काश !!! सरकार इतना ही कर देती – जांच करा देती कि के.बी. सहाय को किसने मारा? क्यों मारा?

पटना / नई दिल्ली : आज बिहार के नेता क़ुतुब मीनार की ऊंचाई के बराबर ‘तथाकथित सामाजिक न्याय’ का नगारा पीटते हैं। लेकिन किसी ने आज तक नहीं सोचा कि 2 जून 1974 को पटना विमानपत्तन के लाउंज में बिहार में सामाजिक न्याय और जमींदारी प्रथा समाप्ति के अग्रणी कृष्ण बल्लभ सहाय की मुलाकात जयप्रकाश नारायण से होती है। दोनों मिलकर सामाजिक न्याय का, सम्पूर्ण क्रांति का नक्शा रचते हैं और 3 जून को पटना-हज़ारीबाग सड़क पर एक विवादग्रस्त कार दुर्घटना में केबी सहाय मृत्यु को प्राप्त करते हैं 

बिस्मिल्लाह खान बिहार ही नहीं, पूरे मुल्क में एक भी शहनाई वादक नहीं बना पाए। बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ. विधान चंद्र राय का जन्म पटना के खजांची रोड में भले हुआ हो, आज बिहार के लोग, प्रदेश के नेता कोई नहीं जानता उन्हें या खजांची रोड को। डॉ. राजेंद्र प्रसाद की बात ही नहीं करें। सम्पूर्ण क्रांति वाले जयप्रकाश नारायण और पितौंझिया वाले कर्पूरी ठाकुर के अनुयायी उनके नामों को सामाजिक-राजनीतिक बाजार में बेचकर आज ‘सऊदी अरबिया’ जैसे धनाढ्य बन गए, भले आज भी प्रदेश के ‘नाई’ समुदाय के लोगों को ‘पियाज और रोटी नसीब’ नहीं होता हो, उनके अर्धनग्न बच्चे विद्यालय नहीं जा पाते हों। बिहार के लोग ऐसे ही हैं। 

अन्यथा कर्पूरी ठाकुर से कई दशक पहले गरीबों/पिछड़ों को सामाजिक न्याय और विकास की मुख्यधारा में जोड़ने का शंखनाद करने वाले योद्धा और जमींदारी प्रथा को जड़ से उखाड़ फेंकने वाले कृष्ण बल्लव सहाय पटना-हज़ारीबाग रोड पर बेमौत नहीं मारे जाते, गुमनाम नहीं हो जाते।भोला पासवान शास्त्री महज 322 दिन, कर्पूरी ठाकुर सिर्फ 828 दिन ही मुख्यमंत्री कार्यालय में नहीं बैठते। भोला पासवान शास्त्री और कर्पूरी ठाकुर का नाम बेच कर राजनीति करने वाले लालू यादव 3513 दिन, राबड़ी देवी 2745 दिन मुख्यमंत्री नहीं होते और नीतीश कुमार के बारे में तो पूछिए ही नहीं – इसी को राजनीति कहते हैं। 

उन दिनों बिहार विधान सभा का चुनाव हो रहा था। पटना पश्चिम से चुनाव लड़ रहे थे महामाया प्रसाद सिन्हा। साल साठ के दशक का उत्तरार्ध था। हम सभी छोटे-छोटे बच्चे थे। महामाया प्रसाद सिन्हा का प्रचार-प्रसार जोरों से चल रहा था। रिक्शा पर लाउडस्पीकर लगाकर, ‘जन क्रांति पार्टी’ का झंडा-पताखा बांधकर सड़कों पर, गली-कूचियों में पार्टी के लोग, जिन्हे हम सभी जानते भी थे, उनके पक्ष में प्रचार कर रहे थे। 

हम में से कोई भी बच्चा ‘महामाया प्रसाद सिन्हा’ बोलने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन खेलने के उद्देश्य से गली-मोहल्ले रहने वाले हम बच्चे हाथ में छोटा-छोटा डंडा लेकर, एक हाथ से पैंट पकड़े ताकि खुलेआम ‘नग्न’ न हो जाएँ और दूसरे हाथ से डंडा लिए ‘मैय्या-बाबू जिन्दावाद – मैय्या बाबू जिन्दावाद’ बोलते घूमते थे अपने क्षेत्र में। आज कल के नेताओं को ‘नग्नता’ की कोई परवाह नहीं है, चाहे मानसिक हो या सामाजिक या राजनितिक।  विश्वास नहीं हो तो नीतीश कुमार को एक बार देख लीजिये। 

उन दिनों शहरों की तरह आने-जाने वाले लोगों के सामने, चाहे बच्चे ही क्यों न हों, दरवाजा बंद नहीं करते थे लोग। अलबत्ता, गली-मोहल्ले के एक-एक व्यक्ति, एक-एक बच्चों को उसके माता-पिता, दादा-दादी के नाम से जन्मकुंडली के साथ पहचानते थे। गली-मोहल्ले में बोलने के क्रम में हम बच्चों को मोहल्ले वाले कोई रोटी में मिठ्ठा (गुड़) लपेट कर दे देते थे तो कोई लोटा में पानी लेकर पानी पीला देते थे। उसमें सबसे अधिक लोकप्रिय थे ‘झुन्नू भैया’ गुड़-रोटी बांटने, खिलाने में। वैसे हम सभी तो खेल रहे थे, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से महामाया प्रसाद सिन्हा का प्रचार-प्रसार हो रहा था। 

उसी मोहल्ले में एक थे राजू यादव और सुरेश यादव। वे सभी उन दिनों के ‘बहुत बड़े डाइगरबाज’ (बड़ा-बड़ा चाकू चलाने वाले उस्ताद) थे। शहर का, गली-मोहल्ले के लोगों का झगड़ा खरीदते थे शांति के लिए। वे एक-दो दिन पर हम सभी बच्चों को ‘लेवानच्युस’ बाँट देते थे। हम जहाँ रहते थे (पुरन्दरपुर मोहल्ला) उस मोहल्ले से एक गली बीएम दास रोड को निकलती थी।  एक गली एनी बेसेंट रोड से मिलती थी। एक गली अंदर-ही-अंदर मुसलमानों की बस्ती और दुर्गा मंदिर के रास्ते पॉपुलर मेडिकल हॉस्पिटल/टी के घोष अकादमी होते अशोक राजपथ से मिलती थी।  और बीच से एक रास्ता खजांची रोड की ओर निकल जाती थीं। 

