यह बिहार है : अब ‘सत्तू’ और ‘लिट्टी-चोखा’ खाकर तो कोई खिलाड़ी तो स्वर्ण पदक नहीं ला सकता

नबाब मोहम्मद मंसूर अली खान पटौदी

पटना / नई दिल्ली : खेल की दुनिया को बढ़ावा देने के लिए बिहार प्रदेश में जो भी नेता, अभिनेता, अधिकारी, पदाधिकारी हैं, वे ‘स्वहित’ के लिए इतने अधिक सचेष्ट हैं कि खेल और खिलाडी उपेक्षित हो जाता है। अब ‘सत्तू’ और ‘लिट्टी-चोखा’ खाकर तो कोई खिलाड़ी तो स्वर्ण पदक नहीं ला सकता, प्रदेश का नाम रौशन नहीं कर सकता। छोड़िये इन बातों को, इस वेदना-संवेदना को नहीं समझेंगे। आप चाहे अभियंता हो या नौवां का छात्र।

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या नहीं हुई थी। देश में सुरक्षा व्यवस्था पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा था। वर्दीधारियों को शक की निगाहों से नहीं देखा जाता था। एक खुला माहौल था। खेल को भी खेल की भावना से ही खेला जाता था। हाँ, खेल में राजनीति का प्रवेश हो चुका था, लेकिन दृष्टि से परे थे। खेल के क्षेत्र में जो भी महारथी थे, वे अपने से कनिष्ठों की एक दूसरी, तीसरी पीढ़ी बनाने में तनिक भी कोताही नहीं करते थे, ताकि आने वाले समय में खेल की दुनिया में प्रदेश से प्रतिनिधित्व कम नहीं हो। हां, अगर कोई नेता का बेटा, अधिकारी का बेटा होता था, रिस्तेदार होता था, तो स्वाभाविक है उसे भी आगे बढ़ने, बढ़ाने का अधिकार वे रखते थे।

पटना शहर की कोई भी गली, सड़क से सफ़ेद वस्त्र (पैंट -कमीज) पहने छोटे-छोटे बच्चे, जवान खिलाड़ी अपने कन्धों पर बड़े-बड़े बैग लिए पटना विश्वविद्यालय, मगध विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों के खेल के मैदान की ओर, गाँधी मैदान की ओर, मोइनुल हक़ स्टेडियम की ओर अग्रसर रहते थे। शरीर और वस्त्र पसीने से लतपत होता था। लेकिन चेहरे पर कोई मलिनता नहीं दीखता था। सबों के आत्म विश्वास उनके चेहरे पर दिखता था। सबों को भरोसा था कि एक दिन वे भी अपने जिले के लिए, प्रदेश के लिए, देश के लिए खेलेंगे।

अस्सी के दशक का प्रारंभिक वर्ष था। मैं इण्डियन नेशन अखबार में कार्य करता था। पद था अनुवादक का और पत्रकार बनने के लिए अलग से मेहनत कर रहा था, सिख रहा था। विश्वकप भी नहीं हुआ था। वैसे भारतीय क्रिकेट जगत का लगभग सभी बेहतरीन खिलाड़ी पटना आये हैं, मोइनुल हक़ स्टेडियम में खेले भी हैं। लेकिन खेल के जगत में पटना या बिहार से जो पहल होनी चाहिए थी, वह नहीं हो सकी और खेल राजनीतिक अखाड़े में नेताओं के कारण, अधिकारियों के कारण जमीन के नीचे धंसता गया। जो दुखद है।

बिहार में प्रत्येक गाँव से एक-एक नेता जरूर बनते हैं। सभी सरकारी नौकरी में जाने को सज्ज होने की अनवरत कोशिश करते हैं। सभी भारतीय प्रशासनिक सेवा से राजस्व सेवा की कुर्सियों पर बैठने के लिए दंड-बैठकी करते हैं। लेकिन खेल की दुनिया में कोई नहीं आना चाहता है। वजह साफ़ है कि खेल की दुनिया को बढ़ावा देने के लिए प्रदेश में जो भी नेता, अभिनेता, अधिकारी, पदाधिकारी हैं, वे ‘स्वहित’ के लिए इतने अधिक सचेष्ट हैं कि खेल और खिलाडी उपेक्षित हो जाता है। अब ‘सत्तू’ और ‘लिट्टी-चोखा’ खाकर तो कोई खिलाड़ी तो स्वर्ण पदक नहीं ला सकता, प्रदेश का नाम रौशन नहीं कर सकता। छोड़िये इन बातों को, इस वेदना-संवेदना को नहीं समझेंगे।

