“शांतिनिकेतन” भारत का 41 वां स्थल यूनेस्को विश्व धरोहर में शामिल, प्रधानमंत्री ने कहा कि यह सभी भारतीयों के लिए गर्व का क्षण है

शांति निकेतन

कोलकाता : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विगत 25 मई, 2018 को शांतिनिकेतन में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के साथ गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर को श्रद्धांजलि देते हुए आगंतुक पुस्तिका पर हस्ताक्षर किए और फिर दोनों नेता विश्व भारती विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में शामिल हुए। उस दिन के बाद से आज तक भारत ही नहीं, विश्व के लगभग सभी राष्ट्राध्यक्षों के कार्यालयों में, खासकर जो संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) से ताल्लुकात रखते हैं, ‘शांतिनिकेतन’ के बारे में चर्चाएं होने लगी।

भारत के प्रधानमंत्री कार्यालय में शांतिनिकेतन को विश्व के सामने पुनः स्थापित करने का विचार प्रखर होने लगा । प्रधानमंत्री के मन में पश्चिम बंगाल की राजनीति के बारे में आज भी चाहे जो ख़्याल हो, उन्हें विश्वास था कि शांतिनिकेतन के मामले में पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) और पश्चिम बंगाल भी वही चाहता होगा जो वे चाह रहे हैं – भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के महान शिक्षक जो देश के 125+ करोड़ लोगों के प्रेरक गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की भूमि शान्तिनिकेशन विश्व धरोहर के रूप में अंकित हो।

आज 18 सितम्बर, 2023 को शांतिनिकेतन को यूनेस्को ने विश्व धरोहर में शामिल किया है। शांतिनिकेतन भारत का 41 वां विश्व धरोहर स्थल बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांतिनिकेतन को यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किये जाने पर देशवासियों को बधाई दी। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि यह सभी भारतीयों के लिए गर्व का क्षण है। शांतिनिकेतन गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के दृष्टिकोण और भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है।

पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में स्थित शांतिनिकेतन में नोबेल विजेता और कवि, दार्शनिक रविंद्र नाथ टैगोर ने लंबे समय तक वक्त गुजारा था। अपनी प्राचीन परंपराओं और मानवता के कल्याण के लिए शुरू हुई एकमात्र विश्वविद्यालय आखिरकार विश्व विरासत का दर्जा हो गया। करीब सवा सौ साल पहले कुछ छात्रों के साथ शुरू विश्वविद्यालय में आज भी छात्रों को पेड़ के नीचे जमीन पर बैठकर पढ़ाने की परंपरा जिंदा है। आज संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) ने शांतिनिकेतन को विश्व धरोहर के रूप में मान्यता दी है। यह विश्वविद्यालय सिर्फ शिक्षा के लिए नहीं बल्कि अनुसंधान के लिए भी चर्चित है।

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना

उस दिन प्रधानमंत्री ने कहा था कि इस विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाले सभी लोगों ने न केवल डिग्री प्राप्त की है, बल्कि एक महान विरासत के उत्तराधिकारी भी बने हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि वेदों की शिक्षाएं, जो पूरी दुनिया को एक घोंसले या एक घर के रूप में वर्णित करती हैं, विश्व भारती विश्वविद्यालय के मूल्यों में परिलक्षित होती हैं। उनके अनुसार, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का दुनिया भर में बहुत सम्मान किया जाता है और टैगोर आज भी दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में अध्ययन का विषय हैं। यही कारण है कि गुरुदेव एक वैश्विक नागरिक हैं। टैगोर हमेशा चाहते थे कि भारतीय छात्र दुनिया भर के विकास के साथ-साथ अपनी भारतीयता को भी बरकरार रखें।