हम बच्चों के प्रयास से मैय्या-बाबू (महामाया प्रसाद सिन्हा) चुनाव जीत गए और 5 मार्च 1967 से 28 जनवरी, 1968 तक बिहार का पांचवां मुख्यमंत्री के रूप में कार्यालय में विराजमान रहे। उन दिनों उनके डिप्टी मुख्यमंत्री थे कर्पूरी ठाकुर। महामाया प्रसाद सिंह से पहले चौथे मुख्यमंत्री के रूप में श्री कृष्ण बल्लभ सहाय 2 अक्टूबर, 1963 से 5 मार्च, 1967 तक मुख्यमंत्री के रूप में विराजमान थे। 

पटना पश्चिम विधान सभा सीट पटना संसदीय क्षेत्र में आता था। सन 2008 में यह बांकीपुर विधानसभा क्षेत्र में विलीन हो गया। पटना पश्चिम विधानसभा के अंतिम सदस्य थे नितिन नवीन। बहुत सारी राजनीतिक बातें हैं, गपशप है जो शायद आज के पटना के लोग, यहाँ तक कि उस मोहल्ले के बच्चे-बड़े नहीं जानते हैं। वैसे भी वे सभी बातें आज के गूगल के आँगन में नहीं है अन्यथा दर्जनों ‘एक्सक्लूज़िव’ कहानियां लिख दिए होते लोग। वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो नवमी बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिए प्रदेश के 22 वें मुख्यमंत्री के रूप में, उन दिनों पटना में कहीं दिखाई भी नहीं देते थे। 

हमारे घर से आगे एक गली जो खजांची रोड की ओर बढ़ती थी, पटना के उस महान व्यक्ति के घर के दरवाजे पर निकलती थी, जिस भारत सरकार की ओर से ‘भारत रत्न’ का अलंकरण हो गया था। यह बात उन दिनों हम सभी को मोहल्ले के बड़े भैया लोग, जो कालेज में पढ़ते थे, गली में बच्चों को खड़ा कर सामान्य ज्ञान की बातें बताते थे। शायद आज के बच्चे ही नहीं, पटना के 99 फीसदी लोग या उनके बच्चे नहीं जानते होंगे। 

श्री प्रफुल्ल चंद्र घोष के बाद पश्चिम बंगाल का दूसरा मुख्यमंत्री डॉ बिधान चंद्र रॉय, जिनका जन्म पटना के खजांची रोड हुआ था – अघोर शिशु विद्या मंदिर प्रांगण स्थित भवन में। बी. ए. परीक्षा उत्तीर्ण कर वे सन् 1901 में कलकत्ता चले गए।स्वतंत्र भारत में बंगाल के दूसरे मुख्यमंत्री के रूप में डॉक्टर राय 23 जनवरी, 1948 से 25 जनवरी, 1950 तक, फिर 26 जनवरी, 1950 से अपनी अंतिम सांस 1 जुलाई, 1962 तक बंगाल के मुख्यमंत्री बने रहे। आज न तो बिहार के मुख्यमंत्री को, देश के प्रधानमंत्री और ना ही पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी नई नजर में डॉ रॉय और उनके जन्म स्थान की कोई महत्व है। 

इन्हे भारत रत्न मिला 

डॉ. बिधान चंद्र रॉय को बिहार में जन्म लेने के कारण जो सम्मान उन्हें यहाँ मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। यह निर्लज्जता है बिहार की सरकार का, अधिकारी, पदाधिकारी का और लोगों के बारे में तो कहना ही व्यर्थ है। बिहार के लोग, खासकर एलोपेथिक चिकित्सा से जुड़े लोग, चाहे वे किसी भी जाति-संप्रदाय के हों, इतने खुदगर्ज हुए, और हैं भी, जो उस व्यक्ति की भूमिका को भूल गए जिनके नाम पर वे ‘डॉक्टर्स डे’ मनाते हैं। अगर चाहते तो इनकी जन्मस्थान का आज वह हश्र नहीं होता।  

सन 1962 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत होने वाले देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को बिहार का कौन जमींदार सबसे पहले मदद के लिए हाथ बढ़ाये थे और उन्हें पटना के टी के घोष अकादमी विद्यालय में प्रवेश दिलाये थे ? सन 1999 में भारत रत्न से अलंकृत होने वाले जय प्रकाश नारायण को ‘लोक नायक’ का अलंकरण किसने दिया था वे किस कांग्रेसी नेता के आह्वान को सुनकर अंग्रेजों के खिलाफ जंगे आज़ादी में कूदे थे ? या फिर जेपी की राजनीतिक उद्येश्य तो पूरी हो गई, कांग्रेस को सत्ता से बाहर निकाल फेंके, लेकिन वे या उनके बाद तो सिंहासन पर बैठे – समाज को क्या दिए?

सन 2001 में भारत रत्न से अलंकृत शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खान जिनका जन्म डुमरांव में हुआ था, प्रारंभिक जीवन काल में डुमरांव राजा द्वारा पोषित-सम्पोषित हुए थे. आठ वर्ष के बाद (अपवाद छोड़कर) अपने जीवन के अंतिम सांस तक कभी डुमरांव नहीं आये और बिहार के लोग भी उनके उस जन्मस्थान को मिट्टी में मिलने के लिए छोड़ दिया और इसमें शासन-प्रशासन भी सम्मिलित है। 

किसी भी प्रकार का राजकीय सम्मान ‘राजनीतिक’ होता है और यही कारण है कि अनेकानेक सम्मानित व्यक्तियों के सम्मान, ताम्रपत्र, प्रमाणपत्र गाँव घर के कोठियों पर, लोहे के बक्से में धूल चाटते रहता है।  क्योंकि उनके पास खाने के लिए पैसे नहीं हैं, रोजी-रोजगार नहीं है, विद्यालय नहीं है, अस्पतालों में दवाइयां नहीं है, चिकित्सक अस्पतालों से अधिक निजी क्लीनिकों में दीखते हैं। ‘रत्न’ और ‘सम्मान’ का उपयोग उस जाति-संप्रदाय विशेष के लोगों को मतदान केंद्र तक अवश्य खींचता है। क्योंकि प्रदेश में महिला:पुरुष के बीच शिक्षा और शिक्षित होने में 15 से 18 फीसदी का फासला है। नेता कभी छठा नहीं की मतदाता शिक्षित हो। 

