भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में ‘नियत का साफ़ होना’ एक मज़ाक है, अगर इसे ‘पुलिस सुधार’ मामले में प्रकाश सिंह समिति की अनुशंसा की नजर से देखें

नवनियुक्त उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पंकज कुमार सिंह

नई दिल्ली: नवनियुक्त उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पंकज कुमार सिंह महज एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ही नहीं, बल्कि एक ऐसे पुलिस अधिकारी के पुत्र भी हैं, जिन्होंने भारतीय पुलिस व्यवस्था को ‘स्वस्थ’ और ‘दुरुस्त’ बनाने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। यह अलग बात है कि भारतीय कार्यपालिका, विधानपालिका की ‘शतरंजी चाल’ और उस पर ‘देश के शीर्षस्थ राजनेताओं’ के ‘अवांछनीय कमान’ के कारण आज तक उनका वह ऐतिहासिक सिफारिशें सरकारी दफ्तरों में लाल कपड़े में बंद पड़ा है। आम तौर पर किसी भी व्यवस्था को स्वस्थ बनाने के लिए, दुरुस्त बनाने के लिए ‘आत्म-विश्वास’ के साथ-साथ ‘साफ़-सुथरी नियत’ की आवश्यकता होती है। परन्तु तकलीफ इस बात की है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में ‘नियत का साफ़ होना’ एक मज़ाक ही समझा जाता है।

1988 बैच के राजस्थान कैडर के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी पंकज कुमार सिंह, जो अब भारत का उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के नाम से भी जाने जायेंगे, 1959 बैच के सेवानिवृत्त भारतीय पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह के पुत्र हैं। भारतीय पुलिस प्रशासन में प्रकाश सिंह का नाम और उनकी ऊंचाई, आज ही नहीं, आने वाले कई दशकों तक न भारत के लोग माप पाएंगे, ना ही देश के कार्यपालिका, विधानपालिका में बैठे लोग ही। इतना ही नहीं, आने वाले कई दशकों तक भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में घुटने कद से आदमकद की लम्बाई तक खुद को खींचकर बनाने वाले राजनेता ही समझ पाएंगे। अगर समझ पाते तो शायद भारत में पुलिस सुधारों की दिशा में सुझाए गए ऐतिहासिक प्रकाश सिंह समिति की सिफारिशों को सम्पूर्णता के साथ लागू किया गया होगा।

पिता-पुत्र की समानता यह भी देखिये – प्रकाश सिंह सन 1993-1994 में सीमा सुरक्षा बल का नेतृत्व किये थे। दशकों बाद उनका पुत्र पंकज कुमार सिंह भी सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक थे। बहरहाल, पंकज कुमार सिंह की नियुक्ति दो साल की अवधि के लिए किया गया है। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के आदेश के अनुसार 15 जनवरी 2023 को जारी किया गया था। दिनांक 14 जनवरी,2023 को भारत सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग सूत्रों के अनुसार पदभार ग्रहण करने की तिथि से दो साल की अवधि के लिए या अगले आदेश तक, जो भी पहले हो, अनुबंध के आधार पर पुनर्नियुक्ति। भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीतियों के निर्माण, कार्यान्वयन और सुधार में अजीत डोभाल,जिसमें आतंकवाद, डेटा उल्लंघनों और चोरी, साइबर खतरों,संबंधित एजेंसियों की तत्परता और सुरक्षा से निपटने वाले प्रमुख संगठनों के बीच सहयोग से उत्पन्न खतरों का आकलन करना शामिल है।

नवनियुक्त उप-सुरक्षा सलाहकार इससे पहले दिल्ली में केंद्रीय  रिजर्व पुलिस फ़ोर्स मुख्यालय में सीआरपीएफ महानिरीक्षक (छत्तीसगढ़) और आईजी (ऑपरेशंस) के रूप में केंद्र सरकार के साथ भी काम किया है।महानिदेशक, बीएसएफ के रूप में वे बीएसएफ क्षेत्राधिकार में विवादस्पद संसोधन पर भी कार्य किया था । इनकी अगुआई में ही कई राज्यों के विरोध पर सीमा से 50 किलोमीटर तक बढ़ा दिया गया था।बीएसएफ की महिला सैनिकों को आगे बढ़ाने में भी बड़ी भूमिका अद्वितीय है।इसके बाद बीएसएफ की महिला मोटरसाइकिल सवारों द्वारा देशव्यापी दौरा भी किया गया।

