दरभंगा राज वनाम बनैली राज ✍ मिथिला के एक राजा तीन विवाह किए ‘संतान’ के लिए 🙏 दूसरे ‘पुनः विवाह’ प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिए (भाग-11)

महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह (दरभंगा) (दाहिने) और राजा कीर्त्यानंद सिंह (बनैली) बाएं

पूर्णियां / दरभंगा : गरीब आदमी का उत्तराधिकारी कोई नहीं बनना चाहता है। वजह भी है। स्वयं को उत्तराधिकारी घोषित करते ही उनकी कमर पर पहली चोट आएगी ‘पार्थिव शरीर’ का अंतिम संस्कार करने हेतु खर्च। अपवाद छोड़कर, आज भी भारतवर्ष में लाखों गरीबों का पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं होता है, जो इस पुण्य के भागीदार होते हैं वे मानवता के पराकाष्ठा को परिभाषित करते हैं। बनारस में आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो जीवन पर्यन्त लावारिश लाशों को महादेव के शरण में पहुँचाने के लिए उनका अंतिम संस्कार करते हैं। लोग तो यह भी कहते हैं कि उस पार्थिव शरीर के कई जीवित शरीर वाले खून के रिश्ते भी होते हैं, परन्तु सम्पत्तिहीन होने के कारण उस जीवित शरीर की आत्मा भी ‘पार्थिव’ ही होता है।  

वहीँ, कृष्ण की नगरी वृंदावन में कई विधवाओं का पार्थिव शरीर विधवा आश्रमों में ‘अर्थ की किल्लत’ के कारण, टुकड़े-टुकड़े में काटकर, बोरी में भरकर, यमुना में फेंक दिया जाता था। यह बात तो मैं महज उद्धृत कर रहा हूँ। दस्तावेज तो भारत के सर्वोच्च न्यायालय में आज भी है। वह तो धन्यवाद के पात्र है सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायमूर्तिगण हैं, जिन्होंने स्वतंत्र भारत के कोई 130 करोड़ आवाम में एक व्यक्ति को चुने और बहुत ही विनम्रता से उन निरीह, असहाय विधवाओं को जीवन के अंतिम सांस में भर पेट भोजन, दवा, पूरे शरीर पर वस्त्र और मरणोपरांत सम्मान के साथ अग्नि के रास्ते श्रीकृष्ण के पास भेजने का दायित्व स्वीकार करने का अनुरोध किये। धन्यवाद के पात्र वे भी हैं जिन्होंने सर्वोच्च न्यायलय के न्यायमूर्तियों के अनुरोध को सहर्ष स्वीकार किये और सम्मान के साथ उस आदेश को पालन भी किये। कर रहे हैं, बिना किसी राजनीति के। वे व्यक्ति भी मिथिला के ही हैं।  

लेकिन धनाढ्यों की बात कुछ अलग होती है। चाहे वे धनाढ्य महाराष्ट्र के हों या मिथिला के। उनके रिश्तेदार चतुर्दिक होते हैं। जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी ‘संपत्ति’ के कारण ‘सम्बन्ध-विच्छेद’ नहीं होता है, चाहे ऊपर मन से ही सही। इतना ही नहीं, जैसे यह ज्ञात होता है कि उस धनाढ्य का कोई संतान नहीं है, उसका कोई अपना वंशज नहीं है, उत्तराधिकारी नहीं है; फिर क्या सम्बन्धियों का तांता लग जाता है। उम्र से लम्बी कतार में लोग पंक्तिबद्ध हो जाये हैं। कभी-कभी तो परिवार के अन्य लोग, चाहे महिला हो या पुरुष, यह चाहते भी नहीं हैं कि उसकी पत्नी के स्तन में ‘दूघ’ आये, उसे संतान की प्राप्ति हो और उसके वंश का उत्तराधिकारी मिले। क्योंकि अगर उसे संतान हो गया तो फिर उसे संपत्ति नहीं मिल पायेगा। समाज में ऐसे भी लोगों की किल्लत नहीं है। कभी-कभी तो समाज अथवा परिवार के लोग उस ‘निरीह महिला’ के विरुद्ध ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचते हैं, जो मानवता के नाम पर कलंक होता है। परन्तु, उन्हें अपनी करनी पर कोई पछतावा नहीं होता । वजह है – संपत्ति। 