और अंत में 2024 में भारत रत्न से अलंकृत कर्पूरी ठाकुर को ‘जन नायक’ शब्द से किसने अलंरित किया – शायद बिहार के लोग नहीं जाने होंगे। बिहार के लोग शायद यह भी नहीं जानते होंगे कि कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री (एक नाई और दूसरे पासवान) बिहार के स्थापना काल से अब तक दो ही मुख्यमंत्री हुए तो “बेईमान” नहीं थे, जो अपने लिए ‘धनोर्पार्जन’ नहीं किये, जो राजनीति में बेटा-बेटी-बहु-पोता-साला-साली-भांजा-भतीजा या दूर-दरस्त के सगे सामबब्धियों को नहीं आने दिया।

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कर्पूरी ठाकुर को राजनीतिक गलियारे में अगर बिहार के लोग सम्मान दिए होते, राजनेता उन्हें महत्व दिए होते तो आज जिस तरह नौ बार नितीश कुमार  मित्र-द्वय लालय प्रसाद यादव, उनकी पत्नी राबड़ी देवी प्रदेश में मुख्य मंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहे, कर्पूरी जी भी रह पाते। भोला पासवान शास्त्री कुल ३२२ दिन, वह भी तीन बार में; कर्पूरी ठाकुर मात्र 828 दिन (दो बार में) मुख्यमंत्री रहे। जबकि लालू यादव 3513, राबड़ी देवी 2745 दिन और नीतीश कुमार  के बारे में ; ही नहीं। हकीकत कि कर्पूरी ठाकुर के त्याग-तपस्या को  राजनीतिक गलियारे में बेचकर स्वयं को उनका अनुयायी कहकर इन लोगों  पर राज किया – स्वहित में। शेष मुख्यमंत्री हों या मंत्री, नेता हों अभिनेता, प्रदेश को नोच-नोच कर जितना माला-माल हुए यह पूछने की शक्ति आज प्रदेश के किसी मतदाता में नहीं है, अधिकारी में नहीं है, पदाधिकारी में नहीं हैं। क्योंकि सभी उनके ‘अनुयायी’ हैं। 

अभी तक जिन-जिन लोगों को भारत रत्न की उपाधि से अलंकृत किया गया है उनमें 1954 में  सी राजगोपालाचारी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और सी वी रमन को दिया गया। अगले वर्ष 1955 में तीन व्यक्तियों को मिला जिसमें भगवान् दास, एम विश्वेश्वरैया और पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। सन 1956 में कोई घोषणा नहीं हुई। सन 1957 में गोविंद बल्लभ पंत को भारत रत्न से अलंकृत किया गया। अगले वर्ष 1958 में यह सम्मान डोंडों केशव कारवे को मिला। फिर दो वर्ष 1959 और 1960 में यह अलंकरण किसी को नहीं दिया गया। जबकि 1961 में विधान चंद्र रॉय और पुरुषोत्तम दास टंडन  भारत रत्न से अलंकृत हुए। अगले वर्ष 1962 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ‘भारत रत्न’ बने और फिर 1963 में ज़ाकिर हुसैन तथा पाण्डुरंग वामन काने को यह सम्मान मिला। 

सन 1964 -1965 में यह अलंकरण किसी को नहीं मिला जबकि 1966 में लाल बहादुर शास्त्री इस अलंकरण के हकदार हुए। सन 1967, 1968, 1969 और 1970 वर्ष ‘भारत रत्न’अलंकरण से परे रहा। सन 1971 में इंदिरा गांधी  को भारत रत्न मिला। फिर 1972, 1973, 1974 भारत रत्न अलंकरण से परे रहा जबकि 1975 में वीवी गिरी, 1976 में के. कामराज भारत रत्न से अलंकृत हुए। सन 1977, 1978 और 1979 में भी यह अलंकरण किसी को नहीं मिला। सन 1980 में मदर टेरेसा को भारत रत्न से अलंकृत किया गया। सन 1983 में आचार्य विनोबा भावे भारत रत्न से अलंकृत हुए। इसके बाद 1984, 1985, 1986 भारत रत्न  अलकंरण से परे रहा। सन 1987 में अब्दुल गफ्फार खान भारत रत्न से नवाजे गए। फिर 1988 में एम जी रामचंद्रन को मिला। 

सन 1989 भारत रत्न अलंकरण से अछूता रहा। सन 1990 में बीआर अंबेडकर और नेल्सन मंडेला को यह सम्मान मिला। 1991 में यह सम्मान राजीव गांधी, वल्लभ भाई पटेल और मोरारजी देसाई ने नाम लिखा गया। अगले वर्ष 1991 में अबुल कलाम आज़ाद, जे आर डी टाटा और सत्यजीत रे ‘भारत रत्न’ की उपाधि से अलंकृत हुए। सं 1992, 1993, 1994, 1995, 1996 इस सम्मान के अलंकरण से खाली बिता। सन 1997 में गुलजारी लाल नंदा, अरुणा आसफ़ अली और एपीजे अब्दुल कलाम ‘भारत रत्न’ बने। सन 1998 में एम. एस. शुभलक्ष्मी, सी सुब्रह्मण्यम ‘भारत रत्न’ बने। सन 1999 में जय प्रकाश नारायण, अमर्त्य सेन, गोपीनाथ बोरदोलोई और रविशंकर को भारत रत्न से अलंकृत किया गया। 1999 और 2000 वर्ष फिर अलंकरण से खाली रहा। सन 2001 में लता मंगेशकर और बिस्मिल्ला खान को भारत रत्न से नवाजा गया। सन 2002, 2003, 2004, 2005, 2006, 2007 और 2008 में कोई भी व्यक्ति ‘भारत रत्न’ बनने वाले नहीं दिखे। सन 2009 में भीमसेन जोशी को यह सम्मान दिया गया।

पुनः 2010, 2011, 2012 और 2013 भारत रत्न सम्मान से खाली रहा। समय बदल गया था  और देश की राजनितिक व्यवस्था भी बदल रहा था। सन 2014 में सीएनआर राव और सचिन तेंदुलकर भारत रत्न से नवाजे गए। सन 2015 में यह सम्मान मदन मोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी को मिला। फिर अगले चार वर्ष यानी 2015, 2016, 2017 और 2018 में किसी व्यक्ति को यह सम्मान नन्ही मिला। सन 2019 प्रणब मुखर्जी, भूपेन हजारिका और नानाजी देशमुख इस सम्मांन से अलंकृत हुए। 2020, 2021, 2022 और 2023 में पुनः यह सम्मान किसी को नहीं मिला। इस वर्ष 2024 में कर्पूरी ठाकुर भारत रत्न से अलंकृत हुए। 

विगत पांच दिनों से अख़बारों में पढ़ रहा हूँ। टीवी पर देख रहा हूँ। इंटरनेट पर भरा-पड़ा है – सन 1954 से लेकर 2024 तक बिहार के पांच लोगों को भारत रत्न नागरिक सम्मान से अलंकृत किया गया। डॉ. विधान चंद्र रॉय, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, लोक नायक जयप्रकाश नारायण, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान और जननायक कर्पूरी ठाकुर। लेकिन बिहार को क्या मिला किसी ने एक शब्द भी उद्धृत नहीं किये? 

