‘ठाकुर-पाठक’ के नामों में ‘ठाकुर’ पर ‘ठप्पा’, पाठक ‘पद्मविभूषित’, 1954 से 2024 तक पहली बार ‘नेता’ को ‘भारत रत्न’ और ‘पत्रकार-निजी सचिव’ को ‘पद्मश्री’

कर्पूरी ठाकुर और सुरेंद्र किशोर आमने सामने (तस्वीर सुरेंद्र किशोर जी के फेस्बुल वाल से)

पटना/नई दिल्ली: सत्तर के दशक में जब तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध पुरे देश में विपक्षी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं द्वारा घेराव होना शुरू हो गया था, उसी समय बंगाल के मशहूर लेखक आशुतोष मुखर्जी के उपन्यास पर आधारित एक फिल्म आई थी। उस फिल्म के निर्देशक थे असित सेन और बनाया था मुशीर-रिआज़ दुआ। साल था सन उन्नीस सौ सत्तर और फिल्म का नाम ‘सफर’ था।

उस फिल्म में एक गीत था जो तत्कालीन प्रेमी-प्रेमिकाओं के बीच बहुत ख्याति प्राप्त किया। उस गीत के गीतकार थे इंदीवर, संगीतकार थे कल्याणजी-आनंदजी और गायक थे मुकेश। फिल्म में नायक-नायिका में फिरोज खान, राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर प्रमुख थी। गीत के बोल थे –

जो तुमको हो पसंद, वही बात करेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो,
रात कहेंगे जो तुमको ….

चाहेंगे, निभाएंगे, सराहेंगे, आप ही को,
आँखों में दम है जब तक, देखेंगे आप ही को
अपनी जुबान से आपको जज्बात कहेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे
जो तुमको हो पसंद …..

देते न आप साथ तो मर जाते हम कभी के
पुरे हुए हैं आप से अरमान जिंदगी के
हम जिंदगी को आपकी सौगात कहेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे
जो तुम को … ..

विगत दिनों जब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के सौवें जन्मदिन के अवसर पर भारत सरकार में गृहमंत्री सम्मानित अमित शाह दिल्ली में कर्पूरी जी के सम्मान में आयोजित समारोह में उनके बारे में शब्दों का विन्यास कर तस्वीरें देख रहे थे, तो उन तस्वीरों को देखकर अचानक सत्तर के दसक का वह अनमोल फिल्म, अनमोल गीत जुबान पर हरकत करने लगा। अंदर ही अंदर राग और लय के साथ पटना सचिवालय के पीछे वाली सड़क पर जहाँ सड़क के दाहिने हाथ कर्पूरी ठाकुर रहते थे, विचरण करने लगे। बहुत पत्रकारों का चेहरा मानस पटल पर दौड़ने लगा – पटना से दिल्ली तक।

उन दिनों पटना में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के नाम पर गांधी मैदान और गंगा नदी के बीच खाली जमीन पर श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल बन रहा था और मैं उस हॉल से दस कदम दूर बिहार राज्य पथ परिवहन निगम के ऐतिहासिक बस अड्डा पर नित्य सुबह-सवेरे पटना से प्रकाशित अखबारों को – आर्यावर्त, दी इण्डियन नेशन, दी सर्चलाइट, प्रदीप, जनशक्ति और कौमी आवाज – पाठकों को बेचा करता था ताकि घर में पेट की भूख और विद्यालय में मष्तिष्क की भूख शांत हो सकते।

उन दिनों आठवीं कक्षा में पढता था। उस बस अड्डे पर पटना रेलवे स्टेशन के सामने पाल होटल के बगल में कृष्णा एजेंसी नामक एक संस्था थी। कृष्णा एजेंसी के मालिक थे मानदाता सिंह। पुरे बिहार में मानदाता सिंह की तूती बोली जाती थी। वे इकलौता मुख्य वितरक थे अखबारों के चाहे पटना से प्रकाशित होता हो या देश के किसी कोने में प्रकाशित होकर बिहार के पाठकों के लिए आता हो। उन्ही के दो कर्मचारी थे – एक पाठक जी (जो एलफिंस्टन सिनेमा में टिकट घर में भी काम करते थे) और दूसरे थे बंगाली बाबू। दोनों मुझे बहुत पसंद करते थे। पाठक साहेब काजीपुर मोहल्ला में मेरे घर के सामने ही रहते थे।

