अपनी ही गलियों में गुमनाम हो गयी बीबी गौहर जान, ‘तवायफ़’ से ‘वेश्या’ कहने लगे लोग

बीबी गौहर जान

पुरानी दिल्ली: अचानक पुरानी दिल्ली की एक ऐतिहासिक गली में मंदिर की घंटी के साथ भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में महात्मा गांधी का हाथ थामने वाली तवायफ़ बीबी गौहर जान के प्रति श्रद्धासुमन हेतु आँख डबडबा गयी। वहीँ  आज़ाद भारत के 76 वर्ष में ही उसी गली में, जो तवायफ बीबी गौहर जान के नाम से अंकित है, वर्तमान समाज के लोगों की मानसिकता को देखकर, पढ़कर ‘आत्मा से अश्रुपूरित’ हो गया । लाल किले से कोई दो किलोमीटर और ऐतिहासिक जामा मस्जिद से लगभग एक किलोमीटर अंदर गली में आज भी ऐतिहासिक हवेली गौहर जान की गाथाओं को अपने सीने पर, ईंट-पत्थरों पर गुदाये बैठी है। लेकिन उस गली में रहने वाले, उस रास्ते आवक-जावक करने वाले हज़ारों-लाखों लोग तवायफ गौहर जान को ‘वेश्या’ कहते नहीं थकते। हकीकत यह है कि वे उसी हवेली की साया में संभवतः जन्म लिए, बचपन , जवानी जीते आज वृद्धवस्था में भी पहुँच गए। कई तो उन्ही गलियों से चार कन्धों पर आश्रित होकर अग्नि के माध्यम से अनंत यात्रा पर निकले तो कई जमीन में दफ़न हो गए । 

उसी गली के नुक्कड़ पर एक मंदिर में घंटी बज रही थी। मंदिर परिसर में कोने में रखे आधुनिक वाद्ययंत्रों पर भजन-कीर्तन बज रहा था। बाहर प्लास्टिक के पाइप से पानी की धाराओं से महादेव के साथ-साथ ने देवी-देवताओं को नहलाया जा रहा था। बगल में दीप भी प्रज्वलित था। लेकिन सबों की नजर में गौहर जान ‘वेश्या’ थी। आज की पीढ़ियां शायद इस बात से अनभिज्ञ है कि जंगे आज़ादी के दौरान ‘यही महिला’ जिसे आज का समाज ‘वेश्या’ शब्द से ‘अलंकृत’ कर रहा है, आर्थिक तंगी के दौरान मोहनदास करमचंद गाँधी को 12000 रूपये की मदद की थी अपनी गीत-गानाओं और घुंघरू की कमाई से। वैसे यह घटना आज से कोई 124+ वर्ष पहले की है, लेकिन आज भी भारत ही नहीं, विश्व की संगीत की दुनिया में बीबी गौहर जान अपनी आवाज से जीवित है। 

कल की ही तो बात है। कल पुरानी दिल्ली की हौजकाज़ी चौक पर खड़ा था। मेट्रो स्टेशन के अलावे विगत चौंतीस-पैंतीस वर्षों में यहाँ कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। यहाँ तक कि सड़कों के किनारे वाले मकानों में भी न तो प्लास्टर नए लगे हैं ताकि टूटी दीवारों, छतों को रोक सके और ना ही दीवारों पर सफेदी ही हुआ है, जिससे दीवारें मोहल्ले की रौनक बढ़ा सके। उस ज़माने में या उस ज़माने से पहले दिल्ली दूरभाष केंद्रों द्वारा लोगों के घरों तक पहुँचने, पहुँचाने वाली तार भी मोहब्बत में एक-दूसरे से जिस कदर लिपटे थे, आज भी लिपटे ही हैं। बीच-बीच में दिल्ली बिजली बोर्ड् की तारें, कुछ मोटे, कुछ पतले भी, दूरभाष के तारों से अपने संबंधों और मित्रता वाली प्रेमरूपी रिश्ते को बरकरार रखे दिखे। नीचे गलियों में, सड़कों पर, घरों में रखने वालों में भी कोई परिवर्तन नहीं दिखा। नुक्कड़ पर क्या बच्चे-क्या जवान और क्या वृद्ध खड़े दिखे, आपस में बात करते दिखे। 

@अखबारवाला001(196)✍ #अजमेरीगेट की गली: आज भी #सायराबानो का इंतज़ार कर रहा है वह घर, वहां की मिट्टी🌹

