समस्तीपुर: (बिहार): पितौंझिया गाँव के गोकुल ठाकुर-रामदुलारी का ननकिरबा ‘जननायक’ कर्पूरी ठाकुर ”भारत रत्न” बना

दिवंगत कर्पूरी ठाकुर जिन्हे भारत रत्न से नवाजा जायेगा

नई दिल्ली / पटना : शायद आज के राजनेता, चाहे प्रादेशिक स्तर के हों या राष्ट्रीय स्तर के, यहाँ तक कि पटना के विधान सभा या दिल्ली के लोकसभा में बैठे सम्मानित नेतागण हों, नहीं जानते होंगे कि बिहार के समस्तीपुर जिला के पितौंझिया गाँव में गोकुल ठाकुर-श्री रामदुलारी देवी के घर में जन्म लिया ‘कपूरी’, जो बाद में कर्पूरी ठाकुर बने, ‘खाना खाने के कितना शौकीन” थे, और ‘घंटों नीम/बबूल के डंठल से दातुन’ करते थे ?

आज के पत्रकारों या नेताओं को तो यह भी नहीं मालूम होगा कर्पूरी जी जब बिहार में चीनी मिलों का राष्ट्रीयकरण किया था उस समय पटना के एक अखबार के दफ्तर में आये और राष्ट्रीयकरण की बात कही। संपादक को लिखने को भी कहा। अलगे दिन संपादक के हाथ तीन महीने का चेक था और कार्यालय का द्वार खुला था। इतना ही नहीं, जब किसी निचली जाति के लोगों के कल्याणार्थ बात होती थी और उच्च वर्ग के अधिकारी चूं-चा करते थे, तो वे अपना रूप बदलकर प्रत्यक्षदर्शी भी बनते थे। खैर।

यह महज उस व्यक्ति का सीधापन था, सादगी थी, जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त स्वयं में जीवित रखा। आज तो ‘तलवे कद’ के नेता जैसे ही ‘एँड़ी कद’ के होते हैं, अपना जीवन शैली ही बदल देते हैं – परिणाम उसका वास्तविक पहचान बदल जाता है। खैर। कर्पूरी जी खाना खाने में विविधता नहीं देखते थे। परोसने की प्रथा में ‘प्रोटोकॉल’ भी नहीं देखते, मानते थे। वे जिस जगह से आते थे, वहां आज भी शायद उस जाति के लोगों को प्रदेश के समाज में वह स्थान नहीं मिला पाया, जिसके लिए एक मनुष्य के रूप में वे भी हकदार हैं।

अयोध्या में राम की मूर्ति स्थापित करने के कोई 48 घंटे बाद भारत के राष्ट्रपति भवन से एक विज्ञप्ति जारी हुई जिसमें लिखा था : “स्‍वतंत्रता सेनानी, शिक्षक और राजनीतिज्ञ कर्पूरी ठाकुर को (मरणोपरांत) भारत रत्न से सम्मानित करने की घोषणा की गई है।”

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मरणोपरांत देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया। उनके लिए भारत रत्न पुरस्कार की घोषणा 24 जनवरी को उनकी 100वीं जयंती से पहले की गई है। यह पुरस्कार उनकी मृत्यु के 35 साल बाद दिया गया है। 17 फरवरी 1988 को कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु हो गई। कर्पूरी ठाकुर दभारत रत्न से अलंकृत होने वाले 49 में व्यक्ति हैं।

“मुझे खुशी है कि भारत सरकार ने सामाजिक न्याय के प्रतीक, महान जन नायक कर्पूरी ठाकुर जी को भारत रत्न से सम्मानित करने का निर्णय लिया है और वह भी ऐसे समय में जब हम उनकी जन्मशती मना रहे हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर पोस्ट करते हुए कहा कि यह प्रतिष्ठित सम्मान हाशिये पर पड़े लोगों के लिए एक चैंपियन और समानता और सशक्तिकरण के एक समर्थक के रूप में उनके स्थायी प्रयासों का एक प्रमाण है।”

