आनंद मोहन का बाहर निकलना: मिथिला-कोशी क्षेत्र के ‘स्वयंभू नेताओं’ को मुंह फुल्ली, पेट फुल्ली; नब्बे के दशक की गलती सुधार का अभियान शीघ्र 

लवली आनंद - आनंद मोहन: हाथ की रेखाएं कुछ कह रही हैं

पटना / नई दिल्ली : आनंद मोहन सिंह (राजपूत) अब कारावास के बाहर हैं और लालू प्रसाद यादव भी। आनंद मोहन शरीर से ‘दुरुस्त’ हैं, जबकि लालू यादव शरीर से कमजोर हो गए हैं । जिस गलती को आनंद मोहन सन नब्बे के दशक के उत्तरार्ध लालू यादव के साथ ‘समझौता’ कर अपने पैर पर न केवल ‘कुल्हाड़ी’ मारे थे, बल्कि बार-बार, बारम्बार पैर को कुल्हाड़ी पर पटके थे; कोई पच्चीस साल बाद उनके राजनीतिक गुरु और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की बात सच होने जा रही है, ऐसा लगता है। 

“मत रोको उसे आने वाले दिनों में वही विकल्प बनेगा, लिख लो।” इस बात का जिक्र चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बनने के बाद गुफ्तगू में धनबाद के कोयला माफ़िया सूर्यदेव सिंह (राजपूत) के घर कहा था। साथ ही इस बात को भी स्वीकारा था कि ‘एक कोयला माफिया है, यह उसकी व्यावसायिक पेशा है। एक बाहुबली है, वह उस युवक की ताकत है।” दशकों बाद बिहार के मधेपुरा क्षेत्र के ‘तत्कालीन बाहुबली’ आनंद मोहन कारावास से बाहर हो गए। अपने ऐतिहासिक फैसले में राजनीतिक दृष्टि के मद्दे नजर सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि दो-साल और उससे अधिक की सजा भोक्ता सजा पूरी करने के बाद भी अगली छः साल तक चुनाव नहीं लड़ सकता। लेकिन इस बात पर व्याख्या आने वाले समय में होगी। 

मधेपुरा के तत्कालीन राजनेता आंनद मोहन ने 5 दिसंबर 1994 को मुजफ्फरपुर में गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या कर दी थी। आनंद मोहन उक्त अधिकारी को उनकी आधिकारिक कार से बाहर खींच लिया गया और पीट-पीट कर मार डाला था। सन 1985 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी जी कृष्णैया वर्तमान तेलंगाना के महबूब नगर के रहने वाले थे। आनंद मोहन की रिहाई के तत्काल बाद जी कृष्णैया की विधवा ‘आश्चर्य’ व्यक्त की। आश्चर्य व्यक्त करना स्वाभाविक भी है। जी कृष्णैया की मृत्यु के बाद आनंद मोहन भले कारावास में हों, उनकी पत्नी श्रीमती लवली आनंद भारत के संसद में थी और बाद में पुत्र बिहार विधानसभा में विधायक। लेकिन जी कृष्णैया के बारे में, उनके परिवार के बारे में न तो व्यवस्था सोची और न ही राजनीतिक पार्टियों के नेता चाहे पटना के हों या दिल्ली में बैठे हों। वैसे चेतन आनंद यह कहते हैं कि ‘उस घटना के बाद दोनों परिवार काफी कुछ सहा है।’ 

उस हत्याकांड में निचली अदालत ने 2007 में आनंद मोहन को मौत की सजा सुनाई थी। एक साल बाद पटना उच्च न्यायालय ने सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था। आनंद मोहन पटना उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। लेकिन कोई राहत नहीं मिली। वे 2007 से सहरसा जेल में थे। लेकिन उनकी पत्नी लवली आनंद लोकसभा सांसद बनी। समय का तकाजा देखिए। जिस राष्ट्रीय जनता दल के शीर्षस्थ नेता, जो बाद में ऐतिहासिक चारा घोटाला कांड में पहले आरोपी बने और फिर सजाभोक्ता के साथ-साथ मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर भी हुए, आनंद मोहन को कभी हाथ नहीं पकड़े, मदद नहीं किये। आज आनंद मोहन के पुत्र चेतन आनंद बिहार के शिवहर से राष्ट्रीय जनता दल के विधायक हैं। 

