“कैसे कहूँ मैं मन की बात”: ‘नरेंद्र’ बुढ़ा दिखने लगे, कल सरकार बन रही है कल गिरने के लिए

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी

सम्मानीय श्री नरेंद्र मोदी जी,
प्रधानमंत्री,
भारत
प्रणाम।

विगत 3 जून, 2024 को संध्याकाळ से आपका चेहरा देख रहा हूँ। अच्छा नहीं लग रहा है। विगत दस वर्षों में आपके चेहरे पर जो आकर्षण की प्रतिभा झलकती थी, अकस्मात बिलिन हो गयी। आपके चेहरे और शारीरिक भाषा-चलन को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा कि उधर 18वीं लोकसभा चुनाव में डाले गए मतों की गिनती शुरू हुई, उधर चेहरे की लालिमा घटती गई। आप हमसे बुजुर्ग हैं और निजी तौर पर मैं बुजुर्गों का बहुत सम्मान करता हूँ। ईश्वर से हमेशा प्रार्थना करता हूँ कि देश में बुजुर्ग स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहे – बिना दो घूंट दवा पिए।

सम्मानित मोदी जी, जब चुनाव परिणाम आना शुरू हुआ तो मेरे मन में एक उम्मीद जगी कि आप विगत दस वर्षों में भारत के जिन-जिन क्षेत्रों में भ्रमण-सम्मेलन किये, उस स्थान की भाषा में बात कर, वहां के लोगों को संबोधित कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिए, लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का अथक प्रयास किये। लोग भी आपके बारे में चर्चाएं घरों में, गलियों में, नुक्कड़ों पर, चाय की दुकानों पर यत्र-तत्र-सर्वत्र करने लगे। आपकी गौरव गाथाएं गाने लगे। परन्तु जब चुनाव परिणाम आना शुरू हुआ, लोगों की आशाएं बढ़ने लगी कि आप वहां के मतदाताओं को उनकी ही भाषा में ‘धन्यवाद ज्ञापित’ करेंगे। लेकिन आपभी अन्य नेताओं की तरह ‘जोड़-घटाव-गुणा-भाग” में लग गए और उन मतदाताओं को भूल गए जिन्हे आप उनकी भाषा में बात कर सम्वोधित किये थे।

मोदी जी, मेरे एक बड़े भाई हैं उनका नाम भी ‘नरेंद्र’ (श्री नरेंद्र कुमार झा) है। वे पटना के एक महत्वपूर्ण, प्रतिष्ठित और वेबाक प्रकाशक हैं। वे न तो झूठ बोलते हैं और ना ही अपने लाभार्थ लोगों को बरगलाते हैं। वे भी अस्सी वसंत अब तक देख चुके हैं जिसमें कोई सत्तर वसंत देश के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जैसे लोगों के सानिग्ध में। उनके घर और दिनकर के घर के बीच दस कदम की दूरी है। मैं अपना बचपन भी इसी घर की मिट्टी में गुजारा हूँ। विगत दिनों जब बिहार में सुशील मोदी के देहावसान के बाद आप उनके घर श्रद्धांजलि देने गए थे, पटना के ‘नरेंद्र’ भी राजेंद्र नगर गोल चक्कर के पास आपका अभिनंदन करने कतारबद्ध थे। लेकिन आप उन्हें नहीं पहचानते थे। जबकि पटना ही नहीं, बिहार के लोगों के लिए वे बहुत श्रद्धेय हैं।

दिल्ली में मेरे एक मित्र हैं उसका नाम भी ‘नरेंद्र’ (श्री नरेंद्र बिष्ठ है। पेशे से वह छाया-पत्रकार हैं। विगत चार दशकों और अधिक समय वह छाया-पत्रकारिता में अपना जीवन समर्पित किया है। पहाड़ का रहने वाला है। कभी उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहने वाला पहाड़ का वह भाग सन 2000 के 9 नवम्बर को राजनीती का शिकार हो गया – उत्तर प्रदेश का दो फांक हो गया। एक अलग वजूद होने के बाद भी नवनिर्मित उत्तराखंड में विकास के वे अवसर नहीं उपलब्ध हो सका, जिसका वह हकदार था। राजनेता लोग स्वहित में राज्य का निर्माण करने में सफल तो हो गए, लेकिन राज्य के लोगों को उचित शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार और अन्य अवसर बनाने, देने में विफल रहे। नेता जैसे-जैसे विकसित होते गए, प्रदेश गरीबी रेखा के नीचे जाता गया। अपनी घोर उपेक्षा और शोषण के कारण पहाड़ पिघलने लगा, टूटने लगा । स्वाभाविक है पहाड़ के लोग भी अपने जान-माल के रक्षार्थ समतल पर आने लगे। आज कई हज़ार गाँव वीरान है। मेरे मित्र ‘नरेंद्र बिष्ठ’ आपको जानता है, क्योंकि आप प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं, लेकिन आप उसे नहीं जानते, क्योंकि वह राजनीतिक गलियारे की चमचागिरी, खुशामदी से मीलों दूर रहता है।