जैसलमेर में बीएसएफ का 2021 स्थापना दिवस मनाने का उनका विचार इतना पसंद किया गया कि अब भारतीय सेना सहितसभी अर्धसैनिक बलों को निर्देश दिया गया है कि वे अपनी स्थापना और स्थापना दिवस दिल्ली से बाहर मनाएं। सूत्रों का कहना है कि पूर्वी सीमांत के प्रमुख के रूप में उन्होंने पश्चिम बंगाल और असं की सीमाओं के माध्यम से मवेशियों की तस्करी कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 2015 और 2021 के बीच, भारत-बांग्लादेश सीमा पर मवेशियों की तस्करी में अस्सी से अधिक फीसदी की कमी आई है। खैर, यह तो वर्तमान उप-सुरक्षा सलाहकार की बात हुई। 

ये भी पढ़े   प्रधानमंत्री: हमें जी20 को दुनिया के अंतिम छोर तक ले जाना है, किसी को भी पीछे नहीं छोड़ना है
पूर्व भारतीय पुलिस सेवा के अधिकार प्रकाश सिंह। तस्वीर: दी प्रिंट के सौजन्य से

लेकिन आज ही नहीं, आने वाले समय में भी जब भी पुलिस सुधार की बात होगी, राजनेताओं के होठों पर नाम आये अथवा नहीं, क्योंकि देश में शायद ही कोई पुलिस वाले होंगे जो राजनेताओं के विरुद्ध जा सकते हैं। भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में पुलिस मूलतः नेताओं की उंगलियों पर नाचती है। यह कारण है कि प्रकाश सिंह ने दशकों पहले से भारतीय पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए अनेकानेक यत्न किए। कोई दस वर्ष पहले उन्होंने लिखा था कि “पुलिस सुधारों के प्रति राज्यों की अरुचि के कारण आम जनता से इसके लिए आंदोलन करनी चाहिए।”

प्रकाश सिंह के अनुसार, शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता है जब पुलिस से संबंधित कोई आलोचनात्मक खबर अखबारों में न छपती हो। उत्पीड़न, उगाही, जनता के साथ दुर्व्यवहार, घटना स्थल पर समय से न पहुंचने, विवेचना में लापरवाही, कुछ न कुछ आए दिन होता ही रहता है। इधर हाल में दो बड़ी घटनाएं ऐसी हुई जिसका उल्लेख करना आवश्यक है। पुलिस महानिदेशकों के अखिल भारतीय सम्मेलन में परिचर्चा के दौरान बिहार के डीजीपी ने कहा कि शांति व्यवस्था की स्थिति खड़ी होने पर बल प्रयोग के बजाय घटना की वीडियोग्राफी भी एक अच्छा विकल्प है। दंगाइयों को फोटो से चिन्हित करने के पश्चात उनके विरुद्घ अभियोग दर्ज कर मुकदमा चलाया जा सकता है। 

दूसरे शब्दों में, बलवा करने वालों पर दमनात्मक कार्रवाई कोई जरूरी नहीं है। बिहार में रणवीर सेना के प्रमुख की हत्या के बाद उनके जातीय समर्थकों ने पटना में जमकर उपद्रव किया था और पुलिस मूक दर्शक बनी रही। इसी लय पर मुंबई में भी असम और म्यांमार की घटनाओं को लेकर जब 11 अगस्त को आजाद मैदान में मुसलमानों ने उपद्रव किया तो वहां भी पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। बलवाइयों ने जमकर तोड़फोड़ की और महिला सिपाहियों के साथ दु‌र्व्यहार भी किया। एक डिप्टी कमिश्नर ने अराजक तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई करने की कोशिश की तो उन्हें पुलिस कमिश्नर ने मौके पर ही झाड़ दिया। कमिश्नर का कहना है कि अगर कार्रवाई करते तो उसकी गंभीर प्रतिक्रिया होती। 