लवली आनंद – आनंद मोहन: नब्बे की गलती सुधारने का संकल्प

विगत दिनों बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की देखरेख में प्रदेश सरकार द्वारा जेल मैनुअल के नियमों में संशोधन किया गया और एक आधिकारिक अधिसूचना के आधार पर आनंद मोहन सहित 27 आपराधिक-कैदियों को जो 14 साल या 20 साल कारावास की सजा काट चुके, रिहा करने का आदेश दिया गया। रिहाई से पहले 15 दिनों तक वे ‘पे-रोल’ पर थे। 

बहरहाल, पटना की राजनीतिक गलियारे से लेकर दिल्ली की बिहार भवन, बिहार निवास, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग स्थित भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में इस बात की फुसफुसाहट तीव्र हो रही है कि बिहार में कारावास अधिनियम को बदलना, आनंद मोहन का कारावास से बाहर निकलना, सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री की कोई गहन राजनीतिक अध्ययन का परिणाम तो नहीं है। कहीं नीतीश कुमार का यह निर्णय ‘मानसिक चिंतन बैठक का परिणाम तो नहीं है। वैसे विगत दशकों में आनंद मोहन को पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए ‘पेरोल’ आदेश मिला था। लेकिन यह प्रदेश के आला राजनेता के इशारे के बिना संभव नहीं है। अगर वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को देखा जाए तो आने वाले दिनों में नीतीश कुमार एक ओर जहाँ भारतीय जनता पार्टी को आगामी चुनाव में संख्या पर ‘विराम’ ही नहीं, ‘कटौती’ करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे; इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वे प्रदेश के ‘अशिक्षित’ नेताओं के गठबंधन वाली सरकार से अलग कोई रास्ता निकालें। 

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दूसरी ओर, मिथिला-कोशी क्षेत्र के ‘स्वयंभू’  राजनेताओं के चेहरे पर ‘सिकन’ दिखने लगा है आनंद मोहन के बाहर आने से । वजह भी है – सभी मौसमी बरसात (अवसरवादी) में नेता का स्वरुप हुए और देखते ही देखते अपने-अपने क्षत्रों के, जाति के स्वयंभू नेता हो गया। इस दृष्टि से तथाकथित रूप से ‘कोशी क्षेत्र’ के, ‘मिथिला क्षेत्र’ के नेताओं के लिए आनंद मोहन का बाहर निकलना उनकी राजनीतिक जीवन के लिए शुभ संकेत नहीं है। आनंद मोहन चुनाव लड़ सकते हैं अथवा नहीं, यह तो प्रदेश और देश के विधि-विशेषज्ञ कहेंगे, भारत का चुनाव आयोग कहेगा, देश का सर्वोच्च न्यायालय निर्धारित करेगा; लेकिन इतना साफ़ दिख रहा है कि ‘अगर लालू प्रसाद यादव स्वयं को, परिवार को राजनीतिक रूप से जीवित रहने के लिए अपने अशिक्षित पत्नी, पुत्रों के पीछे खड़े हो सकते हैं, फिर आनंद मोहन अपने परिवार, अपने समाज, अपने शुभचिंतकों की भलाई के लिए क्या नहीं कर सकते।

वैसे भी लालू प्रसाद यादव ‘स्वास्थ्य’ की दृष्टि से कमजोर हो रहे हैं और लालू प्रसाद के बाद परिवार और पार्टी में उतनी कूबत नहीं है कि वे पार्टी को राजनीतिक रूप से जीवित रह सकें। वैसे भी कभी देश का राजनीतिक गढ़, राजनीतिक मापदंड का पैमाना मने जाने वाले बिहार में कांग्रेस पार्टी का अधिपत्य था, विधान सभा से संसद तक तूती बोली जाती थी – आज क्या स्थिति हैं, सर्वविदित हैं।स्वाभाविक है कोई हारेगा तभी तो कोई जीतेगा और इसका निर्णय आने वाला समय करने वाला है। 