कर्पूरी ठाकुर के साथ बहुत सारी बातें हैं जो आज भी उन्हें लोगों के मानस पटल पर जीवित रखा है। अन्यथा बिहार में अब तक ’22 मुंडी’ मुख्यमंत्री कार्यालय में आगे-गए और बिहार के मतदाता पांच – सात का नाम लेते हांफने लगते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार श्री ज्ञानवर्धन मिश्र कहते हैं: “कर्पूरी जी दूसरे बार प्रदेश का नेतृत्व कर रहे थे। साल सं 1977 था। मैं अपने पिताजी (श्री रामजी मिश्र मनोहर) के साथ तत्कालीन शिक्षा मंत्री गुलाम सरवर के घर पर था। सरवर साहब के घर पर बेगम हजरत महल शताब्दी सम्बन्धी बातों पर विचार-विमर्श होना था। उस बैठक में कई गणमान्य व्यक्ति तो थे ही, कर्पूरी जी अध्यक्षता कर रहे थे। लेकिन किसी कारणवश वे आने में विलम्ब हो रहे थे। तभी अचानक वे पहुंचे और ोपहुंचते ही कहते हैं कि उन्हें बहुत जोरों की भूख लगी है। वे तक्षण थाली में अन्य भोज्य पदार्थों के अलावे मछली लिए और शुरू हो गए। इधर सभी बातचीत कर रहे थे और कर्पूरी जी खाना खा रहे थे। खाने के बाद ऊँची डकार लिए और फिर कहते हैं क्या-क्या फैसला किये, बताइए।”

डॉ. जगन्नाथ मिश्रा की सरकार चली गई थी। साल 1977 का अप्रैल महीना का अंतिम दिन था। और प्रदेश राष्ट्रपति शासन के अधीन चला गया था 30 अप्रैल से 24 जून, 1977 तक जब सातवीं विधान सभा में कर्पूरी ठाकुर 24 जून, 1977 को 11 वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिए थे। वे दो बार प्रदेश का नेतृत्व किये और कुल 829 दिन मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान रहे। राजनीतिक गलियारे में उन्हें ‘जननायक’ कहा जाता है। कर्पूरी ठाकुर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण का लाभ प्रदान करने में अग्रणी थे क्योंकि उन्होंने 1977 से 1979 तक बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था।

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आज बिहार ही नहीं, देश के किसी भी हिस्से में दलित, पिछड़े वर्ग और समुदाय के लोगों के तथाकथित ‘कल्याणार्थ’ के लिए स्वयंभू नेताओं की उत्पत्ति उसी तरह हो रही है जिस तरह चींटी, मक्खी और मच्छरों की। आज के ‘दलित नेता’ अगर अपने कलेजे पर हाथ रखकर स्वयं से प्रश्न करें कि क्या वे सच में उनके कल्याणार्थ कार्य कर रहे हैं? शायद उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा। बिहार में आज भी दलितों और पिछड़ों के नाम पर तलवे कद के नेता से लेकर आदम कद के नेता राजनितिक दुकानदारी कर रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि आज भी सत्ता के गलियारे में बैठे ‘सवल नेता’ यह नहीं चाहते कि दलित अथवा पिछड़ा वर्ग समाज की मुख्यधारा में जुड़े। विकास के अवसर उसे भी मिले।

आज बिहार में 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ा वर्ग, 27. 13 % अन्य पिछड़ा वर्ग, 19 . 65 अनुसूचित जाती 14 फीसदी यादव 3 फीसदी मुसहर हैं। प्रदेश में शैक्षिक दर 61 . 80 फीसदी है जिसमें पुरुषों की साक्षरता 71 . 20 फीसदी और महिलाओं की साक्षरता 51 . 50 फीसदी है। अब सवाल यह है कि जननायक कहलाने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री कर्पूरी ठाकुर, जो कुल 829 दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, आज प्रदेश के राजनीतिक बाजार में ‘वोट की राजनीति’ का शिकार हो रहे हैं। यह अलग बात है कि उन्हें आने वाले समय में देश का सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा जायेगा। लेकिन यह भ्ही उतना ही सच है कि आने वाले दिनों में बिहार के मतदाताओं से भारत के लोग आम चुनाव के साथ साथ प्रदेश विधान सभा के लिए अपने-अपने प्रतिनिधि भी चुनेंगे।

