‘महिला ही महिलाओं की दुश्मन हैं’ कहावत को झुठलाना होगा, खेत-खलिहानों की महिलाओं के हितों के बारे में भी सोचना होगा संसद में बैठने वाली महिलाओं को

नए संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वर्तमान महिला सांसद

नई दिल्ली : सोचता हूँ कि आने वाले दिनों में जब 181 महिलाएं ‘देशी-विदेशी सुगन्धित इत्र, परफ्यूम से स्नान कर, वस्त्रों पर छिड़क कर संसद में बैठेंगी तो कहीं पुरुष पूछ न बैठें ‘यह कौन सा इत्र है मोहतरमा?’ यह भी हो सकता कि महिलाओं की उतनी बड़ी तायदात देख वे हीन भावना से ग्रसित हो जाएँ। यह फिर सोचने लगे कि नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री क्यों नहीं बने, महिला सशक्तिकरण के लिए विधेयक पहले क्यों नहीं आया? क्योंकि कुर्सियों पर महिला बैठेंगी तो कितना खूबसूरत संसद होगा। 

राष्ट्र की राजधानी नई दिल्ली में नवनिर्मित संसद भवन और कर्तव्य पथ के बीच रायसीना हिल की ओर टुकुर-टुकुर देख रहा था। जहाँ मैं बैठा था वही सामने उस क्षेत्र में अखबार बांटने वाले अख़बार विक्रेता अपनी साईकिल को रखते मुस्कुरा रहे थे। मेरे बाएं हाथ में मोबाईल कैमरा अपने स्टैंड से जुड़ा था और कुछ कागजात भी हाथ की उंगलियों के बीच लटका था। झोला बगल में रखा था। मन में कई बातें उठ रही थी। खुद प्रश्नकर्ता था, खुद उत्तरदाता भी। 

फिर सोचने लगा सन 1911 के बाद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि इतनी बुरी हार के एक साल बाद ही मोहम्मद गौरी वापस आएगा। लेकिन तक़रीबन 832 साल पहले सन 1192 में मोहम्मद गौरी लौट आया। समय बदल रहा था और हवाओं में गद्दारी की बू भी आने लगी थी। दृष्टान्त जयचंद की गद्दारी थी जो मोहम्मद गौरी से जा मिला था। इतिहासकार कहते हैं कि उन दिनों पृथ्वीराज चौहान के साथ मोहम्मद गौरी की लड़ाई हुई। कहते हैं 18वीं बार हुए उस युद्ध में मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को मात दिया और उन्हें बंदी बनाकर अपने साथ ले गया। 

मैं वायु सेना भवन-मौलाना आज़ाद रोड, उद्योग भवन, करियप्पा मार्ग से रफ़ी मार्ग के रास्ते आती-जाती वाहनों को देख रहा था। कभी कभार लाल-नीली बत्ती वाली पों-पां करती चार पहिया वाहन भी आ-जा रही थी। फिर सोचने लगा कि उस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के साथ उनके मित्र चंदबरदाई को भी बंदी बना लिया था मोहम्मद गौरी ने। इतिहासकार कहते हैं कि सजा के तौर पर गर्म सलाखों से पृथ्वीराज की आंखें फोड़ दी थी। 

मेरे बाबूजी कभी कभार गीता के उपदेश और श्लोकों से अलग हटकर पृथ्वीराज चौहान की भी बातें कहते थे दृष्टान्त के तौर पर। बाबूजी कहते थे ‘हिम्मत-ए  मर्दा – मदद ए खुदा’ पर हमेशा विश्वास रखना। हिम्मत कभी नहीं हारना। हिम्मत को कभी भी पस्त नहीं होने देना। जीवन में आगे ही बढ़ोगे। रफ़ी मार्ग पर बैठकर बाबूजी और उनका पटना का अशोक राजपथ बहुत याद आ रहा था। 

