जब तक छोटे-छोटे ‘ट्रिन्गर्स’ को ‘संस्थागत संरक्षण’ नहीं मिलेगा, उनकी कहानियां ‘चोरी’ नहीं होंगी, देश की पत्रकारिता कभी सुधर नहीं सकती

केन्‍द्रीय सूचना एवं प्रसारण, युवा कार्यक्रम और खेल मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर

नई दिल्ली: कल की ही तो बात है। देश ‘राष्ट्रीय प्रेस दिवस’ मना रहा था। गली-कूची से लेकर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा कल के राजपथ से आज के कर्तव्य पथ तक, सभी लोग पत्रकारों को पत्रकारिता का पाठ पढ़ा रहे थे। कोई कह रहे थे ‘देश की पत्रकारिता अधोगति’ हो गई है। कोई कह रहा था ‘पत्रकारिता का चरित्र’ समाप्त हो गया है। अपने-अपने तरह से सभी शब्दों का अलंकरण कर ‘पत्र-पत्रिका और पत्रकारों’ को नसीहत दे रहे थे।

लेकिन किसी की भी ऊँगली ‘पाठकों’ की ओर नहीं उठी। कोई उनके बारे में जिक्र नहीं किया जिनके बारे में कहानियां लिखी जाती है। कोई उनकी त्रादसी की ओर ऊँगली नहीं उठाये जो छोटे-छोटे कस्बों से, पंचायतों से, शहरों से काफी-मेहनत कर कहानियां भेजते हैं और उन कहानियों को मुख्यालय में बैठे उनके ‘वरिष्ठ’, ‘चीफ ऑफ़ ब्यूरो’, ‘संपादक’ समाचार-बाजार में ‘बेचकर’ मालिकों को मालिश कर खुद तो कुतब मीनार पर चढ़ जाते, लेकिन छोटे कस्बों, गाँव का, शहरों का वह समाचार-प्रेषक आसमान को निहारते, टीबी, कैंसर बीमारियों से लड़ते मृत्यु को प्राप्त करता है। उसकी मौत की खबर वह संपादक या चीफ ऑफ़ ब्यूरो तबज्जो नहीं देता है।

आज पत्रकारों को ‘फॉलो’ करने की जो बीमारी हो गई है, लोग बाग़ उन्हें ‘ईश्वरीय दर्जा’ देने लगे हैं; लेकिन कोई नहीं जानता कि उन्हें उस ऊंचाई पर ले जाने में किसका-किसका हाथ है? सैकड़े 99 फ़ीसदी ऐसे पत्रकार जिन्हें आज टीवी पर देखा जाता है, लाखों-करोड़ों फॉलोवर्स होते हैं, अगर उस संस्था के छोटे-छोटे इंटर्न, रिपोर्टर, शोधकर्ता, पुस्तकालय के कर्मचारी, और सबसे बड़ी बात ‘महामहीम गूगल देवता’ उनके मेज पर उस विषय से सम्बंधित बातों की पड़ताल कर कागज-कतरन नहीं रखें, ‘संक्षिप्त नोट’ नहीं लिख कर रखें – वे चारो खाने चित हो जायेंगे और कक्ष का कैमरामैन अपनी नौकरी बचाने के लिए कैमरा को दूसरे तरफ घुमा देंगे। टीवी के स्क्रीन पर लिखा आने लगेगा ‘तकनिकी अवरोध के कारण हम आपको यह कार्यक्रम नहीं दिखा पा रहे हैं।”

ये है आज की पत्रकारिता। बड़े-बड़े मीडिया घरानों में चमचे, चाटुकारों का साम्राज्य है। संपादक ‘मालिकों’ का मालिश करते हैं। मालिक नेताओं का मालिश करते हैं। सीनियर, रोविंग, स्पेशल, डिप्टी, नेशनल, इंटरनेशनल, एडिटर, राइटरों के बीच छोटका पत्रकारों को कौन जानता, पूछता। अंग्रेजीं में उसे ‘स्ट्रिंगर’ कहते हैं। जिस दिन इन छोटे-छोटे पत्रकारों को, जिनके पास न तो संस्था का परिचय-पत्र होता है और ना ही जिला मुख्यालय और प्रदेश की राजधानी के पत्र-सूचना विभाग का, को ‘आर्थिक, सामाजिक, संस्थागत संरक्षण नहीं प्राप्त होगा – भारतीय पत्रकारिता में कभी सुधार नहीं हो सकता। हां, इसके लिए उन्हें भी पानी जैसा पारदर्शी होना पड़ेगा।