शिक्षित, अशिक्षित, विद्वान, विदुषी, चिकित्सक, अधिवक्ता, सरकारी अधिकारी, निजी क्षेत्र के पदाधिकारी, न्यायविद, शिक्षक, प्राध्यापक, रिक्शावाला, रेड़ीवाला, टमटमवला, ऑटोवाला, सब्जीवाला, जलेबी छानने वाला, चाय बेचने वाला, पूजा करने वाला, होटल चलने वाला, जूठा वर्तन मांजने वाला, जूता सिलने वाला, केश-दाढ़ी काटने वाला, सफाई करने वाला, रात्रि मल-मूत्र साफ़ करने वाला – समाज का कोई भी वर्ग अभी तक यह नहीं उद्धृत किये कि प्रदेश को क्या मिला? 

विगत पांच-छह दशकों में जो अपराधी थे, वे नेता हो गए। खाकी वर्दी वाले जिन्हें अपराधों की सजा देनी थी, वे भी नेता हो गए। दर्जनों जाति-संघर्ष में हज़ारों जान गंवाने वाले लोगों के परिवार और परिजन न्याय की बाट जोहते-जोहते ईश्वर को प्राप्त हो गए। शासन-प्रशासन के लोग दावे करते रहे ‘न्याय दरवाजे तक आएगा’, अलबत्ता ‘न्याय उस सड़क-गली से आगे उन लोगों के दरवाजे पर दस्तक दे दी, जिन्हें कारावास में बंद होनी चाहिए थी। समाज सहस्त्र टुकड़ों में बंटता गया। तलबे चाटने वाले एंड़ी कद के ‘तथाकथित’ समाज सेवक पटना और दिल्ली में ‘वरिष्ठ नेता’ हो गए। समाज और व्यवस्था के बारे में लिखने वाले ‘सरकार, शासन-प्रशासन से अलंकृत’ होने लगे। कुर्सी और गद्दी पर बैठने, बने रहने के लिए नेता और अधिकारी सभी प्रकार के दंड पेलने लगे। लेकिन निर्जीव बिहार को क्या मिला ? वह तो रो भी नहीं सकता। 

आज बिहार के मतदान केंद्रों तक पैदल, रेंगते, हाँफते पहुँचने वाले मतदाताओं और उनके बाल-बच्चों के लिए न तो शिक्षा है, न स्वास्थ्य है। न वस्त्र है और ना ही संस्कृति। संसदीय, विधान सभा, पंचायत और जिला परिषद् के चुनावों में खड़े होने वाले बड़ी-बड़ी गाड़ियों से, लम्बी, मोटी-चौड़ी काफिलों के साथ आते हैं। ‘आम मतदाता’ डर से, भय से किनारे हो जाता है। साहब और उनके लोग, जो उसी क्षेत्र के, उसी समुदाय के, उसी के जाति के होते हैं – दनादन मत वाली मशीनों पर ऊँगली करते हैं। अधिकारी, पदाधिकारी देखते हैं, लेकिन रोकने की ताकत नहीं रखते। क्योंकि प्रदेश भय और लोभ के समुद्र में डूबा है। जिसे देखना है आखिर वह भी तो इसी समाज का हिस्सा है। उसे भी तो सरकारी नौकरी की है। अगर अवसर मिले तो स्वेच्छा से अवकाश लेकर नेता बन सकता है। एक नहीं, दस नहीं, सौ नहीं बल्कि हज़ारों दृष्टान्त है जब बिहार के लोगों ने प्रदेश की गरिमा को बाजार में सतरंगी बिछाकर कौड़ी के दाम में बेचकर सरकारी सम्मान से अलंकृत हुए हैं, अवसर का लाभ उठाये हैं। बहुत बातें हैं। 

बहरहाल, कल सुबह-सवेरे बिहार के चौथे मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय (के.बी.सहाय) के पौत्र राजेश सहाय से बात कर रहे थे। के.बी.सहाय महामाया प्रसाद सिंह से पहले मुख्यमंत्री थे। महामाया प्रसाद सिन्हा के कालखंड में कर्पूरी ठाकुर पहली बार उप-मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिए थे। राजेश सहाय से ‘बिहार के नेताओं को भारत रत्न अलंकरण के बारे में बात कर रहे थे। ‘भारत रत्न’ बंटबारे के बारे में उनकी क्या सोच है यह तो आगे बताएँगे, लेकिन मैं शत प्रतिशत ही नहीं हज़ार-लाख प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ, इसलिए यहाँ लिख भी रहा हूँ कि ‘बिहारी नागरा’ पीटने वाले, राजनीति करने वाले बिहार के 99 फीसदी लोगों को इन रत्नों से कुछ लेना-देना नहीं है। हुंकार-नाद वही लोग कर रहे हैं जो राजनीति में स्वहित के लिए दूकानदारी कर रहे हैं। 

वैसे आप माने या नहीं। “चाय पर चर्चा” तो श्री कृष्ण बल्लभ सहाय प्रारम्भ किये थे अपने छोटे भाई श्री दामोदर प्रसाद सहाय के साथ बिहार में, शेष सभी “अनुयायी” हैं। बिहार में जब भी ‘यादव’ उपनाम पर चर्चा होगी, दो यादवों का नाम अवश्य आएगा और उनका भी नाम आएगा जो पिछड़ी जातियों के नाम पर ‘लच्छेदार राजनीतिक पराठे सकते’ आये हैं। अब इसे उनका ‘सौभाग्य’ कहिये या मतदाताओं का ‘दुर्भाग्य’ – बिहार के लोग प्रारम्भ से ‘लपेटे’ में आते रहे हैं। आज बिहार के चौथी पीढ़ी के मतदाता शायद ‘शेर-ए-बिहार’ और बिहार के ‘लौह पुरुष’ को जानता होगा ?