मिथिला के लोग कहते हैं कि दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह अपनी मझली पत्नी कामेश्वरी प्रिया की ‘अकाल मृत्यु’ के बाद अपनी बड़ी पत्नी यानी बड़ी महारानी से जीवन के अंतिम सांस तक बात नहीं किये। यह भी कहा जाता है कि बड़ी महारानी ‘विवाहित’ तो थीं, लेकिन जीवन पर्यन्त उन्हें अपने पति’ का स्नेह नहीं मिला। साक्ष्य तो नहीं है, लेकिन दरभंगा के महाराजाधिराज, जो काफी ‘दूरदर्शी’ भी थे, अपने जीवन में इतना बड़ा फैसला – पत्नी को त्यागना –  यूँ ही नहीं लिए होंगे। मिथिला के तत्कालीन समाज के लोगों का मानना था कि महाराजाधिराज की दूसरी पत्नी कामेश्वरी प्रिया “सम्भवतः पेट से थीं” और उनकी मृत्यु से दरभंगा राज का अपना वैध वंशज की आशा समाप्त हो गया। 
 
कहते हैं फाल्गुन झा के प्रपौत्र पंडित गंगाधर झा थे। पंडित गंगाधर झा के तीन पुत्रियां – परमेश्वरी, कामेश्वरी और  बलेश्वरी – थी तथा एक पुत्र चंद्रधर झा थे। परमेश्वरी देवी का विवाह चापहि गाँव के जीवनाथ मिश्र के पुत्र दयानाथ मिश्र से  हुआ। जबकि कामेश्वरी के लिए महाराजा कामेश्वर सिंह का प्रस्ताव आया। लेकिन पिता पंडित गंगाधर झा उक्त प्रस्ताव को नहीं माने। वजह था महाराज कामेश्वर सिंह का ‘शादीशुदा’ होना और पंडित गंगाधर झा यह नहीं चाहते थे कि उनकी पुत्री का विवाह एक ऐसे पुरुष के साथ हो, जो पहले से ही विवाहित हो, यानी ‘द्वितीय वर’। किन्तु बाद में महाराज और अन्य लोगों के आश्वासन से पंडित गंगाधर झा मान गए और फिर कामेश्वरी का विवाह महाराज के साथ सन 1935 में सम्पन्न हुआ। 

महाराज उन्हें बहुत चाहते थे। दरभंगा राज से जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेजों को यदि आज भी खंघाला जाए तो महाराज कामेश्वर सिंह और महारानी कामेश्वरी प्रिया का अनेकानेक दस्तावेज प्राप्त होंगे जो दोनों के द्वारा लिए गए फैसलों का गवाह होगा। तत्कालीन समाज का शायद ही कोई क्षेत्र होगा जहाँ कामेश्वर-कामेश्वरी का संयुक्त हाथ नहीं पहुंचा हो। कामेश्वरी एक निर्धन परिवार से जरूर आई थी, लेकिन अपने माता-पिता, दादा-दादी या परिवार के अन्य बड़े-बुजुर्गों के सानिग्धता में जो भी सीखी थी, वह संस्कार और स्वाभिमान के उत्कर्ष पर था। यह भी कहा जाता है कि महारानी इतनी दयावान थी कि गरीब बच्चों के लिए उन्होंने अपनी रॉयल्स रॉय कार भी दान में दे दी । विवाहोपरांत कामेश्वर-कामेश्वरी का जीवन बहुत सुखमय बीत रहा था। दरभंगा राज में हंसी-ख़ुशी का वातावरण था। सब अच्छा था। पांच-छः वर्ष कैसे बीते न महारानी समझ पाई और ना ही महाराज। एक “ख़ुशी” का वातावरण बन रहा था। चतुर्दिक खुशियों की खुसबू आ रही थी – अचानक “क्या”, “कैसे” “क्यों” हुआ और महारानी कामेश्वरी बीमार हो गयीं। यह बीमारी कुछ ही समय में उन्हें महाराज से दूर कर दरभंगा राज के दरबार से ईश्वर के दरबार में उपस्थित कर दिया।