सुबह-सवेरे जब भी अखबार लेता था, उन दोनों की हिदायत थी कि पहले दी इंडियन नेशन और दी सर्चलाइट के प्रथम पृष्ठों पर प्रकाशित समाचार को लेखक के नाम के साथ पढ़ना। यह नित्य का कार्य कर। फिर आर्यावर्त और प्रदीप में प्रकाशित समाचारों को पढ़ना। अशिक्षित लोगों का अपने बच्चों को पढ़ाने-सीखाने का तरीका भी गजब का होता है। उनका उद्देश्य यह था की ‘पढ़ोगे तभी लिख पाओगे’, इसलिए ‘पढ़ना सीखो’,लिखना स्वतः सीख जाओगे। कभी-कभार वे अख़बारों में समाचार के लेखकों का नाम भी पूछ देते थे, खासकर दीनानाथ सिंह, मिथिलेश मोइत्रा, सीताशरण झा, केशव कुमार, भाग्यनारायण झा, राधेश्याम आचार्या, रामजी मिश्रा मनोहर, कालिकांत झा, अमलेंदु, सत्य नारायण लाल, नर्मदेश्वर सिंह, मुक्ता किशोर, बालन जी, भुनेश्वर जी। जब भी इन लोगों का नाम कहानियों के ऊपर पढता था तो मन में ख़ुशी की गुदगुदी होती थी – एक दिन मेरा नाम भी इसी तरह प्रकाशित होगा। मैं भी संवाददाता बनूंगा और बन गया।


कर्पूरी ठाकुर के 100 वे जन्मदिन पर आयोजित एक कार्यक्रम में केन्द्री करिह मंत्री अमित शाह

बहरलाल, अन्य लोगों के अलावे, जो सत्तर-अस्सी-नब्बे के दशक में पत्रकारिता के क्षेत्र में बिहार में हस्ताक्षर थे, कई पत्रकार ऐसे थे जो पटना की सड़कों पर पैदल चलते दीखते थे। सभी युवक वर्ग में थे। उनमें अरुण सिन्हा, अरुण रंजन और सुरेंद्र किशोर का नाम लिया जा सकता है। अगर उन दिनों का पत्र-पत्रिका प्रदेश के पुस्तकालयों में देखा जाय तो शायद ही कोई सप्ताह, पखवाड़ा या माह होगा, जहाँ इन त्रिमूर्तियों का नाम प्रकाशित नहीं हुआ होगा।

इन तीनों में सुरेंद्र किशोर की ही ‘शारीरिक’ लम्बाई उन दोनों की तुलना में तनिक कम थी, अन्यथा कद-काठी में तीनो सामान थे। अरुण रंजन की एक विशेषता थी, वे ‘स्टील चेन बेल्ट’ वाली घड़ी कहते थे, वह भी दाहिने हाथ में और सिगरेट खूब पीते थे । उनकी एक विशेषता और थी कि वे ‘फोटोक्रोमिक’ चश्मा लगते थे। धुप में शीशे का रंग काला। अधिकतर बुशर्ट, पैंट और चप्पल में ‘आर्यावर्त-दी इंडियन नेशन के दफतर में आना उनका नित्य था। फिर यहाँ से इन अख़बारों के मित्रमंडलियों के साथ या तो ‘पिंटू होटल’ अथवा डाक बांग्ला चौराहा के दाहिने कोने पर लखनऊ स्वीट हॉउस के बगल में ‘कॉफी हॉउस’ पर अड्डा।

ये तीनों क्या-क्या लिखे, कितना लिखे, कैसे कहानियों का संकलन किया – यह अपने आप में शोध का विषय है, खासकर आधुनिक पत्रकारों के लिए। आज ‘अरुण सिन्हा’ को आधुनिक पत्रकार नहीं जानता है। यह वही अरुण सिन्हा है जिन्होंने उन दिनों दी इंडियन एक्सप्रेस अखबार में भागलपुर अंखफोड़बा काण्ड कहानी को फोड़ा था और बाद में, सामाजिक क्षेत्र, पत्रकारिता और अन्य मामले में दी इंडियन एक्सप्रेस के तत्कालीन संपादक अरुण शौरी को मैग्सेसे सम्मान से अलंकृत किया गया।