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दरअसल, रवींद्रनाथ टैगोर के पिता महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर ने सन् 1863 में पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में 7 एकड़ में एक आश्रम की स्थापना की थी। बाद में रवींद्रनाथ टैगोर ने इस आश्रम को विश्‍वविद्यालय बनाया। इस विश्वविद्यालय में विज्ञान, कला के साथ संस्कृति की पढ़ाई शुरू हुई। सन 1901 में शांतिनिकेतन एक आवासीय विद्यालय और प्राचीन भारतीय परंपराओं और सांस्कृतिक सीमाओं से ऊपर उठते हुए मानवता की एकता के लिए आधारित कला का केंद्र था। मानवता की एकता या “विश्व भारती” को मान्यता देते हुए 1921 में शांतिनिकेतन में एक ‘विश्व विश्वविद्यालय’ की स्थापना की गई थी।

शांतिनिकेतन का संचालन सरकार की ओर से किया जाता है। इस विश्वविद्यालय से संबद्ध 10 उप-संस्थान भी हैं जो उच्च शिक्षा में अपने क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध हैं। इस विश्वविद्यालय में स्नातक, स्नातकोत्तर, और डॉक्टरेट स्‍तर की डिग्री दी जाती है। यहां दुनिया भर की किताबों की लाइब्रेरी भी है। शांतिनिकेतन की प्राकृतिक छटा देखने लायक है और यह देश-दुनिया के लिए पर्यटन का केन्‍द्र भी है।

शांतिनिकेतन

सन 2009 में वास्तुकार आभा नारायण लाम्बा और वास्तुकार मनीष चक्रवर्ती ने विश्व धरोहर स्थल के लिए शांतिनिकेतन के नामांकन पर दस्तावेज पहली बार तैयार किया था। मगर यह प्रस्ताव कई कारणों से आगे नहीं बढ़ पाया। एएसआई ने 2021 में लांबा को इस दस्तावेज को तैयार एवं अद्यतन करने के लिए नियुक्त किया था। शांति निकेतन के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि इसकी चर्चा शुरू होते ही गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर का नाम केंद्र में आ जाता था। गुरुदेव का दृष्टिकोण शांति निकेतन को रचनात्मकता के केंद्र में तब्दील कर देता था। विश्व धरोहर स्थल का दर्जा पाने के लिए कुछ निश्चित मानदंड तय किए गए हैं। ये मानदंड व्यक्तित्व या अमूर्त चीजों के मामले में लागू नहीं होते हैं।

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यूनेस्को की सलाहकार संस्था द इंटरनैशनल कौंसिल ऑन मॉन्यूमेंट्स ऐंड साइट्स ने शांति निकेतन को विश्व धरोहर स्थलों की सूची में शामिल करने की सिफारिश की थी। शांति निकेतन को धरोहर स्थल के रूप में शामिल करने पर पिछले एक दशक से विचार चल रहा था। आईसीओएमओएस यूनेस्को विश्व धरोहर केंद्र के एक सलाहकार संगठन है, जिसमें विशेषज्ञ, स्थानीय अधिकारियों, विरासत संगठनों और कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल हैं। लांबा के अनुसार: ‘शांति निकेतन अपने आप में अनोखा था और धरोहरों की सूची में इसका नाम शामिल कराना भी उतना ही चुनौतीपूर्ण था। इसका कारण यह था कि गुरुदेव रवींद्र नाथ एक दूरदर्शी कलाकार एवं विचारक थे और यूनेस्को के मानदंडों के अंतर्गत हमें मूर्त तत्वों के सांस्कृतिक मानदंडों पर भी तर्क करना था।‘

लाम्बा के अनुसार, “उन्हें यह सिद्ध करना था कि शांति निकेतन एक सांस्कृतिक परिसंपत्ति है और इसमें वास्तुकला, संरचना, निर्माण रूप एवं कलाकृति जैसे मूर्त तत्व भी हैं। लिहाजा शांति निकेतन को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता देने का आधार मूर्त हिस्से- स्थानीय सामग्री से लेकर शिल्पकला हैं। 20वीं शताब्दी में भारत उपनिवेशवाद की जंजीर में था और शांति निकेतन औपनिवेशिक वास्तुकला से ध्यान हटाकर एक नई आधुनिक पहचान तैयार कर रहा था। यह पहचान पश्चिमी देशों की तरफ नहीं बल्कि स्वदेश की चीजों का परिचय दुनिया से करा रहा था। शांति निकेतन स्थानीय सामग्री एवं तकनीक का अन्वेषण करते हुए भारत के समृद्ध अतीत से साक्षात्कार करा रहा था और पूर्व की संस्कृति की मदद से एक अखिल एशियाई आधुनिकता सृजित कर रहा था।”