इस चौराहे की सबसे बड़ी विशेषता जो उन दिनों भी थी, आज भी बरकरार है वह यह कि यहाँ सूरज के आने से बहुत पहले ही सड़क के किनारे, दुकानों के सामने, फुटपाथों पर सुबह-सवेरे खाने पीने के लिए, चाय के लिए, पूड़ी-कचौड़ी के लिए दुकानें खुल जाती हैं। आम तौर पर ऐसी दुकानों का खुलने का समय प्रातः काल तीन बजे से (कई मामले में रात भर) होता है और जब घड़ी की छोटी सुई नौ पर और बड़ी सुई तीन कदम आगे होती है, ऐसी सभी दुकानदार अपनी-अपनी दुकानों को बढ़ाने लगते हैं। सामने मेट्रो के अंदर का हवा निकालने के लिए जहाँ निकास रूप टीला दीखता है, वहां सैकड़ों रोज-कमाने-रोज खाने वाले मजदूरों की कतार भी उसी तरह लगी थी, जो पहले होती थी। मजदूर अपने-अपने सामानों, मसलन हथौड़ा, कुदाल, छेनी, दौड़ा, बाल्टी आदि (पंक्ति में) रखकर बैठे थे मालिकों के इंतज़ार में। उनकी दशा और दिशा यहाँ से कोई एक किलोमीटर दूर कल के जीबी रोड और आज के श्रद्धानन्द मार्ग पर स्थित वेश्याओं की 72+ कोठों के नीचे अपना पेट और परिवार पालने के लिए जिस तरह वेश्याएं ग्राहकों का इंतज़ार करती है आज़ादी के 76 साल बाद भी, इस चौराहे पर श्रमिक और मजदूर भी ‘काम’ की तलाश में मालिकों और ठेकेदारों का इंतज़ार करते दिखा।  

हौजकाजी-चावड़ी बाज़ार चौराहा

इस चौराहे की एक और विशेषता यह है कि यहाँ चार तरफ से सड़कें आती हैं और चार दिशाओं में निकलकर मुगलकालीन इस पुरानी बस्ती को ल्यूटन्स दिल्ली से, आधुनिक दिल्ली के नेताओं के दफ्तरों से, आवासों से जोड़ती है। यह अलग बात है कि आधुनिक भारत या आधुनिक दिल्ली के तथाकथित निर्मातागण, यानी नेता, अधिकारी, पदाधिकारी, मंत्री, संत्री कभी इस इलाके में नहीं आते। इस दिल्ली में भ्रमण-सम्मेलन करना ‘अछूत समाज’ में भ्रमण-सम्मलेन करने जैसा होता है। तक़रीबन 1825 दिनों में (यदि सरकार चाहे दिल्ली की हो या केंद्र की) गिरी नहीं तो कोई भी नेता, चाहे विधायक हों या सांसद इस इलाके में आधे-घंटे से अधिक समय नहीं देते हैं – चुनाव प्रचार-प्रसार के समय। शेष दिवसों में यहाँ के मतदाताओं को उनके पास जाना होता है, जो कभी ‘सशरीर’ मिलते नहीं हैं। खैर। 

इस चौराहे पर एक सड़क ऐतिहासिक अजमेरी गेट से आती है। दूसरी लाल कुआं की ओर से। तीसरी चावड़ी बाजार से और चौथी सीताराम बाजार से। अगर ल्यूटन्स की दिल्ली से इस स्थान की तुलना करें तो ल्यूटन्स की दिल्ली में जो स्थान कनॉट प्लेस या इण्डिया गेट की है, वही स्थान ऐतिहासिक और उम्र से भी पुराना पुरानी दिल्ली का यह हौजकाजी चौक है। वैसे इस स्थान से कुछ ही दुरी पर ग़ालिब की हवेली भी है और गालिब कहते भी थे: “दिल बहलाने के लिए ख़याल अच्छा है। नब्बे के दशक के पूर्वार्ध, जब दिल्ली आया था, खासकर जब यहाँ से कोई तीन किलोमीटर दूर दिल्ली के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फर के नाम से अंकित दिल्ली गेट से आईटीओ चौराहे तक जाने वाली सड़क पर स्थित इंडियन एक्सप्रेस अखबार का रिपोर्टर बना, इस इलाके में सैकड़ों बार आया था – कहानी करने, कहानी गढ़ने के लिए। आज भी वही करने आया हूँ। 

आज चावड़ी बाजार की ओर जाने वाली सड़क के नुक्कड़ पर खड़ा था। मेरे दाहिने हाथ एक वृद्ध चाय वाला अपने केतली से अंतिम प्याली चाय छानकर अपनी दूकान को बढ़ा रहा था । बाएं हाथ एक और वृद्ध अपने आगे एक टोकरी में पान की एक छोटी दूकान लिए बैठा था । उनके सामने दर्जनों लोग (ग्राहक) अपनी पारी का इन्तजार कर रहे थे। उनकी कमर का झुकाव और उनके चेहरे का झुर्री हौजकाजी-सीतारामबाजार के साथ-साथ उनके उम्र का इतिहास बता रहा था। चेहरे पर झुर्री होने के बाद भी उनके होठ और उनकी उंगलियां दोनों ख़ुशी से लाल थे। उन्हें देखकर मैं मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि हे महादेव!!! इस वृद्ध की ख़ुशी को बरकरार रखना। जिस समय मैं यहाँ खड़ा था यहाँ से आने-जाने वाले लोग सभी एक-दूसरे को पहचानते थे, यह दोनों के चेहरों की भाषा बताता था।

