जैसे-जैसे ✍ पत्रकारिता में अक्षरों का रंग बदलता गया, काला अक्षर ‘रंगीन’ होता गया; ‘काले अक्षरों पर धब्बे लगते गए,’ फ़र्जी पत्रकारों की बाढ़ आती गई😪दुःखद

पत्रकारिता का वजूद आज खतरे में हैं

रायसीना हिल (नई दिल्ली) : आप माने अथवा नहीं। राजनेताओं के साथ-साथ, सत्ता की गलियारे में बैठे आला अधिकारियों और समाज के तथाकथित ‘ठेकेदारों’ की यही इक्षा होती है कि उनके सगे-सम्बन्धी अगर भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा, राजस्व सेवा, चिकित्सक, अभियंता, कॉर्पोरेट घराने के मालिक नहीं बन पाए (ऐसा हो नहीं सकता), राजनीतिक ‘उत्तराधिकारी’ नहीं बन पाए; तो अंततः देश में सबसे अधिक बिकने वाला ‘अंग्रेजी’ दैनिक, सबसे अधिक दिखने वाला ‘टीवी’ या फिर सबसे अधिक घरों में, खेत-खलिहानों में सुने जाने वाले रेडियो में वरिष्ठतम संवाददाता/संपादक बन जाए। भले उनकी पात्रता को देखते उनकी नियुक्ति ‘मध्य-पद’ पर हो, लेकिन तीसरी तन्खाह मिलते-मिलते उनके नामों से दर्जनों ‘विशेष खबर’ प्रकाशित हो जाए, ‘एयर’ हो जाए और वे वरिष्ठ पत्रकारों की सूची में अंकित हो जायँ। संस्थानों के मालिक और मालकिन उन्हें अपने साथ चाय पिलाने में अपना गर्व समझें।

जबकि उसी संस्था की सबसे निचली सीढ़ी पर मुद्दत से अपना-अपना ‘पिछवाड़ा’ रगड़ने वाले गरीब पत्रकार (अर्थ और सामर्थ दोनों से), जो दिन-रात मेहनत और मसक्कत कर कहानियां निकलता हों, ‘पकने’, ‘छौंका’ लगने के बाद जब पडोसने का समय हो, उसके हाथों से खींचकर ‘सम्मानित आकाओं द्वारा अनुशंसित पत्रकारों के नाम लिख दिया जाए । तभी तो कहानियां ‘लिक’ होगी, ‘फाइलें’ निकलेंगी, ‘विज्ञापन’ वाला फाइलों पर हस्ताक्षर होगा, एक-फोन पर अधिकारियों का, नेताओं का ‘बाइट’ मिलेगा। यह सब वर्तमान पत्रकारिता की चारित्रिक विशेषता है। आज जैसे-जैसे कहानियों में लिखे जाने वाले अक्षरों का रंग ‘रंग-बिरंगा’ होते जा रहा है, पत्रकारिता का काला अक्षर अपना वजूद खो रहा है। काले अक्षरों पर भी ‘काला धब्बा’ दिखने लगा है। परिणाम यह हो रहा है कि देश की पत्रकारिता की स्थिति आज ‘सफ़ेद’ नहीं, बल्कि ‘लाल’ हो गया है।

सत्तर के दशक में पटना से प्रकाशित ‘दी इण्डियन नेशन’ अख़बार के संपादक थे श्री (दिवंगत) दीनानाथ झा, जिनके छत्र-छाया में मैं पत्रकारिता सीखा था। पचास वर्ष पूर्व भारतीय पत्रकारिता का भविष्य उन्होंने आंककर कहा था। क्योंकि ऐसा ज्ञान सिर्फ वही दे सकता है जो ‘वास्तव में पत्रकार’ रहा हो, जिसका वजूद पत्रकारिता की बुनियाद को मजबूत बनाता हो। आज अक्षरशः सत्य दिख रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज पत्रकार के भेष में अपराधी नहीं आते। हाथों में कलम के बजाए बंदूक, पिस्तौल नहीं दीखते। लिखने के नाम पर ठांय-ठांय नहीं करता । कुछ तो है जिसे देखने, तहकीकात करने और जड़ से उखाड़ फेंकने की जरुरत है आज। क्योंकि अगर आज चूक गए तो आने वाले दिनों में भारत की पत्रकारिता और पत्रकार दोनों प्रदूषित नदी की धाराओं में अपना अस्तित्व समाप्त कर देगा। पत्रकार और पत्रकारिता के नाम पर “कलंक” लिखा जाएगा।