पिछले दिनों अरुण सिन्हा से बात भी हुयी थी। वे शौरी को ही उस सम्मान के लिए ‘सही’ ठहराया। लेकिन जब बोल रहे थे, उनके कंठ से आवाज तनिक धीमी हो गयी थी। वैसे यह समाचार एस एन एम आब्दी की थी। लेकिन समय और बिहार के तत्कालीन छायाकार आब्दी का साथ नहीं दिया।

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आज अरुण रंजन ‘बिस्तर’ पर पड़े हैं। शरीर से लाचार हो गए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आविष्कृत शब्द को अगर माने तो आज अरुण रंजन ‘दिव्यांग’ हो गए हैं। जिनके शब्दों की तूती एक ज़माने में पटना के डाक बांग्ला से, पटना सचिवालय और बिहार विधान सभा के रास्ते प्रदेश के कोने-कोने में बोलती थी, आज स्वयं ‘बोलने लायक’ नहीं रह गए हैं। इस बात को शायद प्रदेश के मुख्यमंत्री नितीश कुमार या देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं जानते होंगे।

कुछ ऐसा ही हश्र हुआ था वरिष्ठ पत्रकार, जिन्होंने अपने शब्दों से बिहार ही नहीं देश के तत्कालीन राजनेताओं के भाग्यों का निर्माण किया था, नाम था जुगनू शारदे, गुमनामी जीवन जीते पटना के वृद्धआश्रम में अंतिम सांस लिए। अखबार के किसी पन्ने में एक कोने में इन महान पत्रकारों का नाम कहीं लिखा गया, कहीं निरस्त कर दिया गया। आम तौर पर पत्रकारों की स्थिति, खासकर जो राजनीतिक गलियारे में राजनेताओं के पदचिन्हों को अपने पैरों से लम्बाई-चौड़ाई नहीं नापते, की स्थिति इन गुमनाम, अर्थ हीन, सामर्थहीन, शक्तिहीन पत्रकारों से बेहतर नहीं है। राजनेता उनके कलम और कन्धों का इस्तेमाल कर पंचायत से संसद पहुँच जाते हैं, लेकिन वह वहीँ रह जाता है।

खैर। कल भारत सरकार द्वारा निर्गत भारत रत्न के अलावे कुल 132 गणमान्यों को नागरिक सम्मान से अलंकृत होने की सूची में – 5 पद्म विभूषण, 17 पद्म भूषण और 110 पद्मश्री – लिटरेचर, एजुकेशन और पत्रकारिता में पद्मश्री सम्मान से अलंकृत होने वाले सुरेंद्र किशोर का नाम 63 स्थान पर अंकित देखकर मन गदगद हो गया। गंगा और यमुना के तटों पर अवस्थित पटना और दिल्ली में रहने वाले पत्रकारों से लेकर पत्र-पत्रिका पढ़ने वाले पाठकों तक, सभी खुश हैं। उनके चहेते ‘पत्रकार’ सुरेंद्र किशोर को ‘लिटरेचर, एजुकेशन और पत्रकारिता’ के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए भारत सरकार ‘पद्मश्री ‘ नागरिक सम्मान से अलंकृत की है।

आज जब सुरेंद्र किशोर जी से फोन पर पूछा की इस सम्मान का आपके लिए कितना महत्व रखता है, वे कहते हैं “कुछ नहीं”, हाँ, घर के सभी सदस्य, शुभचिंतक, प्रशंसक खुश है तो हमें भी ख़ुशी हैं।

जनसत्ता अखबार के एक वृद्ध पत्रकार कहते हैं: सुरेन्द्र किशोर एक ईमानदार पत्रकार रहे हैं। दिल्ली दौरे पर आते थे तो पहाड़गंज के होटल में ठहरते थे बिहार भवन में नहीं। बिहार सरकार के विमान से आने के लिए एक बार शायद प्रभाष जोशी ने ही कहा था या लिखा था। एक मुलाकात में उन्होंने कहा भी था कि उनकी सबसे बड़ी चिंता यही है कि कोई उन्हें बेईमान न कहे। राम बहादुर राय उनके बॉस रहे। दिल्ली में सुरेंद्र जी अपने बॉस से मिलने उनके ऑफिस या घर नहीं जाते थे बॉस उनके पास जाते थे। उनके पास क्लिपिंग का बड़ा भंडार है। बहुत सारी पत्रिकाओं के सभी अंक उनके पास हैं। वे एक चलता-फिरता पुस्तकालय हैं।”