मोदीजी, मेरे एक ‘आदर्श’ हैं और उनका नाम भी ‘नरेंद्र’ ही है। दुर्भाग्यवश वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। कई दशक पूर्व वे इस दुनिया को अलविदा कहकर चले गए। मेरे आदर्श की बड़ी बहन श्रीमती सूर्यमणी देवी की चौथी पीढ़ी के वंशज आज भी जीवित है। आपके प्रधानमंत्री बनने से पूर्व बनारस पर कार्य करने के दौरान मेरी पुस्तक “रीविजिटिंग बनारस” में श्रीमती सूर्यमणी देवी के वंशज भी 990-शब्द उस पुस्तक में लिखे हैं कि आखिर क्यों उसके पूर्वज को बनारस के लोगों ने ‘तिरस्कृत’ कर दिया और उनके मरणोपरांत बनारस ही नहीं, पूरा विश्व उनके नाम का, उनके विचारों का स्वहित में ‘राजनीतिकरण’ कर दिया।

यह अलग बात है कि आज सैकड़े 95 से अधिक फीसदी भारत ही नहीं, विश्व के लोग, मेरे उस आदर्श के असली नाम भी नहीं जानते हैं। मेरे वे आदर्श अपने जीवन काल में तीन बार बनारस आये। उनकी इक्षा थी कि बनारस के घाट पर एक मठ बनाया जाय अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए। लेकिन उस ज़माने के लोगों ने उनके साथ राजनीति कर दिए। मेरे ही तरह वे ‘अर्थ से दीन’ थे, लेकिन ‘मस्तिष्क’ से मजबूत थे। उस राजनीति का परिणाम यह हुआ कि बनारस में उनका मठ नहीं बन पाया और वे अंतिम बार बनारस की गंगा को प्रणाम कर चल दिए फिर कभी नहीं आने के लिए। अपने अंतिम सांस तक वे कभी बनारस नहीं आये और उनका मठ भी नहीं बना। पिछले दिनों आप बनारस में नहीं, बल्कि दक्षिण भारत में उस स्थान पर साधना भी किये हैं जो मेरे आदर्श के नाम से विख्यात है।

मैं जानता हूँ कि आप मेरे आदर्श को जानते हैं, नाम से, ज्ञान से – लेकिन वे आपको नहीं जानते वे, क्योंकि वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। जानते हैं उनका नाम क्या है? श्री नरेन्द्रनाथ दत्त। भारत ही नहीं विश्व के लोग उन्हें स्वामी विवेकानंद के नाम से जानते हैं। क्या इत्तेफाक है। खैर। यह बात इसलिए लिख रहा हूँ कि आप का शुरूआती दिन, यानी जब आप देश का नेतृत्व करने का दायित्व अपने हाथों लिए, भारत के लोगों को एक उम्मीद जगी थी। लेकिन विगत दस वर्षों में भारत में जिस तरह एक तरफ पेड़-पौधों का कटाव हुआ, आपके इर्द-गिर्द के चमचे, चाटुकार, खुसामद करने वालों, चापलूसी करने वालों, झूठी तारीफ करने वालों, मक्खन लगाने वालों की तायदात कुकुरमुत्तों जैसा बढ़ता गया – समाज का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा, चाहे लेखक हों, पत्रकार हों, विशेषज्ञ हों, विद्वान हों, विदुषी हों – सभी कतारवद्ध हो गए आपका गुणगान करने, चाहे आप गलत ही क्यों न हों । कोई किताब लिखने लगे तो कोई आपकी तस्वीरों पर लेख लिखने लगे। परन्तु जो बात आप तक पहुंचनी थी, सच, वह रास्ते में ही ‘छन’ गए। खैर।