अब कुछ अच्छा हो जाए, कुछ मीठा हो जाए : लवली आनंद – आनंद मोहन और उनके चाहने वाले

आनंद मोहन एक महान स्वतंत्रता सेनानी राम बहादुर सिंह के परिवार से है। इनके परिवार के कई लोगो ने आजादी के लड़ाई में भाग लिया। उन्होंने आपातकाल के दौरान जे.पी. आन्दोलन में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। आपातकाल में उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। उन्हे दो वर्ष तक जेल में रहना पड़ा। मैथिली को अष्टम अनुसूची में शामिल करने के पीछे उनकी कड़ी मेहनत रंग लाई। कोसी की मिट्टी पर पैदा लिए आनंद मोहन क्रांति के अग्रदूत और संघर्ष के पर्याय हैं। सत्ता के मुखर विरोध के कारण उन्होंने अपनी जवानी का अधिकांश हिस्सा जेल में बिताया है। 

प्रदेश के राजनीतिक विशेषज्ञ अधिक व्याख्या करेंगे, लेकिन इस बात से इंकार कोई नहीं कर सकता कि एक ओर आनंद मोहन सिंह अपने प्रारम्भिक जीवन काल में जहाँ चंद्रशेखर सिंह से बहुत अधिक प्रभावित रहे, वहीँ सन 1998 में लालू प्रसाद यादव से ‘समझौता’ कर अपने पेअर पर ‘कुल्हाड़ी’ मारे थे । नब्बे के दशक के मध्य में आनंद मोहन प्रदेश के एक उभरते और भविष्य के मुख्यमंत्री दिख रहे थे। स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर समाजवादी नेता परमेश्वर कुंवर उनके राजनीतिक गुरु थे। 

आनंद मोहन सिंह ने 1980 में क्रांतिकारी समाजवादी सेना का गठन किया लेकिन लोकसभा चुनाव हार गये। सन 1990 में बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल से विजयी हुए। आनंद मोहन ने 1993 में बिहार पीपुल्स पार्टी की स्थापना की। उनकी पत्नी लवली आनंद ने 1994 में वैशाली लोकसभा सीट के उपचुनाव में जीती। 1995 में उनकी बिहार पीपुल्स पार्टी ने नीतीश कुमार की समता पार्टी से बेहतर प्रदर्शन किया था। आनंद मोहन 1996, 1998 में दो बार शिवहर से सांसद रहे। वे बिहार पीपुल्स पार्टी के नेता थे अब यह पार्टी अस्तित्व में नहीं है। इस दृष्टि से इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि नीतीश कुमार शायद वह करना चाहते हैं, प्रदेश को एक युवा, शिक्षित, ओजस्वी नेता देना चाहते हों। 

बहरहाल, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर खुलेआम कहते थे, कहने में ‘हिचकी’ नहीं लेते थे की धनबाद का कोयला माफिया सूर्यदेव सिंह और कोसी क्षेत्र का आनंद मोहन उनके ‘मित्रवत’ हैं और वे ‘मित्रता का सम्मान’ करते हैं। सूर्यदेव सिंह का कोयला माफिया होना, उनकी पेशा है कोयला के क्षेत्र में, हीरा ढूंढने के लिए अगर वे कुछ भी करते हैं तो यह उनका व्यावसायिक क्रिया-कलाप है । उसी तरह कोशी के आनंद मोहन प्रदेश की राजनीति में ही नहीं, दिल्ली के राजपथ पर भी अपना अधिपत्य ज़माने की कोशिश कर रहे हैं, यह उनकी चाहत है, होनी भी चाहिए क्योंकि राजनीति में बहुत पापड़ बेलना होता है, और वे बेलन की लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई माप रहे हैं। मापना भी चाहिए । 