केबी सहाय के पौत्र राजेश सहाय #अखबारवाला001 को कहते हैं: “सामाजिक न्याय के सूत्रधार थे कृष्ण बल्लभ सहाय । एक दौर था जब महज इन दो शब्दों से सवर्ण बहुल जमींदार वर्ग कभी इतना खौफजदा रहता था कि वे इन्हें जान से मारने की साजिश तक रच डाला था। बात 1947 की है। स्वतन्त्रता की दस्तक पड़ चुकी थी। बिहार में डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा की सरकार बन चुकी थी। के. बी. इस सरकार में राजस्व मंत्री थे। बीते बीस वर्षों में उन्होंने गरीबों और पिछड़ों की व्यथा को बहुत करीब से देखा था।”

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राजेश सहाय आगे कहते हैं कि “1923-1928 में स्वराज पार्टी के दिन रहे हों अथवा 1937-1939 का प्रथम काँग्रेस सरकार रहा हो या फिर काँग्रेस गठित किसान जांच कमिटी रहा हो- के.बी. गरीबों एवं पिछड़ों को न्याय दिलाने और समाज में उन्हें समान प्रतिष्ठा दिलाने को सदा कृत-संकल्प देखे जा सकते हैं। जमींदारी उन्मूलन का उनका ध्येय इसी उद्देश्य से प्रेरित था- उनका मानना था कि मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता तभी स्थापित हो पाएगा जब सबों के साथ न्याय होगा और सबों के साथ न्याय तभी होगा जब समाज का पिछड़ा वर्ग अपना खोया सम्मान वापस पा पाएगा और जातिगत सामाजिक विषमताएँ दूर होंगी। जमींदारी उन्मूलन का उनका प्रयास पिछड़े वर्ग को यही खोया सम्मान वापस दिलाने की दिशा में एक कालजयी कदम था। उनका मानना था कि चारो वर्ण समाज रूपी गाड़ी के चार पहिये हैं। यदि चारो पहिये एक बराबर न हों तब समाज रूपी गाड़ी का चलना संभव नहीं है।”

राजेश सहाय का कहना है कि “उनकी दृढ़ता से भयभीत जमींदार जो सभी सवर्ण सम्पन्न वर्ण से आते थे ने उनपर सितंबर 1947 में कातिलाना हमले करवाए। किन्तु के. बी. का सौभाग्य था कि वे जीते रहे। सिर पर खून से सनी पट्टी बांधे जब उन्होंने बिहार विधान सभा में जमींदारी उन्मूलन कानून पारित करवाया तब वे सामाजिक न्याय के सबसे बड़े हिमायती के रूप में उभरे। के.बी. ने पिछड़ों के आर्थिक उत्थान के लिए जहां जमींदारी उन्मूलन किया वहीं उन्हें जागृत करने के लिए उनके बीच शिक्षा के प्रसार के लिए शिद्दत से प्रयासरत रहे। वे कहते थे कि ‘अमीरों के लड़के आगे बढ़ जाते हैं और आदिवासी एवं पिछड़े वर्ग के बच्चे पीछे पड़ जाते हैं। मैं पीछे पड़े समाज को आगे बढ़ाने की दिशा में कार्यरत हूँ’। के.बी. के इस सतत प्रयास का फल था कि पिछड़े वर्गों में अपने अधिकारों के प्रति एक नए जागरण का उदय हुआ और उन्होंने के.बी. की सरकार का खुल कर समर्थन किया- यह सर्वविदित है। किन्तु यह निकटता सवर्ण वर्गों को रास नहीं आई। 1967 में समस्त सवर्ण नव सम्पन्न जमींदार वर्ग उन्हें अभिमन्यु की तरह घेर कर हराया। जिसने ताजिंदगी पिछड़े वर्ग के हित की बात की और इस क्रम में अपने प्राण तक उत्सर्ग कर दिये उन्हें यह देश उनका अपना सूबा बहुत जल्दी ही बिसार दिया।”

राजेश सहाय आगे कहते हैं: “यह इस देश के लिए बड़े शर्म की बात है कि सरकार उन्हें आज़ादी के गुमनाम सिपाही के तौर पर याद तो करती है पर महज इसलिए कि वे वोट की राजनीति से हाशिये पर ठेल दिये गए ‘कायस्थ’ वर्ण से आते हैं ‘भारत रत्न’ के रूप में स्वीकारने और इन्हें इस प्रतिष्ठता से नवजने से हिचकिचाती है। यह भी विडम्बना है कि के.बी. पर डाक टिकट जारी करने के दो प्रयासों को भी यह सरकार ठुकरा चुकी है। यह इस स्वतन्त्रता सेनानी, ‘सामाजिक न्याय के प्रथम सिपाही एवं सामाजिक न्याय की क्रांति के सूत्रधार के प्रति अक्षम्य अनदेखी है। आशा है इस सामाजिक न्याय के प्रणेता इस ध्वजा पुरुष को न्याय मिलेगा और सरकार उन्हें ‘भारत रत्न’ से अवश्य नवाजेगी।”

आज के परिपेक्ष में ही नहीं, आने वाले समय में भी, जब भी लिखने की बात होगी ‘शेर-ए-बिहार’ और बिहार का ‘लौह पुरुष’ को एक दूसरे से अलग रखकर शब्दबद्ध नहीं किया जा सकता है। अन्य राजनीतिक गतिविधियों पर चर्चाएं होंगी, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उस ज़माने में ‘शेर-ए-बिहार’ शिक्षा के प्रचार-प्रसार के प्रति बहुत अधिक प्रतिबध्द थे। जब ‘शेर-ए-बिहार’ वृद्ध हो गए, तब बिहार की राजनीतिक मानचित्र पर लालू यादव अवतरित हुए थे – ‘स्वयंभू यादव नेता’ बनकर। वैसे लालू यादव स्वयं को यादवों का, दलितों का, प्रदेश के गरीब-गुरबों का ‘स्वयंभू’ नेता कह लें, हकीकत तो यह है कि असली नेता तो रामलखन सिंह यादव थे जो सं 1952 से 1991 तक बिहार विधान सभा में मुस्तैद रहे। जिसका हुए, उसका कभी हाथ नहीं छोड़े और जिसका नहीं हुए, उसका कभी ऊँगली भी नहीं पकड़े। सं 1991 में बिहार विधान सभा से निकलकर दिल्ली लोक सभा में विराजमान हुए। 