बहरहाल, धनबाद के कोयला माफिया डॉन सूर्यदेव सिंह जीवित थे उन दिनों। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बहुत समीप समझे जाने वाले कांग्रेसी नेता जो बिंदेश्वरी दुबे को ‘छिटकिनी’ मार कर बिहार के मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर निकाल कर खुद बैठे थे, प्रदेश की राजनीतिक इतिहास में ‘अमर’ होना चाहते थे – नाम था भागवत झा ‘आज़ाद’। सामने से तो आज़ाद साहब बिहार से माफिया का नामोनिशान मिटाना चाहते थे, लेकिन परोक्ष रूप से उन्हें तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं से अपना कद ऊपर बनाना था। वे जानते थे कि बिंदेश्वरी दुबे, जगन्नाथ मिश्र का कोयलांचल के माफिआओं से भर-गर्दन प्रेम है। अतः माफियाओं को आगे कर अपनी राजनीति खेलना चाहते थे, खेले।

नौवां विधानसभा का कालखंड था। इस विधानसभा के समय-काल में बिहार में कांग्रेस पार्टी के चार मुख्यमंत्री ‘आये और गए’ – बिंदेश्वरी दुबे (12 मार्च, 1985 से 13 फरवरी, 1988), भागवत झा ‘आज़ाद’ (14 फरवरी, 1988 से 10 मार्च, 1989), सत्येंद्र नारायण सिन्हा (11 मार्च, 1989 से 6 दिसंबर, 1989) और डॉ. जगन्नाथ मिश्र (6 दिसंबर, 1989 से 10 मार्च, 1990) – नौवां विधानसभा से आज सत्रहवाँ विधानसभा तक बिहार फिर कभी कांग्रेसियों को मुख्यमंत्री कार्यालय के आस-पास नहीं देखा।

ये भी पढ़े   फैज़ान अहमद कहते हैं: "मुझे टेलीग्राफ अखबार में लिखने की जितनी स्वाधीनता मिली, कहीं और नहीं" (फोटोवाला - श्रृंखला- 14)

उस समय धनबाद के उपायुक्त थे मदन मोहन झा। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे। दो ‘झा जी’ मिलकर धनबाद को ‘झंकार’ कर ‘झाझा’ बनाने का प्रण लिए और शुरू हो गया कोयला माफियाओं के विरुद्ध खेल। धनबाद से पटना के रास्ते कलकत्ता, दिल्ली, बम्बई, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के शहरों से जुड़े सभी पत्रकार से लेकर संपादक और पत्र-पत्रिका के मालिक भी, नेता-अधिकारी, जो कोयला व्यवसाय में लिप्त थे या फिर धनोर्पार्जन का हिस्सा प्राप्त करते थे, पंक्तिबद्ध हो गए। भारत के नए और पुराने राष्ट्रीय राजधानी यानी दिल्ली से लेकर कलकत्ता के पत्रकार ‘धमाधम’ धनबाद गिरने लगे। जो नहीं आ सके वे संध्या काळ उपायुक्त से फोन पर संपर्क साध कर कहानियां लिखने लगे। कुछ जो वहां के स्थानीय अख़बारों में प्रकाशित हो रहे थे, उसका अनुवाद कर दिल्ली-कलकत्ता भेजने लगे।

मैं उन दिनों धनबाद से प्रकाशित ‘दी न्यू रिपब्लिक’ अख़बार में आया ही था। दी इंडियन नेशन, पटना में मासिक वेतन मिलना लगभग बंद हो गया था। तभी एक दिन कोयला खदानों में कोयला निकासी के बाद ‘बालुओं’ से भरने की प्रशासकीय पद्धति की जांच पड़ताल के लिए अपने एक छायाकार मित्र श्री जोयदेव गुप्ता ‘मनोज’ के साथ भूमिगत खदानों की ओर निकल पड़े। दी न्यू रिपब्लिक से कुछ ही दिनों में दाना-पानी उठ गया था और हम श्री उत्तम सेनगुप्ता के अनुशंसा पर 6-प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट, कलकत्ता का धनबाद संवाददाता के रूप में पहुंच गए थे दी टेलीग्राफ अखबार में।