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चंद्रशेखर हमेशा चाहते थे कि आनंद मोहन “मजबूत” बने।  समाज में हरेक बड़े-बुजुर्ग युवकों को उनकी योग्यता के अनुसार “मजबूत” बनने की सलाह देते हैं, आज भी। अगर ऐसा नहीं होता तो वर्तमान में लालू यादव अपने दोनों पुत्रों को शिक्षा के जगत में अब्बल बनने का आशीष देते। लालू जानते हैं की दोनों पढ़ने-लिखने में “भुसकोल” है। इसलिए जिस क्षेत्र में “तेज और तर्रार” है, उसी में आगे बढ़े, आषीश देते हैं। फिर क्या था, आनंद मोहन “बाहुबली” बन गए। दोनों को चंद्रशेखर बहुत ही सम्मान करते थे। इधर सूर्यदेव सिंह और आनंद मोहन भी उनका उतना ही सम्मान करते थे। आज की नेताओं जैसा नहीं की जैसे ही अपना स्वार्थ सिद्ध हुआ, सामने वालों को पहचानने से भी मुकर जाते हैं। 

यह उन दिनों की बात है जब चंद्रशेखर अपने राजनीतिक जीवन के उत्कर्ष पर थे और बिहार के लालू प्रसाद यादव चंद्रशेखर से आनंद मोहन के लिए ‘शिकायत’ किये थे। यह अलग बात थी कि उसी काल में पूर्णिया के पप्पू यादव भी कानून को बन्दुक की नोक पर रखे थे, अधिकारियों को पैर के नीचे रखते थे; लेकिन लालू प्रसाद के लिए पप्पू यादव का वह क्रियाकलाप बचपना था, क्योंकि वे लालू के अपने थे। लालू प्रसाद अपने गुरुदेव चंद्रशेखर से यह भी निवेदन किये कि आनंद मोहन को रोकिये। क्योंकि आनंद मोहन को रोकने का कार्य उन दिनों भारत की चौहद्दी में सिर्फ और सिर्फ चंद्रशेखर ही कर सकते थे। लेकिन चंद्रशेखर लालू प्रसाद को खुश नहीं किये और कहे: “उसे रोको नहीं …छोड़ दो उसे। समय आने पर वह खुद समर्पित कर देगा।”

कल का आनंद मोहन

बहरहाल, उस ज़माने में आनंद मोहन और पप्पू यादव में आज़ादी की दूसरी लड़ाई जैसी ताकत की आजमाइश हो रही थी। नित्य खेत-खलिहान, गली-कूची, सड़क, कारखाने में, या यूँ कहें कि उत्तर बिहार में सहरसा-मधेपुरा-सुपौल-पूर्णिया-कटिहार आदि क्षेत्रों में शायद ही कोई इलाका बचा होगा जहाँ खून की होली नहीं खेली गयी थी। चतुर्दिक दोनों गुटों के लोगों का जीता-जागता शरीर “पार्थिव” हो रहा था। सम्पूर्ण क्षेत्र में ख़ौफ़ का माहौल था। 

उन्ही दिनों पटना के बी एन कालेज का एक बंगाली छात्र, जो स्वयं को फोटोग्राफी की दुनिया में सुपुर्द कर देना चाहता था, हाथ में एक छोटा सा मैनुअल निकोन कैमरा लेकर अपनी किस्मत को आजमाने  पटना की सडकों पर उतड़ता है। खाकी रंग का वाटर-प्रूफ कैमरा बैग अपने दाहिने कंधे पर लटकाकर एक स्ट्रिंगर के रूप में फोटो खींचना प्रारम्भ करता है अपनी रोजी-रोटी के लिए । इसी बीच, लालू-चद्रशेखर संवाद स्थानीय अख़बारों में प्रकाशित होती है। आनंद मोहन और पप्पू यादव को तत्कालीन स्थानीय अख़बारों में जगह तो मिलता था, लेकिन घटना के कई दिनों बाद। उस ज़माने में संचार के ऐसे कोई साधन नहीं थे जो मीनट में सूचना को इस पार से उस पार कर दे। स्थानीय पत्रकार हाथ से लिखते थे, या फिर टाइप करते थे कहानियों को फिर डाक से भजते थे। टेलीप्रिंटर का जमाना था, लेकिन ‘समाचारों के लिए’, बड़ी-बड़ी कहानियां डाक से ही प्रेषित की जाती थी। अगर उन कहानियों के साथ कुछ तस्वीर मिली तो वाह-वाह , नहीं मिली तो भी वाह-वाह। समाचार जब तक प्रकाशित होता था तब तक दूसरी घटना हो जाती थी। टेलीप्रिंटर तो था, लेकिन  जिला संवाददाताओं के पास नहीं होता था। खैर। 