देश में पहले अख़बारों के पाठक हुआ करते थे। अब पाठकों से अधिक लेखक, आलोचक और समीक्षक हैं। पहले अख़बारों में जो तस्वीरें प्रकाशित होती थीं, उन तस्वीरों को खींचने वालों की पहचान छायाकार के रूप में होती थी। देश में ‘स्मार्ट फोन’ के आगमन से प्रत्येक ‘स्मार्ट फोन धारक’, चाहे वह अपनी सोच और मानसिकता से ‘स्मार्ट’ हो अथवा नहीं, ‘छायाकार’ अवश्य हो गया है। समाजिक क्षेत्र के मीडिया घरानों के आगमन से इन छायाकारों के पंख लग गए।

टीवी के प्रादुर्भाव के बाद टीवी के दर्शक होते थे। टीवी पर जो समाचार वाचक होते थे, उन्हें टीवी के दर्शक कभी हँसते, बोलते नहीं देखते थे; चिचियाने की बात स्वप्न में भी नहीं सोचें । रेडियो में समाचार वाचक अथवा विभिन्न कार्यक्रमों में मंच सँभालने वालों को जब लोगबाग देखते थे तो उनकी आवाज से उन्हें पहचानने की कोशिश करते थे, पहचानते थे कि “फलाने उद्घोषक” या “उद्घोषिका” हैं। बहुत सम्मान मिलता था उन्हें। आज भी उन दिनों के समाचार वाचक या उद्घोषक जो शरीर से जीवित हैं, उनकी आत्मा की गहराई आज के वाचक अथवा उद्घोषक नहीं माप सकते हैं। यह पक्का है ।

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विगत चार-पांच दशकों में, जैसे-जैसे सरकारी क्षेत्रों के रेडियो, टीवी आदि के कन्धों पर पैर रखकर, कुचलकर, लहलहूआन कर निजी क्षेत्र के लोगबाग ‘पत्रकार’ बनते गए, बाज़ारों में पत्रकार बनने के उद्योग, संस्थाएं खुलती गई, पत्रकारिता के लिए दूकानदारी बढ़ती गई, समाज के लोग बाग़, संभ्रांतों के परिवार और परिजन, संतान पत्रकारिता पढ़ते गए, चिकन-चुनमुम, गोरे-चिट्टे चेहरों के साथ कमर और गर्दन हिलाते पत्रकारिता में ढुकते गए – पत्रकारिता का वजूद, अस्तित्व समाप्त होता गया।

वजह भी है। नेताओं की नजर में जब देश का कोई मोल नहीं रहा, देश के विकास का कोई वजूद नहीं रहा, जिन मतदाताओं की मतों से देश के 28 राज्यों के विधान सभाओं में, आठ केंद्र शासित प्रदेशों में देश की जनता के कल्याणार्थ, देश के विकास के लिए रामायण से लेकर गीता पर हाथ रखकर कसमें खाते हैं – सभी झूठे हैं। अगर सच होता तो शायद विगत 75 वर्षों में देश की न्यायालयों में लंबित मुकदमों में सफ़ेद पोश नेताओं का, सफेदपोश अधिकारियों का, दलालों का, समाज-सेवियों का, वर्दी पहने अधिकारियों का नाम अंकित नहीं होता। वे जेल की चहारदीवारी के अंदर बंद नहीं होते।

वैसी स्थिति में अगर समाज के सभी तबके के लोगों में, संस्थाओं में चारित्रिक गिरावट आई है तो पत्रकार भी तो उसी समाज के हिस्सा हैं। अगर न्यायालयों की न्यायिक व्यवस्था में गिरावट होने के बाद भी भारत के लोगों का न्यायिक व्यवस्था पर विश्वास है, न्याय पर विश्वास है, चाहे जीते-जी मिले अथवा नहीं, न्यायमूर्तियों पर विश्वास है, चाहे सेवा अवधि के बाद उनकी निगाहें देश के संसद की ओर ही क्यों न टिकी हो। उसी तरह लाख ही नहीं, करोड़ों दुर्गुणों के बाद आज भी भारत के अख़बारों के पाठकों का, रेडियो के श्रोताओं का, टीवी के दर्शकों का देश के पत्रकारों पर विश्वास है, भरोसा है।