सोच रहा रहा उस घायल अवस्था में, जबकि आँखें फूटी हुई थी, पृथ्वीराज चौहान की हिम्मत पूजनीय है, वंदनीय है, तभी तो आज 832+ वर्ष के बाद भी वे जीवित हैं। यहाँ तो लोग बाग पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार में जब शमशान जाते हैं तो बात-बार घडी देखते रहते हैं। इतना ही नहीं, तेरहवीं के बाद तो अच्छे-अच्छे लोग अच्छे-अच्छों को भूल जाते हैं।  कहते भी हैं ‘लाइफ गोज ऑन।” खैर। 

मोहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान के शब्दभेदी बाण चलाने वाली कला के बारे में पता था। आखिरी इच्छा के रूप में चंदबरदाई के कहने पर इसके प्रदर्शन की इजाजत दे दी। यहीं पर “चार बांस, चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण … .. ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान” ऐतिहासिक शब्द, दोहा प्रयोग हुआ था जो आज भी जीवित है। मन ही मन हंसी भी आ रही थी। सामने बस स्टैंड के पास कुछ सुन्दर बालाएं कड़ी हो गई थी अब तक।  वे सभी दक्षिण दिल्ली की ओर जाने वाली बसों का इन्तजार कर रही थी। 

पृथ्वीराज चौहान के लिए मोहम्मद गोरी की दूरी मापने के लिए चंदबरदाई का यह संकेत काफी था। मोहम्मद गौरी ने जैसे ही शाबाश बोला, आवाज सुनकर पृथ्वीराज चौहान ने शब्द भेदी बाण चला डाला और मोहम्मद गौरी की मृत्यु हो गई। 

पीछे जलाशय, आगे रायसीना हिल पर राष्ट्रपति भवन, बाएं-दाहिने रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, संसद के सामने इस कदर बैठना मेरे लिए भी उसी जीत के बराबर ही थी। मैं भी अशोक राजपथ पटना से जीवन की शुरुआत कर भारत के करोड़ों-करोड़ लोगों में, लाखो लाख अख़बार विक्रेताओं में अकेले समस्याओं से जूझते, समस्याओं को चीरते-फाड़ते मेहनत करते आगे निकला था तभी तो एक अखबार विक्रेता से देश-विदेश के पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टीवी के लिए कहानी लिख सका और आज एक संवादताता के रूप में यहाँ बैठा था – फक्र से। मैं तो अपना पीठ खुद थपथपाता हूँ, सदैव। 

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फिर सोचने लगा कि क्या भारत के ‘पुरुष सांसद’ या ‘पुरुष विधायक’ आने वाले दिनों में, संसद और विधान सभा में अपनी कुर्सी के बगल में बराबरी की ताकत रखने वाली महिलाओं को देख पाएंगे? भारत के इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को तो ‘पैर की जूती” समझते हैं (अपवाद छोड़कर), कहते भी हैं खुलेआम। 

लड़कियों के ससुराल में जब बहु को बच्चा होता है तो बेटी होने पर लाखों यातनाएं आज भी देते हैं। सभी सास को ‘पोता’ ही चाहिए। अब पढ़ी होती तो शायद समझ जाती कि उनके बेटे का क्रोमोजोम कमजोर है। शराब पीता है, सिगरेट पीता है तो क्रोमोजोम कहाँ से ताकतवर होगा। कमजोर होता है तो ‘हार’ जाता है अपनी पत्नी के क्रोमोजोम से। स्वाभाविक है बेटा नहीं, बेटी होगी। 

मन-ही-मन संसद के सामने बैठकर संसद भवन में रखी कुर्सियों को देख रहा था। सोच रहा था कि आने वाले दिनों में संसद में प्रत्येक चौथी कुर्सी के बाद महिला की कुर्सी होगी। अब तक सत्रह लोक सभा में महिला संसद किसी कोने में दिखती थी। 