उस ज़माने में इलाहाबाद से एक हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन होता था। नाम “माया” था। “माया” के तत्कालीन बिहार के संवाददाता श्री विकास कुमार झा आनंद मोहन पर एक कहानी करना चाहते थे। लेखक व पत्रकार विकास कुमार झा का जन्म 1961 में बिहार के सीतामढ़ी जिले में हुआ। उन्होंने 18 वर्ष की आयु में बतौर पत्रकार जीवन प्रारम्भ किये थे । आनंद मोहन-पप्पू यादव पर कहानी के लिए  जरुरत थी तस्वीरों की, क्योंकि तस्वीरों के बिना कहानी विधवा जैसी होती है । यहीं उस बंगाली छायाकार की किस्मत आनंद मोहन के साथ जुड़ गयी। एक तस्वीर, एक ओर जहाँ आनंद मोहन को बिहार में ही नहीं, सम्पूर्ण देश में, विदेशों में बाहुबली बना दिया, नाम-शोहरत को दिल्ली के क़ुतुब मीनार पर चढ़ा दिया, उस छायाकार की भी उस ऐतिहासिक तस्वीर के लिए चर्चाएं होने लगी।

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पटना ही नहीं बिहार के पत्रकार अथवा छायाकार आज शायद नहीं जानते होंगे की आनंद मोहन की उस  ऐतिहासिक तस्वीर का “फ्रेम” बनाने के लिए उन दिनों संजीब बनर्जी और सुनील झा किन-किन परिस्थितियों से गुजरे थे, आज के छायाकार कल्पना नहीं कर सकते हैं। संजीब बनर्जी और सुनील झा दोनों बस से पटना से सहरसा के लिए निकले। दोनों आनंद मोहन के एक हितैषी थे और कांग्रेस के नेता थे सुधीर मिश्रा जी से पहले संपर्क स्थापित कर लिए थे। सहरसा पहुँचने पर वे दोनों रात में वहीं रुके। मिश्रा जी के सहयोग से आनंद मोहन बाबा-आदम का एक पुराना, खटारा एम्बेस्डर कार दोनों को लाने के लिए भेजे थे। सहरसा से दोनों आनंद मोहन के गाँव पछगछिया के लिए निकले। रात्रि विश्राम पछगछिया में था। अगली सुबह दोनों एक गंतब्य स्थान के लिए उसी गाडी से निकले। साथ में आनंद मोहन के भी “आदमी” थे। कुछ  दूर निकलने के बाद संजीब बनर्जी और सुनील झा दोनों की आखों पर कपड़ा बाँध दिया गया ताकि रास्ते का अंदाजा नहीं मिल सके। सुधीर मिश्रा जी का ससुराल नेपाल की तराई में था, जहाँ आनंद मोहन अड्डा जमाये हुए थे। 