लेकिन विधानपालिका-कार्यपालिका-राजनेताओं-राजनीतिक पार्टियों-तथाकथित समाज सेवियों – वर्दी धारियों के साथ मिली-भगत, साठ-गाँठ के कारण आज ‘पत्रकारिता’ शब्द का मूल्य और सिद्धांतों से अनभिज्ञ लोगों का विशाल समुदाय इस क्षेत्र में घर बना लिया है। आज जो अख़बार प्रकाशित कर रहे हैं, टीवी चला रहे हैं, रेडियो बजा रहे हैं – उनमें सैकड़े 99 फ़ीसदी लोगों को पत्रकारिता के मूल्यों और सिद्धांतों से दूर-दूर तक कोई रिस्ता नहीं है।

एक दृष्टान्त: कई वर्ष पहले दिल्ली शहर में सबसे अधिक बिकने वाला एक दैनिक समाचार पत्र के मालिक ने आधिकारिक रूप से यह कहा था कि उन्हें ‘समाचार के मूल्यों’ से कोई मतलब नहीं है। अगर प्रथम पृष्ठ की प्रथम कहानी कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, वह मौद्रिक मूल्यों की बाद होगी। अगर उस थान पर कोई पैसे देकर समाचार प्रकाशित करना चाहता है जिससे संस्था को आर्थिक लाभ की बात होगी, वे उस समाचार को वहां से हटाने का एकाधिकार सर्वाधिकार सुरक्षित रखते हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि अगर पत्रकरों को, लेखकों को, सम्पादकों को संस्थान मोटी-मोटी रकमों पर रखता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वे आर्थिक मामलों पर दखलंदाजी करें। मोटी रकमों का भुगतान उन्हें तभी होता है जब संस्था की कमाई होती है।

बहरहाल, अगले महीने जून में भारत में रेडियो प्रसारण का 100 वर्ष हो जायेगा। सन 1923 में तत्कालीन अंग्रेजी शासन के दौरान बम्बई प्रेसिडेंसी रेडियो क्लब द्वारा एक कार्यक्रम का प्रसारण किया गया था। इसके चार साल बाद जुलाई महीने में इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी लिमिटेड के एक करारनामे के अनुसार देश में दो निजी रेडियो स्टेशन की स्थापना हुई। पहला बम्बई में और दूसरा कलकत्ता में। बम्बई से प्रसारण 23 जुलाई, 1927 से प्रारम्भ हुआ जबकि कलकत्ता से 26 अगस्त, 1927 से प्रसारण प्रारम्भ हुआ। तीन वर्ष के अंदर ही ये दोनों स्टेशन्स ‘लिक्विडेशन’ में चला गया । लेकिन तत्कालीन सरकार प्रसारण सुविधा को प्रयोग के आधार पर अपने हाथ में ले ली और दो सालों तक चलाने की शुरुआत की और अंततः 1936 के जून महीने में अखंड भारत को ‘ऑल इण्डिया रेडियो” के रूप में प्रसारण हेतु एक सरकारी संस्था मिला।

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स्वाधीनता के बाद भारत में दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, तिरुचिरापल्ली, और लखनऊ रेडियो स्टेशन के रूप में प्रसारण संस्थाएं मिली। जुलाई 1977 में पहली बार एफएम प्रसारण मद्रास रेडियो से प्रारम्भ हुआ। आज पूरे देश में तक़रीबन 400 शहरों में एफएम रेडियो बज रहा है। आकाशवाणी तो है ही । कहते हैं कि आज भारत की अर्थव्यवस्था में रेडियो उद्योग का विकास बहुत अधिक हुआ, खासकर मीडिया और इंटरटेनमेंट के क्षेत्र में। आशा है कि आने वाले समय में रेडियो की आमदनी 4000 करोड़ प्रतिवर्ष का व्ववसाय हो जायेगा।

इसी तरह आज देश में कोई 900 निजी सेटेलाइट टीवी चैनेल्स हैं। शायद ही कोई भाषा है, जिसमें टीवी नहीं है। इतना ही नहीं, कोई 105443 निबंधित समाचार पत्र/पत्रिकाएं हैं जो देश की गली-कूचियों से लेकर राज्यों की जिला मुख्यालयों के रास्ते, राजधानियों को पार करते देश की राजधानी से प्रकाशित होती हैं। अब सवाल यह है कि अगर निजी क्षेत्रों में इतने सारे संवादों के प्रसारण हेतु संस्थाएं हैं लोगबाग भी तो होंगे ही।

भारत के वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्य नाथ योगी को लिखते हैं कि “योगी जी, मीडिया को गटर में न जाने दें ! सरकारी मान्यता नियम लागू हों !!”

