‘रक्तपात’ के बाद कोयला माफियाओं के परिजन अब बुद्धम् शरणम् गच्छामि👣धम्मम् शरणम् गच्छामि👣संघम् शरणम् गच्छामि👣

सूर्यदेव सिंह और सकलदेव सिंह के वंशज अब बुद्धम् शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि।

झरिया / धनबाद / रांची / पटना : समय का चक्र देखिये। कालचक्र इसे ही कहते हैं। कलिंग युद्ध के समय सम्राट अशोक की सेना मगध से छोटानागपुर-संथाल परगना के रास्ते ही युद्ध स्थल पर पहुंची थी। इतिहास साक्षी है कि इस युद्ध में कोई डेढ़ लाख से अभी अधिक सैनिक मृत्यु को प्राप्त किये थे । इतिहास इस बाद का भी साक्षी है कि इस युद्ध के बाद मगध के सम्राट चक्रवर्ती अशोक युद्द में हुए भीषण रक्तपात को देख बौद्ध धर्म को स्वीकार लिए थे। आज भी बोध गया के खंभों पर इस बात का उल्लेख मिलता है। बहरहाल, उसी छोटानागपुर-संथाल परगना की भूमि कोयला नगरी में आज चर्चाएं आम हैं कि सत्ता और अधिपत्य के लिए दशकों पहले जिन-जिन लोगों ने रक्तपात किये थे, आज वे तो मृत्यु को प्राप्त कर लिए, लेकिन रक्तपात की परंपरा को विराम देने के लिए उनके वंशज, जो शेष बचे हैं, युद्ध नहीं बुद्धम् शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि मन्त्र का अलंकरण कर रहे हैं।

वजह तो बहुत है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पितौझिया के कर्पूरी ठाकुर का भारत रत्न होना। कर्पूरी ठाकुर पहली बार सन् 1970-1971 में दारोगा प्रसाद राय और भोला पासवान शास्त्री के बीच पांचवें विधानसभा के कालखंड में 162 दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे। दूसरी बार का कालखंड था 1977-1979 और यह कालखंड था सातवें विधानसभा का। पहले एक वर्ष 301 दिनों के लिए कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने फिर आ गए रामसुंदर दास 302 दिनों के लिए।

यह एक ऐसा दौड़ था जब बिहार ही नहीं, देश में राजनीतिक परिस्थियाँ बदल रही थी, साथ ही, अपराधियों का राजनीतिकरण भी प्रारम्भ हो गया था। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि राजनीति का अपराधीकरण का श्रीगणेश हो गया था। तत्कालीन अविभाजित बिहार के अपराधी, जो सत्ता की गलियारों में कमर कसने लगे थे, उन्हें इस बात का एहसास हो गया था कि राजनीति उनके बिना नहीं चल सकती है और राजनेता उनके सहयोग के बिना, खासकर आर्थिक सहयोग, के बिना ‘राजनीति में डकार’ नहीं ले सकते हैं । यह सोच ‘पैसे’ के कारण हो गयी थी, जिसे तत्कालीन स्वार्थी राजनेताओं ने तुल भी दिया और भुनाया भी।

इसका सीधा प्रभाव उस दिन पटना सचिवालय में दिखा जब दक्षिण बिहार के ‘दर्जनों कोयला माफिया’ मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए एक साथ कमर कस कर तैयार हो गए थे। पटना की सड़कों पर, तीन-सितारा होटलों में (पांच सितारा होटल नहीं था), डाक बंगला में अपना-अपना ठिकाना बनाकर सरकार गिराने को सज्ज थे। वजह था कर्पूरी ठाकुर कोयला माफिया और उन माफियाओं के साथ हाथ मिलाने वाले सभी लोगों की ‘तथाकथित ताकत को चुनौती दिए थे।” यानी कर्पूरी ठाकुर और कोयला माफिआओं के साथ इस पार और उस पार की प्रशासनिक लड़ाई छिड़ गयी थी।