श्री मोदी जी। आप देश के प्रधानमंत्री हैं। नेतृत्व आपके हाथ में है। अतः हमारा यह दायित्व है कि आपका सम्मान करें। साथ ही आपसे भी निवेदन है कि आप भी सच सुनने की हिम्मत रखें। जो सच की तरह दिखे वह नहीं सुनें क्योंकि आपका वही सुनना विगत 3-4 और 5 जून का चुनाव परिणाम है। आपकी दशा और आने वाले दिनों में राष्ट्र की दिशा के बारे में आज सोच ही रहा था तभी आज अचानक सन 1971 के दशक की एक फिल्म ‘शर्मीली’ याद आ गयी। वजह था इस फिल्म में भी ‘नरेंद्र’ नाम का पात्र है। इस फिल्म में शशि कपूर, राखी, नरेन्द्रनाथ, नज़ीर हुसैन, अनीता गुहा, असित सेन आदि शीर्षस्थ कलाकार काम किये थे। इस फिल्म के निर्माता थे श्री सुबोध मुखर्जी और निर्देशन किया था समीर गांगुली। इस फिल्म में श्री गोपालदास सक्सेना यानी श्री नीरज साहब ने एक गीत लिखा था जिसमें संगीत दिया था श्री सचिन देव वर्मन और गायक लता मंगेशकर। यह गीत राग ‘पतदीप’ पर आधारित थी। वैसे राजनीतिक बाजार में इस बात पर गुफ्तगू होती है कि इस गीत के तीन शब्दों को निवर्तमान और फिर वर्तमान सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के अग्रणी नेता अपने ‘सम्वोधन’ का शीर्षक भी रखा था। उम्मीद हैं आप सभी के जेहन में आज भी शर्मीली फिल्म का वह गीत और उसके बोल जरूर होंगे।

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सब के आंगन दिया जले रे,
मोरे आंगन जिया
हवा लागे शूल जैसी,
ताना मारे चुनरिया – २
कैसे कहूँ मैं मन की बात,
बैरन बन गई निंदिया
बता दे मैं क्या करूँ

इस गीत का जिक्र यहाँ दो कारणों से किया हूँ। एक: आपकी ‘मन की बात’ या आपकी वर्तमान मनोदशा की व्याख्या यह गीत कर रहा है जिसे आपकी पसंदीदा गायिका लता जी गायी हैं। और दूसरे यह गीत सत्तर के दशक के मेरे गुरुदेव की सत्यता को भी बताता है। आज भारतीय पत्रकारिता में चाहे-अनचाहे में जिस कदर शब्दों का प्रयोग हो रहा है, शब्दों के रंग बदल रहे हैं, भाव-भंगिमा बदल रहे हैं सम्पादकों का, मालिकों का, वह सोचनीय है।

“बता दें मैं क्या करूँ” के बदले “बता दें मैं क्या लिखूं” पूछे थे उसी ज़माने में आर्यावर्त अखबार के तत्कालीन सहायक संपादक आचार्य परमानन्दन झा शास्त्री जब एक दिन के अवकाश’ के लिए ‘सच’ लिखे थे। जिन शब्दों का प्रयोग किया था वह सभी शब्द सत्यता के उत्कर्ष पर था। उन दिनों आर्यावर्त अख़बार के रविवासरीय संस्करण में सम्पादकीय पृष्ठ के अगले पृष्ठ पर बाएं हाथ पहला-दूसरा खंड में एक लेख प्रकाशित होता था “बहिरा नाचे अपने ताल” के शीर्षक से। सम्मानित शास्त्रीजी का एक और साप्ताहिक लेख था “चुटकुलानन्दजी की चिठ्ठी’ जो समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक गतिविधियों पर आधारित होता था। बिहार के पाठक भले उस लेख के लेखक को नहीं पहचानते थे शरीर और चेहरे से, लेकिन उनका वह लेख, उसके शब्द ही उनकी पहचान बन गई थी गौतम बुद्ध, महावीर, चाणक्य के प्रदेश में। सभी इस बात का कदर करते थे कि कोई तो है जो ‘सच जैसा झूठ’ नहीं बोलता है, लिखता है।

बाएं कंधे पर पीछे से काला छाता लटकाये, महात्मा गांधी जैसा ठेंघुना से ऊपर धोती, आधा शरीर में वस्त्र पहने जब वे अपने दफ्तर पहुँचते थे। कई लोग दो शब्द बात करने आगे आते थे, तो कई लोग जो उनकी प्रतिभा को सह नहीं सकते थे, दो कदम पीछे हो ले लेते थे। कई लोग यह भी इंतज़ार करते थे कि वे आएं तो मिलकर, प्रणाम कर ही जाऊंगा; कई लोग इस इंतज़ार में रहते थे कि जब वे चले जायेंगे, फिर उस ओर उन्मुख होंगे। उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे “झूठ” नहीं बोलते थे और “चमचागिरी कहें या मक्खनबाजी” कहें – नहीं करते थे। उनके विचार और कार्य के प्रति निष्ठा के कारण मेरे बाबूजी के साथ उनका बहुत मधुर सम्बन्ध था। यदाकदा बाबूजी उन्हें श्रीमद्भगवदगीता के श्लोकों को उद्धृत कर कर्तव्य के प्रति निष्ठा की बात को दोहराते थे।