दो दिन काफी मेहनत के बाद सुबह-सवेरे ट्रेन पकड़कर कलकत्ता पहुंच गए। दफ्तर में बैठकर अपनी कहानी टाइप करने लगे। उस समय कोई 12 बज रहा था दिन में। साल सन 1988 का प्रारंभिक वर्ष था। मदन मोहन झा मई 20, 1986 से मई 26, 1989 तक धनबाद समाहरणालय में विराजमान थे। कोई 22 पैराग्राफ की कहानी और कोल इण्डिया का कागज (दस्तावेज) के साथ बिजनेस संपादक के टेबुल पर रखने ही वाला था कि वे दफ्तर आ गए।

मुझे देखते ही कहते हैं: “हेल्लो !!! डॉन!!!” मैं उनका अभिवादन स्वीकार किया और मुस्कुरा दिया। कुर्सी पर बैठते ही वे उस कहानी को हाथ में लिए, मुझे देखे और मुस्कुराके कहते है : “ग्रेट !!! की भालो स्टोरी !!! इट्स ‘लिड स्टोरी’, विल कैरी इन टू पार्ट्स”। मैं छोटा सा संवाददाता था। फिर मैं आनंद बाजार के कैंटीन में माँछ-भात खाकर कलकत्ता शहर की ओर निकल गया। वापसी ट्रेन शाम में थी। उन दिनों इस पत्र समूह में छोटे संवाददाता की भी बहुत तबज्जो थी।

दूसरे दिन दी टेलीग्राफ के प्रथम पृष्ठ मेरी कहानी का ‘इंडिकेटर’ और बिजनेस पृष्ठ पर आठ कॉलम में बालू माफिया की कहानी (पहली क़िस्त) प्रकाशित हुई नाम के साथ। दी टेलीग्राफ अख़बार 12 बजते धनबाद आ जाता था। अब तक भारत कोकिंग कॉल से लेकर कॉल इण्डिया तक, धनबाद समाहरणालय से लेकर सिंह मैंशन तक – कोहराम मच गया था। उस कहानी के बाद आनंद बाजार पत्र समूह का मैं हो गया। दी टेलीग्राफ और संडे पत्रिका का मैं चहेता हो गया। एक कहानी ही धनबाद में पहचान दे दी और बीसीसीएल से लेकर जिला प्रशासन और कोयला माफियाओं के आखों का काँटा हो गया।

राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर केन्‍द्रीय सूचना एवं प्रसारण, युवा कार्यक्रम और खेल मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर और अन्य

यह बात यहाँ इसलिए उद्धृत कर रह हूँ की विगत 16 नवम्बर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर केन्‍द्रीय सूचना एवं प्रसारण, युवा कार्यक्रम और खेल मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर इस बात को स्वीकार किये कि जिला और क़स्बा में पदस्थापित पत्रकारों को मेट्रो में काम करने वाले पत्रकार बराबर नहीं समझते तभी उन्होंने कहा कि “मेट्रो शहरों में पत्रकारों को दरभंगा, पुरी, सहारनपुर, बिलासपुर, जालंधर, कोच्चि आदि में अपने समकक्षों का सम्मान करना चाहिए- आपके दोस्तों को सम्मानित किया जाना चाहिए और उन्हें श्रेय दिया जाना चाहिए। स्‍टोरी मायने रखती है स्थान या स्टेशन के कोई मायने नहीं हैं! स्ट्रिंगरों को अच्छी तरह से भुगतान करना चाहिए, उन्हें पुरस्कृत करना और उनके आत्मविश्वास में सुधार करना एक जीवंत मीडिया परिदृश्य के लिए महत्वपूर्ण है।”

ये भी पढ़े   लालकृष्ण आडवाणी देश का 50वें 'भारत रत्न' बने। जब प्रधानमंत्री उन्हें 'स्टेट्समैन' शब्द से अलंकृत किये, 'दी स्टेट्समैन' की वह कहानी याद आ गई

यह एक लाख फीसदी ‘सत्य’ है। अनुषा रिजवी की कहानी, निर्देशन, पटकथा के तहत आमिर खान के प्रोडक्शन हॉउस से बनी ओंकारदास मानिकपुरी, रघुबीर यादव, शालिनी वत्स, मलाइका शेनॉय, नवाजुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत ‘पीपली लाइव’ फिल्म दृष्टान्त है। तभी तो अनुराग सिंह ठाकुर “राष्ट्र निर्माण में मीडिया की भूमिका” पर विचार भी किया, साथ ही, “नॉर्म्‍स ऑफ जर्नलिस्टिक कंडक्‍ट, 2022” का विमोचन भी किया। इतना ही नहीं, यह भी कहने में तनिक भी संकोच नहीं किये कि ताकि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ भारतीय मीडिया को समझने, उसका विश्‍लेषण करने और उसके मानकों को संरक्षित करने का रास्‍ता आसान बनाने के स्‍वीकार्य तरीकों का पता लगाया जा सके।