यह सच हैं कि कागज के पन्नों पर जब कोई शब्द ‘सुरेंद्र किशोर’ के नाम से प्रकाशित होता है, शब्द और वाक्य का मोल स्वतः बढ़ जाता है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि अगर 1954 में स्थापित नागरिक सम्मान – भारत रत्न और पद्मविभूषण – में इजाफा नहीं हुआ होता तो संविधान सभा द्वारा ‘जन-गण-मन’ राष्ट्रगान स्वीकार करने की ऐतिहासिक तिथि को ‘कर्पूरी ठाकुर’ तो ‘भारत रत्न’ से अलंकृत हो जाते, लेकिन उनके निजी सचिव सुरेंद्र किशोर ‘पद्मश्री’ नागरिक सम्मान से अलंकृत नहीं हो पाते।

वह तो भारत के राष्ट्रपति कार्यालय धन्यवाद के पात्र हैं जो 8 जनवरी, 1955 को निर्गत अधिसूचना में ‘पद्मविभूषण’, ‘पद्मभूषण’ और ‘पद्मश्री’ सम्मान को जो गया। परिणामस्वरूप सन 1954 के बाद आज 2024 तक शायद यह पहला अवसर है जब ‘नेता’ को ‘भारत रत्न’ और उनके निजी सचिव को ‘पद्मश्री’ सम्मान से नवाजा गया है। राजनीति या फिर सम्मान की बातें जो भी हो, प्रदेश में चतुर्दिक ख़ुशी है, खासकर पढ़े-लिखे लोगों में, क्योंकि अशिक्षित लोगों को क्या रत्न और क्या श्री – सब धन बाइस पसेरी वाली बात है।

प्रदेश के गरीब गुरबा में एक बात की ख़ुशी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिनकी अगुआई में नागरिक सम्मान के अभ्यर्थियों को जांचा, परखा जाता है, सुलभ संस्था के संस्थापक (दिवंगत) डॉ. बिंदेश्वर पाठक को ‘भारत रत्न’ ना सही, ‘पद्मविभूषण’ से अलंकृत किया गया । वैसे ‘चुटकुलानंदजी’ का मानना है कि यहाँ दिल्ली सल्तनत में सत्ता के गलियारे में बैठे सम्मानित सम्भ्राणगण ‘खेला’ कर दिए। दो-तीन लोगों को ‘भारत रत्न’ से अलंकृत करने का इतिहास भारत में ही है । लेकिन ‘ठाकुर’ के आगे ‘पाठक’ पिछड़ गए। स्वाभाविक भी है आने वाले दिनों में चुनाव है और बिहार में उच्च जाति की संख्या निम्न जातियों की तुलना में कितनी है, यह तो ज्ञानी-महात्मा जानते ही हैं।

उधर केंद्रीय गृह और सहकारिता मंत्री अमित शाह कहे भी कि 24 जनवरी को ही ‘जन-गण-मन’ राष्ट्रगान को हमारी संविधान सभा ने स्वीकार किया था। राजेन्द्र बाबू को संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया गया था। उन्हें स्वतंत्र भारत का पहला राष्ट्रपति चुना गया और उसी तिथि को डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा और पंडित भीमसेन जोशी के साथ भी जुड़ा हुआ है। मुद्दत बाद उसी तिथि को देश में एक नई राजनीति का सूत्रपात हो रहा है। लोहिया जी और गांधी जी ने समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत के साथ-साथ सादगी और सिद्धांत की राजनीति रेखांकित किया था, आज प्रधानमंत्री मोदी के अगुआई में उसे ज़मीन पर उतारा जा रहा है। कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर मोदी जी उसे अनुवादित किये हैं।