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उस दिन कपिल देव और लाला मोहिंदर अमरनाथ मोइनुल हक़ स्टेडियम के प्रवेश के साथ बाएं हाथ पवेलियन की कुर्सी पर बैठे थे। बात अस्सी के दशक के पूर्वार्ध की है। बाएं हाथ स्टेडियम में जो बैठने का स्थान था उसमें सीढ़ियों की कतार में कोई चौथी पंक्ति थी और कपिल देव तथा मोहिंदर अमरनाथ दोनों मैच का आनंद ले रहे थे। उन दिनों आम तौर पर ‘इन्विटेशन मैच’ होता था जिसका आयोजन बिहार के तत्कालीन मंत्री श्री ललितेश्वर प्रसाद शाही के पुत्र श्री हेमंत शाही करते थे।

हेमंत शाही पटना कालेज के छात्र थे। उनके पास पीले रंग का एक स्कूटर था जो आम तौर पर अशोक राजपथ पर ननकू होटल-बनारसी पान की दूकान के सामने अथवा कमाल बाइंडिंग-ग्रीन स्टोर के सामने खड़ा होता था। हेमंत शाही के बारे में उनके प्रतिद्वंदी जो भी कहें, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अस्सी के दशक में उन्होंने प्रदेश में खेल, खासकर क्रिकेट को बढ़ावा देने के लिए जितना किया, आज तक कोई नहीं कर सका।

कुछ देर बाद मोहिंदर अमरनाथ उठकर मैदान के बाउंड्री की ओर निकले ताकि खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाया जाय। साथ ही, मैदान में उपस्थित पटना के दर्शकों का अभिनन्दन भी किया जाय। कपिलदेव भी उठने वाले ही थे तभी उन्हें पटना के अख़बारों – आर्यावर्त, इंडियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप – के रिपोर्टर घेर लिए। मैं भी था। कुछ प्रश्नोत्तर होने लगा। कपिल देव मुस्कुराकर सभी प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे।

उस ज़माने में वहां उपस्थित दी इंडियन नेशन के रिपोर्टर श्री सुधाकर झा कहते हैं कि “उस प्रश्नोत्तर काल में एक पत्रकार (श्री महेंद्र जी) कपिल देव से पूछते हैं कि उनके बैट का धार कमजोर हो गया है।” जिस अंदाज से वे पूछे थे, उसी अंदाज में कपिल देव ने भी जबाब दिए और कहे कि “जब खिलाड़ियों को खाना ही नहीं मिलेगा तो बैट में धार कहाँ से तेज होगा।”

कुछ क्षण के लिए सभी पत्रकार चुप हो गए। वजह था – कपिल देव का जबाब तत्कालीन व्यवस्था, खासकर खेल और खिलाड़ियों के प्रति सरकार और प्रशासन की रवैय्ये पर तीखी प्रहार था। वैसे आज भी स्थिति बेहतर नहीं है और इसके लिए जिला स्तर से लेकर दिल्ली सल्तनत तक, खेल के विकास के लिए जो मंत्री-अधिकारी-विभाग जबाबदेह है, उनका उदासीन व्यवहार और खेल-खिलाड़ियों का राजनीतिकरण। एक बात कपिल देव उस दिन भी कहे थे की भारत ही नहीं, विश्व क्रिकेट की दुनिया में जहाँ तक ‘फ़ास्ट बौलिंग’ का सवाल है, यह ‘खान’ लोग भी निर्धारित करेंगे।

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उस घटना के कोई दस वर्ष बाद जब पटना में दलीप ट्रॉफी का मैच हुआ था उस मैच में कपिल देव, अमरनाथ, रमन लाम्बा, किरमानी, कीर्ति आज़ाद, चेतन शर्मा, सुनील गावस्कर, इमरान खान आदि जैसे दिग्गज खिलाडी आये थे। यह बात कोई नब्बे के दशक के शुरूआती वर्षों की है।

अब तक प्रदेश में लालू प्रसाद यादव का आगमन मुख्यमंत्री कार्यालय में हो गया था और कपिल देव के नेतृत्व में भारत ‘विश्व कप’ विजेता भी हो गया था। लेकिन लालू यादव और तत्कालीन अधिकारियों की ‘चापलूसी सोच के कारण’, भारत के ऐसे क्रिकेट धनुर्धरों को प्रदेश में ‘वह सम्मान नहीं मिल सका, जो मिलना चाहिए था।’ यह तभी संभव हो सका जब तत्कालीन पत्रकार और खेल जगत के बारे में लिखने वाले धनुर्धर दीपक कोचगावे का पहल हुआ। दीपक कोचगावे उन दिनों आज अखबार के पत्रकार थे। खेल की दुनिया में लिखने वाले एक हस्ताक्षर थे और साथ ही, कीर्ति झा आज़ाद के घनिष्ठ मित्र भी थे।

उन दिनों दलीप ट्रॉफी का नार्थ-सेंट्रल जोन का मैच हो रहा था। दीपक कोचगावे खिलाड़ियों की स्थिति को देखकर तत्काल लालू प्रसाद यादव से मिले। मिलना इसलिए जरुरी था क्योंकि लालू के समय जितने भी अधिकारी या मंत्री थे, उनकी सोच लालू के ठेंघुने से ऊपर नहीं होता था। चापलूसी अपने उत्कर्ष पर था। कोई भी कनिष्ठ मंत्री हों या वरिष्ठ अधिकारी हिम्मत नहीं रखते थे कि वे लालू के आदेश के बिना कोई कदम उठा सकें। ड्रेसिंग रूप में खिलाड़ियों की स्थिति देखकर कोचगावे लालू को बताये कि भारत के जिन खिलाड़ियों ने पुरे विश्व में भारत का नाम ऊँचा किया है, बिहार में उसके साथ ऐसा वर्ताव?