अगर गहराई में उपरोक्त दोनों घटनाओं का विश्लेषण किया जाए तो सच्चाई यह है कि बिहार में जातीय समीकरण के कारण और उच्चतम स्तर से कार्रवाई न होने के संकेत के कारण पुलिस निष्क्रिय हो रही है। इसी तरह मुंबई में गृह मंत्रालय के मौखिक आदेशों के कारण पुलिस ने बलवाइयों को खुली छूट दी। कुल मिलाकर नतीजा यह निकलता है कि राजनीतिक निर्देश और संरक्षण के कारण वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने दोनों प्रकरणों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं किया। इसका परिणाम आम जनता को भुगतना पड़ा और इस निष्क्रियता के जो भयंकर दूरगामी परिणाम होंगे वे अपनी जगह हैं। प्रश्न यह उठता है कि देश की पुलिस किसके लिए है-क्या यह शासक वर्ग के लिए है और उसके राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति करना उसका कर्तव्य है या यह देश की जनता के लिए है और कानून पर चलते हुए कानून की रक्षा करना उसका सर्वोपरि कर्तव्य है। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बाद आज भी पुलिस का सामंतवादी ढांचा बरकरार है। 

ये भी पढ़े   भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का दस वर्ष और भारत में प्रोजेक्ट चीता के सफल कार्यान्वयन का एक वर्ष

अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य की रक्षा और शासक वर्ग के हितों को ध्यान में रखते हुए इस पुलिस की संरचना की थी। स्वतंत्रता या उसके शीघ्र बाद में पुलिस व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता थी, परंतु ऐसा नहीं किया गया। आज केवल इतना ही फर्क है कि गोरे शासकों के बजाय अन्ना के शब्दों में अब काले अंग्रेजों की हुकूमत चल रही है। 22 सितंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार संबंधी कुछ आदेश दिए थे। इन आदेशों का लक्ष्य था कि पुलिस पर किसी तरह का बाहरी दबाव न रहे और उसे अपने कार्यो में स्वायत्तता हो ताकि वह अराजक तत्वों के विरुद्घ निर्भीकता से कार्रवाई कर सके। इसके अलावा पोस्टिंग व ट्रांसफर के मामलों में एक बोर्ड जिसके सदस्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होंगे, के बनाए जाने का निर्देश था और यह अपेक्षा की गई थी कि उप पुलिस अधीक्षक और राजपत्रित अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग यह बोर्ड ही करेगा। 

नॉर्थ ब्लॉक, नई दिल्ली

पुलिस के विरुद्ध गंभीर शिकायतों के निस्तारण हेतु भी राज्य और जनपद स्तर पर शिकायत बोर्ड बनाए जाने के निर्देश थे। पुलिस अधिकारियों के लिए नियुक्ति पर दो साल का कार्यकाल निर्धारित किया गया था। दुर्भाग्य से इन आदेशों को कार्यान्वित नहीं किया गया। कुछ राज्यों ने स्वीकृति का हलफनामा तो दिया है, परंतु जमीनी हालात अभी भी पहले जैसे ही हैं। अधिकांश राज्य हीला-हवाली कर रहे हैं। कुछ राज्यों ने चालाकी में कानून बना लिए हैं, जो वास्तव में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो सुधार के बजाय पुलिस में गिरावट ही होती जा रही है। सवाल अब सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता का है। 

