भारत धर्म महा मंडल के अध्यक्ष रामेश्वर सिंह की मिट्टी पर ‘ब्राह्मणत्व और हिंदुत्व’ का ज्ञान देने के बहाने…… ‘की होच्चे…… राजनीति’?

दरभंगा के राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के पौत्र कपिलेश्वर सिंह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक को 'पाग' पहनाने के लिए तैयार

चाय की चुस्की लेते दरभंगा के टॉवर चौक पर श्री मुंशी झा कह थे कि “कक्का यौ !! महाराजा किला के अंदर कोना वाला घर में कुछ तो हो रहा है जो दरभंगा के लोगों को मालूमात नहीं है।” चाय वाला तिरछी नजर से अपने गलफर को घुमाते और जिराफ़ के गर्दन जैसा अपना कान उठाकर बातें सुन रहा था।

तभी श्री रामेश्वर झा बात काटते कहते हैं कि घोर कलयुग आ गया है। जो मैथिल ब्राह्मण नहीं है वह ‘धर्म’ समझा रहा है और जो मिथिला नरेश का वंशज है, वह “टीक” काट कर मिथिला की गरिमा और दरभंगा राज की प्रतिष्ठा को बचाने के बात कर रहा है। जिसके पूर्वज भारतवर्ष के हिन्दू के नेता थे, पथप्रदर्शक थे; आज दूसरों के मुख से हिन्दू और हिंदुत्व की बात सुन रहा है, ताली बजा रहा है । चाय वाला से रहा नहीं गया और अंततः पूछ ही बैठा: “की भेलै यौ रामेश्वर बाबू?”

रामेश्वर बाबू बहुत ही गरम मिजाज के उच्च कोटि के ब्राह्मण है। गर्मी हो, जाड़ा हो, बरसात हो, धोती के और गमछा के अतिरिक्त कभी भी अपने शरीर पर अन्य वस्त्र नहीं आने दिए। प्रातः काल सूर्योदय के साथ उन्हें अर्ध्य देने, पूजा पाठ करने , कर्मकांड करने, तंत्र-मन्त्र सिद्ध करने में अपने जीवन का लगभग अस्सी से अधिक वसंत गुजारे हैं। अपनी शिक्षा और पूर्वजों द्वारा अलंकृत संस्कार से इतना धनाढ्य है कि वे आने वाले समय को महाभारत के संजय की तरह देख रहे हैं।

तभी श्री मुंशी बाबू मिट्टी वाला चुक्का में चाय बढ़ाते पूछते हैं “की भेलै रामेश्वर बाबू?”

सब समय की बात है : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक (आगे) और दरभंगा के राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के पौत्र कपिलेश्वर सिंह (पीछे)

श्री रामेश्वर बाबू फुट पड़े। कहते हैं जिस दिन दरभंगा के महाराजाधिराज का शरीर पार्थिव हुआ था, हम 12 वर्ष के थे। मेरा यज्ञोपवीत हो चूका था। मैं अपने पिता के साथ उनके दाह संस्कार में गया था। बाबूजी तंत्र के ज्ञाता थे। भविष्य को देखने की क्षमता रखते थे। वे नित्य अपना डायरी लिखते थे। उस दिन शमशान से आने के बाद भी उन्होंने ‘करची कलम’ से दवात में डूबा-डूबाकर लिखे थे – “आई दरभंगा राजक अंत भ गेल। मिथिला में आई सूर्यास्त भ गेल। काल्हि दरभंगा राजक लोक टीक कटा देताह। ई शब्द लिखैत आत्मा विकल भ रहल अछि, लेकिन सत्य देख रहल छी ।”