यह तो संसद की बात हुई अपना बिहार में 243 कुर्सी वाली विधान सभा में प्रत्येक तीसरी कुर्सी के बाद कोई माथे पर पल्लू लिए, तो कोई सलवार सूट में, कोई आधुनिक जींस और कुर्ती में, माथे पर काले चश्मा चढ़ाई महिलाएं जब पुरुष विधायक को दिखेंगी पुरुषों का क्या हाल होगा। उन्हें तो विधान सभा में ‘अपशब्द’ के इस्तेमाल, मार-पीट, गाली-गलौज, कुर्सी – टेबुल का फेका फेंकी बंद करना होगा। ‘अपवाद’ छोड़कर। 

वजह भी है – आज कल तो संसद और विधान सभा की कार्रवाई लाइव दिखता है। उनके घर में उनकी पत्नी, उनके बच्चे सभी ‘पप्पा’ का कमाल, धमाल देख्नेगे। क्योंकि अखबारवाला, टीवी वाला, खासकर कैमरामैन तो किसी का नहीं होता। अनेकानेक बातें मन में चल रही थी क्योंकि महिला आरक्षण बिल तो लोक सभा में पेश हो गया है 128 वे संविधान संशोधन विधेयक, 2023 के रूप में। केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल इस ऐतिहासिक को किये थे। इस विधेयक के कानून बनने के बाद लोक सभा में 181 महिला सांसद हो जाएँगी। 

नए संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वर्तमान महिला सांसद

बिल का उद्देश्य राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर नीति-निर्माण में महिलाओं की अधिक भागीदारी को सक्षम बनाना है। इसमें कहा गया है कि परिसीमन प्रक्रिया शुरू होने के बाद आरक्षण लागू होगा और 15 वर्षों तक जारी रहेगा। विधेयक के अनुसार, प्रत्येक परिसीमन प्रक्रिया के बाद लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की अदला बदली होगी। पारित हो जाने के बाद परिसीमन प्रक्रिया शुरू होगी और उसके बाद महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की जाएंगी। 

इस प्रक्रिया में बिहार की कुल 243 सीटों में से 81 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। 243 में से 38 सीटें अनुसूचित जाति और दो सीट अनूसूचित जनजाति के लिए पहले से ही आरक्षित हैं। इस तरह राज्य में कुल 121 सीटें आरक्षित हो जाएंगी, जो कुल सीटों का करीब 50 फीसदी है। 
इसी तरह, उत्तर प्रदेश विधानसभा में कुल 403 सीटें हैं। इममें से 84 सीटें अनुसूचित जाति के लिए और दो सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। महिला आरक्षण लागू होने के बाद 134 सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित हो जाएंगी। इस तरह 403 सीटों में से कुल 220 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी। यह 50 फीसदी के मनोवैज्ञानिक स्तर से ज्यादा है।

उल्लेखनीय है कि 17वीं लोकसभा के लिए देश ने सबसे अधिक 78 महिला सदस्य चुनकर भेजी थीं । हाल ही में राज्यसभा में 61 नए सांसद चुने गए हैं। इनमें 4 महिला सांसद भी हैं। नई महिला सांसदाें के साथ ही संसद में कुल महिला सदस्यों की संख्या 103 हाे गई है। जिसमें लोकसभा में 78 और राज्यसभा में 25  महिला सांसद हैं। 

राजस्थान से महिला सांसद जसकौर मीणा मानती है कि संसद में उनकी भागीदारी संसद में बढ़ती हुई उनकी भागीदारी का आजाद भारत में महिला सशक्तिकरण का एक बेजोड़ नमूना है । उन्होंने माना कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में महिलाओं की समाज में भागीदारी तेजी से बढ़ रही है। महिला सांसदों को सदन में प्रतिशत के रूप में देखें तो लोकसभा में 14.36% और राज्यसभा में 10% से अधिक महिला सदस्य हाे गई हैं। लोकसभा में 1951 से 2019 तक लगातार महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है। 