मैं भी एक सादा पान अपने गलफर के अंदर डाला और दो पान राह खर्च के लिए झोले में रखकर दूर जामा मस्जिद का पिछले हिस्सा देख चौड़ी बाज़ार का राह पकड़ लिया। यह रास्ता आगे बाएं हाथ गली लाहौरी वाली, दाहिने चूड़ी बलान, फिर बाएं नई सड़क, दाहिना मटिया महल और सैकड़ों उम्र से भी अधिक पुरानी गलियों के रास्ते लाल किले, दिल्ली गेट, तुर्कमान गेट की ओर निकलती है। चौड़ी बाजार-चूड़ी बलान का यह इलाका अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में, यानी मुग़ल काल के साथ-साथ ब्रितानिया हुकूमत के समय नाचने-गाने वाली तवायफों की बस्ती थी। आज भी सैकड़ों दीवारें, मकान, मकानों के झरोखें इतिहास के पन्नों को उलट रही थी और मैं अपने बाएं कंधे पर झोला और दाहिने कंधे पर कैमरा लिए इस ऐतिहासिक वस्तियों, गलियों में शरीर से तो पैदल चल रहा था, लेकिन मानसिक रूप से पैदल नहीं था।खैर। 

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पुरानी दिल्ली की गलियां और गुमनाम लोग

पुरानी दिल्ली के इस इलाके में ही नहीं, दिल्ली सल्तनत में वुजूर्गों की संख्या आजादी के बढ़ते वर्षों के साथ-साथ घटती जा रही है। दिल्ली की आवादी आधिकारिक रूप से विगत वर्ष (2023) में कुल 32941000 बताया गया। नई दिल्ली को अगर छोड़ भी दें, तो पुरानी दिल्ली के साथ-साथ दिल्ली के अन्य क्षेत्रों में रहने वाले वुजूर्गों की संख्या कम हो रही है। आज इन गलियों में चलते समय गलियों में बिछी पट्ठों की चिकनाई इस बात का गवाह था कि मुद्दत से इन गलियों में दोपाया और चारपाया जीवों का आना-जाना रहा है। चार पाया तो ‘सजीव’ होते हुए भी ‘निर्जीव’ ही रहे, क्योंकि अपने वंश के अलावे वे अगली पीढ़ी को कुछ नहीं दे सकते। लेकिन दो-पायों के बारे में सोचकर मन खिन्न हो रहा था। वुजूर्गों की संख्याओं का कम होना, अथवा उनके द्वारा अपनी अगली पीढ़ियों को, फिर अगली पीढ़ियों को इतिहास नहीं बताने का भुगतान आज हम हौजकाजी-चावड़ी बाजार-लालकुआं-सीताराम बाजार-चूडीबालान -अजमेरी गेट- गली लाहौरी वाली- मटिया महल – जामा मस्जिद की गलियों में भुगतान कर रहे थे। 

आज इन गलियों में, सड़कों पर, मुहल्लों में देश को आज़ादी मिलने से पहले, या उस रात भी, जब तत्कालीन राष्ट्र नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू “A tryst with destiny” राष्ट्र को सम्बोधित किये थे, जो जन्म लिए हों, लोग नहीं दिख रहे थे। जो दिख रहे थे उनके मानस पटल को पढ़कर ऐसा लगता था कि जिस जानकारी की खोज में मैं निकला हूँ, उसकी जानकारी इन्हे तो नहीं होगी और मैं गलत नहीं होता था। शेष जो आवक-जावक दिख रहे थे उनमें पढ़ने-लिखने की अभिरुचि नहीं दिख रही थी। सैकड़ों-हज़ारों लोग गलियों में, सड़क के किनारे बैठे मिले, लेकिन उनमें भारत के दूर दराज जिलों से रोजी-रोटी की तलाश वाले अधिक दिख रहे थे – जिन्हें अपने गाँव, अंचल, प्रखंड, जिला के इतिहास की जानकारी तो होती नहीं, हज़ारों किलोमीटर दूर दिल्ली सल्तनत की इतिहास की जानकारी, वह भी तवायफों के बारे में, वे क्यों रखेंगे? खैर। मैं तो ठहरा रिपोर्टर और खबर निकालना, लिखना तो मेरा धर्म भी है और कर्म भी। 

पुरानी दिल्ली का यह इलाका अधिकाधिक साढ़े छह किलोमीटर से अधिक नहीं है। पुरानी दिल्ली का निर्माण मुग़ल बादशाह शाहज़हां द्वारा ‘शाहजहानाबाद’ के रूप में सन 1639 में किया गया। यह भारत के अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र की राजधानी भी थी। जफ़र को सन 1857 जंगे आज़ादी के बाद 1858 में तत्कालीन ब्रितानिया हुकूमत के अधिकारियों ने गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया था। जंगे आज़ादी के दौरान वैसे अजमेरी गेट-कश्मीरी गेट इलाके में करीब 9644 लोगों ने मृत्यु को वरन किया, लेकिन 1857-1858 में भारतीय विद्रोह या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और उसके बाद, चारदीवारी वाले शहर के कुछ हिस्सों को भारी क्षति हुई थी। आज भी यह इलाका गवाही देता है। वैसे आज के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बाजार उस गवाही का कोई मोल नहीं है। 

@​अखबारवाला001(197) ✍ ​10 मई, 1857 🙏 दिल्ली की गलियां, तवायफ़ और जंगे आज़ादी: एक श्रद्धांजलि 🌺