श्री रामेश्वर बाबू की बातों को, उनके चेहरे के भाव-भंगिमा को, उनकी आखों की तप को सभी टकटकी निगाह से देख रहे थे। बोलते समय उनके शरीर में कम्पन हो रहा था। अपने धोती के खूंट से आँखें पोछते श्री रामेश्वर बाबू कहते हैं: “विगत साठ वर्षों में दरभंगा के लोग मूक-वधिर जैसा महाराजा के किले की एक-एक ईंट को ढ़हते देख रहे हैं । सबों के मन में एक ही ईक्षा शेष बचा है कि उस ईंट से झड़ने वाली मिट्टी ही सही, कुछ लाभ उन्हें भी हो जाता। दीवारों के आसपास चाटुकारों की, लोभियों की, खुशामदकारों की, चमचावाजों की भीड़ लगी होती है।

परिणाम यह है कि आज लाल किले के अंदर, जहाँ कभी शेर भी जाने से डरता था, कुत्ते-बिल्ली जैसा जमीन का टुकड़ा-टुकड़ा किया जा रहा है। देवी=देवता के पास अब कोई दीपक जलाने वाला भी नहीं है, धूप-दीप देने वाला भी नहीं है। महारानी 90 पार कर चुकी है। लोग बाग़ कहते हैं कि अब सुनती भी नहीं हैं। वैसी स्थिति में बहार के लोग फायदा तो उठाएंगे ही न।”

श्री रामेश्वर बाबू की बातों को सुनकर चाय वाले की पत्नी कहती है कि “मालिक, ई बाहर वाला के छै?” चाय वाले की पत्नी अनपढ़ थी, लेकिन पढ़े-लिखे लोगों की संगत में रहकर इतना अवश्य विदुषी हो गई थी कि वे श्री रामेश्वर बाबू के शब्दों का भावार्थ नहीं समझे। चाय की अंतिम घूंट लेते श्री रामेश्वर बाबू श्री मुंशी जी का हाथ पकड़कर उठे फिर कहते हैं : “तैयार रहब। महाराजा के किला में खिचड़ी पैक रहल अछि। बिना टीक धारी लग देश-दुनिया के टीक वाला आवि रहल अछि, छह मॉस में दूबारा। शुभ संकेत नहि देख रहल छियै।”

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तभी चाय वाला कहता है कि मिथिला में उत्कृष्ट नेतृत्व के अभाव में आज लोग ‘ब्राह्मण’ शब्द से भी अपरिचित हो गए हैं, ‘हिन्दू’ और ‘हिंदुत्व’ की बात क्या समझेंगे। अगर समझते भी हैं तो ‘राजनीति’ शब्द ‘उपसर्ग’ और ‘प्रत्यय’ लगाने के बाद।काश !! भारतवर्ष के प्रथम अग्रणी हिन्दू नेता दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह को लोग नहीं भूलते और महाराष्ट्र से आयातित नेताओं के सामने ‘नतमस्तक’ भी नहीं होते और उन्हें ‘पाग’ से भी अलंकृत नहीं करते।

आज स्थिति ऐसी है कि मिथिला के लोगों को, दरभंगा के लोगों को बाहर के लोग आकर ‘ब्राह्मणत्व” और “हिंदुत्व” की बात बता रहे हैं। कहते हैं पानी और संस्कार का बहाव “नीचे को ओर” ही होता है, आज देख भी रहे हैं। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत दो सप्ताह के अंदर दूसरी बार बिहार आये। छह माह में यह उनकी तीसरी बिहार यात्रा है। जून में वो मधुबनी आये थे और छह माह बाद यह उनका दूसरा मिथिला प्रवास हुआ और रामबाग पैलेस के कोने वाले मकान का अतिथि बने।