1924 से लेकर उनकी अंतिम सांस तक, कर्पूरी ठाकुर जी के जीवन का हर पल गरीबों के कल्याण में लगा रहा। कर्पूरी ठाकुर जी अपने स्वभाव, कर्म, सिद्धांत प्रिया, सादगी, सरलता, गरीब और वंचितों के प्रति अपनी संवेदना से जननायक तो बने ही थे, लेकिन जननायक को भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर बनने में बहुत लंबा समय लगा। कर्पूरी ठाकुर जी का सम्मान कर, एक प्रकार से सादगी, प्रामाणिकता, बराबरी के सिद्धांत, सात्विकता, , नीतिपरायणता और आत्मसम्मान के साथ राजनीति में संघर्ष कर रहे करोड़ों युवाओं का प्रतीकात्मक रूप से सम्मान करने का काम किया है। शाह का कहना है कि कर्पूरी ठाकुर जी एक निष्काम कर्मयोगी की तरह अपने काम से ही जीवन के उच्चतम मूल्यों को प्रस्थापित करने वाले, समानता के सिद्धांत को संघर्ष कर अपने उदाहरण से ही प्रस्थापित करने वाले, गरीबों के प्रति संवेदनशीलता को ज़मीन पर उतारने के उदाहरण प्रस्तुत करने वाले और सिद्धांत निष्ठ जीवन जीवन जीने वाले वाले व्यक्ति थे।

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उधर, वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रम राव के अनुसार “तीन निखालिस सोशलिस्टों, मुलायम सिंह यादव, जॉर्ज फर्नांडिस और अब कर्पूरी ठाकुर, को पद्म पुरस्कार से नवाज कर भाजपाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विशाल और उदार-हृदयता का परिचय दिया है। वर्ना आम सियासतदां के लिए यह लोहियावादी तो हमेशा अस्पृश्य ही रहे। कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिया जाना गैरमामूली निर्णय है। हम मीडिया-कर्मियों के लिए कर्पूरी ठाकुर ईमानदारी के प्रतिमान रहे। उन्हें कभी भी किसी पत्रकार से गिला शिकवा नहीं रहा। पटना में “हिंदुस्तान टाइम्स” के संपादक रहे सुभाषचंद्र सरकार कर्पूरी जी के कट्टर आलोचक रहे। उनके खिलाफ में खूब लिखा। बढ़कर, जमकर। पर जब कर्पूरी जी से वे मिले तो बोले : “कैसा व्यक्ति है ? लेशमात्र भी नाराज नहीं।” यह बात पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने मुझे बताई। सुरेंद्र किशोर मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के निजी सचिव रहे। हमारे बडौदा डायनामाइट केस में हमारे वे पटना के संपर्क सूत्र थे।

पुरानी बातों को याद करते राव कहते हैं: जब बिहार में कर्पूरी ठाकुर गैर-कांग्रेसी काबीना में शिक्षा मंत्री बने थे तो उनका पहला कदम था कि मैट्रिक परीक्षा पास करने के लिए अंग्रेजी में पास होना अनिवार्य नहीं होगा। इससे उन लाखों छात्रों को लाभ हुआ जो उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते थे। इसके अलावा युवतियां भी तब से हाई स्कूल पास कर बीए तक पढ़ लेती थीं। ग्रेजुएट बहु चाहने वालों के लिए सुगम हो गया था। स्वयं मैं भी लखनऊ विश्वविद्यालय में “अंग्रेजी हटाओ” आंदोलन में सक्रिय रहा। पर अभी भी यूपी में अंग्रेजी पनप रही है।”

राज्यसभा के उपसभापति (पूर्व-पत्रकार) हरिवंश जी और सुरेंद्र किशोर जी

कर्पूरी ठाकुर की सरलता का अंदाज एक घटना से लग जाता है। यह किस्सा मुझे साथी जॉर्ज फर्नांडिस ने बताया था। तब बिहार में सरकार बनाने की बात थी। पार्टी अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडिस पटना गए थे। निर्णय करना था। दो प्रत्याशी थे। पंडित रामानंद तिवारी, बड़े दावेदार और सवर्ण। उधर कर्पूरी ठाकुर भी थे। जॉर्ज ने अपने प्रखर विवेक तथा सियासी समझ का उपयोग किया। कर्पूरी ठाकुर को मनोनीत कर दिया। पार्टी का जनाधार बड़ा व्यापक हो गया। समाजवादी जड़े गहरी हो गईं। पर दुर्भाग्य था कि इस जातीय समीकरण का मुनाफा चारा चोर लालू यादव ने भरपूर उठाया। संपन्न ग्वालों के जातीय आधार पर लालू ने दांव चला। पिछड़ों की बात चलाई। हालांकि लालू हमेशा धनी और सरमायेदार थे। मुख्यमंत्री बनकर तो यह गरीब गोपालक अरबपति बन बैठा। आज कई भ्रष्टाचार के मुकदमों में जेल के बाहर-भीतर आता जाता रहता है।