शांतिनिकेतन में अमर्त्य सेन का निवास

शांति निकेतन में जापान, चीन, बाली की वास्तुकला की झलक मिलती है और इसी तरह श्रीलंका की वास्तुकला पर शांति निकेतन की छाप मिलती है। निर्माण और खुला वातावरण यहां पर आकर एक दूसरे मिल जाते हैं। इन तमाम खूबियों के बीच शांति निकेतन में नंदलाल बोस (आधुनिक भारतीय काल के प्रणेताओं में एक) और रामकिंकर बैज (मशहूर शिल्पकार एवं पेंटर) के कार्यों की भी छाप दिखती है। यह भारतीय वास्तुकला के लिए एक नई पहचान है। वैसे, शांति निकेतन को किसी एक परिभाषा में नहीं समेटा जा सकता है। यह किसी दायरे में बंधने के लिए बना भी नहीं था क्योंकि ‘वैकल्पिक शिक्षा’ का एक अनोखा विचार यहां स्थापित हुआ।

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गुरुदेव और महात्मा गांधी दोनों का मानना था कि भारत में अधिकांश लोग गांवों में रहते हैं और जब तक उनके अनुरूप एक शिक्षा व्यवस्था तैयार नहीं की जाती है तब तक यह अर्थपूर्ण नहीं रह जाएगी। गुरुदेव इस मायने में सौभाग्यशाली थे कि उनके पिता देवेंद्रनाथ ने ग्रामीण बंगाल में 1860 के दशक के उत्तरार्द्ध में एक आश्रम की स्थापना की थी। देवेंद्रनाथ ने शांति निकेतन न्यास की स्थापना की थी। इसमें विद्यालय एवं एक मेले का आयोजन करने की व्यवस्था दी गई थी। गुरुदेव ने खुली हवा में शिक्षा देने और रचनात्मकता के केंद्र जैसे प्रयोग शुरू किए और उन्हें पूरी दुनिया में प्रसिद्ध बना दिया। इस तरह शांति निकेतन ने कई पीढ़ियों को प्रेरित किया। विश्व भारती यूनिवर्सिटी की शुरुआत के साथ यह एक विश्वविद्यालय शहर बन गया।

सेंटर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेस कोलकाता की पूर्व निदेशक एवं मानद प्राध्यापक ताप्ती गुहा-ठाकुरता कहती हैं कि 1920 में स्थापित कला भवन नंदलाल बोस की अगुआई में भारत में कलात्मक आधुनिकतावाद के एक नए केंद्र के रूप में स्वतंत्रता के वर्षों में काम किया। यह बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट से अलग हो गया और एक नई विजुअल भाषा की शुरुआत की। इस भाषा ने पश्चिम के बजाय पूर्व के देशों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ, फैजपुर और हरिपुरा में आयोजित सत्रों के पवेलियन के लिए गांधी द्वारा पेंटर के रूप में चुने गए। बाद में उनकी टीम को नेहरू ने भारत के संविधान के पृष्ठों के उद्धरण के लिए आमंत्रित किया।’

ज्ञातव्य हो कि बोस 1940 में कला भवन में सत्यजित रे के शिक्षक भी थे। शहर में पले बढ़े मात्र 20 वर्ष के रे पहले शांति निकेतन जाने के लिए तैयार नहीं थे। रे हमेशा कहते थे, ‘अगर मैं शांति निकेतन नहीं गया होता तो पथेर पांचाली नहीं बनी होती।‘ शांति निकेतन आकर वे ग्रामीण बंगाल से रूबरू हुए। कोलकाता से करीब 150 किलोमीटर दूर शांति निकेतन जीवन जीने का एक जरिया हो गया था। हाल के दिनों में विश्व भारती विश्वविद्यालय विवादों में घिरा रहा है।

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