न्यायपालिका की जिम्मेदारी क्या निर्देश देने के बाद समाप्त हो जाती है? अगर राज्य सरकार जानबूझकर उन आदेशों की अवहेलना करती है तो क्या सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी नहीं है कि उन पर चाबुक चलाए और उन्हें अवमानना की नोटिस दे? एक तरफ पुलिस के कुछ अधिकारी शांति व्यवस्था की चुनौतियों के सामने मूक दर्शक बन गए हैं, दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट अपने आदेशों की अवहेलना को देखकर भी कोई सख्त कदम नहीं उठा रहा है। अगर यही हालात बने रहे तो हमें शायद भूल जाना होगा कि इस देश में पुलिस नाम की कोई चीज है। हां उसे शासक वर्ग का एक मिलिशिया या बल कहा जा सकेगा। 

ये भी पढ़े   प्रधानमंत्री ने पहले स्वदेशी विमान वाहक पोत 'आईएनएस विक्रांत' को राष्ट्र की सेवा में समर्पित किया

पुलिस अधिकारियों का एक वर्ग, जो सुधार के प्रति समर्पित है, अपनी मांगों को लेकर जनता के पास जाने का प्रयास कर रहा है। इन अधिकारियों का यह सोचना है कि जब तक सुधारों को जनता का समर्थन नहीं मिलेगा तब तक प्रगति नहीं होगी। उन्होंने एक दस सूत्रीय कार्यक्रम बनाया है जिसका मुख्य संदेश यह है कि वर्तमान शासक पुलिस को जनता की पुलिस के रूप से परिवर्तित किया जाए और पुलिस के जनता के प्रति व्यवहार में आमूल परिवर्तन हो। अभियोगों के पंजीकरण में विशेष सुधार होना चाहिए। साथ ही साथ, पुलिस की जनशक्ति में वृद्धि और उसके संसाधनों के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है। 

अधीनस्थ कर्मचारियों को अपने कार्यकाल में कम से कम तीन प्रोन्नतियां अवश्य मिलनी चाहिए। पुलिसकर्मियों से बारह घंटे से ज्यादा डयूटी न ली जाए और कालांतर में इसे कम करके आठ घंटे लाया जाए। सिपाहियों की आवासीय सुविधा में भी विशेष सुधार की आवश्यकता है, इत्यादि। पीपुल्स पुलिस यानी जनता की पुलिस बनाने का यह प्रयास सही दिशा में एक सकारात्मक कदम है। देश का बहुत नुकसान हो चुका है, जनता भी बहुत त्रस्त हो चुकी है। अब भी अगर सरकार पुलिस सुधारों के प्रति सजग हो जाए और सुप्रीम कोर्ट इस विषय में सख्त रुख अपना ले तो स्थिति संभाली जा सकती है। जनता की भी इस क्षेत्र में बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। 

तभी प्रकाश सिंह ने कहा था कि आवश्यकता है एक जन आंदोलन की, जिसमें पुलिस सुधारों की मांग की जाए, उसे शासकीय चंगुल से मुक्त कर जनता के प्रति जिम्मेदार बनाया जाए और ऐसी व्यवस्था की जाए कि पुलिस कानून और संविधान की रक्षा करना ही अपना सर्वोपरि कर्तव्य समझे।  प्रकाश सिंह के अनुसार यह वर्तमान भारत की विडंबनाओं में से एक है कि जब हम चंद्रमा पर एक मिशन भेजने, अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों को लॉन्च करने, बुलेट ट्रेन विकसित करने और एक दुर्जेय आईटी शक्ति होने की स्थिति का आनंद लेने में सक्षम हैं। आजादी के दशकों बाद- वही पुरानी औपनिवेशिक संरचना और सामंती मानसिकता वाले पुलिस बल के साथ फंस गया। ऐसा नहीं है कि पुलिस को आधुनिक बनाने के लिए अतीत में प्रयास नहीं किए गए। राज्य और केंद्रीय स्तर पर कई आयोगों ने पुलिस बल के पुनर्गठन की सिफारिशें की हैं। हालांकि, ‘पुलिस’ और ‘कानून और व्यवस्था’ पर अधिकार क्षेत्र रखने वाली राज्य सरकारों ने केवल दिखावटी बदलाव किए और उन सुधारों के खिलाफ थीं जो पुलिस को राजनीतिक दबाव से अलग करते और इसे लोगों के प्रति जवाबदेह बनाते।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here