काफी देर बाहर सड़क पर खड़े-खड़े श्री रामेश्वर बाबू और श्री मुंशीजी बातचीत करते रहे। बात करते यह भी सुने कि दरभंगा के महाराजा का निधन आज से छः दशक पूर्व हुआ। जिस समय महाराजाधिराज अपनी अंतिम सांस लिए, उनका शरीर पार्थिव हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आज के सरसंघचालक मोहनराव मधुकरराव भागवत बारह वर्ष के थे। उनका जन्म 11 सितम्बर, 1950 को हुआ था महाराष्ट्र के चंद्रपुर में और 1 अक्टूबर, 1962 को डॉ सर कामेश्वर सिंह का शरीर पार्थिव हुआ था। विगत साठ वर्षों में दरभंगा के लाल किले के बासिंदों के अनेकानेक रक्त सम्बन्धियों का शरीर पार्थिव हुआ, दरभंगा राज का एक-एक ईंट ढहता गया, सैकड़ों, हज़ारों लोगों का परिवार तीतर-वीतर हुआ; लेकिन शायद ही कभी मोहनराव मधुकरराव भागवत मिथिला या दरभंगा राज के परिवार और परिजनों का कुशल क्षेम पूछने आये थे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक और दरभंगा के राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के पौत्र कपिलेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजाधिराज को नमन करते हुए।

आज अचानक क्या हुआ महाराजा के 114 वे जन्मदिन पर उन्हें “माल्यार्पण” के लिए नागपुर से दरभंगा आना पड़ा, राष्ट्र निर्माण में महाराजाधिराज की भागीदारी को बताना पड़ा। क्योंकि सन 1950 में जन्म लिया व्यक्ति महाराजाधिराज या उनके पूर्वजों का भारतवर्ष के निर्माण में उनके योगदान का “चश्मदीद गवाह” तो हो ही नहीं सकता और ऐसी कोई बात छिपी नहीं है जो मिथिला के लोग अपने राजा के बारे में नहीं जानते हैं।

संघ प्रमुख यह भी कहे कि महाराजा के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता, लेकिन शायद उनके कानों में कोई बताया नहीं कि “मिथिला के राजा को संतान नहीं था और एक संतानहीन व्यक्ति का मृत्यु के बाद उनकी कीर्तियों का यशगान समाज के कल्याण हेतु नहीं, बल्कि राजनीति और अपनी छवि को बरक़रार रखने के लिए होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज मिथिला का, दरभंगा राज का यह हश्र भी नहीं होता, लगभग 6200 वर्ग किलोमीटर में फैला साम्राज्य आज दरभंगा में आठ कमरों में और दिल्ली में पांच कमरों में नहीं सिमट जाता।

दरभंगा राज परिवार के एक अहम् सदस्य तो यहाँ तक कहते हैं कि “दू चारि लगुगा भगुआक अतिरिक्त आर कोनो उपलब्धि नै। हॅ महाराजक आदमकद फोटो पर माल्यार्पण केलैन्ह से कहि सकैत छी ।” जबकि एक अन्य महानुभाव कहते हैं कि “विरासत की लूट का वक्त चल रहा है। सम्पत्ति तो समाप्त हुई। नाम को बेचा जा रहा है। शायद सभी लोग, यहाँ तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक प्रथम हिंदू संघ – भारत धर्म महामंडल के अध्यक्ष को भूल सिर्फ़ उनके महाराज होने की चर्चा कर रहे थे। यह दुर्भाग्य है दोनों तरफ से। अगर श्री मोहन भागवत भूल गए तो रामेश्वर सिंह के परिवार की पीढ़ी को भी कहाँ याद रहा या मोहन भगवत को याद दिलाने का मानसिक हैसियत रखते हैं। चाहिए तो यह था कि दोनों व्यक्ति अखंड भारत के हिंदू संगठनों का इतिहास तो देख लेते, पढ़ लेते। अगर ऐसा होता तो आज दरभंगा राज का यह हश्र नहीं होता।