इतना ही नहीं, समयांतराल, वही कोयला माफिया एक बार फिर कोयला क्षेत्र के मजदूर संघ के नेता, जो प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने थे, बिंदेश्वरी दुबे के खिलाफ भी मोर्चा गोलबंद किया था। दुबे, जो 1985-1988 में दो साल 338 दिनों के लिए मुख्यमंत्री कार्यालय में थे और कोई साढ़े चार दशक तक कोयला क्षेत्र में मजदूरों का प्रतिनिधित्व किया था। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उन सभी गोलबंदी का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नेतृत्व डॉ जगन्नाथ मिश्र कर रहे थे।

डॉ. मिश्र 1975-1977 (दो साल 19 दिन), 1980-1983 (3 साल 67 दिन) और 1989-1990 (94 दिन) के लिए मुख्यमंत्री कार्यालय में भी बैठे थे। इतना ही नहीं, उन दिनों डॉ. मिश्र की आवाज तत्कालीन अख़बारों में बहुत ही प्रमुखता के साथ प्रकाशित भी हुए थी जब उन्होंने कहा था कि ‘उनका उद्देश्य न केवल बिंदेश्वरी दुबे को मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर निकलना है, बल्कि कोयला क्षेत्र में उनके प्रभुत्व को भी नेश्तोनाबूद कर देना है।’ उन दिनों बिहार के कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव टी अन्जाइहा थे, जो बिहार के प्रभारी भी थे। दुबे ने कांग्रेस आलाकमान को पत्र लिखकर यह सूचित भी किया था कि प्रदेश में कुछ राजनीतिक नेता और कोयला माफिया एक साथ मिलकर हमारी सरकार को गिराने की कोशिश कर रहे हैं।

साढ़े चार दशक बात समय का चक्र फिर देखिये बिहार के समस्तीपुर जिला के पितौंझिया गाँव में गोकुल ठाकुर-श्री रामदुलारी देवी के घर में जन्म लिया ‘कपूरी’, जो बाद में कर्पूरी ठाकुर बने, देश की कुल 143 करोड़ लोगों का ‘रत्न’, यानी ‘भारत रत्न’ की उपाधि से अलंकृत हुए। साल 1977 का अप्रैल महीना का अंतिम दिन था और प्रदेश राष्ट्रपति शासन के अधीन चला गया था 30 अप्रैल से 24 जून 1977 तक, जब सातवीं विधान सभा में कर्पूरी ठाकुर 24 जून, 1977 को 11 वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिए थे। वे दो बार प्रदेश का नेतृत्व किये और कुल 829 दिन मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान रहे।

कर्पूरी ठाकुर कोयला माफियाओं के खिलाफ लड़े, साथ नहीं। राजनीतिक गलियारे में उन्हें ‘जननायक’ कहा जाता है। कर्पूरी ठाकुर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण का लाभ प्रदान करने में अग्रणी थे क्योंकि उन्होंने 1977 से 1979 तक बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था। महान समाजवादी नेता को देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न दिया जाना हार्दिक प्रसन्नता का विषय है। केंद्र सरकार का ये अच्छा निर्णय है। लेकिन जिस दिन कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से अलंकृत किया गया, तत्कालीन अविभाजित बिहार और आज के बिहार और झारखंड में तत्कालीन कालखंड के कोई भी ‘राजनेता’ और ‘कोयला माफियाओं का नामोनिशान नहीं है। शायद इसे ही कालचक्र कहते हैं। आज स्थिति यह है कि जो बचे हैं वे सत्ता की लड़ाई अपने-अपने अस्तित्व को बचाने में लगे हैं।