वैसे भी बिहार में पुरुष:महिला शैक्षिक दर में 20 फीसदी का फासला है, यह अशिक्षा किस राजनितिक पार्टी को कितना लाभ दिलाएगा, यह तो चुनाव परिणाम ही बताएगा। वैसे कर्पूरी ठाकुर का बिहार के शैक्षिक पर्यावरण में तत्कालीन लोगों ने जिस कदर एक नकारात्मक सोच डाला, आज तक कायम है। कर्पूरी ठाकुर अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अपने प्रदेश के गरीब-गुरबा, पिछड़ा, कमजोर बच्चे-बच्चियों के लिए, जो गाँव में खेतों के आड़ पर पढ़ते हैं, ‘अंग्रेजी’ विषय को नहीं समझते – उन्हें अंग्रेजी से मुक्ति दे दिए माध्यमिक परीक्षा में। उनका कहना था कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए जानकार होना आवश्य है, लेकिन अंग्रेजी शिक्षा के बिना भी जानकार हुआ जा सकता है।

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा पर नीतीश कुमार ने कहा, “पूर्व मुख्यमंत्री और महान समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर को देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न दिया जाना हार्दिक प्रसन्नता का विषय है। केंद्र सरकार का ये अच्छा निर्णय है। कर्पूरी ठाकुर को उनकी 100वीं जयंती पर दिया जाने वाला ये सर्वोच्च सम्मान दलितों, वंचितों और उपेक्षित तबकों के बीच सकारात्मक भाव पैदा करेगा। हम हमेशा से ही कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की मांग करते रहे हैं। वर्षों की ये पुरानी मांग आज पूरी हुई।”

दी टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के वरिष्ठ पत्रकाल लव कुमार मिश्र कहते हैं: “कर्पूरी ठाकुर जी मेरा पहला साक्षात्कार 1969 में छाजूबाग स्थित लाला लाजपत राय मेमोरियल हाल में हुआ था। विद्यार्थियों के लिए प्रकाशित मासिक पत्रिका किशोर भारती ने अखिल बिहार अंतरविद्यालीय बाद विवाद प्रतियोगिता का अयोजन किया था। छात्रों को राजनीति में भाग लेना चाहिए विषय पर। पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र मिश्र समारोह के अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री सह शिक्षा मंत्री, कर्पूरी ठाकुर मुख्य अतिथि थे। उन्होंने ही पुरस्कार दिया था विजेता छात्रों को।”

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लव कुमार जी कहते हैं: “1967 में संयुक्त विधायक दल सरकार में शिक्षा मंत्री ने मैट्रिक परीक्षा परिणाम में पास विदाउट इंग्लिश श्रेणी लागू किया था। वे जेपी आंदोलन में सक्रिय नेतृत्व किया, विधायक से इस्तीफा दिया। आपात काल में भूमिगत हुए और जब जेपी की आपातकाल खत्म होने पर पहली विशाल जन सभा गांधी मैदान में हुई, कर्पूरी जी प्रगट हुए. कर्पूरी जी के खिलाफ मीसा का वारंट निर्गत था। एग्जिबिशन रोड में जेपी के साथ लौटी भीड़ में पैदल ही निकल पड़े और कदम कुआं में महिला चरखा समिति में ही ओवरग्राउंड हुए। सं 1977 लोकसभा चुनाव में सदस्य निर्वाचित हुए बाद में विधानसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया था। जनसंघ के श्री कैलाशपति मिश्र उप-मुख्यमंत्री बने नेता घोषित होने के बाद वे अभी के तारामंडल के सामने मंदिरी जाने वाली नाले के बाएं साइड समाजवादी नेता प्रणव चैटर्जी के यहां ,लकड़ी की कुर्सी पर बैठे थे। मैने सर्चलाइट के लिए इंटरव्यू लिया,डीआईजी श्री बद्री नारायण सिन्हा भी उन्हें सैल्यूट किए और शपथ ग्रहण के बारे में बात की,फिर कलेक्टर वी एस दुबे और एसएसपी गोपाल अचारी आए. मुख्यमंत्री ने लोक सभा की सदस्यता त्याग दी,फुलपरास से विधान सभा के लिए चुने गए,वहां से निर्वाचित युवा सदस्य, देवेन्द्र प्रसाद यादव को विधान परिषद में जगह दी गई। ”