उनका लिखना जायज है। क्योंकि टीवी रिपोर्टर के छझ वेश में तीन शोहदों द्वारा माफिया अहमद – ब्रदर्स (अतीक और अशरफ) को भून देना, हम श्रमजीवी पत्रकारों के लिए वीभत्स हादसा है। क्योंकि पत्रकारिता हमारे लिए व्रत हैं, बाद में वृत्ति। अतः प्रयागराज का जघन्य कांड एक गंभीर चेतावनी है। हालांकि भारत सरकार का गृह मंत्रालय कल ही सुरक्षा की दृष्टि से जोखिम भरी घटनाओं की रिपोर्टिंग पर नियमावली तत्काल जारी कर रहा है। लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास पर पहरा तो बढ़ा दिया गया है। मगर मूल मसला है कि पत्रकार का कार्ड शासन ने थोक में अंधाधुंध जारी किया है। राजधानी में ही हजार हो गए हैं। कैसे ? क्यों ? सूचना निदेशालय हुलिया देखकर मान्यता देना बंद करे। ये तीन कथित संवाददाता फर्जी पहचानपत्र, वीडियो कैमरा, माईक आदि लिए थे। इनमें लवलेश तिवारी तो अपने आप को “महाराज” कहता है। उसकी आयु महज 22 साल है, जब कि मान्यता कार्ड पाने के लिए कम से कम पांच वर्ष का पत्रकारी कार्य होना अनिवार्य है। अर्थात फर्जी था। दूसरा हत्यारा अरुण मौर्य तो केवल 18 का है।

राव साहब का कहना है कि एक घृणित तथ्य का उल्लेख यहां लाजिमी है। राजीव गांधी की हत्या का रचयिता शिवरासन तमिलनाडु सरकार का मान्यता प्राप्त संवाददाता था। हाथ में बालपेन और नोटबुक थामें रहता था। गांधीजी का हत्यारा नाथूराम गोडसे भी पुणे के लुगदी साप्ताहिक का संपादक था। तालिबानियों के शत्रु अहमदशाह मसूद, शेरे पंजशीर, को 2007 में अलकायदा के बमबाजों ने संवाददाता बनकर उड़ा दिया था। आजकल तो मोबाइल फोन से ही कैमरा का काम भी हो जाता है। अतः जांच का कारण अधिक गंभीर और अपरिहार्य हो जाता हैं।

वे लिखते हैं: “योगी आदित्यनाथजी से मैं स्वयं सारे मान्यता कार्डों की पड़ताल का अनुरोध कर चुका हूं। फर्जी पत्रकारों की सूक्ष्म जांच हो। इसीलिए कि रवि और कवि की भांति रिपोर्टर भी बेरोकटोक, बेखौफ हर जगह पहुँच जाते हैं। मुनि नारद के वंशज जो ठहरे ! आश्वासन देने के बावजूद अभी तक ऐसी शासकीय जांच हुई ही नहीं है। आज लखनऊ के हजार मान्यताप्राप्त संवाददाताओं में वास्तव में कितने कार्यरत हैं ? मसलन, एक शर्त मान्यता की है कि प्रार्थी आधार कार्ड को नत्थी करे। सरकारी नियम है कि हर संवाददाता की L.I.U. जांच हो। ईमानदारी से ऐसी जांच हो, तो जालसाजी कटेगी। कई ऐसे मान्यताप्राप्त हैं जो राजधानी लखनऊ में रहते ही नहीं। जिलों के निवासी हैं। जाली पता दे दिया है, क्योंकि केवल लखनऊवासी ही राज्य का मान्यताप्राप्त संवाददाता हो सकता है।”