सभी खिलाडी ‘चाणक्य होटल’ में रुके थे। लालू प्रसाद तत्काल एस डी शर्मा, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी थे, बुलाये और उन्हें सभी खिलाड़ियों को रात्रि भोज पर बुलाया। लालू और अधिकारियों की नीची सोच उस समय उत्कर्ष पर दिखा जब रात में उन खिलाड़ियों को लाने के लिए चाणक्य होटल एक ऐसी बस भेजी गयी जो सवारी ढ़ोने वाली होती है और जिसके छत पर सामान लादने, बांधने का स्थान होता है। आज इन शब्दों को लिखते समय प्रदेश की राजनीतिक व्यवस्था, अधिकारियों की सोच पर हंसी आती है और घृणा भी । इतना ही नहीं, लालू यादव अपने सभी बाल-बच्चों के साथ पंक्तिबद्ध हो गए – फोटो के लिए ताकि उन खिलाड़ियों के साथ उनके परिवार के लोगों की तस्वीर हो। ओह !!! दुखद लगता है सोच को सोचकर ।

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इतना ही नहीं। शायद 1995 का वर्ष था और लालू मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठे थे। इस विषय पर दीपक कोचगावे से पूछे तो कहते हैं: वर्ल्ड कप के लिए मैच हो रहा था। मैच ज़िम्बावे और कीनिया के बीच था। यह मैच तीन-दिवसीय था। इस मैच के पर्वेक्षक थे नबाब मोहम्मद मंसूर अली खान पटौदी। मैच मोइनुल हक़ स्टेडियम में हो रहा था। दुर्भागयवश बारिस हो गई। इस स्थिति ऐसे निबटने के लिए लालू अपना माथा लगा दिए। हेलीकॉप्टर के पंखे की हवा से मैदान को सुखाना। इस चीज को देखकर पटौदी आग बबूला हो गए और लालू दुबक गए। आख़िर पटौदी ‘पटौदी’ थे। खैर मैच हुआ।”

उस खेल के बाद खिलाड़ियों को कलकत्ता जाना था। दीपक कोचगावे फिर लालू के कान में फुसफुसाए और कहे कि सभी विश्व कप के खिलाड़ी हैं। आप इन्हे ऐसे ही भेज रहे हैं। आप नहीं सोचते कि इन खिलाड़ियों का सम्मान होना चाहिए। तत्काल मुन्ना मुस्ताक को बुलाया गया। मुन्ना मुस्ताक उस समय खेल मंत्री थे। उन्हें आदेश दिया गया कि कलकत्ता में एक मीटिंग किया जाय और सभी खिलाड़ियों को हवाई जहाँ से कलकत्ता ले जाया जाय। सात-यात्रियों के बैठने वाले हेलीकॉप्टर से सभी खिलाड़ी कलकत्ता गए। इससे पहले सचिवालय हॉल में एक आयोजन कर खिलाड़ियों को सम्मानित किया गया। कपिल देव को ‘गोल्ड मैडल’ दिया गया। साथ ही, बिहार सरकार के तरफ से कीर्ति झा आज़ाद को ‘जमींन’ आवंटित किया गया। काफी अखबारबाजी हुआ। लालू सभी अख़बारों के पन्नों पर सुर्ख़ियों में रहे। आज तीस वर्ष हो रहे हैं कीर्ति आज़ाद की जमीन कागज से जमीन पर नहीं आई।

इन तमाम बातों का जिक्र आज मुद्दत बात इसलिए कर रहा हूँ कि बिहार से जब कोई बच्चा अथवा बच्ची अपनी कूबत से आगे बढ़ता है/बढ़ती है, चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो या खेल का या अन्य – राष्ट्रीय/अंतराष्ट्रीय स्तर पर जब वह कीर्तिमान स्थापित करता हैं, पूरे प्रदेश के लोग, अधिकारी, मंत्री, संत्री, पदाधिकारी चिल्लाने में तनिक भी कोताही नहीं करते कि “बिहारी है-बिहारी है, भले उसका जन्म कहीं हुआ हो” – लेकिन अपने-अपने गरेवान में झांककर यह नहीं देखते कि बिहार के लोग, समाज, सरकार, व्यवस्था उसे क्या दिया ? उसने अपनी मेहनत से इतिहास लिखा और लोग उस इतिहास के पन्नों पर अपना-अपना नाम घुसाने लगते हैं – दुखद है।

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