हमें इस बात पर क्यों आश्चर्य होना चाहिए कि भारतीय बच्चों को एक बार फिर उन अफसरों की आपराधिक नालायकी के लिए सजा दी गई है जिन्हें अच्छी शिक्षा मुहैया कराने के लिए उन्हें पैसे दिए जाते हैं। ऐसा हमेशा से होता आया है। पर इस बार अन्याय इतना खुल्लम खुल्ला था कि नाराज छात्र विरोध प्रदर्शन के लिए सड़क पर उतर आए। मानव संसाधन विकास मंत्री ने प्रश्नपत्रों के लीक होने की जांच के लिए आयोग बनाने और फिर विशेष टास्क फोर्स का गठन करने की घोषणा करके अपने अधिकारियों की लापरवारी को ढंकने की कोशिश की है। मंत्री महोदय यह पर्याप्त नहीं है। अगर अभी तक उन्हें खुद इस्तीफा देने के लिए कहा नहीं जा सका है तो सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंड्री एजुकेशन (सीबीएसई) के जिम्मेदार पदाधिकारी को बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए।
प्रश्नपत्रों के लीक होने के लिए वे निजी तौर पर जिम्मेदार हैं। पर ऐसा व्यवहार करती रही हैं जैसे कुछ खास हुआ ही नहीं है। उन्होंने बड़े प्यार से कहा कि वे यह मानते हुए काम कर रही थीं कि जो भी कुछ किया गया है वह बच्चों के हित में होगा और जो परीक्षा उन्होंने अभी हाल में दी थी उसे दोबारा आयोजित करने की तारीख की घोषणा कर दी गई । लगता है कि उन्हें यह ध्यान नहीं आया कि ऐसा करना छात्रों को उस चीज के लिए सजा देना है जो उनकी गलती नहीं है। हमेशा की तरह, अफसरशाही छात्रों की बात सुनने में नाकाम रही।
दशकों से बच्चों और उनके अभिभावकों ने अधिकारियों से अपील की है कि सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने के लिए कुछ किया जाए। पर इसका कोई असर नहीं हुआ है। अधिकारियों के अपने बच्चे अमूमन महंगे निजी स्कूलों में जाते हैं इसलिए उन्हें सरकारी स्कूलों की उपेक्षा में कोई दिक्कत नहीं हुई। अधिकारीगण आम जनता पर जो स्कूल थोपते हैं वे इतने बुरे हैं, खासतौर से ग्रामीण भारत में कि हर जगह अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल उभर आए हैं। ये अक्सर सरकारी स्कूलों से बेहतर होते हैं पर कई को मजबूरन बंद होना पड़ा क्योंकि सोनिया और मनमोहन सिंह की सरकार ने हमें शिक्षा का अधिकार कानून दिया था। यह एक व्यर्थ का कानून है और इससे इतना भर हुआ है कि सरकारी अधिकारी निजी स्कूलों में हस्तक्षेप करने लगे हैं जबकि सरकारी स्कूलों को सुधारने के लिए कोई काम नहीं करते।
नरेन्द्र मोदी के एक समर्थक के रूप में मैंने सोचा था कि शिक्षा में अपनी सुधार की शुरुआत वे हमें इस कानून से छुटाकारा दिलाकर करेंगे। ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उनकी पहली शिक्षा मंत्री ने अपना समय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से लड़ने में खर्च कर दिया और साथ में अर्ध साक्षर हिन्दुत्व किस्म के लोगों को शिक्षा क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की छूट दी। जब उन्हें हटाया गया तो उनकी जगह ऐसे व्यक्ति को लाया गया जो समान रूप से अप्रभावी साबित हुआ है। पर असली समस्या भाजपा के मुख्यमंत्रियों से है। वे अब ज्यादातर भारत में राज कर रहे हैं पर अभी तक इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसने वास्तविक अंतर लाने के लिए आवश्यक किसी लंबे चौड़े सुधार की पेशकश की हो।