उधर शम्भुनाथ शुक्ल फेसबुक पर #मैंने_जिनसे_भाषा_सीखी श्रृंखला – ४ (न दाएं न बाएं निगाह खबर पर) कुछ दिन पहले वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर पर लिखा था: जब बिहार में लालू यादव मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने एक-दो नहीं तमाम पत्रकारों को ओबलाइज किया था। किसी को भूखंड दिया, तो किसी को कोटा, परमिट व लाइसेंस। एक दिन उन्होंने अपने गृह जिले के निवासी पत्रकार सुरेंद्र किशोर को बुलाया और उनके समक्ष एक नक़्शा खोल कर रख दिया। बोले, पटना सिटी में नई कॉलोनी कट रही है, आप जिसमें चाहो उँगली रख दें, प्लॉट आपका। सुरेंद्र जी सन्न रह गए। बोले, मेरे पास तो पैसा नहीं है। लालू जी ने कहा, उसकी चिंता आप न करें। सुरेंद्र जी बोले, मुख्यमंत्री जी मुझे क्षमा करें, मुझे कोई भूखंड नहीं चाहिए। सुरेंद्र जी तब पटना में जनसत्ता के राज्य संवाददाता थे। सुरेंद्र जी ने इस वार्तालाप का ज़िक्र किसी से नहीं किया। मुझे भी प्रभाष जी ने एक मीटिंग में बताया और उन्हें ख़ुद मुख्यमंत्री लालू यादव ने।

सुरेंद्र किशोर ने कभी किसी अतिवाद को नहीं अपनाया। भले उनकी पृष्ठभूमि समाजवादी रही हो, मगर वे समाजवादियों की हल्ला ब्रिगेड से अलग रहे। वे कर्पूरी ठाकुर के सलाहकार रहे हैं। और उन्हीं की तरह वाणी में संयम और ज़िंदगी में सादगी को अपनाया। जब वे पत्रकारिता में आए तो खोजी पत्रकारिता के क्षेत्र में गए। रूटीन न्यूज़ या पोलेटिकल स्टोरीज़ को वे सपाट अंदाज़ में लिखते रहे हैं। लेकिन 1983 में जनसत्ता जॉयन करने के पूर्व जब वे पटना में दैनिक ‘आज’ के मुख्य संवाददाता थे, तब राजनीतिक हत्या हुई, वह एक अनाम लड़की बॉबी की थी। वे इस हत्या की तह में गए और ऐसी स्टोरी लेकर आए कि उसकी कब्र खुदवा कर जाँच शुरू हुई। पूरे बिहार और उसके बाहर के राज्यों में भी तहलका मच गया था। मैं तब कानपुर के दैनिक जागरण में था। वहाँ से भी आज प्रकाशित होता था और बॉबी हत्याकांड की स्टोरी रोज पहले पेज़ पर बॉटम छपती। जनसत्ता की शुरुआती टीम में मैं भी था और जब पता चला, कि जनसत्ता के पटना ऑफ़िस में सुरेंद्र किशोर की नियुक्ति हुई है, तो बड़ी उत्कंठा थी कि एक बार सुरेंद्र किशोर से मिला जाए। किंतु सुरेंद्र जी दिल्ली आते ही नहीं थे। कोई एक-डेढ़ साल बाद सुरेंद्र जी दिल्ली आए तब उनसे पहली मुलाक़ात हुई।