उस दिन सोमवार था फरवरी माह का पहली तारीख और 1988 साल। लुबी सर्कुलर रोड स्थित राष्ट्रीय कोलियरी मजदुर संघ का कार्यालय। समय सुबह का कोई 11 बजे। भवन के अंदर बैठक हो रही थी और माइक पर थे तत्कालीन कोयला क्षेत्र के नेता एस के राय। बाहर कई गाड़ियां आयी। कई लोग उतड़े और गोलियों की बारिश होने लगी। उद्देश्य एस के राय को मारना था। लेकिन समय उन्हें अपना कवच दे दिया। वे तो बच गए लेकिन उमाकांत सिंह के साथ-साथ चार लोग वहीँ ढ़ेर हो गए।

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आज उस ज़माने के राष्ट्रीय कोलियरी मजदुर संघ के नेता एस के राय नहीं हैं। धनबाद के विधायक एस पी राय भी नहीं रहे। अभियंता सह श्रमिक नेता ए के राय भी अंतिम सांस ले चुके हैं। धनबाद के ‘सिंह’ नेताओं में सूर्यदेव सिंह नहीं है। नवरंगदेव सिंह भी नहीं हैं। सकलदेव सिंह भी मृत्यु को प्राप्त किये। बिनोद सिंह भी नहीं रहे। रघुनाथ सिंह भी नहीं रहे। बच्चा सिंह बीमार रह रहे हैं। यानी सत्तर के ज़माने से कोई ढ़ाई दशक तक धनबाद-कोयला क्षेत्र में का बादशाह, चाहे बन्दुक की गोलियों पर ही बना हो, राज करनेवाला, आमलोगों का लोगों का हाल-चाल पूछने वाला (व्यावसायिक मतभेद चाहे कितन भी हो) आज कोई नहीं हैं। आज उनकी अगली पीढ़ियों का भी नाम (कई एक का) इस पृथ्वी से उठा गया है। सब समय चक्र है।

धनबाद की काली, लेकिन रक्तरंजित मिट्टी इस बात की गवाही आज भी देती है कि कोयले की अवैध कमाई की पृष्ठभूमि 1950 में बिंदेश्वरी प्रसाद सिन्हा @बीपी सिन्हा ने डाली थी। उन दिनों सम्पूर्ण कोयलांचल में सिन्हा साहब का एकछत्र राज था। सिन्हा साहेब बरौनी के रहने वाले थे और राजनीति में उनकी विशेष पकड़ थी। वे सर्वप्रथम सं 1950 में धनबाद पदार्पित हुए। उनमें बहुत बातें ईश्वरीय थी। लिखना, बोलना जैसा सरस्वती की देन थी। उनका वही आकर्षण तत्कालीन कोलियरी मालिकों को आकर्षित किया। वे इंटक से जुड़े और ताकतवर मजबूत नेता के रूप में उदित हुए।

उन्होंने कोयलांचल में युवा पहलवानों की फौज बनाई, जिसमें सूर्यदेव सिंह इनके सबसे विश्वासपात्र थे। उनका इतना दबदबा था कि उन्हीं की मर्जी से कोयला खदान चलती थी। सिन्हा का आवास व्हाईट हाउस के रूप में मशहूर हुआ करता था और पूरे इलाके में माफिया स्टाइल में उनकी तूती बोलती थी। लाठी हमारी तो मिल्कियत भी हमारी ” चरितार्थ हो रही थी। घटनाओं की गूंज बिहार और दिल्ली की सत्ता के गलियारों से लेकर पार्लियामेंट तक सुनाई पड़ रहीं थी। ए+बी+सी=डी काफी प्रचलित हो चुका था उन दिनों यानी ए-आरा + बी-बलिया + सी-छपरा =डी धनबाद का नारा बुलंद हो चुका था।