उसी कालखंड में उन्हें एक विशेष कार्य हेतु एक दिन का अवकाश लेना था। वे संपादक के नाम लिखित आवेदन में उस कार्य को उद्धृत किये जिसके कारण वे अवकाश चाहते थे। उनके आवेदन को पढ़ते ही बिजली की तरह बातें सम्पूर्ण संस्थान में फ़ैल गई। कई लोग उस आवेदन में लिखे शब्दों को ‘सही’ मान रहे थे तो कई ‘गलत’, लेकिन कार्य और उद्धृत शब्दों में गहरा सम्बन्ध था। कार्य था: “अपनी बकरी को बोतू के पास ले जाना ताकि बकरी के शरीर की जैविक मांग पूरी हो सके और वह अपना वंश बढ़ाए।” उन दिनों बिहार की आवादी (बकरी की नहीं) कोई 42126236 के आस-पास थी और जनसँख्या में वृद्धि दर भी कम नहीं था तभी तो आज पचास वर्षों में हम 130725310 पहुँच गए हैं। बकरी की जनसँख्या कितनी बढ़ी यह बात प्रदेश की सरकार और उसके अधिकारी जनगणना में नहीं बताये। वजह भी था – बकरी का राजनीतिक बाजार में कोई मोल नहीं है। उन्होंने लिखा था कि ‘अमुक’ कार्य के लिए मुझे जाना है और मैं कार्यालय आने में असमर्थ रहूँगा।

मेरे बाबूजी कहते भी थे कि “आधुनिक युग में पुरुषों का पुरुषार्थ उसकी शारीरिक क्षमता से नहीं, बल्कि धन-दौलत, जमीन-जायदात, बैंक में राखी राशियां, राजनीति में उसका दबदवा आदि तत्व होंगे तो उसके पुरुषार्थ को निर्धारित करेगा। बाबूजी यह भी कहते थे कि जब किसी व्यक्ति को सड़क पर जमीन मिल जाय, सड़क पर मकान मिल जाय, सड़क पर दूकान मिल जाय, उसकी हैसियत बढ़ जाती है। लेकिन जब वह व्यक्ति खुद सड़क पर आ जाय तो उसका पुरुषार्थ मिट्टी पलीद हो जाता है। बबजू सच कहते थे। आज देश के राजनीतिक बाज़ार में अपने ही देश के प्रधानमंत्री को देखकर मन दुखी हो गया क्योंकि परोक्ष रूप से वे सड़क पर ही थे।

उन दिनों आर्यावर्त ही नहीं, पटना से प्रकाशित सभी अख़बारों, मसलन इंडियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप, कौमी आवाज, जनशक्ति की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी किउस कार्यालय में कार्य करने वाले कोई भी पत्रकार अथवा लेखक “झूठ” खबर नहीं लिखता था, प्रकाशित करता था। सम्पादकीय विभाग से लेकर संवाददाता था, चाहे प्रदेश के मुख्यालय में पदस्थापित हों अथवा प्रदेश के सभी 52 जिलों में पदस्थापित जिला संवाददाता – अपवाद छोड़कर झूठ कोई नहीं लिखता था। इसका जीवंत परिणाम यह दीखता था कि उन दिनों प्रदेश के सरकारी अथवा गैर-सरकारी कार्यालयों में काम करने वाले हाकिम से लेकर चपरासी तक, अख़बारों में काम करने वाले चपरासी से भी ‘तमीज’ और ‘तहजीब’ से बात करते थे, उन्हें सम्मान देते थे। यह तब की बात थी जब अख़बारों के पन्नों पर काळा अक्षरों में लोगों का सफ़ेद करतूत प्रकाशित होता था। लेकिन जैसे जैसे अक्षरों के रंग बदलते गए, अक्षर रंग-बिरंगा होता गया, अक्षर अपना वजूद खोता गया। लिखने-बोलने वाले भी अपने सम्मान को नहीं बचा सके।

