चलें खेत की ओर: ‘ऋषि कृषि’ ही भारत के 640930+ गावों से होने वाले प्रवास को रोक सकता है, लोगों को खुशहाल बना सकता है’ (भाग-5)

प्राकृतिक कृषि गाँव से पलायित होने वाले लोगों को, श्रमिकों को रोकने में बहुत मददगार होगा।

पूर्णिया।/ पटना / नई दिल्ली : भारत का ‘किसान’ समाज का एक ‘शोषित वर्ग’ है – यह बात कटु सत्य है। किसानों के नाम पर, खेती के नाम पर, पैदावारों के नाम पर देश में जिस तरह की ‘राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक’ पहलुओं की राजनीति होती है, वह दिखने में भले ‘आकर्षक’ दिखे और उसका ‘लघु गामी प्रभाव’ भी नेताओं के पक्ष में हो; लेकिन इसका दूरगामी प्रभाव बहुत ‘भयंकर’ होता है, हो रहा है – यह सर्वविदित है। अन्यथा, 21 फीसदी क्षेत्रों में वन, 24 फीसदी क्षेत्रों में बंजर भूमि और 51 फ़ीसदी क्षेत्रों में खेती होने के वावजूद आज भारत का किसान ‘त्राहिमाम’ का जीवन नहीं जीता। कुछ तो है जो ‘गलत’ है और भारत के किसानों के प्रति ‘सहोदर’ नहीं है।

लेकिन शोषित वर्ग होने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपनी किस्मत और व्यवस्था पर, व्यवस्था से जुड़े लोगों पर, अपने प्रति अत्याचारों पर दुःख करें, आंसू बहाएं। आज जिस तरह विज्ञान में परिवर्तन हो रहा है, विज्ञान आधुनिकता से ओतप्रोत हो रहा है; किसानों को प्रकृति की ओर उन्मुख होना चाहिए, प्राकृतिक कृषि की ओर अग्रसर होना चाहिए। कृषि के क्षेत्र में खाद से लेकर खाद्यान तक माफियाओं के बर्चस्व को तोड़ने के लिए अपना बाज़ार खुद बनाना चाहिए। खाद, रसायन आदि के निर्माता आज जिस कदर भारतीय कृषि व्यवस्था पर अपना अधिपत्य जमाये बैठे हैं, उसे तोड़ने का भरपूर प्रयास करनी चाहिए। क्योंकि देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर मोदी भी यही चाहते हैं कि देश का कृषक खुद बोए, खुद फसल उगाये, खुद काटे और खुद बाजार में बेचे – बिना किसी बिचौलिए के। कार्य कठिन जरूर है, लेकिन दशकों पुरानी त्रादसी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए ‘आंसू बहाना तो रोकना होगा और इसका एकमात्र उत्तर है – प्राकृतिक कृषि, ऋषि कृषि ।

हमें श्रमिकों को, खासकर महिला श्रमिकों को, अपने परिवार का हिस्सा समझना होगा

बिहार में प्राकृतिक कृषि के अग्रणी ‘समर शैल प्राकृतिक फार्म’ के संस्थापक श्री हिमकर मिश्रा का कहना है की ‘देश का किसान सबसे शोषित वर्ग में जरूर है, लेकिन आज की इस व्यवस्था में जहाँ उंगलियों पर विश्व के दरवाजे खुलते हैं, चाहे ज्ञान का हो, विज्ञान का हो, विचार का हो, व्यापार का हो; किसानों को रोना अब शोभा नहीं देता। आज समय आ गया है कि देश का प्रत्येक किसान अपने-अपने सामर्थ भर, अपनी-अपनी उपलब्ध भूमि पर प्राकृतिक कृषि करें। प्राकृतिक खेती कृषि के क्षेत्र में दशकों से आ रही त्राहिमाम स्थिति को सुखमय बना देगा। यह मेरा विश्वास है। यही कारण है कि आज विश्व के कोने-कोने में शिक्षित पलायित लोग प्राकृतिक कृषि करने अपने देश वापस आ रहे हैं।” श्री मिश्रा स्वयं भारत के एक श्रेष्ठतम कॉर्पोरेट घराने को छोड़कर आज ऋषि कृषि कर रहे हैं। आज उनका प्राकृतिक फार्म की चर्चा न केवल भारत, बल्कि विश्व के कोने-कोने में हो रही है।