शम्भुनाथ जी आगे लिखे कि “दुबली-पतली काया, पांच फ़िट आठ-नौ इंच के उस शख़्स को देख कर मुझे क़तई नहीं महसूस हुआ, कि जिस व्यक्ति से मैं मिल रहा हूँ, वह एक स्टार पत्रकार है। सूती शर्ट और पैंट पहने सुरेंद्र किशोर एक क़स्बाई बाबू लग रहे थे। साथ में न कोई चंपू न कोई चारण। उस जमाने में बड़े अख़बारों के दिग्गज पत्रकार अपने साथ कोई न कोई चेला तो रखते ही थे। वे मिले और चले भी गए। किसी को उनके बारे में कुछ नहीं पता था। न उनकी जाति न पात (पोलेटिकल लाइन) न उनके परिवार के बारे में कुछ पता था। यूँ तब किसी की जाति के बारे में जानने की चाहत किसी में होती भी नहीं थी। कई वर्षों बाद 1994 में हम दोनों प्रभाष जी के बेटे की शादी में जोधपुर गए तो हम लोग एक ही गेस्ट हाउस में रुके थे। वहीं पर जब हम क़िले को देखने गए, तब सुरेंद्र जी ने बताया कि उनके पुरखे यहीं से बिहार में छपरा जा कर बसे थे।

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उन्होंने एक क़िस्सा सुनाया, कि एक बार उनकी पत्नी अपने साथ पढ़ाने वाली कुछ अध्यापिकाओं के संग वैष्णो देवी गईं। सबके पति साथ थे और सब अपनी भव्यता का प्रदर्शन कर रही थीं। कटरा में चाय पीते समय सब ने सुना, कि दूकान का मालिक जनसत्ता पढ़ते हुए किसी साथी से कह रहा था, कि पत्रकार तो एक सुरेंद्र किशोर है, जो इतने दम-खम के साथ सच्चाई बयान करता है। पटना से डेढ़ हज़ार किमी दूर पति की तारीफ़ सुन कर पत्नी की आँखें तो सजल हुई हीं उनकी सहेलियाँ भी आवाक थीं। तो यह होती थी 30 वर्ष पहले प्रिंट की धमक और जनसत्ता की साख। मुझे लगा कि जनसत्ता में काम करना निष्फल नहीं रहा।

शुक्ल जी सुरेंद्र जी की एक फ़ेसबुक पोस्ट का हवाला (10 अप्रैल 2015) देते लिखते हैं : “यह बात सन 1977 की है।दैनिक ‘आज’ का पटना ब्यूरो खुला था। पारसनाथ सिंह ब्यूरो प्रमुख थे और मैं उनके तहत संवाददाता था। मैंने एक दिन उनसे पूछा, ‘‘पारस बाबू,मैं देख रहा हूं कि ‘आज’ में ब्राह्मण भरे हुए हैं। क्या आपने राजपूतों को बहाल नहीं करवाया ?’’ पारस बाबू ने कहा कि ‘‘दो राजपूतों को बहाल कराया था। उन लोगों ने मैनेजर से ही मारपीट कर ली।

फिर आगे बोले, देखिए सुरेंद्र जी, आप लोहियावादी पृष्ठभूमि से आए हैं।किंतु यहां आपका लोहियावाद नहीं चलेगा। ब्राह्मणों का स्वभाव पत्रकारिता के पेशे के अनुकूल होता है। वे विद्या व्यसनी और विनयी होते हैं। आपको भी यदि पत्रकारिता में आगे बढ़ना है तो विनयी और विद्या व्यसनी बनिए।’’ मैं विनयी तो पहले से ही था।पर, विद्या व्यसनी पारस बाबू के कहने से बाद में बना। पारस बाबू बाबूराव विष्णु पराड़कर के साथ काम कर चुके थे। बिहार के ठाकुर परिवार में पैदा हुए थे।पर जातिवाद से ऊपर थे।कई अखबारों के संपादक रहे। पर, कभी संपादक होने का कोई लाभ नहीं उठाया।उस पीढ़ी के अधिकतर पत्रकार वैसे ही होते थे।”

सुरेंद्र किशोर ने कर्पूरी ठाकुर से लेकर आज के तेजस्वी यादव के उफान को भी देखा है, और सबके पतन को भी। किंतु वे कभी विचलित नहीं हुए। कभी डरे नहीं और न किसी ने उन पर पक्षपात का आरोप लगाया। समाजवादी होते हुए भी उन्होंने अपनी स्टोरी में किसी के प्रति ममत्त्व नहीं दिखाया न किसी से द्वेष रखा। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा और आज भी सीख रहा हूँ।