कोल माइनिंग पर वर्चस्व के लिए मजदूर संघ का मजबूत होना बहुत ही आवश्यक था, बीपी सिन्हा इस बात को बखूबी जानते थे। जब 17 अक्टूबर 1971 को कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है तब राष्ट्रीयकरण होते ही बीपी सिन्हा का कोल नगरी पर पकड़ और अधिक मजबूत हो जाता है, पूरे कोल माइनिंग में उनकी तूती बोलने लगती है, उनका अब कोयले की खदानों पर एकछत्र राज्य चलने लगता है। कहा जाता है कि मजदूरों को काबू में रखने के लिए उन्होंने पांच लठैतों की एक टीम बनाये थे। इसमें बलिया के रहने वाले सूर्यदेव सिंह और स्थानीय वासेपुर के शफी खान आदि शामिल थे।उसी समय से उनकी दुश्मनी वासेपुर के शफी खान गैंग्स से शुरू हुई। सिन्हा साहेब की हत्या में सूर्यदेव सिंह का नाम आया था, लेकिन कुछ समय बाद वे इस काण्ड से बरी हो गए।

वे कांग्रेस के प्रचारक थे और कोल माइनिंग में भारतीय राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ की तूती बोलती थी। किद्वान्ति है कि उनका माफिया राज इतना बड़ा था की एक बार जब प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी अपने रैली के दौरान सभा में देर से आई थीं, इस बात को लेकर बीपी सिन्हा बहुत नाराज हुए थे, जिसको लेकर इंदिरा गाँधी को भरी सभा में जनता से क्षमा माँगनी पड़ी थी।

उनकी प्रभुता के किस्से में एक अध्याय यह भी जुड़ा है की उन्होंने अपने माली बिंदेश्वरी दुबे’ को मजदूर संघ का नेता तक बना डाला था। वे कांग्रेसी थे और उनका कद इतना बड़ा था की उन दिनों भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से उनकी वार्तालाप हॉटलाइन पर हुआ करती थी। समय का चक्र यहाँ भी चल रहा था। केंद्र की सत्ता से बेदखल हुई इंदिरा गांधी के विरोधी लहर के दौरान विरोधी बीपी सिन्हा के इस वर्चस्व को तोड़ने के लिए मौके की तलाश में थी।

उस दिन मार्च महीने का 28 तारीख था और साल 1979 था। धनबाद के गांधी नगर स्थित आवास सह कार्यालय में सिन्हा साहेब रेकर्ड प्लेयर पर अपने पोते गौतम के साथ गाना सुन रहे थे। घर में उस वक्त आसपास के चार-पांच लोग अपनी फरियाद लेकर पहुंचे। अचानक दो-तीन लोग बरामदे में पहुंचे और एक ने पूछा साहेब हैं? जवाब हां में मिलने पर वे लोग लौट गये। इस बीच अचानक बिजली गुल हो गयी और कुछ सेकेंड में बिजली आ भी गयी। सिन्हा साहेब को पूछने वाले लोग इतने में ही 10-11 व्यक्तियों को साथ ले कर बरामदे में शोर करते हुए प्रवेश किये। शोर सुन कर साहेब पूछते हैं कौन आया है? क्या हो रहा है? जवाब मिलता है डाकू आये हैं।

इतने में सिन्हा साहेब जैसे ही कमरे से बाहर निकलते हैं मोटा सा एक आदमी लाइट मशीन गन से गोलियों की बौछार करने लगा । करीब सौ गोलियां चली । सिन्हा साहेब के शरीर को तब तक कई गोलियां बेध चुकी होती थी। सिन्हा साहेब खून से लथपथ होकर जमीन पर गिर पड़े थे। शरीर पार्थिव हो गया था। उस वक्त उनकी उम्र करीब 70 साल रही होगी।

पूरे धनबाद ही नहीं, कोयलांचल से लेकर कलकत्ता तक, धनबाद से लेकर पटना के रास्ते दिल्ली तक कोहराम मच गया। सिन्हा साहेब की हत्या धनबाद कोयलांचल में कोयला माफिया और राजनीति के गठबंधन के इतिहास की पहली बड़ी घटना थी। बंदूक व बाहुबल की ताकत के समानांतर ताकत रखने वाले सिन्हा साहेब की हत्या में उनके करीबी कई लोगों का नाम आया। सिन्हा साहब का ‘अंत’, सूर्यदेव सिंह का ‘सूर्योदय’ था। सम्पूर्ण कोयलांचल सूर्यदेव सिंह की ऊँगली पर चलने लगी और भारत कोकिंग कोल मुख्यालय जाने के प्रवेश द्वार से कोई 100 कदम पर स्थित सिंह मैंशन इतिहास रचना प्रारम्भ कर दिया। व्हाइट हाउस का नामोनिशान समाप्त हो गया है।