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तत्कालीन लोगों का यह कहना था कि “जब महारानी अपनी अंतिम सांस ली, वे गर्भवती भी थी।” लेकिन दुर्भाग्य यह है कि विगत 80 वर्षों में दरभंगा के लोग, मिथिला के लोग कभी ‘चूं’ तक नहीं किये। महारानी की मृत्यु के बाद कोई बीस वर्ष तक महाराज कामेश्वर सिंह भी ‘शरीर’ से जीवित रहे – लेकिन ऐसा कौन कारण था जो उस आकस्मिक मृत्यु के कारण की तह तक पहुँचने में बाधक बना। यह सर्वविदित है कि उसी समय महाराज अपनी पहली पत्नी को त्याग दिए थे। अगर कामेश्वरी प्रिया गर्भवती थी, अगर उनका संतान इस मिट्टी पर आया होता तो शायद दरभंगा राज का हश्र यह नहीं होता जो आज है। उनके मरने के बाद महराज को बहुत धक्का लगा। वो टूट गए ओर उनकी याद में बहुत दान करने लगे। उन्होंने उनकी मृत्यु के कुछ दिन बाद ही ब्रिटिश महरानी को 15000 पौंड ऑर्फन रिलीफ़ फंड में दान दिए । फिर उनके याद में उनके जन्मस्थान पर श्यामा मंदिर और बड़ा सा पोखर 51 एकड़ के विशाल भूखंड पर बनवाया। इस मंदिर और पोखर की स्थापना उन्होंने महारानी के पिता के हाथों करवाया था, जिन्होंने इस यादगार धरोहर के लिए दान में 11 एकड़ जमीन भी दिए थे। शेष जमीन  महाराजा ने अन्य लोगों से ख़रीदा था । 

महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह

महारानी कामेश्वरी का बच्चों के प्रति स्नेह के ध्यानार्थ  महाराजा कामेश्वर सिंह ने 1940 में देश का ऐतिहासिक ओर्फनेज और पुअर होम – महारानी अधिरानी कामेश्वरी प्रिया पुअर होम – का नीव रखें। कामेश्वरी प्रिया पुअर होम की स्थापना दरभंगा के तत्कालीन महाराजा सर कामेश्वर सिंह ने अपनी चहेती पत्नी की याद और सम्मान में, उनकी इच्छाओं को पूरा करने के लिए जनवरी 1942 में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत एक सोसायटी के रूप में किये थे। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य  समाज के निराश्रित व्यक्तियों, भिखारियों, परित्यक्त बच्चों, विधवाओं, विकलांगों, वृद्धों के नैतिक – भौतिक – सामाजिक और आर्थिक उत्थान को पुनः प्राप्त करने  के लिए किया गया था।  

खैर, यह बात तो मिथिला के पश्चिमी हिस्से का है। आइये चलते हैं मिथिला के पूर्वी हिस्से पूर्णिया, चंपानगर की ओर क्योंकि यहाँ भी स्थिति ‘सापेक्ष’ नहीं थी उन दिनों । बनैली के राजकुमार कलानंद सिंह और कीर्त्यानंद सिंह, दो भाइयों की आपसी प्रेम तो जग विदित था उन दिनों। संपत्ति कहीं बीच में नहीं आ रही थी। लेकिन समय बदल रहा था और दोनों भाइयों के परिवारों में भी वृद्धि हो रही थी। राजकुमार कलानंद सिंह को ‘पुत्र रत्न’ प्राप्त हो चूका था, जबकि कुमार कीर्त्यानंद सिंह पर ईश्वर की कृपा नहीं हुई थी पुत्र के मामले में । कहते हैं, समय के साथ, उनके परिवारों के बीच मतभेद पैदा होने लगा। एक समय ऐसा आया जब भाइयों के बीच अलगाव अपरिहार्य हो गया। कलानन्द अपने भाई को दिल की गहराइयों से प्यार करते थे और इस बात का ध्यान रखते थे कि उनके बीच कभी भी कोई गलतफहमी न बढ़े। लेकिन जब कुमार कलानंद सिंह का बड़ा बेटा रामानंद बड़ा हुआ, वे अपने पिता को अपने भाई कीर्त्यानंद सिंह से अलग होने के लिए दवाब डालने लगे। 