मिश्रा का कहना है कि प्राकृतिक कृषि गाँव से पलायित होने वाले लोगों को, श्रमिकों को रोकने में बहुत मददगार होगा। अगर हम संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग के जनसंख्या प्रभाग द्वारा जारी इंटरनेशनल माइग्रेंट स्टॉक 2019 के एक रिपोर्ट को देखें तो पूरे विश्व में तक़रीबन 17.5 मिलियन लोग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रवास करते हैं। श्री मिश्रा कहते हैं कि “आपको जानकार आश्चर्य होगा कि इस आंकड़े में भारत अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों के शीर्ष स्रोत के रूप में उभरा है। यानी पूरे विश्व की जो प्रवासी आबादी है उसमें भारत का योगदान तक़रीबन 6.4 प्रतिशत है।”

समर शैल प्राकृतिक फार्म के श्रमिकों के बीच हिमकर मिश्रा

श्री मिश्रा आगे कहते हैं: “यह तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की बात हुई। अगर घरेलु प्रवास पर नजर डालें तो आज भारत के कुल 640930 गाँव की स्थिति ऐसी है कि गाँव में एक ओर जहाँ ‘वृद्धों’ का भरमार है, वहीँ ‘कृषि अथवा घरेलु कार्यों’ को करने के लिए ‘लोग’ नहीं हैं। यहाँ तक कि कृषि कार्यों में पहले जहाँ ‘पुरुषों’ का ‘बोलबाला’ था, आज ‘महिलाएं’ आ रही हैं। वैसे अपने परिवार को बेहतर जीवन प्रदान करने के लिए पुरुषों के सामने कोई विकल्प नहीं है, और वे नौकरी, रोजी रोटी की तलाश में अपने-अपने गाँव की सीमाओं को लांघकर करीब 3000 शहरों की ओर उन्मुख हो रहे हैं। लेकिन प्राकृतिक कृषि इसे रोक सकती है।”

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बहरहाल, अगर हम पिछले वर्षों की जनगणना के आंकड़ों को देखते हैं, खासकर 2001 और 2011 की, जो 2000 के दशक की शुरुआत में आर्थिक विकास द्वारा लाए गए प्रवासन पैटर्न में बदलाव का संकेत देते हैं। काम के लिए शहरी क्षेत्रों में प्रवास की वार्षिक वृद्धि दर 1990 से 2001 (2.4% प्रति वर्ष) की तुलना में 2001 और 2011 के बीच दोगुनी (4.5% प्रति वर्ष) हो गई है।भारतीय रेलवे के आंकड़ों के आधार पर आंतरिक श्रमिक प्रवासियों पर सबसे पहला सांख्यिकी, वर्ष 2011 और 2016 के बीच हर साल राज्यों के बीच औसतन 9 मिलियन लोगों का प्रवाह दर्ज करता है। वैसे भारत सरकार के द्वारा प्रवासन की निरंतर समस्याओं के समाधान के लिए 2015 में “प्रवासन पर कार्य समूह” का गठन किया था। लेकिन उस समूह का क्या हश्र हुआ, यह कोई नहीं जानता।