आज़ादी के 76 वर्ष बाद आज भारत के शहरों से, प्रदेशों की राजधानियों से जो अखबार और पत्रिकाएं प्रकाशित होती है, उसके सम्पादकों को ‘इन इतिहासों’ से कोई मतलब नहीं रहा। संवाददाता भले चीत्कार मारकर रोयें, चिल्लाएं दो सौ पंक्ति की खबर के लिए। खैर सन सत्तावन के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने लाल किला और जामा मस्जिद पर कब्जा कर लिया। उस दौरान यह इलाका भी अछूता नहीं रहा। पैदल चलते चलते सैकड़ों लोगों को पूछा इन इलाकों में तवायफ कहाँ रहती थी? सैकड़ें निनानब्बे फीसदी लोग मुझे श्रद्धानन्द मार्ग की ओर (पहले का जीबी रोड) उंगलिया उठाकर बताये। जैसे ही वे उंगलियां उठाते थे, मुझे लखनऊ की वह मौसी याद आ जाती थी जिसके पास आज़ादी के 42 वे वर्ष कालखंड में घुंघरू और उनके जीवन पर कहानी करने गए थे। वे मौसी कही थी: “आज़ाद भारत में कौन सी शिक्षा का प्रचार प्रसार हो रहा है जो तवायफ और जिश्म बेचकर पेट पालने वाली (रंडी/वेश्या) में फर्क नहीं समझती। पुरानी दिल्ली की इन तंग गलियों में मैं शरीर से पैदल होते हुए भी वर्त्तमान और आने वाली समय को देख रहा था।” 

कहते हैं 1857 के विद्रोह का प्रमुख राजनैतिक कारण अंग्रेज़ों की विस्तारवादी नीति और व्यपगत का सिद्धांत था। बड़ी संख्या में भारतीय शासकों और प्रमुखों को हटा दिया गया, जिससे अन्य सत्तारुढ़ परिवारों के मन में भय पैदा हो गया। रानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र को झाँसी के सिंहासन पर बैठने की अनुमति नहीं थी। डलहौज़ी ने अपने व्यपगत के सिद्धांत का पालन करते हुए सतारा, नागपुर और झाँसी जैसी कई रियासतों को अपने अधिकार में ले लिया। जैतपुर, संबलपुर और उदयपुर भी हड़प लिये गए। लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा अवध को भी ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन कर लिया गया जिससे अभिजात वर्ग के हज़ारों लोग, अधिकारी, अनुचर और सैनिक बेरोज़गार हो गए। इस कार्यवाही ने एक वफादार राज्य ‘अवध’ को असंतोष और षड्यंत्र के अड्डे के रूप में परिवर्तित कर दिया। वर्ष 1840 के दशक के अंत में लॉर्ड डलहौजी द्वारा पहली बार व्यपगत का सिद्धांत नामक उल्लेखनीय ब्रिटिश तकनीक का सामना किया गया था। इसमें अंग्रेज़ों द्वारा किसी भी शासक के नि:संतान होने पर उसे अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने का अधिकार नहीं था, अतः शासक की मृत्यु होने के बाद या सत्ता का त्याग करने पर उसके शासन पर कब्ज़ा कर लिया जाता था। 

देश में असंतोष बढ़ रहा था। कई लोग राजस्व प्राप्ति के अधिकार से दूर हो गए थे या अपने लाभप्रद पदों को खो चुके थे। सन 1857 का विद्रोह एक सिपाही विद्रोह के रूप में शुरू हुआ। भारत में ब्रिटिश सैनिकों के बीच भारतीय सिपाहियों का प्रतिशत 87 था, लेकिन उन्हें ब्रिटिश सैनिकों से निम्न श्रेणी का माना जाता था। एक भारतीय सिपाही को उसी रैंक के एक यूरोपीय सिपाही से कम वेतन का भुगतान किया जाता था। उसने अपने घरों से दूर क्षेत्रों में काम करने की अपेक्षा की जाती थी। वर्ष 1856 में लॉर्ड कैनिंग ने एक नया कानून जारी किया जिसमें कहा गया कि कोई भी व्यक्ति जो कंपनी की सेना में नौकरी करेगा तो ज़रूरत पड़ने पर उसे समुद्र पार भी जाना पड़ सकता है। यह विद्रोह भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक निर्णायक मोड़ था। देश में आज़ादी की भूख लगभग सभी के पेटों में नहीं, बल्कि मष्तिष्क में तीव्र हो गई थी। 