बनैली राज के गिरिजानंद सिन्हा कहते हैं कि “कुमार रामानंद सिन्हा बहुत महत्वाकांक्षी थे। सन 1918 में कुमार रामानंद सिंह युवा हो गए थे।  उनके जीवन में उत्साह भरा था । उनके अपने विचार थे और तत्कालीन स्थिति से बिल्कुल भी सहमत नहीं थे।  वे नहीं चाहते थे कि उन्हें अपने चाचा के अधीनस्थ रहना पड़े। कुमार कीर्त्यानंद सिंह अपने भतीजे के लापरवाही से अवगत हो रहे थे। वे नहीं चाहते थे कि परिवार में ऐसा कुछ हो जो ‘गलत’ हो।  स्वाभाविक है कि वे उसके क्रिया-कलापों पर रोक लगाने की कोशिश किये।

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परिणाम यह हुआ कि वह पूरा नियंत्रण खो दिया। रामानंद ने विद्रोह पर उतर आये और प्रबंधन के प्रति अपनी असहिष्णुता और अविश्वास व्यक्त करना शुरू कर दिया।  धीरे-धीरे वे अपने माता-पिता को प्रभावित किया। नतीजतन, कुमार कलानंद सिंह अपने भाई कुमार कीर्त्यानंद सिंह से अलग हो गए और विभाजन की मांग की। यह निर्णय तब लिया गया जब कलानन्द अपनी बीमारी के इलाज के लिए कलकत्ता में थे। उन्होंने ड्योढ़ी चंपानगर नहीं लौटने का फैसला किया और इसके बजाय भागलपुर चले गए और आनंद-गढ़ हाउस में रहने लगे । कुमार कलानंद पूर्ण रूप से अपने पुत्र के गिरफ्त में आ गए थे और उन्होंने कुमार रामानंद के प्रभाव में अपने छोटे भाई को लिखे कि वह अलग रहना चाहते हैं। लंबे समय से, दोनों भाइयों के परिवारों के बीच ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धी प्रतिद्वंद्विता चलती रही जो अंततः 1916-17-18 के वर्षों के दौरान सामने आई। 

गिरिजानंद सिंह कहते हैं: “रानी प्रभावती देवी, (कीर्त्यानंद सिंह की पत्नी) को 1908 में अपने पहले बच्चे (एक बेटी) का आशीर्वाद मिला था, जब वह उन्नीस वर्ष की थीं। उन दिनों, एक महिला से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह सोलह वर्ष की उम्र तक अपना पहला बच्चा पैदा कर ले। बच्चे के जन्म में इस देरी ने महल के भीतर विभिन्न अफवाहों को जन्म दिया था। रानी कलावती ने पहले ही कीर्त्यानंद सिंह के लिए दूसरी शादी का सुझाव इस अनुमान पर दिया था कि प्रभावती बांझ हो सकती है। इससे दोनों बहनों के बीच गलतफहमी पैदा हो गई। जबकि, कलावती के पहले से ही दो बेटे थे, रामानंद और कृष्णानंद। यदि कीर्त्यानंद का कोई पुत्र नहीं होता तो वे पूरी संपत्ति में सफल हो जाते। जब अंततः कीर्तिानंद को एक बच्चे का आशीर्वाद मिला, तो वह एक लड़की (गंगा दाई) थी और जहाँ तक संपत्ति के उत्तराधिकार का संबंध था, स्थिति में सुधार नहीं हुआ।”

गिरिजानंद सिन्हा

गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं कि “कीर्त्यानंद सिंह, एक पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। वे पुनर्विवाह के प्रस्तावों को खारिज कर दिए थे। सन 1910 और 1912 में अपनी दूसरी और तीसरी बेटी के जन्म के बाद उत्तराधिकार के सवाल से भी प्रभावित थे वे । उन्होंने अपनी सबसे बड़ी बेटी को पुरुषों के कपड़े पहनने का आदेश दिया। सार्वजनिक अवसरों पर पोशाक, जहाँ वह लोगों के सामने, एक लड़के के राजकुमार के रूप में दिखाई देती थी। इस कार्य से लोगों को यह विश्वास दिलाया होगा कि उसका एक पुरुष उत्तराधिकारी था, फिर भी इसने उसके भाई के परिवार को पूरी संपत्ति को विरासत में लेने की महत्वाकांक्षी योजना बनाने से रोकने के लिए कुछ नहीं किया। 

कहते हैं ईश्वर सब देख रहे थे। राजा कीर्त्यानंद सिंह की खुशी का उस समय ठिकाना नहीं था जब उन्हें 1914 में एक पुत्र का आशीर्वाद मिला, जिसका नाम कुमार कामाख्यानन्द सिन्हा रखा गया। लेकिन यह बालक जीवित नहीं रहा, और 1915 में अचानक मृत्यु हो गई। वारिस की इस असामयिक मृत्यु ने माता-पिता को पूरी तरह से निराश और चकनाचूर कर दिया।”