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एक समय धनबाद में सकलदेव सिंह

कोयलांचल की काली, लेकिन रक्तरंजित मिट्टी आज भी पिछले छह दशकों का खुनी इतिहास याद रखे है। धनबाद-झरिया कोयलांचल के बारे में जब भी कोई अख़बार वाला, शोधकर्ता, पत्रकार, लेखक, विश्लेषक धनबाद की खुनी होली के बारे में जानना चाहता है तो वह धनबाद समाहरणालय के वातनुकूलत कक्ष में बैठे अधिकारियों के पास नहीं पहुंचकर, कतरास मोड़ की काली मिट्टी पर पालथी मारकर बैठते हैं। चाय की चुस्की के साथ वहां की मिटटी एक-एक घटना को प्रत्यक्षदर्शी होने का गवाही देती है। उस ज़माने में इतने मंहगे हथियार भी उपलब्ध नहीं थे। उधर विदेशी मौद्रिक बाजार में भारतीय रुपये का मोल बढ़ रहा था, स्थित होता था, इधर कोयलांचल में कोयले की नजर लगे लोगों की जिंदगी सस्ती होती जा रही थी – ठांये ठांये ठांये।

कतरास मोड़ की मिटटी कहती है कि सन 1967 में रामदेव सिंह, फिर 1967 में ही चमारी पासी, 1977 में श्रीराम सिंह की हत्या हुई। सं 1978 में बीपी सिन्हा को गोली मारी गयी। पांच साल बाद सन 1983 में शफी खान, फिर 1984 में मो असगर, 1985 में लालबाबू सिंह, 1986 में मिथिलेश सिंह, 1987 में जयंत सरकार की हत्या हुई। हत्या का सिलसिला अभी रुका नहीं था। इसके बाद 1986 में अंजार, 1986 में शमीम खान, 1988 में उमाकांत सिंह, 1989 में मो सुल्तान की हत्या हुई। उसी वर्ष 1989 में ही राजू यादव को मौत के घाट उतारा गया। 15 जुलाई, 1998 को धनबाद जिले के कतरास बाजार स्थित भगत सिंह चौक के पास दिन के उजाले में मारुति कार पर सवार कुख्यात अपराधियों ने अत्याधुनिक हथियारों से अंधाधुंध गोलियां चलाकर विनोद सिंह की हत्या कर दी।

चाय की चुस्की लेते कतरास मोड़ की मिट्टी आगे कहती है कि 25 जनवरी, 1999 को दोपहर के लगभग साढ़े बारह बजे सकलदेव सिंह सिजुआ स्थित अपने आवास से काले रंग की टाटा जीप पर धनबाद के लिए निकले ही थे। हीरक रोड पर पहुंचते ही दो टाटा सूमो (एक सफेद) सकलदेव सिंह की गाड़ी के समानांतर हुई। सूमो की पिछली खिड़की का काला शीशा थोड़ा नीचे सरका और उसमें से एक बैरेल सकलदेव सिंह को निशाना साधकर दनादन गोलियां उगलने लगी। जवाब में सकलदेव सिंह की गाड़ी से भी फायरिंग होने लगी। दोनो गाड़ियां काफी तेज चल रही थी और साथ में फायरिंग भी हो रही थी और अंतत : बंदूक की गोलियों ने सकलदेव सिंह को हमेशा के लिए खामोश कर दिया।