अभी जो स्थिति है, ज्यादातर भारतीय बच्चे चाहे वे सरकारी स्कूल में जाते हों या अंग्रेजी माध्यम वाले निजी स्कूलों में विश्वविद्यालयों और रोजगार बाजार में प्रवेश करते हैं तो बेहद लाचार होते हैं। अपने देश के भिन्न क्षेत्रों में अपनी यात्रा के दौरान मैं नियमित रूप से ऐसे लोगों से मिलती हूं जो अंग्रेजी माध्यम के निजी ग्रामीण स्कूलों में शिक्षित होते हैं पर अंग्रेजी में एक वाक्य ढंग से नहीं बोल सकते है। यह एक हद तक स्वीकार्य होता अगर वे अपनी भाषा में पूरी तरह साक्षर होते पर दुख की बात है कि स्थिति ऐसी नहीं है।
इसलिए हम युवा भारतीयों की पीढ़ियां तैयार करते जा रहे हैं जो शिक्षित समझे जाते हैं पर असल में कतई शिक्षित नहीं है। प्रधानमंत्री अक्सर भारत की युवा आबादी से संबंधित दावे करते हैं और यह सही है कि ज्यादातर देश जब बुढ़ा रहे हैं तब हमारी युवा होती आबादी भारत के लिए बहुत फायदेमंद हो सकती है। पर यह तभी संभव होगा जब इन बच्चों में ऐसे कौशल हों जिनकी आवश्यकता एक ऐसी दुनिया में प्रतिस्पर्धा के लिए होती है जहां अगर आप कंप्यूटर का उपयोग नहीं कर सकते हैं तो निरक्षर माने जाते हैं।
प्रश्न पत्रों के लीक को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता हाल के समय में मोदी सरकार की निन्दा करने में मुखर रहे हैं पर इनलोगों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया है कि भारत में शिक्षा व्यवस्था की यह हालत पिछले चार वर्षों में ही नहीं हुई है। भाजपा के मुख्यमंत्रियों को एक ऐसी शिक्षा संरचना मिली है जो तकरीबन व्यर्थ थी। सरकारी स्कूल और कालेज असल में सिर्फ बिल्डिंग थे ज्ञान के केंद्र नहीं। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री और उनके मुख्यमंत्रियों सुधार के रूप में कुछ किया क्यों नहीं है। इनलोगों ने क्यों उन नीतियों को जारी रहने दिया जिन्हें वर्षों पहले खत्म कर दिया जाना चाहिेए था।
लीक हुए प्रश्नपत्र किसी और के मुकाबले जो बात ज्यादा साबित करते हैं वह यह कि न्यूनतम सुधार भी पूरी तरह नदारद रहे हैं। अच्छे स्कूलों और कालेजों के लिए सिर्फ अच्छे शिक्षण मानक नहीं चाहिए बल्कि प्रशासन के अच्चे मानक जरूरी हैं। और इस मामले में हमलोगों ने देखा है कि बड़े पैमाने पर प्रशासनिक नाकामी रही है। जो हुआ उसमें कौन से अधिकारी शामिल थे इसकी जांच के लिए जांच आयोग और विशेष टास्क फोर्स की घोषणा का कोई मतलब नहीं है। हम जानते हैं कि वो कौन हैं इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि तुरंत कार्रवाई शुरू हो। इसके बाद प्रधानमंत्री को चाहिए कि शिक्षा पर विशेष चर्चा के लिए अपने मुख्यमंत्री को बुलाएं और उनसे पता करें कि शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए उनलोगों ने अपने राज्यों क्या किया है। अगर कोई सुधार नहीं हुआ है तो हमें यह जानने का अधिकार है कि क्यों?
(इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित तवलीन सिंह का कॉलम। इस कॉलम का अनुवाद श्री संजय कुमार सिंह ने किया है। श्री सिंह जनसत्ता में दसकों कार्य किये हैं और अनुवाद कम्युनिकेशन के कर्ता-धर्ता हैं।
अनुवाद कम्युनिकेशन अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद करने वाली देश की सबसे पुरानी एजेंसी है जो देश भर की तकरीबन सभी जानी-मानी जनसंपर्क एजेंसियों, बहुराष्ट्रीय निगमों और कॉरपोरेट के लिए अनुवाद करती है।)