विश्वास और बंधन – समर शैल प्राकृतिक फार्म के श्री हिमकर मिश्रा और महिला श्रमिक

कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि 2011 का एनएसओ आंकड़ा महिला प्रवासियों की उच्च दर की रिपोर्ट करता है, जो पुरुष प्रवासियों द्वारा गठित 10.7% की तुलना में कुल आंतरिक प्रवासियों का 47.9% है। आँकड़े बताते हैं कि कुल प्रवासन के 71% के पीछे का कारण ‘विवाह’ है, जिसमें महिलाएँ 86.8% हैं। यह ‘स्वाभाविक’ भी है। आम तौर पर रोजी-रोटी और नियोजन की तलाश में जब ‘युवक’ / पुरुष वर्ग गाँव से बाहर निकलते हैं, विवाहोपरांत अपनी पत्नियों को भी उसी स्थान पर ले जाते हैं, जहाँ वे हैं। यह आम तौर पर सड़क पर रिक्सा-रेडी चलने वालों से लेकर सरकार, गैर-सरकारी-अर्ध-सरकारी-निजी सभी क्षेत्रों में कार्य करने वाले पुरुषों पर लौ होता है। शेष जो महिलाएं गाँव में रहती है – वृद्ध, बच्चे और विधवा – वे कृषि क्षेत्र में कार्य करते हैं।

श्री मिश्रा कहते हैं: “कृषि में महिलाकरण में वृद्धि मुख्य रूप से पुरुषों द्वारा बढ़ते ग्रामीण-शहरी प्रवास, महिला-प्रमुख परिवारों के बढ़ने और नकदी फसलों के उत्पादन में वृद्धि के कारण है, जो प्रकृति में श्रम प्रधान हैं। महिलाएं कृषि और गैर-कृषि गतिविधियों दोनों में महत्वपूर्ण कार्य करती हैं और इस क्षेत्र में उनकी भागीदारी बढ़ रही है। देश में असंतुलित होती इस व्यवस्था का एकमात्र निदान है ‘प्राकृतिक कृषि’ जो न केवल देश के लोगों को, पुरुषों को, महिलाओं को उनके श्रमों से अधिक लाभ देगा, बल्कि देश को भी उन्नतशील बनाएगा। यह अलग बात है कि भारत का लगभग 80 फीसदी से अधिक किसान आज भी महान कृषि दार्शनिक मासानोबू फुकूओका को या उनके ऊपर लिखी पुस्तक ‘द वन स्ट्रा रेवोल्यूशन’ का नाम भी सुना होगा।”

प्राकृतिक फार्म – उपज और कृषक

खैर। आपने कभी सोचा कि 1.27+ अरब की आबादी के साथ भारत दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। करीब 3.288 मिलियन वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ यह दुनिया का सातवां सबसे बड़ा देश है। इसकी 7,500 किलोमीटर से अधिक लंबी तटरेखा है। भारत एक विविधतापूर्ण देश है जहाँ 22 से अधिक प्रमुख भाषाएँ और 415 बोलियाँ बोली जाती हैं। भारत में दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला – उत्तर में हिमालय, पश्चिम में थार रेगिस्तान, पूर्व में गंगा का डेल्टा और दक्षिण में दक्कन पठार के साथ – है। भारत में कृषि-पारिस्थितिकी विविधता का घर है। हमारा देश दूध, दालों और जूट का दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। यह चावल, गेहूं, गन्ना, मूंगफली, सब्जियां, फल और कपास का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। यह मसालों, मछली, मुर्गी पालन, पशुधन और वृक्षारोपण फसलों के अग्रणी उत्पादकों में से एक है। करीब 2.1 ट्रिलियन डॉलर मूल्य वाला भारत अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

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तब तो आप यह भी नहीं सोचे होंगे कि भारत की जलवायु दक्षिण में आर्द्र और शुष्क उष्णकटिबंधीय से लेकर उत्तरी इलाकों में शीतोष्ण अल्पाइन तक भिन्न है और इसमें पारिस्थितिकी तंत्र की एक विशाल विविधता है। करीब 34 वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट में से चार और 15 डब्ल्यूडब्ल्यूएफ वैश्विक 200 पर्यावरण-क्षेत्र पूरी तरह या आंशिक रूप से भारत में आते हैं। दुनिया के भूमि क्षेत्र का केवल 2.4 प्रतिशत हिस्सा होने के कारण, भारत में 45,000 से अधिक पौधों और 91,000 जानवरों की प्रजातियों सहित सभी दर्ज प्रजातियों में से लगभग आठ प्रतिशत शामिल हैं।