कतरास मोड़ की मिटटी का मानना है कि कोयलांचल में खून की होली के लिए ‘होली पर्व’ का होना आवश्यक नहीं है। यहाँ वर्चस्व स्थापित काने के लिए, वर्चस्व बनाये रखने के लिए कभी भी, कहीं भी खून की होली हो जाती है। सं 1994 में मणींद्र मंडल, 1998 मो नजीर, 1998 में ही विनोद सिंह की हत्या हुई। सन 2000 में रवि भगत, 2001 जफर अली और नजमा व शमा परबीन, 2002 गुरुदास चटर्जी की हत्या हुई। उसी वर्ष 2002 में ही सुशांतो सेनगुप्ता की हत्या हुई। सन 2003 प्रमोद सिंह, फिर 2003 में राजीव रंजन सिंह, 2006 में गजेंद्र सिंह, 2009 में वाहिद आलम, 2011 में इरफान खान, सुरेश सिंह, 2012 में इरशाद आलम उर्फ सोनू और 2014 में टुन्ना खान तथा 2017 में रंजय सिंह की हत्या हुई।

आठ दिसंबर, 2011 की रात लगभग साढ़े नौ बजे करोड़पति कोयला व्यवसायी और कांग्रेस नेता सुरेश सिंह (55) की धनबाद क्लब में गोली मार कर हत्या कर दी गयी। इतना ही नहीं, अनेकों बार एस के राय जो इंटक के नेता भी थे, पर हमला हुआ। कोयलांचल की इसी खुनी होली और कोयले से कमाई के कारण ही बिनोद बिहारी महतो, शिबू सोरेन आदि नेता भी बने। इसी कमाई के कारण अविभाजित बिहार और बाद में झारखण्ड के साथ-साथ देश के सभी राज्यों के नेताओं की नजर, केंद्र में बैठे मंत्रियों की पैनी नजर इस काले सोने की ओर लगी होती है। काला होने के बाद भी सभी इसे प्यार करते हैं।

पिछले दिनों सूर्यदेव सिंह के भाई को बाहुबली रामधीर सिंह को धनबाद की एक अदालत ने विनोद सिंह हत्याकांड के मामले में कोई रियायत नहीं दी। रामधीर सिंह बाहुबली सकलदेव सिंह और उनके भाई बिनोद सिंह की हत्या का अपराधी थे। वैसे 25 जनवरी 1999 को भूली मोड़ के पास सकलदेव सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, उस मुकदमें में धनबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश, रिजवान अहमद की अदालत ने संदेह का लाभ देते हुए उनकी रिहाई का फैसला सुनाया था, लेकिन आज वे बिनोद सिंह हत्या कांड के अपराध में कारावास में ही रहे। उन्हें उम्र कैद की सजा है। विनोद सिंह बिहार जनता खान मजदूर संघ के महामंत्री और जनता दल के नेता सकलदेव सिंह के भाई थे। उनकी हत्या 15 जुलाई, 1998 को की गई। कहते हैं सकलदेव सिंह – विनोद सिंह के पिता मुखराम सिंह अविभाजित बिहार के छपरा ज़िले के उरहर पुर गांव से धनबाद के सिजुआ आये थे रोजी-रोटी की तलाश में।

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार 15 जुलाई, 1998 को कतरास हटिया शहीद भगत सिंह चौक के पास ताबड तोड़ गोलियों से हमला कर विनोद सिंह और उनके चालक मन्नु अंसारी को मौत के घाट उतार दिया गया था। उस समय सुबह का कोई 8.40 बजा था। विनोद सिंह कोल डंप जाने के लिए अपनी नई एम्बेसडर कार से निकले थे। उस कार को मन्नु अंसारी चला रहा था। पंचगढी बाजार में गाडियां जाम में थोडी देर फंसी रही। सुबह-सवेरे जैसे ही कतरास हटिया भगत सिंह चौक के पास जैसे ही पहुंचे, एक सादे रंग की मारुति कार दोनों गाडियों को ओवरटेक कर आगे रुकी, मारुति से तीन लोग उतरे और विनोद सिंह की गाड़ी पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। विनोद सिंह और मन्नु खून से लथपथ गिरे हुए थे। कहते हैं उस हमलावरों में रामधीर सिंह और राजीव रंजन सिंह शामिल थे। रामधीर सिंह झरिया के पूर्व विधायक स्वर्गीय सूर्यदेव सिंह के पांच भाइयों में सबसे छोटे है। रामधीर सिंह को ‘सिंह मेन्शन’ के रणनीतिकार के रूप में देखा जाता रहा है।