बीबी गौहर जान की गलियां का एक दरवाजा

और इस विद्रोह का सीधा असर पड़ा था दिल्ली सल्तनत की इन गलियों के अलावे देश की विभिन्न प्रांतो की तवायफों पर, उनकी संस्कृति पर, नाच-गानों पर, कलाओं पर, नृत्यों पर, वाद्ययंत्रों पर, सारंगी और संतूर की तारों पर। घुंघरुओं की आवाज धीमी होने लगी थी। गले का स्वर कमजोर होने लगा था। अन्य वाद्य यंत्रों से भी आवाज निकालना समय के साथ-साथ कमजोर होने लगा था। यानी तवायफों की कलाओं के लिए मौत की घंटी थी बज चुकी थी । प्रशासन सीधे ब्रिटिश ताज के अधीन आ गया। जिन कोठों पर तत्कालीन समाज के राजा-महाराजों, धनाढ्यों, जमींदारों का संगीत से मनोरंजन किया जाता था, बदलते वक्त में उन कोठों की तवायफों को कलाकारों के रूप नहीं, अलबत्ता वेश्याओं के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा था। यह भी कहा जाता है कि उन दिनों अंग्रेजी सरकार अपने सेनाओं में संक्रमण संबधी बीमारियों की रोकथाम के लिए जंगे आज़ादी यानी सन सत्तावन की क्रांति के कोई आठ साल बाद 1864 संक्रामक रोग अधिनियम जैसे कानून लायी जिसका उद्देश्य मूल रूप से ब्रिटिश सैनिकों के बीच यौन रोगों के प्रसार को रोकना था। 

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उधर, ऐसा कहा जाता है भारतीय सुधारकों ने 19वीं सदी के अंत में नाच-गाना विरोधी आंदोलन शुरू किया। अपनी आजीविका बर्बाद होने के बाद दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश के अन्य भागों में भी एक और जहाँ ‘तवायफों’ की संख्या कम होने लगी, ‘वेश्याओं’ की संख्या बढ़ने लगी। पेट और परिवार को बचने के लिए किसी भी उम्र की लड़कियां, महिलाएं वेश्यावृत्ति की ओर राह पकड़ने  लगी। लेकिन आत्मा से सभी भारतीय थीं। सभी देश को देश बेचकर भी आज़ाद देखना चाहती थी। उसी दौरान सन 1900 के दशक में जब स्वदेशी और असहयोग आंदोलनों के माध्यम से ब्रिटिश शासन के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रतिरोध शुरू हुआ, तब तक अधिकांश तवायफें अपनी-अपनी सामाजिक स्थिति और आर्थिक स्थितिक्रांतिकारियों को यथासाध्य मदद करने लगी। 

इतिहास इस बात का साक्षी है कि पिछले 5000 वर्षों में हर काल में, चाहे वह हड़प्पा सभ्यता हो, वैदिक संस्कृति हो, महाजनपद हो, दिल्ली सल्तनत हो, मुगल काल हो और प्रारंभिक ब्रिटिश काल हो, सार्वजनिक महिलाएं थीं जो पेशेवर मनोरंजनकर्ता के रूप में नृत्य और संगीत का भंडार थीं। चावड़ी बाज़ार पुरानी दिल्ली की एक सैरगाह वाली सड़क थी जहाँ तवायफ़ों की विशाल हवेलियाँ थीं। इन तवायफों का आकर्षण राजाओं, नवाबों, कवियों और साहबों को उनके दरवाजे तक खींच लाता था। आज भी इन गलियों में जब “बीबी गौहर जान” के नाम से अंकित मोहल्ला दिखता है, उनके नाम से गलियों में लटके दुकानों के साइन बोर्डों पर “गली बीबी गौहर जान” लिखा दिखा तो अनायास रूपमती, अनारकली, राणा दिल, लाल कुँवर नूर बाई, चमानी राम जानी, उत्तम बाई, फिरदौस जान, अद बेगम, अल्फिना, पुन्ना बाई जैसी नामी तवायफों का नाम मानस पटल पर आने लगता है। 

आज मुद्दत बाद पुरानी दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद के पीछे हौजकाजी की ओर आने वाली सड़क से जैसे ही कोई नौ-दशक पुरानी ‘देहाती पुट्स्क भण्डार’ के पास आया कदम स्वतः नई सड़क की ओर निकल पड़ा। आज जिस तरह कदम उठा था, दो दशक पूर्व गोदौलिया चौक से मणिकर्णिका के लिए भी कदम उठा था। कुछ दूर आगे बढ़ने पर स्वतः रोशनपुरा की गलियों की ओर निकल पड़ा। आगे यह गली किसी और के नाम से अंकित नहीं है, बल्कि जंगे आज़ादी के उस गुमनाम ट्वाय के नाम से अंकित है जो भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में, स्वदेश आंदोलन में, महात्मा गाँधी को, तत्कालीन राजनेताओं को न जाने किन-किन हालाओं में, कितने अर्थ की मदद की थी। उस तवायफ का धन अर्जन का श्रोत सिर्फ और सिर्फ ‘गाना-बजाना’ ही था। नाम था बीबी गौहर जान। इस स्थान से कोई डेढ़ किलोमीटर दूर अजमेरी गेट पर तवायफ चमिया बाई की भी हवेली थी। आज चमिया बाई की तीसरी पीढ़ी भी जीवित है – भारत के सम्मानित समाज में सायरा बानो के नाम से, लेकिन गौहर जान की इस गली वाली हवेली में गौहर जान का नाम सिर्फ दीवारों पर दिखा। लेकिन इस गली की ऐतिहासिक इमारतें, झरोखें, नक्कासियां आज भी उस दिन को तरोताजा कर दिया। 