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उनका कहना है कि “मुझे स्मरण आता है 1981 का प्रसंग। तब यूपी राज्य मान्यता समिति का मैं सदस्य था। मेरे साथ NUJ के अच्युतानन्द मिश्र (फोन : 9560880055/9560110055, अमर उजाला) भी थे। तब तक इंदिरा गांधी वापस सत्ता पर आ गई थीं। महाबली आरके धवन भी। धवन ने किसी पत्रकार की मान्यता हेतु मुख्यमंत्री के मार्फत सूचना सचिव/निदेशक को कहा था। पर हम लोगों ने नहीं होने दिया क्योंकि वह व्यक्ति कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ता था, संवाददाता नहीं। आज अधिकांश मान्यताप्राप्त संवाददाता क्या नियमानुसार हैं ? मैंने योगीजी से आग्रह भी किया था कि इस प्रकार की जांच सर्वप्रथम मेरे ही मान्यतापत्र की पड़ताल से शुरू की जाए। मेरे विषय में सारे उल्लिखित नियमों, शर्तों, आवश्यकताओं, अर्हताओं के आलोक में समुचित परीक्षा हो। यदि त्रुटि पाई जाए तो मेरी मान्यता निरस्त कर दी जाए। यहां उल्लेख कर दूं की कि मायावती सरकार ने द्वेषवश मेरी मान्यता (रोहित नंदन निदेशक थे) रद्द कर दी थी। उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने मेरी मान्यता बहाल की। तब न्यायमूर्ति यूके धवन की खंडपीठ ने कठोर शब्दों में पूछा था : “मायावती शासन दुनिया की मीडिया को क्या संदेश देना चाहता है ? वरिष्ठतम संवाददाता की मान्यता अकारण काट दी ?” बहाली का हुक्म दिया।”

योगीजी के शासन से मैं फिर सविनय अनुरोध करता हूं कि सर्वप्रथम मेरी ही जांच हो। मैं भारत के छः राज्यों में मान्यता प्राप्त संवाददाता रहा हूं। भारत के शीर्षतम अंग्रेजी दैनिक “दि टाइम्स ऑफ इंडिया” में चार दशकों तक कार्यरत रहा। भारतीय प्रेस परिषद का छः वर्षों तक सदस्य रहने के अलावा भारत सरकार की प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो की केंद्रीय मान्यता समिति का दो बार सदस्य रहा। भाचावत तथा मणिसाणासिंह वेतन बोर्डों का नौ वर्षों तक सदस्य रहा। बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र, उत्तर प्रदेश विधान मण्डलों की तथा राज्यसभा की रिपोर्टिंग कर चुका हूं। पत्रकारी अनुभव के हिसाब से मैं नेहरू से नरेंद्र मोदी तक की रिपोर्टिंग मैं कर चुका हूँ। एक बुद्धिकर्मी हूं। मेहनत द्वारा हक मांगा और हासिल किया है। कोई कृपादान अथवा फर्जीवाड़ा से नहीं ! इसीलिए चाहता हूं कि मान्यताप्राप्त संवाददाता की गरिमा संजोयी जाये। अवनति खत्म हो। योगीजी से एक और आग्रह। जो भी समाचार संकलन करते हैं, लिखते पढ़ते ही उन्हें ही सुविधायें उपलब्ध हो।

अब एक जिक्र विभिन्न मुख्यमंत्रियों और मीडिया के सम्बन्धों में। मायावती की प्रेस कॉन्फ्रेंस में तो मैं जाता नहीं था। वे इमला लिखाकर चली जाती थीं। एक मुख्यमंत्री आए थे सुल्तानपुर वाले पं. श्रीपति मिश्र। उन्हें समझ ही नहीं चला समाचारपत्र है क्या ? यूं वे विधानसभा अध्यक्ष भी रहे थे। एक बार श्रमजीवी पत्रकारों की समस्याओं पर चर्चा करने से एक प्रतिनिधिमंडल लेकर इस कांग्रेसी मुख्यमंत्री के पास गया था। साथियों का परिचय मैंने कराया कि फलां लखनऊ श्रमजीवी पत्रकार यूनियन, यूपी पत्रकार यूनियन तथा इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ) के पदाधिकारी हैं। पंडित श्रीपति मिश्र बोले : “अच्छा तीन संगठनों के हैं ?” मेरा जवाब था : “नहीं। जैसे आपकी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी, प्रदेश कमेटी, जिला कमेटी, शहर कमेटी हैं”। तब उन्हें कौंधा। राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह को मैंने पाया कि सुबह वे दैनिकों में राज्य संबंधी समाचार पढ़कर जिलाधिकारियों से फोन पर ही जवाब तलब कर लेते थे।

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