नई नीति के मुताबिक आंध्रप्रदेश में कुल सीट 175 है और आरक्षण के बाद महिलाओं की संख्या 58 होगी। अरुणाचल प्रदेश में कुछ सीट 60 और आरक्ष्ण के बाद महिलाऐं 20 कुर्सियों पर बैठेंगी। असम में 126 कुल  सीटों में 42 सीट महिलाओं के लिए होंगी। बिहार में 243 में 81 स्थान महिलाओं के लिए, जबकि छत्तीसगढ़ में 90 में 30 सीट महिलाओं की होंगी। दिल्ली में 70 में 23 स्थान महिलाओं की होगी। गोआ में 40 में 13 स्थान महिलाओं के लिए। गुजरात में 182 सीटों में 61 सीट महिलाओं के लिए सुरक्षित होंगी। 

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इसी तरह हरियाणा में 90 में 30, हिमाचल प्रदेश में 68 में 23, जम्मू कश्मीर में 90 में 30 झारखंड में 81 में 27, कर्नाटक में 224 में 75, केरल में 140 में 47 और मध्यप्रदेश में 230 में 77 सीटें महिलाओं के लिए होंगी। महाराष्ट्र में 288 में 96, मणिपुर में 60 में 20, मेघालय में 60 में 20, मिजोरम में 40 में 13, नागालैंड में 60 में 20, ओडिशा में 147 में 49, पुडुचेरी में 30 में 10, पंजाब में 117 में 39, राजस्थान में 200 में 67, सिक्किम में 32 में 11, तमिलनाडु में 234 में  78,  तेलंगाना में 119 में 40, त्रिपुरा में 60 में 20, उत्तराखंड में 70 में 23 और पश्चिम बंगाल में 294 में 98 कुर्सियां महिलाओं के लिए। 

लोकसभा के लिए निर्वाचित महिलाओं की सबसे कम संख्या 1977 में थी जब केवल 19 महिलाएँ निचले सदन तक पहुँचीं, जो कुल लोकसभा सीटों (उस समय 542) का केवल 3.50% थी। 1996 में सबसे अधिक 599 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं, उसके बाद 2009 में 556 महिला उम्मीदवार और 2004 में 355 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं। 

चुनाव लड़ने में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की तुलना में काफी कम रही है। नौवें आम चुनाव तक महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की तुलना में 30 गुना कम थी, हालांकि दसवें आम चुनाव के बाद भागीदारी में सुधार हुआ। लेकिन मजेदार बात यह है कि पहले चुनाव से पंद्रहवीं लोकसभा के गठन तक महिला प्रतियोगियों की जीत का प्रतिशत हमेशा पुरुष प्रतियोगियों की तुलना में अधिक रहा है। 

आज की तारीख तक लोक सभा के लिए सत्रह आम चुनाव हुए हैं। पहला आम चुनाव 25 अक्टूबर, 1951 से 21 फरवरी, 1952 तक होने के बाद 17 अप्रैल, 1952 को पहला लोक सभा का गठन हुआ और लोक सभा का प्रथम सत्र 13 मई 1952 को आरम्भ हुआ। जी. वी. मावलंकर लोकसभा (15 मई 1952 – 27 फरवरी 1956) के प्रथम अध्‍यक्ष थे। इसके बाद दूसरा आम चुनाव 24 फरवरी से 14 मार्च, 1957 तक और तीसरा 19 से 25 फरवरी 1962 तथा चौथा 17 से 21 फरवरी 1967, पांचवां 1 से 10 मार्च 1971, छठा 16 से 20 मार्च 1977, सातवां 3 से 6 जनवरी 1980, आठवां 24 से 28 दिसम्बर 1984, नौवां 22 से 26 नवम्बर 1989, दसवां 20 मई से 15 जून 1991, ग्‍यारहवां 27 अप्रैल से 30 मई 1996, बारहवां 16 फरवरी से 23 फरवरी 1998, तेरहवां 5 सितंबर से 6 अक्टूबर 1999, चौदहवां 20 अप्रैल से 10 मई 2004, पंद्रहवाँ 16 अप्रैल से 13 मई 2009 के बीच, सोलहवाँ 7 अप्रैल 2014 से 12 मई 2014 के बीच और सत्रहवाँ आम चुनाव 11 अप्रैल से 19 मई 2019 के बीच हुआ था। और देश अठारहवाँ आम चुनाव के लिए सज्ज हो रहा है। 