बिहार के समस्तीपुर जिले में जन्मे कर्पूरी ठाकुर छोटी उम्र से ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बन गये। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, उन्हें अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ जेल में डाल दिया गया लेकिन अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिए संघर्ष करते रहे। 1952 में अपनी शुरुआती जीत के बाद, अपनी संयमित जीवनशैली और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के प्रति अटूट प्रतिबद्धता से उत्पन्न व्यापक अपील के कारण वे हर अगले चुनाव में लगातार विजयी हुए।

कर्पूरी ठाकुर अपने राजनीतिक जीवन में विधायक से लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, पर गांव के पैतृक मकान के अलावा उनके पास कोई दूसरा मकान नहीं था। गांव में भी उनका पुश्तैनी मकान भी कायदे का नहीं था। आज के अघाए नेता कर्पूरी ठाकुर को भुनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं, पर वे उनकी सादगी और ईमानदारी से जरा भी सीख नहीं लेते। वोट के लिए उन्हें भुनाने की खूब कोशिश हो रही है, पर किसी ने यह नहीं सोचा कि उनके आदर्शों पर थोड़ा भी अमल कर लें। आज किसी को भी यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि बिहार में एक सीएम ऐसा भी रहा, जिसने अपने परिवार को इसलिए गांव में रखा कि उसे मिलने वाली तनख्वाह से यह संभव नहीं था।

दी इंडियन नेशन क पूर्व संवाददाता श्री सुधाकर झा कहते हैं कि ‘इस सम्मान का राजनीतिक पहलु चाहे जो भी हो, एक बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि प्रदेश में भोला पासवान शास्त्र और कर्पूरी ठाकुर जैसे जमीन से जुड़ा व्यक्ति कोई दूसरा नहीं हुआ। राजनीतिक व्यवस्था में विरोध-प्रतिरोध आम बात है, लेकिन आज बहुत बिरले लोग हैं जो कर्पूरी ठाकुर की सादगी और सामाजिक-राजनितिक क्षेत्र में उनके योगदान को याद रखे हैं। उन्हें भारत रत्न सम्मान से अलंकृत करना न केवल प्रदेश का सम्मान है, बल्कि एक सीधे-साधे व्यक्ति का सम्मान है जो छल – कपट से मीलों दूर था।”

सत्तर के दशक के उत्तरार्ध की एक घटना को उद्धृत करते सुधाकर झा कहते हैं: “हम सभी एक टूर पर गए थे। जो भी देखना था, समझना था, उन्हें बताना था, हम सबों को सुनना था, यह सभी बाते चल रही थी। दोपहर का समय निकलकर अपरान्ह की ओर बढ़ रहा था। तभी अचानक कर्पूरी जी एक सड़क के किनारे वाले होटल में बैठे तो जोर से कहे – सबों को खाना खिलाओ। जैसे ही थाली -भात -दाल और आलू का चोखा’ – उनके सामने आया, वे तक्षण खाना शुरू कर दिए और कहने लगे ‘बहुत भूख लगी है।’ आज शायद राजनेताओं के साथ ऐसे दृश्य देखना एक सपना जैसा हो। जब सुधाकर झा के पिता श्री कालिकांत झा की मृत्यु हुई वे सीधा उनके घर आये और स्वयं ही परिचय देने लगे – मैं कर्पूरी ठाकुर हूँ।

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कर्पूरी ठाकुर को बिहार की सियासत में सामाजिक न्याय की अलख जगाने वाला नेता माना जाता है। कर्पूरी ठाकुर साधारण नाई परिवार में जन्मे थे। कहा जाता है कि पूरी जिंदगी उन्होंने कांग्रेस विरोधी राजनीति की और अपना सियासी मुकाम हासिल किया। यहां तक कि आपातकाल के दौरान तमाम कोशिशों के बावजूद इंदिरा गांधी उन्हें गिरफ्तार नहीं करवा सकी थीं। बिहार में पिछड़ों और अतिपिछड़ों की आबादी करीब 52 प्रतिशत है। ऐसे में सभी राजनीतिक दल अपनी पकड़ बनाने के मकसद से कर्पूरी ठाकुर का नाम लेते रहते हैं। मुख्यमंत्री रहते कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया। उनकी सादगी और ईमानदारी को आज भी लोग शिद्दत से याद करते हैं।