लेकिन उन दिनों ‘आर्यावर्त’, ‘दी इण्डियन नेशन’ और आज भी आनंद बाजार पत्रिका समूह में कभी भी क़स्बा, जिला, प्रदेश में छोटी-सी-छोटी खबर को मुख्यालय तक भेजने वाला उस संवाददाता जो, जिसे भारत के प्रदेश से लेकर राष्ट्रीय अख़बारों में ‘बित्ता’ से, ‘इंची-टेप’ से नापकर, शब्दों को गिनकर पैसा दिया जाता था (और है भी) अपने मुख्यालय में काम करने वाले दिग्गज पत्रकारों से अलग नहीं समझा। उनका ‘बाई-लाइन” कभी नहीं काटा। यहाँ तक कि कहानियों में और अतिरिक्त जानकारी देने, लिखने पर भी दूसरे लोग अपना नाम नहीं जोड़े। जबकि इस तरह की कैंसर नुमा बीमारी राष्ट्र की राजधानी और अन्य प्रदेशों की राजधानियों के प्रकाशित होने वाले पत्र-पत्रिकाओं में आम बात है।

इतना ही नहीं, भारत के छोटे-छोटे स्थानों से आने वाले समाचारों को मुख्यालय में बैठे बड़े-बड़े पत्रकार ‘चोरी’ भी करते हैं और अपना नाम कमाने के लिए शाम-दंड-भेद सभी पहलवानी भी का जाते हैं। भागलपुर का अंखफोड़बा काण्ड दृष्टान्त है। लेकिन वे यह नहीं समझते कि वे भी ‘समय के सीसीटीवी’ के अधीन हैं।

अनुराग सिंह ठाकुर कहते हैं कि भारत में एक स्वतंत्र और जिम्मेदार प्रेस का प्रतीक है। यह वह दिन था जिस दिन भारतीय प्रेस परिषद ने यह सुनिश्चित करने के लिए एक नैतिक प्रहरी के रूप में कार्य करना शुरू किया था कि न केवल शक्तिशाली माध्यम प्रेस अपेक्षित उच्च मानकों को बनाए रखे बल्कि यह किसी बाहरी कारकों के प्रभाव या खतरों से नहीं रुके। हालांकि दुनिया भर में कई प्रेस या मीडिया परिषदें हैं, भारतीय प्रेस परिषद एक अद्वितीय संगठन है क्योंकि यह एकमात्र संगठन है जो प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने के अपने कर्तव्य में देश के साधनों पर भी अधिकार का प्रयोग कर सकता है। “राष्ट्र निर्माण में मीडिया की भूमिका” पर श्री स्वपन दासगुप्ता भी बोले।

श्री स्वपन दासगुप्ता ने कहा, “इंटरनेट और सोशल मीडिया ने पूरे मीडिया परिदृश्य को बदल दिया है। मुख्यधारा के मीडिया, जैसे अखबार और टेलीविजन, ने पूरी दुनिया में महत्वपूर्ण गिरावट देखी है। वैश्विक स्तर पर, इसमें 11 प्रतिशत तक की गिरावट आई है। मुख्यधारा के मीडिया का अब समाचार देने का एकाधिकार नहीं है। श्री दासगुप्ता ने आगे कहा, “पूर्णतया एक समूह तक सीमित पत्रकारिता बढ़ रही है और लोग मुख्यधारा के मीडिया पर हावी रहने राजनीतिक समाचारों के अलावा स्वास्थ्य, विज्ञान, चिकित्सा, खेल जैसे समाचारों की तलाश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि डिजिटल मीडिया ने राष्‍ट्रीय सीमाओं को मिटा दिया है” जैसाकि वाणिज्यिक और आर्थिक पदचिह्न सहित भारत के रणनीतिक पदचिह्न दुनिया भर में बढ़ रहे हैं, जब तक हम भारत में निर्मित, भारत में आधारित मीडिया को आगे नहीं बढ़ाएंगे, भारतीय मूल्यों को आगे ले जाना, जो इसे आगे ले जा सकता है, उस दृष्टिकोण की हमारी संपूर्ण गुणवत्ता में हम कहीं न कहीं पीछे रह जाएंगे”।

ये भी पढ़े   क्या पासवान जी का 'ननकिरबा' कोई 'राजनीतिक टीकाकरण' कर पायेगा 'दादाजी' और 'चचाजान' से दूरी पाटने के लिए ?
राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर केन्‍द्रीय सूचना एवं प्रसारण, युवा कार्यक्रम और खेल मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर और अन्य