आज सुबह-सवेरे जब एफएम रेडियो पर ‘शर्मीली’ फिल्म का यह गीत सुने और साथ ही टीवी पर भारतीय जनता पार्टी के आला नेताओं की तस्वीरों को आते-जाते देखे, तो अचानक बनारस के घाट वाली बात याद आ गई। पहले शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खान और फिर बाद में बनारस पर कार्य करते समय एक बात याद आ गई। आज ‘बनारस’ के लोग भी ‘उस नरेंद्र’ को नहीं जानते जिसे बनारस के लोग ‘स्वामी विवेकानंद’ के नाम से जपते हैं, पूजते हैं। भारतीय राजनीतिक बाजार में स्वार्थी लोगों के हाथों खूब बिके, आज भी बिक रहे हैं और कल भी बिकते रहेंगे स्वामी विवेकानंद, लेकिन नरेंद्र नाथ के विचारों को, उनकी योग्यता को अपनानाने वाला आज भारत में शायद व्यक्ति नहीं है।

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श्री मोदी जी आज अचानक आपके चेरे पर ‘उम्र’ दिखने लगी। आपको देखकर लगने लगा की आप सच में 74 वर्ष के हो गए हैं। मोदी जी का जन्म 17 सितम्बर, 1950 को, यानी भारतीय संविधान के लागू होने के आठवें महीने में हुआ था। जब भारत गणराज्य घोषित हुआ था उसके आठवें महीने में सम्मानित मोदी जी अवतरित हुए थे। जबकि बिहार के नीतीश कुमार भी पहली मार्च, 1951 को ही जन्म लिए थे और अभी 73 वर्ष के हैं। इतना ही नहीं, मोदी जी के अभी दंतहीन नहीं हुए हैं। बोलने के समय उनके होठ इधर-उधर लड़खड़ाते नहीं हैं, जबकि नितीश बाबू को बोलते समय उनके मुखमण्डल के साथ-साथ होठ, गाल की क्रियाकलापों को देखिये। सर पर सफेदी दोनों के पास है। अब सम्मानित नरेंद्र मोदीजी दस वर्षों से प्रधानमंत्री रहे, आगे बनने जा रहे हैं, स्वाभाविक है चेहरे पर तेज अधिक होगा। जबकि नीतीश बाबू कितना तेजी दिखाएंगे। मोदी जी, आज भी लिख लें “बिहार में वैसे कोई भी नेता बिहार के कल्याणार्थ, विकासार्थ कभी चिंतित नहीं हुए। जैसे जैसे प्रदेश के नेता आर्थिक रूप से स्वस्थ और मजबूत होते गए, प्रदेश रसातल की ओर उन्मुख होता गया और नीतीश कुमार भी अछूता नहीं हैं।”

आज नरेंद्र मोदी की तेजी धराशायी दिख रही थी। मुख मलिन था। चेहरे पर जो रौनक इस माह के प्रारंभिक सप्ताह में था, वह रौनक नीतीश कुमार के चेहरे पर हस्तांतरित हो गया था। भाजपा या उनके सहयोगी दल और नेता मेज भले ठोक रहे थे जब राजनाथ सिंह मोदी गान कर रहे थे। साथ ही कई लोगों को तख़्त ठोकने के बाद अपना तलहत्थी भी देखते देखा। श्री परमानंदजी शास्त्री कहते थे “बौआ यौ!!!! समय से आगू नै भागु। समय के नीचा नै देखौ।” इसका ज्वलंत दृष्टान्त है मोदी जी और आप इसे स्वीकार करें। वैसे भारत के पत्रकारिता जगत के लोग, आपके चाटुकार, चापलूसी करने वाले आपको ताड़ के पेड़ पर चढ़ा रहे हैं, यह कहते थक नहीं रहे हैं कि पंडित नेहरू के बाद आप इतिहास बना रहे हैं। लेकिन यह कोई नहीं कह रहे हैं कि आपकी पकड़ न केवल देश पर, भारत के मतदाताओं पर कमजोर हो गयी है, अपितु आपकी पार्टी और पार्टी के नेताओं से भी हाथ फिसल रही है। सभी प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री, स्वास्थ्य मंत्री बनना चाह रहे हैं।