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कहते हैं वे सूर्य देव सिंह के द्वारा स्थापित जनता मजदूर संघ के वह अध्यक्ष भी रह चुके है। लेकिन सजायाफ्ता होने के बाद उन्हें इस पद से हटा दिया गया। विनोद सिंह हत्याकांड में लोअर कोर्ट ने 2015 में रामधीर सिंह को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। डेढ़ साल से अधिक समय तक फरार रहने के बाद उन्होंने धनबाद कोर्ट में सरेंडर किया था। विधि का विधान देखिये उनकी पत्नी इंदू देवी धनबाद नगर निगम की मेयर रह चुकी हैं। विनोद सिंह हत्याकांड में विगत 25 अगस्त को झारखंड हाईकोर्ट की डिवीजन-बेंच ने रामधीर सिंह की अपील पर सुनवाई पूरी कर ली थी और फैसला सुरक्षित रख लिया था। इतना ही नहीं, रामधीर सिंह के बेटे शशि सिंह पर कोयला कारोबारी व कांग्रेस नेता सुरेश सिंह की हत्या का भी आरोप है। सुरेश सिंह की हत्या 7 दिसंबर 2011 को हुई थी। इस हत्या के बाद शशि सिंह धनबाद से फरार हो गए। धनबाद पुलिस अभी भी शशि सिंह को ढूंढ रही है। सुरेश सिंह कांग्रेस के टिकट पर झरिया से चुनाव भी लड़ चुके थे।

सिंह मेंशन हमेशा सुर्खियों में रहा और कोयला कारोबार से लेकर राजनीति तक इस परिवार का दबदबा रहा। एक रिपोर्ट के अनुसार सियासत में मजबूत दखल का प्रमाण यह है कि धनबाद नगर निगम की कुर्सी इन्हीं परिवारों के बीच रही। धीरे-धीरे नीरज सिंह भी राजनीति में तेजी से उभरने लगे। पिछले विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस के टिकट पर झरिया से खड़े हुए थे, जबकि उसके चचेरे भाई संजीव सिंह भाजपा के टिकट पर। इस चुनाब के बाद परिवार के बीच विवाद और खुलकर सामने आ गया। नीरज सिंह 2019 के लोकसभा चुनाव में खड़े होने वाले थे, लेकिन नीरज सिंह की हत्या करा दी गई।

सूर्यदेव सिंह के निधन के बाद उनकी पत्नी कुंती देवी को लोगों ने धनबाद जिले के झरिया विधानसभा क्षेत्र से दो बार विधायक बनाया। उनकी राजनीतिक जमीन झरिया में इतनी पुख्ता थी कि उनके बेटे संजीव सिंह को लोगों ने विधानसभा भेजा। सूर्यदेव सिंह का धनबाद में बना आवास सिंह मेंशन आज भी है, फर्क सिर्फ इतना ही है कि सिंह मेंशन में रहने वाले पांच भाइयों में चार का कुनबा आज बिखर गया है। सूर्यदेव सिंह पांच भाई थे। विक्रमा सिंह अपने पैतृक गाँव बलिया में ही रह गये। जबकि राजन सिंह, बच्चा सिंह और रामधीर सिंह सूर्यदेव सिंह के साथ रहे। बाद में बच्चा सिंह ने सूर्योदय बना लिया तो राजन सिंह के परिवार ने रघुकुल। रामधीर सिंह का बलिया-धनबाद आना-जाना लगा रहा, लेकिन उनकी पत्नी इंदू देवी और बेटा शशि सिंह मेंशन में ही रहते हैं।