फेसबुक पर डॉ. ध्रुव कुमार सुरेंद्र किशोर के बारे में लिखे कि बिहार, देश में पत्रकारिता के लिए सबसे उपयुक्त जगह, यही कारण है कि यहां एक से एक बड़े पत्रकार हुए, इनमें एक ऐसे पत्रकार हैं, जिन्होंने 53- 54 पहले सूचना देने के दायित्व के एक संकल्प के साथ कलम उठाई, वो आज भी तमाम बदलते सामाजिक- राजनीतिक परिवेश, उतार-चढ़ाव और संकट में भी उसे मजबूती से थामे रखा, जिस पर उन्हें नाज है और लोगों का उनपर विश्वास ।अपनी स्वच्छ, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के लिए कई बार अपमान सहे, परेशानियों का सामना किया, धमकियां, गाली- गलौज, पिटाई और मुकदमों से भी दो-चार होना पड़ा । किंतु गैर बिकाऊ पत्रकार की कीमत है ये, जिसे हर पत्रकार को चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए, मान कर ” सूचना देने के दायित्व को पूरा करने के लिए ” अपनी राह चलते रहे…सरल -सहज, हाव-भाव से गंभीर, आत्मप्रचार से दूर, सादगी भरा व्यक्तित्व, लेकिन बहुत ही निर्भीक, मजबूत और गहरे रूप से राजनीतिक- सामाजिक समझ रखने वाले पत्रकार हैं वे ।

सुरेंद्र किशोर जी पत्रकारिता में आने से पूर्व समाजवादी युवजन सभा के कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय थे, लेकिन बहुत जल्द ही उनका उस राजनीति से मोहभंग हो गया । उस राजनीति से जुड़ाव के मूल में यह आस्था थी कि वह परिवर्तन का हथियार बन सकती है ।लेकिन एक लंबा दौर गुजरने के बाद उन्होंने यह महसूस किया कि जिस कल्चर से वह घृणा करते हैं, वही कल्चर उनके संगठन में पनप रही है । ऐसे में पत्रकारिता को ही समाज-सेवा समझकर अपनाया और फिर उसी के होकर रह गए ।

पत्रकारिता की तरफ उनका झुकाव छात्र-जीवन से ही था I पत्र- पत्रिकाओं में पत्र-लेखन से उनकी पत्रकारिता की शुरुआत हुई थी I फिर एक अपने जिले के स्थानीय समाचार-पत्र ” सारण संदेश ” में रिपोर्टिंग करने लगे ।कुछ दिनों बाद पटना से प्रकाशित साप्ताहिक ” लोकमुख ” में बतौर उप-संपादक जुड़ गए । यह बात आज से 53 साल पहले 1969 की है । इसके संपादक प्रो. देवीदत्त पोद्दार थे, जिन्हें सुरेंद्र किशोर जी पत्रकारिता का अपना पहला गुरु मानते हैं । अगले दो-तीन वर्षों तक कभी गांव तो कभी पटना आते-जाते, लेकिन 1972 में पूरी तरह पटना आ गए ।

1972 से लेकर 1975 तक नई दिल्ली से प्रकाशित समाजवादी विचारों की पत्रिका ” प्रतिपक्ष ” के पटना संवाददाता के रूप में जुड़े रहे । साथ में साप्ताहिक ” जनता ” में सहायक संपादक के रूप में भी काम करते रहे । उसके बाद 1977 में वे दैनिक आज से जुड़ गए और 1983 तक वहां उप-संपादक और कार्यालय संवाददाता के रूप में काम करते रहे । आखिरी महीनों में उन्हें वरीय उप -संपादक बना दिया गया । बताते चलें कि पटना से दैनिक आज का प्रकाशन 1979 में शुरू हुआ । पटना में ” आज ” के प्रकाशन से पहले ही उन्होंने बनारस के आज संस्करण के लिए कार्य करना शुरू कर दिया था ।

फिर वे दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय दैनिक ” जनसत्ता ” से जुड़े और इस तरह वे राष्ट्रीय पत्रकारिता में एक ऐसे धूमकेतु की तरह उभरे, जिसकी रोशनी हर तरह निखरती गई। लेखनी की वो चमक आज भी बरकरार है । सारण जिले के दरियापुर प्रखंड स्थित सखनौली गांव में आज ही के दिन किसान परिवार में जन्मे सुरेन्द्र किशोर जी अक्सर कहते हैं कि यदि वे पत्रकार न होते तो गांव में किसानी करते और समय मिलने पर समाज सेवा I राजनीतिक दलों से दूर रहकर समाज की सेवा ।

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