कर्पूरी ठाकुर के निजी सहायक (पीए) रह चुके वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर कहते हैं कि वर्ष 1977 में पटना के कदमकुआं स्थित चरखा समिति भवन में जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन मनाया जा रहा था। वहां बड़े समाजवादी नेताओं का जुटान हुआ था। भूत पूर्व पीएम चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख जैसे नेता वहां आए थे। कर्पूरी ठाकुर तब बिहार के मुख्यमंत्री थे। जब वे वहां पहुंचे तो उनके कुर्ते पर चंद्रशेखर की नजर पड़ी। कुर्ता फटा हुआ था। चप्पल भी टूटी हुई थी। अचानक चंद्रशेखर उठे और अपने कुर्ते का अगला भाग फैला कर सबसे चंदा देने को कहा। उन्होंने कहा कि कर्पूरी जी के लिए कुर्ता फंड बनाना है। तत्काल कुछ लोगों ने उनके फाड़ में कुछ रुपये दिए। पैसा देते हुए चंद्रशेखर ने कहा कि कर्पूरी जी, इन रुपयों से अपने लिए एक कायदे का कुर्ता-धोती खरीद लीजिए। कर्पूरी ठाकुर ने पैसा ले लिया और कहा कि इसे हम मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा देंगे।

बहरहाल, चुनावी विश्लेषकों की मानें तो कर्पूरी ठाकुर को बिहार की राजनीति में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 1988 में कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया था, लेकिन इतने साल बाद भी वो बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े मतदाताओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं। उनके जीवित रहते उन्होंने न कोई संपत्ति खड़ी की और परिवार के किसी व्यक्ति को राजनीति में कदम रखने दिया। उनके निधन के बाद ही परिवार का कोई सदस्य राजनीति में आ पाया। नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने उनके बेटे रामनाथ ठाकुर को राज्यसभा भेजा। कर्पूरी ठाकुर अगर जीवित रहते तो शायद ही बेटे को राजनीति में आने देते।

लव कुमार जी आगे कहते हैं: “मुख्यमंत्री के रूप में मुंगेरीलाल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया और पहली बार 26 पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की। उन्होंने बिहार में चीनी मिलों का राष्ट्रीयकरण किया।कैबिनेट मीटिंग के पूर्व संध्या सर्चलाईट ऑफिस आते है और संपादक से मिल कर पहले निर्णय की सूचना देते हैं, संपादकीय लेख का अनुरोध भी। बाद मे,संपादक को तीन महीना का चेक देकर विदा किया गया, क्योंकि चीनी मिल के मालिक और अखबार के मालिक एक थे।”

“मुख्यमंत्री जी एक बार देर रात अपने आवास पहुंचे। उन्होंने देखा उनके चाहने वाले उनके बेड पर भी सो रहे हैं, मुख्यमंत्री,जमीन पर कंबल लेकर सो गए। बिहार के गृह मंत्री रामानंद तिवारी के सचिव रहे ब्रह्मदेव राम ने एक घटना का जिक्र किया : मुख्यमंत्री ने एक आवश्यक फाइल लेकर उन्हें बुलाया,जब वे पहुंचे,सीएम के कक्ष में जाने के लिए,सभी जगह श्री ठाकुर के लोग ही कब्जा जमाया था, सीएम साहेब उन्ही लोगो के बीच एक चौकी पर कंबल लपेट कर बैठे थे, अगली सुबह उन्हे दिल्ली जाना था। मुख्यमंत्री कभी भी किसी अधिकारी को डांट फटकार नहीं लगाते थे, अपने एंबेसडर में पिछली सीट पर ही दो तीन ऑफिसर को बिठा कर चर्चा कर लेते थे, कोई सुरक्षा का ताम झाम नही होता था। जस की तस धर दिन्ही चादरिय वालीं कहावत उन पर लागू होती हैं।”

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