विशेषज्ञ तो यह भी कहते हैं कि अपने संबद्ध क्षेत्रों के साथ, कृषि, भारत में आजीविका का सबसे बड़ा स्रोत है। इसके 70 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं, जिनमें 82 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत हैं। भारत दुनिया में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक (वैश्विक उत्पादन का 25%), उपभोक्ता (विश्व खपत का 27%) और आयातक (14%) है। भारत में 190+ मिलियन से अधिक मवेशी आबादी है। खाद्यानों की बात अगर नहीं भी करें तो भारत विश्व में फलों और सब्जियों के कुल उत्पादन का तक़रीबन 10.9% और 8.6% उत्पादन करता है।

आकंड़े यह भी कहते हैं कि भारत में करीब 146.45 मिलियन ‘परिचालन जोत’ है। प्रधान मंत्री-किसान सम्मान निधि (पीएम-किसान) योजना में 110.94 मिलियन लाभार्थी निबंधित हैं जिन्हें अप्रैल-जुलाई 2021 के लिए 2,000 रुपये की आय सहायता किस्त मिली है। राष्ट्रीय सांख्यिकी का मानना है कि भारत में तक़रीबन 93.09 मिलियन ‘कृषि परिवार’ हैं, यानी देश में आधिकारिक तौर पर 90 मिलियन से अधिक से लेकर लगभग 150 मिलियन तक किसान हैं। भारत नॉमिनल जीडीपी के हिसाब से दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) के हिसाब से तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

समर शैल प्राकृतिक फार्म का एक विहंगम दृश्य

लेकिन, भारत में अभी भी कई चिंताएँ हैं । जैसे-जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था में विविधता आई है और विकास हुआ है, सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 1951 से 2011 तक लगातार कम हुआ है। उत्पादन में खाद्य पर्याप्तता हासिल करने के बावजूद, भारत अभी भी दुनिया के भूखे लोगों का एक चौथाई हिस्सा है और 190 मिलियन से अधिक कुपोषित लोगों का घर है। ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट के अनुसार, भारत 5 साल से कम उम्र में स्टंटिंग के मामले में 132 देशों में से 114वें स्थान पर है और 5 साल से कम उम्र में शारीरिक कमजोरी के मामले में 130 देशों में से 120वें स्थान पर है और एनीमिया की व्यापकता के मामले में 185 देशों में से 170वें स्थान पर है। देश में गर्भवती महिलाओं समेत 50 प्रतिशत महिलाएं और 60 प्रतिशत बच्चे एनीमिया से प्रभावित हैं।

हालाँकि भारत में कृषि ने अनाज में आत्मनिर्भरता हासिल कर रही है, लेकिन उत्पादन संसाधन गहन, अनाज केंद्रित और क्षेत्रीय पक्षपातपूर्ण है। देश के जल संसाधनों पर बढ़ते तनाव के कारण निश्चित रूप से नीतियों के पुनर्गठन और पुनर्विचार की आवश्यकता होगी। मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण भी देश में कृषि के लिए बड़ा खतरा है। कृषि के आसपास के सामाजिक पहलुओं में भी बदलते रुझान देखे जा रहे हैं। कृषि में महिलाकरण में वृद्धि मुख्य रूप से पुरुषों द्वारा बढ़ते ग्रामीण-शहरी प्रवास, महिला-प्रमुख परिवारों के बढ़ने और नकदी फसलों के उत्पादन में वृद्धि के कारण है, जो प्रकृति में श्रम प्रधान हैं। महिलाएं कृषि और गैर-कृषि गतिविधियों दोनों में महत्वपूर्ण कार्य करती हैं और इस क्षेत्र में उनकी भागीदारी बढ़ रही है, लेकिन उनके काम को उनके घरेलू काम के विस्तार के रूप में माना जाता है, और घरेलू जिम्मेदारियों का दोहरा बोझ बढ़ जाता है।