तनिक विचार कीजिये : इस बार बनारस में आपके पक्ष में 54 . 2 फीसदी मतदान हुआ यानी उन्हें 612970 मत मिले जबकि इन विरोधी अजय राज को 460457 मत मिले (40.7) यानी 152513 मतों से विजय हुए। एक प्रधानमंत्री के लिए यह अंक उसके सम्पूर्ण क्षमता, दक्षता को मिट्टी पलीद करता है मोदी जी।सोचिये न मोदी जी। आपके पार्टी के ही विदिशा लोक सभा संसदीय क्षेत्र से मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री शिवराज चौहान आठ लाख मतों के अंतर से विजय हुए। जबकि असम के धुबरी लोकसभा क्षेत्र से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रकीबुल हुसैन दस लाख मतों के अंतर से विजय हुए। अनेकानेक दृष्टान्त हैं मोदी जी जो ‘विचारणीय’ है। वैसे अनुयायी, चमचे कुछ भी कहें, कुछ भी लिखें। जिस अमेठी को आप चुनाव की नाक बनाये थे, वहां कृष्णा लाल के हाथों आपकी ही पार्टी की नेता श्रीमती स्मृति ईरानी की नाक कट गई। इतना ही नहीं, जिस अयोध्या को लेकर, राम के आगमन को लेकर 17 वीं लोकसभा से 18 वीं लोकसभा की यात्रा तय की गई, लोगों को रमा-राम का पाठ पढ़ाये, उसी अयोध्या में राम भाजपा के घर से निकलकर कहीं और चले गए।

बहरहाल, विगत 84-दिवस पूर्व जब देश में 18वीं लोक सभा के गठन और तदनुसार आम चुनाव की घोषणा हुई, एक दिन पूर्व 15 मार्च, 2024 को भारत के निर्वाचन आयोग में दो आयुक्तों की नियुक्ति हुई। श्री ज्ञानेश कुमार और श्री सुखबीर सिंह संधू ने चुनाव आयुक्त का कार्यभार संभाला। उस दिन था तो शुक्रवार लेकिन शनि की दशा प्रारम्भ हो गई थी। उस दिन एक और जहाँ मुख्य चुनाव आयुक्त श्री राजीव कुमार ने निर्वाचन सदन में नवनियुक्त चुनाव आयुक्तों का स्वागत किया, चुनाव आयुक्‍तों के लिए आगामी बारह सप्ताह अति व्‍यस्‍त और चुनौतीपूर्ण होने वाले हैं शब्दों का शंखनाद किया, इन दोनों चुनाव आयुक्‍तों के शामिल होने के महत्व पर जोर दिया – 80 वें दिवस आते-आते रामचरित मानस की चौपाई “जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता” चरितार्थ होने लगे और निर्वाचन आयोग के प्रवेश द्वार पर सत्तारूढ़ पार्टी के नेता लोग देखकर ‘अनदेखा’ करने लगे। यानी इन दो चुनाव आयुक्तों का पैर सत्तारूढ़ पार्टी के लिए शुभकारी नहीं हुआ। अबकी बार 400 पार का नारा कसा नहीं जा सका, बल्कि खुला गया।

कल चुनाव आयोग के तीनों आयुक्त महोदय देश के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति से मिले। तस्वीरों को देखने से ऐसा लगा कि कौन कितने खुश हैं। उनके द्वारा माननीया राष्ट्रपति को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 73 के संदर्भ में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा जारी अधिसूचना की एक प्रति सौंप दी गई, जिसमें 18वीं लोकसभा के आम चुनावों के बाद लोक सभा के लिए निर्वाचित सदस्यों के नाम शामिल हैं। ज्ञानेश कुमार केरल कैडर के जबकि डॉ. सुखबीर सिंह संधू उत्तराखंड कैडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1988 सत्र के अधिकारी हैं। इतना ही नहीं, चुनाव से पूर्व पुरे देश में चुनाव पर पैनी निगाह रखने के लिए लाखों-लाख सैन्य वल तैनात किये क्योंकि मन में ‘हिंसा का भय था’, लेकिन कल शाम ‘महात्मा गाँधी की आत्मा से मिलने राजघाट भी पहुंचे। यह भी कहे महात्मा गांधी के अहिंसा के संदेश ने शांतिपूर्ण और हिंसा मुक्त चुनाव के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को प्रेरित किया। राष्ट्रपिता को राजघाट पर राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि अर्पित भी किये।

फिर कहते रुके भी नहीं कि “हम यहां राष्ट्र द्वारा हमें सौंपे गए पवित्र कार्य, 18वीं लोकसभा के आम चुनाव सम्‍पन्‍न कराने के बाद राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए खड़े हैं। हम भारत के लोगों की इच्छा को लगभग अहिंसक तरीके से उत्प्रेरित करने के बाद अपने दिल में विनम्रता लिए हुए यहां खड़े हैं। “लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है”, यह वह स्पष्ट प्रतिबद्धता थी जिसके साथ 16 मार्च, 2024 को 18वीं लोकसभा के चुनावों की घोषणा की गई थी। चुनावी प्रक्रिया को हिंसा से मुक्त रखने की इस प्रतिज्ञा के पीछे हमारी प्रेरणा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी थे। उन्होंने इंसान के बीच समानता की वकालत की और सभी के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों की वकालत की।”