गिरिजानंद सिंह के अनुसार: “ऐसा कहा जाता है कि राजमाता रानी सीताबती ने बच्चे की आकस्मिक मृत्यु के तरीके में कुछ गड़बड़ महसूस की। रानी कलावती की एक दासी, अमेलिया-माई, को लड़के राजकुमार पर जादू टोना करने के लिए दोषी ठहराया गया था। अमेलिया-माई कलावती की पसंदीदा थी और शादी के दिनों से ही उसके साथ रहने के लिए अपने पिता के घर से आई थी। इस अमेलिया-माई ने, राजमाता द्वारा बुलाए जाने पर, अपनी मालकिन के साथ शरण ली, जिसने उसकी रक्षा की और उसे मुकदमे का सामना करने के लिए राजमाता की उपस्थिति में जाने से मना कर दिया। बाद में उसे चुपके से उसके पैतृक गांव भराम भेज दिया गया।” 

सिन्हा साहब के अनुसार, “रानी कलावती की ओर से इन इशारों ने और गलतफहमियों को जन्म दिया। निराश रानी प्रभावती ने घोषणा की कि वह अब आम महल में नहीं रहेंगी और उनके लिए एक नया महल बनाने की मांग की, जहां वह सुरक्षित रह सकें। इसके अलावा, उसने आसनसोल के पास बकुलिया के एक साधु-तांत्रिक, एक कालीपद सेन गुप्ता की सेवाएं लीं, जिन्होंने उन्हें आश्वासन दिया, कि वह देवी माँ से उन्हें कई पुत्रों का आशीर्वाद देने और उनकी सुरक्षा और लंबे जीवन को सुनिश्चित करने की अपील करेंगे।”

बहरहाल, जुलाई 1916 में कीर्तिानंद सिन्हा को एक पुत्र और दिसंबर 1918 में दूसरा जन्म हुआ। खुश माता-पिता ने आसनसोल के बाबा जी को भव्य उपहार दिए और बकुलिया में देवी माँ के लिए एक मंदिर बनाया गया। मंदिर के रखरखाव के लिए समृद्ध संपत्तियां दी गई। इस बीच रानी प्रभावती देवी के लिए एक नया महल बनाया गया जहां वह अपने बच्चों के साथ रहने आई थीं।  इन सभी घटनाक्रमों ने दोनों भाइयों के परिवारों में और गलतफहमियां पैदा कर दीं। रानी प्रभावती के लिए एक नए महल के निर्माण के कारण कलानन्द के शिविर को उपेक्षित महसूस हो सकता था, और बकुलिया मामले ने उनके अविश्वास को बढ़ा दिया होगा। 1916 में कुमार रामानंद के विवाह समारोह के दौरान, और कलानन्द की लंबी बीमारी के बाद, बड़े खेमे ने उदासीनता और सहयोग की कमी के लिए कनिष्ठ शिविर को दोषी ठहराया। कलाबती ने यहां तक कहा कि कलानन्द की गम्भीर बीमारी के लिए उस पर दूसरे खेमे द्वारा जादू-टोना किया जाता था।”

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राजा कीर्त्यानंद सिंह

गिरिजा बाबू कहते हैं: “कीर्तिानंद की दो बड़ी बेटियों गंगा दाईजी और सरस्वती दाई जी का विवाह 1918 में हुआ था। यहां तक कि कलावती को भी यह पसंद नहीं आया, जिन्होंने शिकायत की कि वरिष्ठता के अनुसार उनकी बेटी भागीरथी दाइजी का विवाह सरस्वती से पहले होना चाहिए था। कीर्त्यानंद सिन्हा की दलील थी कि उनके भाई का परिवार बीमारी के कारण कलकत्ता में था और उन्होंने एक उपयुक्त दूल्हे को उपलब्ध कराने के अवसर को जाने देना समझदारी नहीं समझा। लेकिन वे समझाने में नाकाम रहे। कीर्त्यानंद ने एक युवा, सुन्दर दिखने वाला श्रोत्रिय वर प्राप्त किये, जो वास्तव में उन दिनों बनैली के घर के लिए एक उपलब्धि थी। सन 1916 में कुमार रामानंद सिन्हा के विवाह समारोह को सबसे सामान्य तरीके से मनाने के लिए भी कीर्त्यानंद सिन्हा को दोषी ठहराया गया था, इस तथ्य के बावजूद कि वास्तविक खर्च 1,04,000 / – रुपये से अधिक हो गया था।”