ठाकुर कहते हैं: “”प्रेस को एक शक्तिशाली आवाज और हमारे लोकतंत्र का एक योग्य चौथा स्तंभ बनाने वाले दिग्गजों को विनम्र श्रद्धांजलि देने का यह एक महत्‍वपूर्ण अवसर है।” उन्होंने कहा, “प्रेस के साथ स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले हमारे बड़े नेताओं की घनिष्ठ भागीदारी ने उन्हें संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित किया”। भारतीय प्रेस परिषद का जन्म बहुत बाद में हुआ, लेकिन प्रयोजन वही था: लोकतंत्र की रक्षा और मजबूती सुनिश्चित करना।”

परन्तु, “अफसोस की बात है कि प्रेस की स्वतंत्रता के लिए लाइट हाउस के रूप में भारतीय प्रेस परिषद के अस्तित्व में आने के एक दशक के भीतर, मौलिक अधिकारों के निलंबन के साथ-साथ इसे आपातकाल के दौरान समाप्त कर दिया गया था। यह मेरे लिए गर्व की बात है कि परिषद को संसद के एक ताजा कानून के जरिये नए सिरे से पुनर्जीवित किया गया और यह कार्य किसी और ने नहीं बल्कि सूचना और प्रसारण मंत्री के रूप में श्री लालकृष्ण आडवाणी जी ने किया। एक राष्ट्र के रूप में हमने तब से पीछे मुड़कर नहीं देखा है, हालांकि आईटी कानून के 66ए द्वारा लगाए गए अस्वीकार्य प्रतिबंधों के माध्यम से व्यवधान हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे उचित रूप से खारिज कर दिया गया था। पिछले 75 वर्षों में, हमारे महान देश में लोकतंत्र फला-फूला है, वैसे ही मीडिया भी फला-फूला है।”

केंद्रीय मंत्री मानते हैं, तभी वे बोले भी : “मेट्रो शहरों में पत्रकारों को दर रभंगा, पुरी, सहारनपुर, बिलासपुर, जालंधर, कोच्चि आदि में अपने समकक्षों का सम्मान करना चाहिए- आपके दोस्तों को सम्मानित किया जाना चाहिए और उन्हें श्रेय दिया जाना चाहिए। स्‍टोरी मायने रखती है स्थान या स्टेशन के कोई मायने नहीं हैं! स्ट्रिंगरों को अच्छी तरह से भुगतान करना चाहिए, उन्हें पुरस्कृत करना और उनके आत्मविश्वास में सुधार करना एक जीवंत मीडिया परिदृश्य के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, दुनिया के साथ गति बनाकर रखते हुए, प्रेस परिषद को ट्रांसजेंडर प्रतिनिधित्व के साथ-साथ समाचारों में महिलाओं की सुरक्षा और विविध विचारों को बढ़ावा देने पर जोर देने की आवश्यकता है।”

उन्होंने कहा कि “सभी चीजें जिनका गति के साथ विस्तार होता है, भारत में मीडिया का विस्तार एक सतर्क नोट के योग्य है। मीडिया प्रशासन की अधिकांश संरचना स्व-नियामक है। लेकिन स्व-नियामक का मतलब गलती करने का लाइसेंस मिलना और जान-बूझकर गलती करना नहीं है।” इससे मीडिया की विश्‍वसनीयता खत्‍म होगी। पक्षपात और पूर्वाग्रह को अस्‍वीकार किया जाना चाहिए। यह मीडिया का काम है कि वह इस बारे में चिंतन करे और आत्मनिरीक्षण करे कि इंफोडेमिक के वायरस से खुद को कैसे बचाया जाए, जो भौगोलिक क्षेत्रों में समाज के बारे में दुर्भावनापूर्ण गलत सूचना फैलाता रहता है। ऐसी ही एक दूसरी चिंता पेड न्यूज और फर्जी खबरें है। इसी तरह सोशल मीडिया द्वारा फैशनेबल बनाई गई क्‍लिकबेट पत्रकारिता मीडिया की विश्वसनीयता में कोई योगदान नहीं देती; यह राष्ट्र-निर्माण में और भी कम योगदान देती है। मीडिया को इस बात की इजाजत नहीं देनी चाहिए कि जिम्मेदार, निष्पक्ष और संतुलित पत्रकारिता पर कोई और कब्‍जा करे।”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here