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हम इस शपथ के साथ अपनी बात समाप्त करते हैं कि भारत के निर्वाचन आयोग की राष्ट्र के प्रति सेवा, जो अब अपने 76वें वर्ष में है, अडिग समर्पण के साथ जारी रहेगी। हमने अफवाहों और निराधार संदेहों के साथ चुनावी प्रक्रिया को दूषित करने के सभी प्रयासों को खारिज कर दिया, जो अशांति भड़का सकते थे। भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं में अपार आस्था रखने वाले आम आदमी की ‘इच्छा’ और ‘बुद्धि’ की जीत हुई है। हम नैतिक और कानूनी रूप से स्वतंत्र, निष्पक्ष और समावेशी चुनाव आयोजित करके हमेशा इसी भावना को बनाए रखने के लिए बाध्य हैं।

मोदी जी। न आप और ना ही आपके इर्दगिर्द के लोग ‘जनसत्ता” के पूर्व वरिष्ठ पत्रकार संजया कुमार सिंहकी लिखनी को ध्यान दिए। संजया जी ने लिखा भी था: “मैंने भाजपा को 240 सीटें ही मिलने का हिसाब लगाया था। मेरा हिसाब आसान है। 2014 में जैसी भाजपा थी उसे 282 सीटें मिली थीं। अब कांग्रेस तब से बेहतर है। उसके 12 सीटें घटा कर 270 मान लीजिये। दस साल में हम भाजपा, संघ परिवार और नरेन्द्र मोदी को जान गये हैं और जो जाना है उसके 30 लक्षणों के लिए 30 सीटें कम कर दीजिये तो 240 बचती हैं। यही आनी थीं, आईं। अब जब कहा जा रहा है कि जनादेश मोदी सरकार के खिलाफ है तो समर्थक कह रहे हैं कि मोदी की सीटें ज्यादा हैं। इंडिया गठबंधन की कम हैं। मोदी सरकार की सीटें ज्यादा हैं उसके निम्नलिखित 20 कारणों के लिए 40 सीटें कम कर दीजिये तो भाजपा कहां टिकती है?”

उनका कहना था कि “चुनाव जीतने के लिए जो सब किया गया उसमें: भारत रत्न लुटाये गये (पांच), सीएए लागू किया गया, जेबी केंचुआ का गठन, दस साल सिर्फ हिन्दू मुसलमान, आग लगाने वालों को कपड़ों से पहचानने दावा, तुष्टिकरण का विरोध, संतुष्टिकरण का दावा, प्रमुख विपक्षी दल का खाता फ्रीज होना, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, जमानत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पर आरोप, महिला आरक्षण मातृशक्ति चरण वंदना, तस्वीर और प्रचार, बसपा, बीजद और पल्टू चाचा की निष्पक्षता और स्वतंत्रता (16 का हिसाब है), इंडिया गठबंधन के खिलाफ प्रचार, झूठ और निराधार आरोप, व्हाट्सऐप्प पर झूठ, अफवाह और कार्रवाई नहीं, न्याय यात्रा और नेशनल हेराल्ड केस शुरू, दस साल में एक भी भ्रष्टाचारी कांग्रेसी नहीं मिला, इंडिया गठबंधन या समूह को इंडी गठबंधन बोलना, आम आदमी पार्टी के खिलाफ सबूत न होना और अनुभवी चोर कहना, लालू यादव का मामला ना कांग्रेसी है ना 2014 के बाद का, इसी से नतीजों के बाद हिन्दुओं पर हमले हो रहे हैं, संसदीय मर्यादाओं के हत्यारे का फिर जीतना खबर नहीं है, बेअंत सिंह के बेटे की जीत खबर है – यह हमारे लोकतंत्र का हाल है।”

उन्होंने यह भी लिखा था कि “2014 में भाजपा को 282 सीटें मिली थीं। अभी उससे खराब स्थिति है। 270 सीटें मान लीजिये। तीस कारण हैं और हरेक कारण के लिए एक यानी कुल 30 सीटें घटा दीजिये। 240 से जो ज्यादा आये तो उसका श्रेय सीबीआई, ईडी, केचुआ और ईवीएम को बराबर दीजिये। अगर पहले जानना चाहते हैं तो इन शाखाओं से मिल सकने वाली सीटें अपने हिसाब से जोड़ लीजिये। एक दम सही सीटें मिलनी चाहिये।”