उनकी मौत के बाद बच्चा सिंह उस सीट से विधायक बने। उसके बाद सूर्यदेव सिंह की पत्नी कुंती सिंह और अभी उनके बेटे संजीव सिंह झरिया से विधायक बने। सन 1977 से 2014 तक के विधान सभा चुनाव में झरिया विधान सभा सीट पर हमेशा सिंह मेंशन परिवार का ही कब्ज़ा रहा। केवल 1995 में राजद के टिकट पर आबो देवी को इस सीट से जीत मिल सकी थी। नवम्बर 1990 में जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने थे, तब वह सूर्यदेव सिंह से मिलने धनबाद आये थे। जून 15 सन 1991 में हार्ट अटैक से हुई उनकी मौत के बाद परिवार के बीच ही विवाद हो गया और सभी भाइयों के बीच वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो गई।

उन दिनों सूर्यदेव सिंह अपने उत्कर्ष पर थे। उत्तर प्रदेश के बलिया से आकर एक साधारण कोयला मजदूर के रूप में काम शुरू करने वाले सूर्यदेव सिंह ने कोयला मजदूरों की ट्रेड यूनियन की अगुवाई कर इतनी शोहरत हासिल की कि धनबाद की धरती पर पत्ता भी उनकी इक्षा के बिना नहीं हिलता था। जितने दबंग, उतने ही सामाजिक कार्यों में रुचि दिखाने वाले सूर्यदेव सिंह की लोकप्रियता का आलम रहा। चंद्रशेखर अब तक प्रधान मंत्री बने नहीं थे और जब प्रधानमंत्री बने तब भी सूर्यदेव सिंह को अपना परम-मित्र ही माना और कहा भी। चंद्रशेखर से नजदीकी के कारण उनका राजनीतिक रसूख परवान पर था। 1977 में सूर्यदेव सिंह पहली बार झरिया से विधायक बने।

बहरहाल, एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार कोयलांचल में आठ बड़े गैंग में चार सौ करोड़ रुपए से भी अधिक की रंगदारी को लेकर खूनी खेल चलता रहता है। पिछले तीन दशकों में 350 से भी ज्यादा लोगों की हत्याएं माफियाओं ने कर दी, जबकि छोटे-छोटे प्यादे तो लगभग रोज ही मारे जाते हैं। कोयलांचल में 40 वैध खदाने हैं, जबकि इससे कहीं अधिक अवैध खनन। इन वैध खदानों से लगभग 1.50 लाख टन कोयले का उत्पादन होता है, जबकि इस उत्पादन में लोडिंग, अनलोडिंग और तस्करी में लगभग 400 करोड़ रुपए की रंगदारी माफिया के गुर्गे करते हैं। वैसे पिछले 50 साल से कोयलांचल में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है, हर रोज एक छोटा गैंग उभरकर सामने आ जाता है। पर कोयलांचल में अभी भी ‘‘सिंह मेंशन’’ का ही दबदबा है, अब फर्क सिर्फ यह हो गया है कि सिंह मेंशन में भी बंटवारा हो गया और चारों भाईयों एवं उनके बेटों का अलग गैंग हो गया है।

खैर। कहने वाले तो कह रहे हैं कि इतने समय के बाद भी, इतने पैसे के बाद भी, इतनी हत्याओं के बाद भी, इतने नेताओं की उपस्थिति के बाद भी धनबाद में कोई ‘आमूल’ परिवर्तन नहीं हुआ। जिस अधिकारी के सेवा काल में सूर्यदेव सिंह पर कमान कैसा गया, सैकड़ों अधिकारी आये, दर्जनों डिप्टी कमिश्नर बदले गए, दर्जनों पुलिस अधीक्षक आये-गए; सैकड़ों – हज़ारों नेता बने, कोई पटना एक्सपोर्ट हुए तो कोई रांची और कोई दिल्ली।

लेकिन धनबाद के अदृश्य कोने से आवाज आ रह है अब बुद्धम् शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि।

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