कहते हैं कि बीबी गौहर जान 1900 के दशक में एक रिकॉर्डिंग कलाकार के रूप में अपार सफलता पाई थी। गौहर जान का सामाजिक और आर्थिक स्थिति उतनी ही बेहतर थी कि महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करने के लिए स्वराज कोष में योगदान देने के लिए संपर्क किया था। वह इस शर्त पर एक धन-संचय संगीत कार्यक्रम आयोजित करने के लिए सहमत हुईं कि गांधी उनके प्रदर्शन में शामिल होंगे। लेकिन गांधी नहीं आ पाये। परिणाम यह हुआ कि आने पर जहाँ उन्हें 24000 मदद मिलता, तत्काल केवल 12,000 रुपये मिले। 1920 से 1922 तक गांधी जी के नेतृत्व वाले असहयोग आंदोलन के दौरान, वाराणसी में तवायफों ने आज़ादी के क्रांतिकारियों के समर्थन में एक तवायफ सभा का भी गठन की। यह कहा जाता है कि उस सभा की अध्यक्षता की थी तवायफ़ हुस्ना बाई ने। सभा में हुस्नाबाई ने सभी तवायफों से गुजारिश की कि वह क्रांति के समर्थन में और अपना विरोध प्रकट करने के लिए अपने आभूषणों के स्थान पर लोहे की जंजीरें, गले में लोहे का कड़ा पहने, साथी ही, तत्कालीन बाजार में मिलने वाली सभी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करे। 

महान विचारक और लेखक अमृतलाल नागर की ये कोठेवालियाँ (1958), जो तवायफों के जीवन का विवरण है, में एक वैश्या विद्याधर बाई का वाराणसी में गांधीजी से मुलाकात पर लिखा एक पत्र भी शामिल है। उन्होंने लिखा, उनके सुझाव पर, कुछ वेश्याओं ने अपने संगीत प्रदर्शन को राष्ट्रवादी गीतों की प्रस्तुति के साथ शुरू करने का फैसला किया था। पत्र में उनका लिखा हुआ एक गीत ‘ चुन चुन के फूल ले लो’ भी शामिल था। ज्ञातव्य है कि वे सभी गीत-गाने आज भी जीवित हैं।

नेवले ने अपनी पुस्तक “नॉच गर्ल्स ऑफ़ इण्डिया: डांसर्स, सिंगर्स प्लेमेंट्स” म,में लिखा भी है कि कैसे उत्तर भारत की तवायफों को धन, शक्ति, प्रतिष्ठा, राजनीतिक पहुंच प्राप्त थी और उन्हें संस्कृति पर अधिकार माना जाता था। कुलीन परिवार अपने बेटों को तहज़ीब, या शिष्टाचार और “बातचीत की कला” सीखने के लिए उनके पास भेजते थे। मुगल शासन के तहत तवायफें अपने चरम पर पहुंच गईं। नेविले ने लिखा, “सर्वश्रेष्ठ तवायफें, जिन्हें डेरेदार तवायफ कहा जाता है, शाही मुग़ल दरबारों से आने का दावा करती थीं।” “वे राजाओं और नवाबों के अनुचर का हिस्सा थे… इनमें से कई उत्कृष्ट नर्तक और गायक थे, जो आराम और विलासिता में रहते थे… तवायफ के साथ जुड़ना स्थिति, धन, परिष्कार का प्रतीक माना जाता था और संस्कृति…किसी ने भी उसे बुरी महिला या दया की पात्र नहीं समझा।”

बहरहाल, सचिन श्रीवास्तव जी लिखते हैं कि 18वीं सदी में दिल्ली का चावड़ी बाजार तवायफों का मोहल्ला हुआ करता था। उस दौरान तमाम अंग्रेज और अन्य विदेशी सैनिक भी यहां के कोठों पर अपनी शाम बिताने आया करते थे। इन्हीं में से एक थे वॉल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे । वॉल्टर रेनहार्ड फ्रांस के रहने वाले थे और मुगलों के लिए भाड़े पर सैनिक अफसर का काम करते थे। बात सन 1767 की है, वॉल्टर रेनहार्ड चावड़ी बाजार में एक कोठे पर पहुंचे। उस समय उनकी नजर तबले की थाप पर थिरकती एक खूबसूरत लड़की पर पड़ी. वॉल्टर रेनहार्ड का उस लड़की को देखते ही उस पर दिल आ गया। ये लड़की कोई और नहीं बल्कि फ़रज़ाना थीं, जो बाद में बेगम समरू बनीं। फ़रज़ाना की मां चावड़ी बाजार की जानी मानी तवायफ थीं। उन्होंने अपनी मौत से पहले अपनी बेटी को एक अन्य तवायफ खानम जान के सुपुर्द कर दिया था। 