दहशत’ था ‘शेर-ए-बिहार’ का ‘सम्मान’ के साथ। ‘लोग’ दूर से डरते अवश्य थे, लेकिन पास आते ही पिघल जाते थे। लोग घबराते जरूर थे, लेकिन ‘थरथराते’ नहीं थे। आज के नेता इस सम्मान के बारे में सोच नहीं सकते, चाहे ‘ब्राह्मण’ हों, ‘क्षत्रिय’ हो, ‘वैश्य’ हो, ‘शूद्र’ हो, ‘यादव’ हों, ‘कुर्मी’ हो, ‘कायस्थ’ हो, ‘पासवान’ हो, ‘कुशवाहा’ हो; क्योंकि ‘सम्मान’ ‘अर्जित’ किया जाता है बहुत मसक्कत से, और वर्तमान राजनीतिक गलियारे में, चाहे पटना का सरपेंटाइन रोड हो या दिल्ली का संसद मार्ग औसतन 90 फीसदी से अधिक नेतागण उस सम्मान से कोसों दूर हैं । 

बिहार में तीसरी विधान सभा काल में दो व्यक्ति मुख़्यमंत्री कार्यालय में बैठे। सन 1962 के चुनाव के बाद श्री बिनोदानंद झा के नेतृत्व में सरकार बनी। बिनोद बाबू ‘राजमहल’ विधान सभा क्षेत्र से चुनाव जीत कर आये थे। लेकिन पांच साल नहीं चले और उन्हें महात्मा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर सं 1963 में मुख्यमंत्री की कुर्सी के बी सहाय के हाथ सौंपना पड़ा। सहाय बाबू 2 अक्टूबर, 1963 से 5 मार्च, 1967 तक मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान रहे। तीसरी विधान सभा के बाद से लगातार बिहार में ‘आया राम – गया राम’ सिद्धांत पर सरकार बन रही थी, चल रही थी, जा रही थी। चौथे विधानसभा, जिसका चुनाव 1967 में हुआ था, चार मुख्यमंत्री महोदय, मसलन जनक्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा, शोषित दल के सतीश प्रसाद सिंह, बी पी मंडल और कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री का मुख्यमंत्री कार्यालय में ‘उदय’ और ‘अस्त’ हुआ। 

इसी तरह पांचवी विधान सभा (1969) में हरिहर प्रसाद, भोला पासवान शास्त्री, दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर का उदय-अस्त हुआ। लेकिन आज अगर पिछले 22 मुख्यमंत्रियों को एक नजर में देखें, तो बाबू श्रीकृष्ण सिन्हा को छोड़कर, कुछ ही मुख्यमंत्री हैं जिन्हें आज भी बिहार के लोग, बिहार के मतदाता, प्रदेश के विद्वान-विदुषी से लेकर अशिक्षित और अज्ञानी तक – नहीं भुला है और शायद भूल भी नहीं पायेगा। उन्हीं ‘ना भूलने वाले मुख्यमंत्रियों” की सूची में एक हैं बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय। सन 1974 के 3 जून को बिहार के लौह पुरुष बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय यानी के.बी. सहाय ‘आकस्मिक मृत्यु’ को प्राप्त किये। लगभग इन पांच दशकों में यह सार्वजानिक नहीं हो पाया की बाबू के बी सहाय को किसने मारा, क्यों मारा जब वे अपने हिंदुस्तान एम्बेसेडर (BRM 101) की अगली सीट पर बैठे थे और एक ट्रक उनके हँसते-मुस्कुराते शरीर को “पार्थिव” बना दिया। पटना-हज़ारीबाग की वह सड़क आज तक उस घटना को नहीं भूल पायी है।

31 दिसंबर, 1998 को, यानि ‘शेर-ए-बिहार’ राम लखन सिंह यादव अपनी मृत्यु के आता साल पहले के बी सहाय के बारे में, उनके साथ अपनी सानिग्धता के बारे में, अपने प्रेम-सम्मान और विश्वास के बारे में, जनता के प्रति उनकी सोच के बारे में कुछ शब्द लिखे थे। यह लेख पटना से प्रकाशित ‘आज’ समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था। “स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय जो आम तौर पर के.बी.सहाय के नाम से जाने जाते थे, जन्मकाल से ही एक विलक्षण प्रतिभा संपन्न, स्मरण शक्ति में बेजोड़, अंग्रेजी (साहित्य) भाषा के अच्छे ज्ञाता, छात्र जीवन में अपने समय में मेट्रिक परीक्षा में प्रदेश में सर्वोत्तम, अंग्रेजी आनर्स में विश्वविद्यालय भर में सर्वोत्तम और गेट गोल्ड मेडलिस्ट विचार एवं व्यवहार तथा आचार में पक्के समाजवादी, गरीबों विशेष कर पिछड़े वर्गों हरिजन, आदिवासियों तथा अल्प संख्यकों के पक्के हिमायती, किसानों के प्रणेता, ज़मींदारी प्रथा उन्मूलन के भारत भर में सर्वप्रथम जनक तथा बिहार के लौह पुरुष के रूप में बराबर याद किये जायेंगें।”

सहाय जी का जन्म इकतीस दिसम्बर 1898 को पटना ज़िले में फतुआ थाना अन्तर्गत शेखपुरा ग्राम में एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री गंगा प्रसाद पुलिस विभाग में दरोगा के पद पर पदस्थापित थे। इनकी माँ एक अनुशासन प्रिय एवं दृढ इच्छा शक्ति की धनी महिला थी। जो बात उनके मन में बैठ जाती उस पर वे दृढ़ रहती थी। केबी सहाय तीन भाई थे। एक की मृत्यु प्रारम्भ में ही हो गयी थी जिनके पुत्र आज भी ताराबाबू जीवित हैं। दूसरे भाई डॉ. दामोदर प्रसाद एक कुशल डॉक्टर के रूप में लोगों की सेवा में आजीवन लगे रहे। दरियापुर पटना स्थित इनके मकान में केबी सहाय का राजनीतिक जमावड़ा रहता था। यहाँ की बैठकी में के.पी. सहाय, गंगा शरण सिंह एवं उमाकांत की चर्चित त्रिगुट मंडली मशहूर थी। 