वर्तमान लोकसभा का कार्यकाल 16 जून 2024 को समाप्त होने वाला है। पिछले आम चुनाव अप्रैल-मई 2019 में हुए थे। चुनाव के बाद, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने केंद्र सरकार बनाई, जिसमें नरेंद्र मोदी दूसरी बार प्रधान मंत्री बने। सभी 543 निर्वाचित सांसद फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट वोटिंग का उपयोग करके एकल सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाते हैं। संविधान के 104वें संशोधन ने उन दो सीटों को प्रभावी रूप से समाप्त कर दिया जो एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए आरक्षित थीं। आज लोक सभा में भारतीय जनता पार्टी  के 301 सदस्य हैं जबकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 53 सदस्य है।

विगत दिनों वरिष्ठ पत्रकार के.विक्रम राव  दृष्टान्त दिया था। लोकसभा से बड़ी संख्या में सदस्यों के निष्कासन पर ब्रिटिश विचारक जान स्टुअर्ट मिल का कथन अनायास ही याद आता है। उन्होंने कहा था : “निन्यानबे लोगों को भी यह अधिकार नही है कि वे किसी एक असहमत व्यक्ति की अभिव्यक्ति का अधिकार छीन लें।” वर्तमान संदर्भ में सांसदों को सदन से सस्पेंड करने का मतलब यह हुआ कि उनके लाखों वोटरों की आवाज दबाना। अब वे आम जन की आवाज नहीं उठा पाएंगे। इसीलिए राजनीति शास्त्र के छात्र होने के नाते, मेरा यह विचार है कि अध्यक्ष ओम विरला को ऐसा विरला निर्णय करने के पूर्व भली भांति परामर्श करना चाहिए था। आखिर संसद राष्ट्रीय इच्छा की अभिव्यक्ति का माध्यम तो ही है। 

वे कहते हैं कि विगत दिनों के संसदीय हादसे से 15 मार्च 1989 की घटना याद आती है जब अध्यक्ष बलराम झाखड़ ने एक झटके में 63 सदस्यों को सदन से निष्कासित कर दिया था। यह वाकया इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक बाद हुआ था। प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। सुप्रीम कोर्ट के जज न्यायमूर्ति मनोहरलाल प्राणलाल ठक्कर की अध्यक्षता में न्यायिक जांच समिति बनी। इसमें कई तथ्यों का उल्लेख किया जो रोमहर्षक थे। 

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वे कहते हैं कि एक संदर्भ था कि न्यायमूर्ति ने संदेह की सुई दिवंगत प्रधानमंत्री के वर्षों तक निजी सचिव रहे राजिन्दर कुमार धवन की ओर दिखायी थी। हत्या के षड्यंत्र में धवन की संलिप्तता का जिक्र था। सदन में 63 सदस्यों ने इस मसले पर बवाल उठाया था। राजीव गांधी प्रधानमंत्री के रूप में अपने निजी सचिव पर कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे। 

नतीजन सदन में शोर शराबा हुआ था। अध्यक्ष बलराम झाखड ने सभी 63 को निष्कासित कर दिया। यह कदम झाखड ने नियम 373 के तहत उठाया था। अर्थात यदि लोकसभा स्पीकर को ऐसा लगता है कि कोई सांसद लगातार सदन की कार्रवाई बाधित कर रहा है तो वह उसे उस दिन के लिए सदन से बाहर कर सकते हैं, या बाकी बचे पूरे सेशन के लिए भी सस्पेंड कर सकते हैं। वहीं इससे ज्यादा अड़ियल सदस्यों से निपटने के लिए स्पीकर रूल 374 और 374-ए के तहत कार्रवाई कर सकते हैं। 