वॉल्टर रेनहार्ड ने अपने से 30 साल छोटी फ़रज़ाना के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। फ़रज़ाना ने कहा कि आपको मेरे साथ तलवारबाजी का मुकाबला करना होगा। अगर आप जीत गए तो धार्मिक रीति रिवाज से शादी कर लूंगी। असलियत में फ़रज़ाना भी वॉल्टर रेनहार्ड को चाहने लगी थीं। उनको वॉल्टर रेनहार्ड का साथ इतना पसंद आया कि वो उनके साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में हिस्सा लेने लगीं। दोनों लखनऊ, रूहेलखंड, आगरा, भरतपुर और डींग की जंग में साथ रहे। आखिर में वे सरधना पहुंचे। ये जगह मेरठ से करीब 40 किमी दूर है। दोनों के बीच इश्क तो परवान चढ़ने ही लगा था। बाद में उन्होंने ईसाई रीति रिवाज से शादी कर ली। फ़रज़ाना ने सोम्ब्रे उपनाम अपना लिया और वह बेगम समरू बन गईं।  

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मुगल शासक शाह आलम के आदेश पर वॉल्टर रेनहार्ड ने सहारनपुर के रोहिल्ला लड़ाके जाबिता खान को पराजित किया।  दरअसल रोहिल्ला लड़ाकों ने मुगल शासक को परेशान कर रखा था। शाह आलम ने खुश होकर दोआब में एक बड़ी जागीर वॉल्टर रेनहार्ड के नाम पर कर दी।  वॉल्टर रेनहार्ड इसके बाद अपनी पत्नी बेगम समरू के साथ वहीं सरधना में ही बस गए।  शादी के पांच साल बाद वॉल्टर रेनहार्ड की अचानक मौत हो गई। इतिहासकार दूर्बा घोष ने अपनी किताब ‘सेक्स एंड द फैमिली इन कोलोनियल इंडिया’ में लिखती हैं कि 1778 में वॉल्टर रेनहार्ड की मौत के बाद शाह आलम द्वितीय ने बेगम समरू को सरधना का जागीरदार घोषित किया। 18 यूरोपीय अफसरों और 4000 सैनिकों वाली सरधना की फौज की कमान बेगम समरू ने संभाल ली और राजपाट अपने हाथ में ले लिया। बेगम समरू हथियार चलाने में भी निपुण थीं, इसलिए वह 48 साल तक सरधना पर शासन करने में सफल रहीं। एक दौर ऐसा भी था जब बेगम समरू का शासन अलीगढ़ से लेकर सहारनपुर तक चलता था। 

सरधना में बने ऐतिहासिक रोमन कैथालिक चर्च का निर्माण बेगम समरू ने करवाया था। कहा जाता है कि ये चर्च उन्होंने अपने पति की याद ने बनवाया। बेगम समरू ने इसको बनवाने की जिम्मेदारी मेजर एंथोली रेगीलीनी को सौंपी थी। माना जाता है कि मेजर एंथोली को वास्तुकला के बारे में अच्छी जानकारी थी। चर्च 1809 में बनना शुरू हुआ था और इसे पूरा होने में 11 साल लगे. चर्च के निर्माण में कई हजार लोग लगे थे। यह 1822 में बनकर तैयार हुआ। कहा जाता है कि बेगम समरू ने चर्च में लगी तमाम मूर्तियों के लिए विदेशी कारीगरों को बुलाया था. इटली के कारीगरों ने इसके लिए 2700 सोने की मोहरें मेहनताने के तौर पर ली थीं । मुगल शासक शाह आलम अपने जागीरदार वॉल्टर रेनहार्ड के काम से इतना खुश थे कि उनके लिए दिल्ली में एक महल बनवाया था। बाद में बेगम समरू ने भी चांदनी चौक और उसके आस पास के क्षेत्र में कई हवेलियों का निर्माण करवाया था। एक दौर ऐसा भी था जब बेगम समरू की गिनती देश की सबसे दौलतमंद और ताकतवर महिलाओं में की जाती थी। उन्हें देश की एकमात्र ऐसी शासिका के रूप में भी जाना जाता है जो रोमन कैथालिक थीं। 

इतिहास के पन्नों से : तवायफें जिन्होंने देश की आज़ादी के आंदोलन में अपना योगदान दिया।

गांधी जी के आंदोलन में हुस्ना बाई, विद्याधरी बाई ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। हालांकि स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी किताबों में इनका संघर्ष कहीं नहीं दिखता। वर्ष 1920 से लेकर 1922 तक के असहयोग आंदोलन के दौरान वाराणसी के समूह ने स्वतंत्रता संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए एक तवायफ सभा भी बनाई। अपने शोध पत्र में लता सिंह लिखती हैं कि इस सभा की कमान हुस्ना बाई ने संभाली और सदस्यों को एकता के साथ विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने और गहनों की जगह लोहे की हथकड़ी पहनने के लिए प्रोत्साहित किया। वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य के अनुसार दालमंडी में कोठों पर क्रांति की कहानियां लिखने वाली तवायफों की सूची में दुलारी बाई का नाम सबसे ऊपर है। इतिहासकार वीना तलवार ओल्डनबर्ग ने करीब 35 तवायफों के साक्षात्कार के जरिए उनकी जिंदगी में झांकने की कोशिश की। वह अपनी पुस्तक द मेकिंग आफ कोलोनियल लखनऊ में लिखती हैं कि भारत की स्वतंत्रता की पहली लड़ाई में तवायफों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। बागियों का दमन करने के बाद अंग्रेजों ने जो संपत्ति जब्त की, उस सूची में इनके नाम प्रमुख थे। इस समय तक, मुग़ल साम्राज्य का दशकों पहले ही पतन हो चुका था। दिल्ली को छोड़कर कई तवायफें अवध राज्य के लखनऊ में चली गईं, जहां नवाबों ने अभी भी उनकी कला का समर्थन किया। लेकिन लखनऊ में भी उनकी किस्मत बदलते देर नहीं लगी. 1856 में अंग्रेजों ने अवध राज्य पर कब्ज़ा कर लिया, और जब विद्रोह शुरू हुआ तो अचानक तवायफों ने खुद को आदर्श स्थिति में पाया। 

फुलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट… जैसे गीत से मशहूर हुईं रसूलन बाई ने महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से प्रेरित होकर गहने पहनना छोड़ दिया था। उन्होंने गहने तभी पहने, जब देश आजाद हो गया। अपने प्रण के मुताबिक रसूलन बाई ने देश के आजाद होने के बाद ही शादी भी की। बाद में रसूलन बाई को संगीत नाट्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। बनारस की प्रसिद्ध गली दालमंडी में भी कभी कोठे हुआ करते थे। यहां से गूंजने वाली घुंघरुओं की झंकार ने अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था। उस दौर में राजेश्वरी बाई, जद्दन बाई से लेकर रसूलन बाई तक के कोठों पर सजने वाली महफिलें महज मनोरंजन का केंद्र ही नहीं होती थीं, बल्कि अंग्रेजों को देश से निकालने की रणनीति भी यहीं से तय होती थी। ठुमरी गायिका राजेश्वरी बाई तो हर महफिल में अंतिम बंदिश भारत कभी न बन सकेला गुलाम… गाना नहीं भूलती थीं। मशहूर अभिनेत्री नर्गिस दत्त की मां जद्दन बाई के दालमंडी कोठे पर भी आजादी के दीवानों का आना-जाना रहता था। अंग्रेजों ने कई बार उनके कोठे पर छापा मारा। प्रताडऩा से तंग आकर जद्दन बाई को दाल मंडी की गली तक छोडऩी पड़ी थी। इन सबके बावजूद महफिल से मिलने वाले पैसों को तवायफें चुपके से क्रांतिकारियों को दे दिया करती थीं। अमृतलाल नागर की किताब ये कोठेवालियां में तवायफों की जिंदगी के बारे में बहुत अच्छी तरह प्रकाश डाला गया है।

इसी तरह, एक महिला पुरुष वेश में, सीने पर मेडल से आभूषित, घोड़े की पीठ पर सवार, पिस्तौल लिए मैदान-ए-जंग में उतर गई और ब्रिटिश सैनिकों से खूब बहादुरी से लड़ी। अजीजन बाई वह नाम है जो 1857 की क्रांति में उभरकर सामने आया। वह एक ऐसी तवायफ थीं जो देश की आजादी के लिए बहादुरी से लड़ीं, कभी पर्दे में रहकर तो कभी बिना किसी पर्दे के। कहते हैं कि अजीजन बाई एक जासूस, खबरी और योद्धा थीं। उनका जन्म लखनऊ में हुआ था। उनकी मां भी एक तवायफ थीं, लेकिन देश के प्रति प्रेम अजीजन को लखनऊ से कानपुर ले आया। अजीजन बाई के घर में हिंदुस्तानी सिपाहियों की बैठकें हुआ करती थीं। बताया जाता है कि अजीजन बाई ब्रिटिश इंडियन आर्मी के सैनिकों के काफी नजदीक थीं। उनके कोठे में स्वतंत्रता संघर्ष की रणनीति बनाई जाती थी। एक जून, 1857 को क्रांतिकारियों ने कानपुर में एक बैठक की। इसमें नाना साहब, तात्या टोपे के साथ सूबेदार टीका सिंह, शमसुद्दीन खां और अजीमुल्ला खान के अलावा अजीजन बाई ने भी शिरकत की थी। इसी बैठक में हाथ में गंगाजल लेकर इन सबने अंग्रेजों की हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया था। 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के सेंटर फार वुमंस स्टडीज की प्रोफेसर लता सिंह ने भारत की आजादी के संघर्ष में तवायफों के योगदान पर एक शोध पत्र लिखा है, जिसमें अजीजन बाई का उल्लेख है। लता सिंह के अनुसार 1857 की क्रांति में कानपुर से अजीजन बाई के संघर्ष का उल्लेख मिलता है। उन्होंने महिलाओं का एक ऐसा समूह बनाया था जो स्वतंत्रता सेनानियों का साथ देने, हथियारों से लैस सिपाहियों का मनोबल बढ़ाने, उनके घावों की मरहम पट्टी करने और हथियारों को वितरित करने को तैयार रहता था। लता सिंह कहती हैं, यहां तक कि स्वाधीनता सेनानी वीर सावरकर ने भी अपने राष्ट्रवादी लेखों में अजीजन बाई के बारे में लिखा है कि इस नाचने वाली को सिपाही बहुत प्यार करते हैं। वह बाजार में पैसों के लिए अपना प्यार नहीं बेचती है। उसका प्यार देश से प्यार करने वालों के लिए है।- अखबारवाला001 

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