एक विशेष घटना के तहत केबी सहाय सात वर्ष की उम्र में ही अपनी माँ-बहन-भाई के साथ हजारीबाग आ गयी, जहाँ वे जीवन भर रहे। प्राइमरी शिक्षा उन्होनें हजारीबाग धर्मशाला प्राइमरी विद्यालय से तथा मेट्रिक तक की शिक्षा ज़िला स्कूल हजारीबाग से प्राप्त की। 1916 में मेट्रिक परीक्षा पास करने के बाद 1919 में संत कोलंबस कॉलेज से अंग्रेजी स्नातक परीक्षा में गोल्ड मैडल के साथ पास किया। इसके बाद उन्होनें एम.ए. (अंग्रेजी) में तथा लॉ प्रथम वर्ष में एडमिशन लिया। एक वर्ष तक दोनों विषयों को पढने के बाद 1921 में महात्मा गाँधी के आह्वान पर अपने उज्जवल भविष्य को तिलांजलि देकर अपना जीवन पूर्ण रूप से राष्ट्र को समर्पित करते हुए 1921, 1928, 1929, 1932, 1934, 1940, 1942 में तमाम आज़ादी की लड़ाईयों में साक्रिय रूप से हिस्सा लेने कारण वे वर्षों जेल में बंद रहे। 

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कृष्ण बल्लभ बाबू की पत्नी की मृत्यु के बाद तीन शादियां हुई थी। पहली शादी उनके छात्र जीवन में ही नवादा ज़िले के दरियापुर ग्राम में तत्कालीन पुलिस दरोगा श्री विशेश्वर नाथ की पुत्री से हुई। उनके ससुर नौकरों को पीटने लगे कि काम छोड़ कर नाश्ता क्यों कर रहा है? इस घटना ने सहाय जी के दिमाग पर गहरा असर किया और उन्होंने तय किया कि इन गरीबों के मार खाने के बाद इनके द्वारा तैयार किया गया भोजन करना भारी गुनाह है। दूसरी घटना हजारीबाग ज़िले के गिद्धौर थाने में घटी जहां उनके पिता पदस्थापित थे। गर्मियों की छुट्टी में पिताजी के आदेशानुसार वे वहीं थाना में छुट्टी बिताने गए। संयोगवश कुछ दिनों के लिए उनके पिता एक पठान जमादार को उनके गार्डियन के रूप में सौंप कर कहीं बाहर गए। कृष्ण बल्लभ बाबू खाते, गाय का दूध पीते और बचा हुआ दूध नौकर को पिला देते थे। एक दिन सुबह जमादार उनके पास आये और जब उन्हें मालूम हुआ कि गाय का दूध नौकर पिता है तब उसने उस नौकर को लाठी से इतना मारा कि वह बेहोश हो गया। सहाय साहब अपने हाथ से हल्दी पीस कर चूना के साथ गर्म कर के उसके बदन में पूरा लेप दिया। रात्रि में जब उसकी तबियत ठीक हुई तब उससे उन्होंने कहा कि पिताजी के आने पर कह देना कि आवश्यक कार्यवश मैं आज ही पटना जा रहा हूँ और वे निकल गए। 

कृष्ण बल्लभ बाबू ने समाजवाद को अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में मूर्त रूप दिया। वे भीतर और बाहर पारदर्शी थे वे स्पष्टवादी, ईमानदार एवं निसंकोच, सच्चाई के साथ अपने बातों को स्पष्ट रूप से रखने के आदि थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्वितीय थी। जब बिहार की राजनीति में तात्कालिक मुख्यमंत्री से कुछ विभेद पैदा हुआ और उनके ऊपर कई तरह के गंभीर आरोप और आक्षेप समाचार पत्रों में प्रकाशित करवाया गया था तब उन्होंने सब का जवाब एक लंबे वक्तव्य में दिया।उन दिनों वे हजारीबाग में थे। 1957 में चुनाव हारने के बाद उन्होनें आवास एवं गाडी से झंडा उतरवाया। सभी कर्मचारियों को एक साथ खड़ा कर उन्हें धन्यवाद् दिया। सबको एक एक सर्टिफिकेट दिया और वहीं से गाडी में बैठ कर रवाना होने से पूर्व सभी कर्मचारियों को सरकार में जहां भी रहे अनुशासन, ईमानदारी एवं निष्ठा से कार्य करने की सलाह दी। 

बिहार में सर्वप्रथम ज़मींदारी उन्मूलन का कानून बनाया गया वे इसके जनक थे। उसके चलते बिहार के ज़मींदारों से, बड़े-बड़े लोगों से और ख़ास कर रामगढ के राजा कामाख्या नारायण सिंह ने जन्म भर उनकी राजनैतिक शत्रुता और मुकदमे लगे रहे, चूँकि कृष्ण बल्लभ बाबू ही राजस्व और जंगल विभाग के मंत्री बराबर रहे। लैंड सीलिंग बिल को पेश करते हुए उन्होने कहा था कि ज़मींदारों और बड़े-बड़े भूपतियों का जो रवैया है पता नहीं यह कानून कब लागू होगा। वे इस कानून के  पक्षधर थे। इस कानून का भी बड़ा विरोध हुआ और मुकदमे में कई दिनों तक लटका रहा। 

विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को बढ़ने सहयोग करने ज़मीन माँगने में भी कृष्ण बल्लभ बाबू आगे रहे। सबसे बड़ी बात यह हुई कि 1954 में देश में सबसे पहले कृष्ण बल्लभ बाबू के द्वारा ही बिहार भूदान एक्ट बनाया गया। कहा जा सकता है कि ज़मीन संबंधी सारे प्रगतिशील कदम बिहार में उन्हीं के द्वारा उठाये गए। 1967 का चुनाव सारे उत्तर भारत विशेष कर बिहार के लिए बहुत ही मील का पत्थर साबित हुआ। इस साल आम चुनाव के पूर्व से ही आम मतभेद, अराजपत्रित कर्मचारियों एवं छात्रों के बीच विरोधी दलों द्वारा उन्हें तरह-तरह की मांगों को सरकार द्वारा स्वीकृत करवाने के मुद्दों पर आक्रामक और हिंसक रास्ते पर ले जाकर भयंकर आंदोलन करवाने के चलते कांग्रेस की बड़ी क्षति हुई। कृष्ण बल्लभ बाबू पटना शहर से ही उम्मीदवार बने और उनका विरोध महामाया प्रसाद सिन्हा ने किया। पटना में हिंसक आंदोलन पर बहुत लाचार होकर पुलिस और मजिस्ट्रेट को आगज़नी से शहर को बचाने तथा आत्मरक्षार्थ गोली चलानी पड़ी। खादी भवन जैसी संस्था में भी लोगों ने आग लगायी।