लोकसभा स्पीकर उन सांसदों के नाम का ऐलान कर सकते हैं, जिसने आसन की मर्यादा तोड़ी हो या नियमों का उल्लंघन किया हो। जानबूझकर सदन की कार्यवाही में बाधा पहुंचाई हो। जब स्पीकर ऐसे सांसदों के नाम का ऐलान करते हैं, तो वह सदन के पटल पर एक प्रस्ताव रखते हैं। प्रस्ताव में हंगामा करने वाले सांसद का नाम लेते हुए उसे सस्पेंड करने की बात कही जाती है। इसमें सस्पेंशन की अवधि का जिक्र होता है। 

यह अवधि अधिकतम सत्र के खत्म होने तक हो सकती है। सदन चाहे तो वह किसी भी समय इस प्रस्‍ताव को रद्द करने का आग्रह भी कर सकता है। ठीक 5 दिसंबर 2001 को रूल बुक में एक और नियम जोड़ा गया था। इसे ही रूल 374ए कहा जाता है। यदि कोई सांसद स्पीकर के आसन के निकट आकर या सभा में नारे लगाकर या अन्य प्रकार से कार्यवाही में बाधा डालकर जानबूझकर नियमों का उल्लंघन करता है तो उस पर इस नियम के तहत कार्रवाई की जाती है। 

लोकसभा स्पीकर द्वारा ऐसे सांसद का नाम लिए जाने पर वह पांच बैठकों या सत्र की शेष अवधि के लिए (जो भी कम हो) स्वतः निलंबित हो जाता है। स्पीकर को किसी सांसद को सस्पेंड करने का अधिकार है, लेकिन सस्पेंशन को वापस लेने का अधिकार उसके पास नहीं है। यह अधिकार सदन के पास होता है। सदन चाहे तो एक प्रस्ताव के जरिए सांसदों का सस्पेंशन वापस ले सकता है।

अब गौर कर लें इंदिरा गांधी हत्या पर हुई ठक्कर जांच समिति की रपट के उस वाक्य पर जिसमें धवन का उल्लेख था। न्यायमूर्ति ने कहा : “कई सूचक मिलते हैं, यह इंगित करते हैं कि प्रधानमंत्री की हत्या में धवन संलिप्त रहे।” इस वाकायांश पर पूरा सदन उत्तेजित हो गया था क्योंकि तब राजीव गांधी ने भी धवन को अपना विश्वस्त सहायक नियुक्त कर दिया था। बाद में धवन सांसद और मंत्री तक बने थे। अब इन 63 सांसदों का उत्तेजित होकर सदन में हंगामा करना स्वाभाविक था। पर अपने अपार (400 से अधिक सदस्यों) के बल पर राजीव गांधी ने 63 सांसदों को सदन के बाहर करा दिया।

वह मसला तो आज की घटना की तुलना में बहुत कम गंभीर है। इस बार तो केवल चंद सिरफिरे युवाओं की बेजा और घृणित सस्ती हरकत के मामले पर सदन में रोष व्यक्त किया गया। तब तो (1989 में) प्रधानमंत्री की हत्या की न्यायिक जांच रपट में इन्दिरा गांधी के निजी सहायक धवन पर शक की सुई की चर्चा थी। 

फिर भी तुलनात्मक रूप से देखें तो इतनी बड़ी संख्या में सांसदों का निष्कासन न तो तब (1989) और न तो अब (2023) में स्वीकार्य हो सकता है। अर्थात अब अध्यक्ष महोदय को स्वयं उपाय खोजने होंगे कि सदन की गरिमा संजोई रहे। आखिर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है सामान्य वोटरों पर। कहा था डॉ. राममनोहर लोहिया ने कि “सड़क खामोश हो जाएगी तो संसद आवारा हो जाएगी।” आज ठीक उल्टा हो रहा है। संसद उद्विग्न हो रही है, तो वोटरों के असंतोष का उद्रेक तो बढ़ेगा ही। समाधान सदन में है। स्पीकर के पास है।

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