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प्राकृतिक कृषि के मामले में श्री मिश्रा कहते हैं कि “कोई भी नई विधि विकसित करने का सामान्य तरीका यही है कि पूछो, ‘क्यों न इसे आजमाया जाए?’ या ‘क्यों न उसे परखा जाए?’ हमारी कोशिश है कि खेती का एक ऐसा सुखद प्राकृतिक तरीका इजाद किया जाय जो खेती के काम को कठिन की बजाए, आसान बनाए। मैं उस दार्शनिक से बहुत प्रभावित हुआ और अंततः अपने पुस्तैनी जमीन पर प्राकृतिक कृषि को अनुवादित किया। हमें जोतने, रासायनिक खाद देने या कीटनाशकों का उपयोग करने की कोई जरूरत नहीं होती है । यदि आप ऐसा करने पर वाकई उतर आते हैं तो आपको शायद ही फिर कोई अन्य कृषि-विधियों की जरूरत रह जाती है।”

आप इसे दूसरे शब्दों में इस कदर देखें: “डाक्टरों और दवाओं की जरूरत तभी पड़ती है, जब लोग ‘बीमार वातावरण’ पैदा करते हैं। औपचारिक शिक्षा की वैसे मानव को कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन जब मानव ऐसी स्थिति का निर्माण कर देता है, तो उसको खुद को जीने के लिए शिक्षित करना ही पड़ता है। इसी तरह, बच्चे को संगीत की देन प्राप्त है यह तभी कहा जा सकता है, जब उस बच्चे का मन अपने आप संगीत से भर उठता है। लगभग हर व्यक्ति यह तो मानता है कि ‘कुदरत’ एक अच्छी चीज है। लेकिन ऐसे लोग कम ही हैं जो प्राकृतिक और अप्राकृतिक के बीच मौजूद फर्क को समझ सकें।

यदि एक मात्र नई कली को किसी फलदार वृक्ष में कैंची से काटकर अलग कर दिया जाए तो उससे एक ऐसी अव्यवस्था पैदा हो सकती है जिसे फिर दुबारा ठीक नहीं किया जा सकता। अपने स्वाभाविक आकार में बढ़ते हुए वृक्ष की शाखाएं तने से, जो बारी-बारी से निकलती (फूटती) है, उससे उन्हें सूर्य का प्रकाश एक-समान मात्रा में मिलता है। यदि इस क्रम को भंग कर दिया जाए तो शाखाओं में ‘टकराव’ पैदा हो जाता है।

फार्म का निरीक्षण करते

प्राकृतिक खेती, कृषि की प्राचीन पद्धति है। यह भूमि प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखती है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता है, बल्कि प्रकृति में आसानी से उपलब्ध होने वाले प्राकृतिक तत्वों, तथा जीवाणुओं के उपयोग से खेती की जाती है | यह पद्धति पर्यावरण के अनुकूल है तथा फसलों की लागत कम करने में कारगर है | प्राकृतिक खेती में जीवामृत, घन जीवामृत एवं बीजामृत का उपयोग पौधों को पोषक तत्व प्रदान करने के लिए किया जाता है |

प्रकृति का एक और स्वरुप: श्री हिमकर मिश्रा (नीचे) और पिता श्री समर मिश्रा कुर्सी पर

प्राकृतिक खेती भारतीय परंपरा में निहित एक रसायन-मुक्त कृषि प्रणाली है जो पारिस्थितिकी, संसाधन पुनर्चक्रण और खेत पर संसाधन अनुकूलन की आधुनिक समझ से समृद्ध है। इसे कृषि पारिस्थितिकी आधारित विविध कृषि प्रणाली माना जाता है जो फसलों, पेड़ों और पशुधन को कार्यात्मक जैव विविधता के साथ एकीकृत करती है। यह काफी हद तक ऑन-फार्म बायोमास रीसाइक्लिंग पर आधारित है, जिसमें बायोमास मल्चिंग, ऑन-फार्म गाय के गोबर-मूत्र फॉर्मूलेशन के उपयोग पर प्रमुख जोर दिया गया है; मिट्टी के वातन को बनाए रखना और सभी सिंथेटिक रासायनिक आदानों का बहिष्कार। प्राकृतिक खेती से खरीदे गए इनपुट पर निर्भरता कम होने की उम्मीद है। इसे रोजगार बढ़ाने और ग्रामीण विकास की गुंजाइश के साथ एक लागत प्रभावी कृषि पद्धति माना जाता है।

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