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आगंतुक अथवा निमन्त्रण दाता के मन में चाहे जो भी “भावना” हो, निमत्रण कर्ता को इस बात को गर्व से कहना चाहिए था कि 1898 में भारत धर्म महामंडल का गठन हुआ था । दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह अध्यक्ष हुए और आजीवन रहे। यही भारत धर्म महा मंडल 1902 में हिन्दुओं के लिये एक विश्वविद्यालय की माँग का प्रस्ताव भी इलाहाबाद अधिवेशन में पारित किया। सन 1906-1907 में गंगा के निर्बाध जल के लिये सरकार से समझौता भी किया। सरकार ने इसके अध्यक्ष को 1905 और 1911 में भारत के हिंदू का नेता माना। जिस महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह, जिनके आदम कद प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया के पिता श्री रामेश्वर सिंह 1906 में बिहार हिंदू एसोसिएशन का निर्माण किए। इसी से प्रेरित होकर पंजाब हिंदू एसोसिएशन और भारत हिंदू एसोसिएशन 1911 में बना। गौरक्षा का प्रस्ताव भी पारित हुआ। हिंदू और अकाली के बीच गुरुद्वारा के मामले में समझौता हुआ।

​इतना ही नहीं, दो​-दो अंतरराष्ट्रीय सर्व धर्म संसद का भी मथुरा में और ​इलाहाबाद में आयोजन किया गया।​ बाद में वसुंधरा राजे के ससुर भी इसके अध्यक्ष हुए। फिर कामेश्वर सिंह हुए। कामेश्वर सिंह ने बनारस में एक मकान भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को दान दिया। मिथिलांचल से लोगों को नागपुर में प्रशिक्षण के​ ​लिये दरभंगा राज में पैसे देकर भेजा और ये क्रम ​1947 तक चला।​ लेकिन भारतीय इतिहास में दरभंगा को हिंदू संगठन का ​अग्रणी मानने में तिरस्कार किया गया।​ इतना ही नहीं, प्रथम गोलमेज़ में ​डॉ सर ​कामेश्वर सिंह ने ही हिंदू ​सिविल कोड का विरोध किया था जो भाषण छपा है।​ लेकिन मिथिला के लोग ही नहीं, हिन्दू लोग भी भूल गए। हो भी कैसे नहीं – जब दरभंगा के संतानहीन महाराजाधिराज के छोटे भाई (दैयाद) के वंशज अपना “टीक” ही नहीं रखते, फिर इन विषयों को क्या समझेंगे और क्या समझायेंगे।

महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजा महेश्वर सिंह के सबसे बड़े पुत्र थे। महाराजा महेश्वर सिंह दरभंगा राज के 16 वें महाराजा थे, जिनके समय काल आते-आते दरभंगा राज तत्कालीन भारत के मानचित्र पर अपनी अमिट स्थान बना लिया था। कहा जाता है कि जब महाराजा महेश्वर सिंह की मृत्यु हुई उस समय लक्ष्मेश्वर सिंह महज दो वर्ष के थे। महाराजा महेश्वर सिंह सं 1850 से 1860 तक दरभंगा के महाराजा रहे। महाराजा महेश्वर सिंह की मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह सं 1880 से 1898 तक कुल 18 वर्ष राजगद्दी पर आसीन रहे। कहा जाता है कि दरभंगा के महाराजा के रूप में ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय देते थे। अपने शासनकाल में इन्होंने स्वयं को सम्पूर्णता के साथ सार्वजनिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिए ।​

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महाराजा रामेश्वर सिंह

सं 1898 में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की मृत्यु के बाद रामेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजा बने। इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। महाराज रामेश्वर सिंह भी अपने अग्रज की भाँति विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार नरेन्द्र थे। महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह को दरभंगा राज की राजगद्दी पर बैठने के बाद रामेश्वर सिंह को दरभंगा राज का बछोर परगना दी गयी और रामेश्वर सिंह ने अपना मुख्यालय राजनगर को बनाया l उनकी अभिरुचि भारतीय संस्कृति और धर्म में था। महाराजा रामेश्वर सिंह ने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाये तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। अपनी अभुरुची के अनुरूप उन्होंने राजनगर में राजप्रसाद का निर्माण कराया जिसकी कोना- कोना हिन्दू वैभव को दर्शाता था l तालाबों से युक्त शानदार महलों और भव्य मंदिरों, अलग से सचिवालय, नदी और तालाबों में सुन्दर घाट जैसे किसी हिन्दू साम्राज्य की राजधानी हो।

