल पर कब वोटिंग होगी, कौन वोट करेगा, कौन नहीं करेगा जैसे तमाम मुद्दे पर फैसला स्पीकर को ही लेना होता है. यानी कि संसद के लिहाज से देखें तो स्पीकर का पद सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है. जब सदन चल रहा होता है तो सैद्धांतिक तौर पर लोकसभा अध्यक्ष का पद किसी पार्टी से जुड़ा न होकर बिल्कुल निष्पक्ष होता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चंद्र बाबू नायडू

अब ये तो तय है कि सरकार बीजेपी की नहीं बल्कि एनडीए की है। यानी कि नरेंद्र मोदी अब गठबंधन के प्रधानमंत्री है। ऐसे में अगर कभी किसी वक्त में टीडीपी या कहिए कि चंद्रबाबू नायडू की बात नहीं मानी गई या जिन शर्तों के साथ टीडीपी ने बीजेपी को समर्थन दिया है, कभी उन शर्तों को तोड़ा गया और चंद्रबाबू नायडू ने सरकार से समर्थन वापस लिया तो जिम्मेदारी स्पीकर की होगी कि वो नरेंद्र मोदी को बहुमत साबित करने के लिए कह दे। इस दौरान अगर किसी दूसरे दल के सांसद ने पक्ष में या विपक्ष में वोटिंग की तो फिर स्पीकर के पास अधिकार होगा कि वो उस सदस्य को अयोग्य घोषित कर दे. अविश्वास प्रस्ताव आने की स्थिति में दलों में टूट स्वाभाविक होती है और दल-बदल के तहत किसी सांसद को अयोग्य घोषित करने का अधिकार स्पीकर के पास ही होता है। स्पीकर चाहे तो संसद के सदस्यों को कुछ वक्त के लिए सदन से निलंबित करके सदन के संख्या बल को भी प्रभावित कर सकता है। लिहाजा अविश्वास प्रस्ताव के दौरान स्पीकर का पद सबसे अहम हो जाता है. और भविष्य में कभी ऐसी नौबत आती है तो ताकत चंद्रबाबू नायडू के हाथ में ही रहे, इसलिए वो स्पीकर का पद अपनी पार्टी में चाहते हैं।

वैसे बीजेपी स्पीकर का पद नायडू को देने से कतरा क्यों रही है, इसकी एक पुरानी कहानी है। ये कहानी करीब 25 साल पुरानी है. तब अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया था। उन्हें सदन में अपना बहुमत साबित करना था। 17 अप्रैल 1999 को इस प्रस्ताव पर वोटिंग होनी थी. तब वाजपेयी के चाणक्य कहे जाने वाले प्रमोद महाजन ने अनुमान लगा लिया था कि बहुमत उनके साथ है और वाजपेयी अपनी कुर्सी बचा लेंगे। मायावती सरकार से अलग हो चुकी थीं। जयललिता के समर्थन वापसी की वजह से ही ये नौबत आई भी थी। बाकी नेशनल कॉन्फ्रेंस के सैफुद्दीन सोज भी वाजपेयी सरकार के खिलाफ हो गए थे. फिर भी वाजपेयी सरकार को बहुमत था, लेकिन खेल तब पलट गया जब कांग्रेस के एक और सांसद गिरधर गमांग को लोकसभा में वोट देने का अधिकार मिल गया।

गिरधर गमांग कांग्रेस के सांसद थे, लेकिन 17 फरवरी 1999 को ही वो ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे। प्रमोद महाजन इस गलतफहमी में थे कि गिरधर गमांग ने सांसद पद से इस्तीफा दे दिया है और वो सिर्फ मुख्यमंत्री हैं। कांग्रेस को याद था कि उनका मुख्यमंत्री सांसद भी है। तो लंबे वक्त तक संसद से बाहर रहे गिरधर गमांग अचानक से 17 अप्रैल को लोकसभा में पहुंच गए। उनकी मौजूदगी से सत्ता पक्ष में खलबची मच गई। मामला लोकसभा अध्यक्ष तक पहुंच गया। तब लोकसभा के अध्यक्ष हुआ करते थे इन्हीं चंद्रबाबू नायडू की तेलगु देशम पार्टी के सांसद जीएम बालयोगी। जीएम बालयोगी ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके तब के लोकसभा के सेक्रेटरी जनरल एस गोपालन की तरफ एक पर्ची बढ़ाई। गोपालन ने उस पर कुछ लिखा और उसे टाइप कराने के लिए भेज दिया। उस कागज में जीएम बालयोगी ने रूलिंग दी कि गिरधर गमांग अपने विवेक के आधार पर वोटिंग करें। गमांग ने अपनी पार्टी की बात सुनी और वाजपेयी सरकार के खिलाफ वोट किया। यही वो एक वोट था, जिसकी वजह से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर गई। तब सरकार के पक्ष में 269 वोट और सरकार के खिलाफ कुल 270 वोट पड़े थे।

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