बहरहाल, मोदी जी आपको अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक, इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी, इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की सहित विश्व के कई नेताओं ने लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की जीत पर बधाई दे रहे हैं, साथ ही, आपके साथ मिलकर काम करने की इच्छा व्यक्तकर रहे हैं।

कल आप मंत्रिमंडल का शपथ लेंगे। तीसरी बार सरकार बनाएंगे। लेकिन मोदी जी, भारत और अमेरिका के बीच मित्रता, भारत-रूस के बीच मित्रता, भारत-ब्रिटेन के बीच सम्बन्ध सभी बातें अच्छी हैं, बेहतर है – लेकिन मोदी जी भारत के मतदाताओं को तबज्जो देना अधिक जरुरी है। आपको अमेरिका, ब्रिटेन, लंका, नेपाल, रूस, ऑस्ट्रेलिया, क़तर, जिम्बावे, डेनमार्क, ओमान, पुर्तगाल, पोलैंड, जर्मनी, जापान, फ़्रांस, स्पेन आदि विश्व के 195 देशों के राष्ट्राध्यक्षों से बधाई और सम्बन्ध मधुर बनाने, होने की बात तभी आएगी जब भारत के लोग आपके प्रति, आपकी पार्टी के प्रति विश्वास रखेंगे। अगर विश्वास होता तो 543 लोकसभा क्षेत्रों में आप 240 पर कैसे सिमट जाते ? यानी देश के 45 फीसदी मतदाता आपके पक्ष में मतदान किये यानी आप को सरकार बनाने के लिए जो दो तिहाई बहुमत चाहिए, नहीं मिला। आपकी भी स्थिति नीतीश कुमार जैसी ही हो गयी। नीतीश कुमार शर्त रख दिए थे ‘मुख्यमंत्री’ हम ही रहेंगे तभी ‘लालू’ का साथ छोड़ेंग। आप भी शर्त मंजूर कर लिए। आज आपकी स्थिति नीतीश कुमार जैसी है।

खैर। यह राजनीति है मोदी जी। आपकी सरकार कल बनने जा रही हैं कल गिरने के लिए – क्योंकि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडु इन बातों का चिंतन जरूर करेंगे कि अगर कहीं उन्होंने मोदी को अपनी-अपनी पार्टी का समर्थन दे दिया तो साल भर के अंदर उन्हें वह दिन देखना पड़ेगा, जब एक दिन सुबह वह उठेंगे तो उनके सारे सांसद मय पार्टी के भाजपा में शामिल हो चुके होंगे और वे निपट अकेले खड़े होंगे। शरद पवार और उद्धव ठाकरे यह दर्द झेल चुके हैं।

कई वर्ष तक पर्दे के पीछे से बार बार भाजपा की मदद करने वाले नवीन पटनायक आज अपने राज्य से बेदख़ल हो चुके हैं। न जाने किस अज्ञात दबाव में भाजपा से डरने वाली मायावती जी भारत की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी से शून्य पर पहुँच चुकी है। कभी पंजाब में दबदबा रखने वाले भाजपा के लंबे समय से गठबंधन सहयोगी रहे अकाली आज एक सीट पर सिमट गए हैं। भाजपा की सोहबत में रह कर कभी तमिलनाडु की बहुत बड़ी शक्ति होने वाली जयललिता की पार्टी आज मृतप्राय हो चुकी है। हरियाणा में कुछ साल पहले नई शक्ति के तौर पर उभरी जजपा एक ही बार भाजपा के मोहपाश में फँसी और राजनीतिक रसातल में पहुँच गई।

भाजपा के साथ कश्मीर में सरकार चलाने वाली महबूबा मुफ़्ती की पार्टी का आज कुछ पता नहीं है। और ख़ुद नीतीश कुमार बिहार की सबसे बड़ी शक्ति से घटकर विधानसभा चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बन गए थे। भाजपा से पुराने रिश्तों के कारण ही चंद्रबाबू नायडू एक ज़माने में आँध्र प्रदेश के सर्वोच्च नेता से घटते घटते ग़ायब हो गए थे और फिर क़िस्मत से वापस आए हैं। ममता_बनर्जी ने समय रहते भाजपा से अपना संबंध ख़त्म कर दिया था और वे आज भी शान से बंगाल की मुख्यमंत्री है।

इसलिए हे पार्थ !!!

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