महाराज रमेश्वर सिंह वास्तव में एक राजर्षि थे इन्होने अपने इस ड्रीम लैंड को बनाने में करोड़ों रूपये पौराणिक कला और संस्कृति को दर्शाने पर खर्च किये थे। देश के कोने कोने से राजा महाराज, ऋषि, पंडित का आना जाना रहता था। जो भी इस राजप्रसाद को देखते थे उसके स्वर्गिक सौन्दर्य को देखकर प्रशंसा करते नहीं थकते थे। प्रजा के प्रति वात्सल प्रेम था जो भी कुछ माँगा खाली हाथ नहीं गया। दरभंगा के महाराज के देहान्त के बाद दरभंगा के राजगद्दी पर बैठने के बाद भी बराबर दुर्गा पूजा और अन्य अवसरों पर राजनगर आते रहते थे। दुर्गा पूजा पर भव्य आयोजन राजनगर में होता था। मंदिरों में नित्य पूजा – पाठ, भोग, प्रसाद ,आरती नियुक्त पुरोहित करते थे l राजनगर का सबसे भव्य भवन (नौलखा) 1926 ई. में बनकर तैयार हुआ था, जिसके आर्किटेक्ट डाक्टर एम ए कोर्नी था। महाराजा रामेश्वर सिंह अपनी राजधानी दरभंगा से राजनगर लाना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों से ऐसा न हो सका।

महाराजा रामेश्वर सिंह अपने मृत्यु के पीछे दो पुत्र – कामेश्वर सिंह और दूसरे विशेश्वर सिंह – तथा एक बेटी – लक्ष्मी देवी – छोड़ गए। महाराजा रामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र कामेश्वर सिंह दरभंगा राज की गद्दी पर बैठे। जबकि छोटे भाई विशेश्वर सिंह को राज नगर की संपत्ति दी गई।महाराजा रामेश्वर सिंह की मृत्यु (3 July 1929) के बाद कामेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजाधिराज बने और उनके छोटे भाई विशेश्वर सिंह महाराजकुमार बने। महाराजादिराज कामेश्वर सिंह दरभंगा के अंतिम महाराजा अपनी अंतिम सांस तक बने रहे। यह अलग बात थी कि उनके समय-काल में ही देश आज़ाद हुआ और भारत में जमींदारी प्रथा की समाप्ति भी हुयी। यह भी अलग बात है कि जिस राजनेताओं और तत्कालीन व्यवस्थापकों को अपने समय काल में उन्होंने भरपूर आर्थिक मदद की थी, जमींदारी प्रथा की समाप्ति के विरुद्ध भारत के न्यायालयों में दायक किसी भी मुकदमों में वे सभी साथ नहीं दिए।

इनके समय काल में दरभंगा राज का विस्तार कोई 6,200 किलोमीटर के दायरे में था।ब्रिटिश राज के दौरान तत्कालीन बंगाल के 18 सर्किल के 4,495 गांव दरभंगा नरेश के शासन में थे। राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल थे। इतिहास गवाह है कि महाराजाधिराज सन 1933-1946 तक, 1947-1952 तक देश के संविधान सभा के सदस्य भी रहे। उन्हें 1 जनवरी 1933 को भारतीय साम्राज्य के सबसे प्रतिष्ठित आदेश का नाइट कमांडर बनाया गया। महाराज कुमार विशेश्वर सिंह की मृत्यु इनके जीवन काल में ही हो गयी।

​खैर, यह बात आज की पीढ़ी नहीं समझेंगे। ​

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