गिरिजानंद सिंह के अनुसार, “कीर्त्यानंद सिंह ने उपरोक्त समस्याओं के लिए अपनी भाभी रानी कलावती को जिम्मेदार ठहराया। अपने पत्रों के माध्यम से उसने रानी सीताबती, जमुना दाईजी और बाबू शक्तिनाथ झा में पूर्ण विश्वास की कमी दिखाई थी, और पूरे परिवार के खिलाफ थी। कीर्त्यानंद सिंह ने प्रबंधक को लिखा, “मैं जानता हूं कि मेरा भाई ऐसा नहीं कर रहा है, लेकिन पीछे की तरफ शरारती सिर हैं जो तार खींच रहे हैं।” उनके मुताबिक, रामानंद का साला निरसू झा भी भाइयों को अलग करने की साजिश में शामिल था। उन्होंने अपने और अपने भाई के बीच संबंध खराब करने के लिए दीवान नाथ प्रसाद और लक्ष्मीपुर के प्रबंधक बाबू अनंत प्रसाद को भी दोषी ठहराया। कीर्त्यानंद सिंह के अनुसार यहां तक कि प्रबंधक ए.बी. सिन्हा अलगाव को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करना चाहते थे ताकि शत्रुतापूर्ण भाइयों के बीच सर्वोच्च आम प्रबंधक के रूप में सारी शक्ति को हड़प लिया जा सके। लेकिन जब प्रबंधक ने अनंत प्रसाद को बेतहाशा सत्ता में बढ़ते देखा, तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने समस्या के लिए अपने समर्थन से इनकार कर दिया। कीर्त्यानंद को डर था कि सह-साझेदारों (एक-दूसरे का विरोध करने वाले मालिक) के बीच आम प्रबंधन के साथ, केवल सामान्य प्रबंधक की शक्ति में सुधार होगा और अवांछनीय ऊंचाइयों तक पहुंच जाएगा। इसलिए उसने अपने भाई से साथ रहने और गलत होने पर उसे माफ करने की गुहार लगाई, लेकिन कलानंद ने पूरी उदासीनता दिखाई और कुछ भी पुनर्विचार करने के लिए तैयार नहीं थे।”

गिरिजानंद जी कहते हैं कि “इन सभी शिकायतों का परिणाम अपरिहार्य अलगाव था। राजा कीर्तिानंद सिन्ह ने श्री एम.जी. हैलेट, जिला मजिस्ट्रेट और पूर्णिया के कलेक्टर से इस मामले में हस्तक्षेप करने और एक समाधान निकालने का अनुरोध किये। मिस्टर हैलेट ने कलानन्द को पत्र लिखकर इस मामले में उनकी राय पूछी। दुर्भाग्यवश राजा कलानन्द ने प्रस्ताव स्वीकार कर दिए। परिणाम यह हुआ कि अगस्त 24, 919 के बाद दोनों भाइयों कलानंद और कीर्तिानंद अलग हो गए, और उनकी लंबी एकता को समाप्त कर दिया। इसके साथ ही अमन-चैन का युग समाप्त हो गया। इसके बाद, बनैली के घर का गौरव और प्रतिष्ठा कभी भी एक समान नहीं रही। यह झगड़े, लगातार झगड़ों और धीरे-धीरे गिरावट की राह पर ले गया। लेकिन, जुलाई 20, 1920 को, सर एडवर्ड गैट के हस्तक्षेप के कारण, प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर, जो पूर्णिया आए थे, इस विषय में मध्यस्थता कर समझौता करने का आग्रह किया गया ताकि अमन फिर बहाल हो। फिर एक समझौता हुआ कि संपत्ति का प्रबंधन सामान्य रहेगा। अंतत: शांति बहाल हुई, तो दोनों भाई एक-दूसरे से मिलने जाने लगे। जब राजा कीर्त्यानंद सिंह अपने भाई को नई ड्योढ़ी में देखने गए, जिसका नाम गढ़-बनैली था, उनका स्वागत किया गया।

क्रमशः 

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