कल का माया पत्रिका और आनंद मोहन

सं 1971 में अख्तर रोमानी द्वारा लिखित, राज खोसला द्वारा निर्देशित, लक्ष्मीकांत – प्यारेलाल द्वारा संगीतबद्ध और धर्मेंद्र-विनोद खन्ना द्वारा अभिनीत एक फिल्म बनी थी “मेरा गाँव मेरा देश”, यह फिल्म उन दिनों के उभरते महानायक आनंद मोहन को बहुत बेहतरीन लगता था, विशेषकर अभिनेताओं के साज-सज्जा को देखकर। फिर क्या था, बेहतरीन घोड़ा पर बैठाया गया आनंद मोहन को, दाहिने हाथ में पिस्तौल दिया गया।  आनद मोहन एक हाथ से विनोद खन्ना जैसा घोड़ा का लगाम पकडे थे, तस्वीर बनी। एयर तस्वीर चाहिए थी, वह बनती गयी।  अब बात आयी एक ऐसी तस्वीर जो पत्रिका का कवर हो। बस क्या था सफ़ेद फुलपैंट, कमीज में तनिक तिरछा होकर बैठे।  पिस्तौल का नोक आसमान की ओर किये। आजु-बाजू आनंद मोहन के हितैषीगण, अंगरक्षक सभी बन्दुक, राइफल लेकर खड़े हो गए –  क्लिक-क्लिक हुआ। उस ज़माने में रंगीन तस्वीर बहुत कम खींची जाती थी।  रंगीन फोटो वाले निगेटिव को “टी पी” कहते थे। डिजिटल कैमरा भी नहीं था। अगर किन्ही के पास होता भी था तो वे समाज से अलग संभ्रांत छायाकार होते थे। अब इस बनर्जी के पास तो फिल्म खरीदने के लिए भी पैसे नहीं होते थे तो अधिक क्लिक-क्लिक भी नहीं कर सकता था। 

परन्तु, आनंद मोहन सुनील झा को और संजीब बनर्जी को भर-पेट गर्दन की नली तक कोंच के खिलाये, आवभगत किये। कहते हैं “जान बचे तो लाख उपाय”, दोनों हनुमान चालीसा पढ़ते पुनःमुसको भवः हुए – उसी तरह, आखों पर पट्टी बाँध दिया गया। वापसी में पहुंचे मधेरपुरा के जिलाधिकारी के पास। उस ज़माने में जयन्तो दासगुप्ता माडपुरा के जिलाधिकारी थे जो लालू के “खास” थे। मधेपुरा उन दिनों आनंद मोहन – पप्पू यादव का कुरुक्षेत्र था। दोनों में से कोई भी हथियार रखना नहीं कहते थे। खैर जयन्तो दासगुप्ता भी कदम कुआं पटना के थे।  उनके दादाजी थे प्रमाथो दासगुप्ता, जहाँ संजीब बनर्जी बचपन में खेलने-कूदने जाया करते थे।  बस क्या था – दो बंगाली इकठ्ठा हुए, बचपन की बातें दुहराई गयी और आनंद मोहन-पप्पू यादव कुरुक्षेत्र का विस्तार से विन्यास हुआ। सुनील झा सभी बातें अपनी डायरी पर लिख रहे थे। 

आनंद मोहन

पटना आते ही, संजीव हम लोगों के ज़माने के माणिकदा @ सत्यजीत मुखर्जी के स्टूडियो “फोटो-मेकर” पहुंचे। निगेटिव साफ़-सुथरा हुआ, तस्वीर निकली और फिर ‘माया’ के दफ्तर में हाजिर हुए झाजी और बनर्जी। विकास कुमार झा कहानी लिख रहे थे। तस्वीर देखने के बाद विकास कुमार झा ने संजीव को तत्काल इलाहाबाद रावण किये तस्वीरों के साथ। इधर पटना में जब छायाकारों को मालूम हुआ की संजीब बनर्जी तस्वीर बनाकर लाये हैं, सभी “मुझे दो-मुझे दो” करने लगे। जब संजीब इलाहाबाद पहुंचे तब ‘माया’ पत्रिका में एक ‘लेखक-ब्रह्मास्त्र’ हुआ करते थे बाबूलाल शर्मा जी। बबूलाल जी तस्वीर देखे। विकास झा की कहानी को पढ़े और जो कहानी बनी वह ऐतिहासिक थी – ये है बिहार। माया पत्रिका का दिसम्बर 31, 1991 वाला अंक। 

तस्वीरें: ‘फ्रेंड्स ऑफ़ आनंद’ तथा रत्नेश रतन के सौजन्य से। माया पत्रिका की तस्वीरें: संजीव बनर्जी के सौजन्य से

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