उन दिनों राष्ट्रिय कांग्रेस के अध्यक्ष कामराज नादर थे उन्होनें पटना आगमन पर उन्हें समझाया कि यहां जो गोलीकांड हुआ है उसी कि न्यायिक जांच करवा दी जाए। श्री नादर ने जब यह प्रस्ताव केबी सहाय के समक्ष रखा तब बिना किसी प्रकार की बात किये उन्होंने अपना त्याग पत्र बिहार कांग्रेस पार्टी नेतृत्व एवं मुख्यमंत्री पद से उनके हाथ में दे दिया क्योंकि जांच का आदेश देकर वे प्रशासन को नाजायज़ ढंग से हतोत्साहित नहीं करना चाहते थे। हारने के बावजूद उनके ऊपर जरा सी भी उदासी नहीं आई। 

इसी प्रकार की एक और घटना घटी। भारत के गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने बेतिया राज के साठी की जमीन को लेकर श्री कृष्ण सिंह को देहरादून में सफाई देने के लिए बुला भेजा। श्री बाबू बहुत ही मर्माहत हुए। कृष्ण बल्लभ बाबू ने उन्हें जाने से रोक स्वयं सरदार पटेल से मिले सुश्री मणि देवी पटेल और सरदार पटेल के सचिव श्री शंकर के समक्ष ही सरदार पटेल ने कृष्ण बल्लभ बाबू को और कुछ कहने से पहले ही कहा कि कृष्ण बल्लभ साठी की ज़मीन वापस करनी होगी। कृष्ण बलभ बाबू ने जवाब दिया “साठी कि ज़मीन कभी वापस नहीं होगी।“ सरदार गुस्से से गुर्राते हुए बोले “क्यों?” कृष्ण बल्लभ बाबू का जवाब था आप केवल केंद्र सरकार के उपप्रधान मंत्री ही नहीं अपितु सारे देश के और कांग्रेसजनों की इज़्ज़त के संरक्षक भी हैं। बिना सुने आपके द्वारा फाँसी की सजा नहीं होनी चाहिए। सरदार ने शांतिपूर्वक जब सारे कागज़ात देखे और कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार सरकार के निर्णय पर जो सफाई दी उससे सरदार पटेल पूर्णरूपेण संतुष्ट हुए। उलटे जिन लोगों ने चार्ज लगाया था उन्हीं के ऊपर सरदार पटेल ने अपनी नाराज़गी जाहिर किया। सरदार पटेल के आग्रह पर उनकी राय के अनुसार साठी ज़मीन के बारे में कानून बना। लेकिन जैसा कृष्ण बल्लभ बाबू ने कहा था वह कानून कोर्ट द्वारा रद कर दिया गया।

जब-जब बिहार को विपत्ति का सामना करना पड़ा कृष्ण बल्लभ बाबू ने आगे बढ़ कर कुशल नेतृत्व प्रदान किया। बाढ़ से उत्पन्न परिस्थिति, भयंकर भूकंप या फिर 1966-67 के भयंकर अकाल की परिस्थिति में कृष्ण बल्लभ बाबू ने श्री जय प्रकाश नारायण की अध्यक्षता में सक्षम लोगों के साथ एक केंद्रीय सहायता समिति बना कर चारो ओर से स्वयंसेवी संस्थाओं और सरकारों से सहायता लेकर बिहार की जनता को भीषण दुर्भिक्ष से बचाया। छोटानागपुर जहां आदिवासी, हरिजन एवं पिछड़े जातियों का ही बाहुल्य है वहां के मूल निवासी सबसे गरीब लेकिन जहां ज़मीन के नीचे अतः खनिज पदार्थ भरा पड़ा है और उससे सारा देश लाभान्वित हो रहा है। 

कृष्ण बल्लभ बाबू समाज सेवा और कांग्रेस के लिए सरदार पटेल, किदवई, इन्द्रभानु गुप्त जैसे लोगों की श्रेणी में आते हैं जो करोड़ों रुपये पार्टी फण्ड के लिए इकठ्ठा करते रहे लेकिन इसका उपयोग कभी भी अपने या अपने परिवार के लिए नहीं किया। जब कभी सौ दो सौ रुपये उनकी पत्नी घर खर्च के लिए उनसे मांगती थी -लाखों रुपये पारी फण्ड के होने के बावजूद उन्होनें नहीं दिया। कभी-कभी तो हमलोग भी उनके घर के निजी खर्च के लिए पैसे देते थे और पैसे आने पर वे उसे अवश्य लौट दिया करते थे। अपने राजनैतिक और सामाजिक जीवन के नज़दीकी लोगों से वे सख्त हिसाब लिया करते थे।

जब ज़मींदारी प्रथा उन्मूलन और जंगल कटाई को लेकर राजा रामगढ और कृष्ण बल्लभ बाबू में भयंकर मुक़दमेबाज़ी हुई तब बिहार मंत्रिमंडल ने बार-बार स्वीकृति प्रस्ताव लाने के बजाय खर्च करने के लिए उन्हें इजाज़त दे दी। उनके निजी सचिव श्री राणा जो उनके जेल के समय के सहयोगी थे मुकदमा के खर्चे का हिसाब रखते थे। कुछ महीने का हिसाब उन्होंने नहीं दिया। मुक़दमे के ही सिलसिले में श्री लाल नारायण सिंह, श्री बजरंग सहाय श्री कृष्ण बल्लभ बाबू के साथ ट्रैन से दिल्ली जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने अपने निजी सचिव श्री राणा से पूछा कि हिसाब आप क्यों नहीं दे देते हैं? श्री लाल नारायण सिंह और श्री बजरंग सहाय के कहने पर उन्होंने श्री राणा से लौटकर रांची में हिसाब देने की बात मान ली। 

उस दिन रांची में शत्रुघ्न बाबू एवं कामता बाबू (प्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार कामता प्रसाद सिंह काम जो डॉ. शंकर दयाल शर्मा, भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री एवं राज्यपाल के पिता थे) मौजूद थे। हिसाब माँगने पर श्री राणा ने कृष्ण बल्लभ बाबू को कहा “मैंने आपको धोखा दिया है और ट्रेज़री से रुपये निकाल कर निजी मद में खर्च कर दिया है।“ एल.पी.सिंह ने राय दी कि जितनी राशि राणा ने ट्रेज़री से नाजायज़ ढंग से निकाली है उतनी राशि पहले जमा कर दी जाए। पटना ट्रेज़री कोषागार का लगातार चार दिनों तक तात्कालिक ज़िलाधिकारी ने रात दिन परिश्रम कर एक-एक कागज़ का मुआयना किया। लेकिन श्री राणा द्वारा निकाली गयी राशि का कोई सुराग नहीं मिला।

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