क्या बच्चा, क्या बुढ़ा, क्या बेटी, क्या वहु, वे विश्व के किसी कोने में हों, ‘बनैली राज का वंशज’ कहने में फक्र करते हैं, ‘देवीघर में स्थापित माँ दुर्गा’ के सामने सभी नतमस्तक हैं🙏(भाग-10)

चम्पानगर ड्योढ़ी

चम्पानगर / पूर्णियां /दरभंगा : दरभंगा राज से जुड़े लोग इस बात को भले ‘खुलेआम’ स्वीकार नहीं करें, परन्तु मन-ही-मन पढ़कर मुस्कुरायेंगे जरूर कि दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के शरीर को पार्थिव होने के साथ ही, जिस तरह उनकी साँसे बंद हुई, दरभंगा के लाल कोठी के अंदर-बाहर रहने वाले रहने वाले लोगों, यानी महाराजाधिराज के दायादों, यहाँ तक की उनकी अर्धांगिनियों सहित, आपसी संबंधों की कड़ी टूट कर तितर-बितर हो गई। जिनका सम्बन्ध था, वह रहा नहीं, जो सम्बन्धी नहीं थे, वे ‘जुड़ते’ गए – थैंक्स टू महाराजा की संपत्ति।  

परन्तु, दरभंगा के लाल किले से सड़क मार्ग से कोई 210 किलोमीटर दूर मिथिला के पूर्वी क्षेत्र के बनैली राज के राजाओं के वंशजों में, चाहे रामनगर के हों, गढ़बनैली के हों, चम्पानगर के हों, दुर्गागंज के हों या और भी, आज भी यह तय कर पाना कठिन है कि कौन ‘सहोदर’ हैं, कौन ‘दायाद’ है। वजह यह है कि सभी एक-दूसरों की नजर में पराकाष्ठा से अधिक ‘सम्मानित’, ‘स्नेही’, ‘प्रिय’, ‘प्यारा’, ‘दुलारा’, ‘मनोहर’ और ‘लाडला’ हैं, चाहे ‘महिला’ हों या ‘पुरुष’, विवाहित या विवाहिता हो या कुमार-कुमारी, वधु हों या बेटी । सबों में अपने से बड़ों के प्रति और अपने से छोटों के प्रति ‘अनुशासन’ अपने उत्कर्ष पर है। यह अलग बात है कि मिथिला का यह पूर्वी क्षेत्र, मिथिला के पश्चिमी क्षेत्र में रहने वालों, विशेषकर राजा-महाराजाओं की नजर में प्रारम्भ से ही ‘निम्न’ रहा है, परन्तु मिथिला के इस पूर्वी क्षेत्र में ‘पारिवारिक संस्कार आज भी जीवित’ है। वैसे मिथिला के विद्वान, विदुषियों के लिए यह एक गहन शोध का विषय है। 

दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह तीन-तीन पत्नियों के होते हुए ‘संतानहीन’ मृत्यु को प्राप्त किये । लेकिन अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने छोटे भाई दरभंगा के राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह और उनके पुत्रों को किसी भी स्तर पर कमजोर नहीं होने दिए। संपत्ति की तो बात ही नहीं करें। इस वर्ष के शुरुआत में राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के मझले पुत्र और राज दरभंगा के अंतिम राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह इस संसार से अनंत यात्रा पर निकले । करीब 78 वर्ष की आयु में उनके पार्थिव शरीर को अग्नि के रास्ते महादेव के पास भेजा गया। कोरोना काल होने के बावजूद दरभंगा के ‘संवेदनशील महामानव’ आत्मा और शरीर के साथ राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह की पार्थिव शरीर को अंतिम विदाई दिए। कहते हैं किसी के पार्थिव शरीर के साथ अंतिम संस्कार स्थल तक यात्रा करना, उसे ‘कन्धा देना’, पार्थिव शरीर को ‘स्नान करना’, चिता सजाना, चिता पर पार्थिव शरीर को रखना इत्यादि इस पृथ्वी पर कुछ ऐसे कार्य हैं जो ‘भाग्यशाली’ व्यक्ति को प्राप्त होता है, साथ ही, जो ‘आत्मा से जीवित’ होता है। कुमार यज्ञेश्वर सिंह का पार्थिव शरीर भी कई चेहरों को टकटकी निगाह से ढूंढ रहा था शायद अग्नि को सुपुर्द होने से पूर्व उसके शरीर पर ‘चन्दन’ ना सही, ‘साधारण लकड़ी’ का एक टुकड़ा ही डाल दे। खैर । मृत्योपरांत को आए अथवा नहीं, कोई रोये अथवा नहीं क्या फर्क पड़ता है ‘शरीर से मृत’ मनुष्य के लिए। 

वैसे भी दरभंगा राज के मामले में तो इतिहास गवाह है कि “इधर महाराजाधिराज का शरीर पार्थिव नहीं हुआ, उधर आनन्-फानन में उसे अग्नि को सुपुर्द कर दिया गया और फिर संपत्ति लूट-खसोट के लिए दरभंगा के न्यायालय से कलकत्ता के न्यायालय के रास्ते देश के सर्वोच्च न्यायालय तक, वादी-प्रतिवादियों का याचिकाओं का अम्बार। इतना ही नहीं, अगर ऐसा नहीं होता तो आज महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट या अन्य संस्थाओं पर कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त सम्मानित न्यायमूर्तियों, अधिकारियों के देख-रेख के अधीन नहीं होता। यह मिथिला का पश्चिम भाग है जिसने मिथिला के पूर्वी भाग को ‘महत्वहीन’ समझा। बहरहाल, आइए चलते हैं मिथिला के पूर्वी भाग बनैली, चम्पानगर ड्योढ़ियों में। 

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कुमार कलाानंद सिन्हा अपने भाई कुमार कीर्त्यानंद सिंह से केवल तीन साल बड़े थे। इन दोनों भाइयों ने अपना-अपना बचपन एक ही छत के नीचे जिया, एक ही छत के नीचे पेले, बड़े हुए। स्वाभाविक है, एक दूसरे के लिए, एक दूसरे के प्रति, भाई-चारा, विश्वास, प्रेम, स्नेह स्वाभाविक रूप से दोनों के बीच विकसित हुआ। वे अपनी विधवा माँ के लिए सब कुछ थे और उनकी माँ का एक मात्र जीवन का उद्देश्य था उन्हें सर्वोत्तम संभव तरीके से पालना था। दोनों भाई एक साथ रहे, एक साथ बड़े हुए ।

चम्पानगर ड्योढ़ी के बाबू गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि “कुमार कलानन्द सिंह अपने कनिष्ठ भाई कुमार कीर्त्यानंद सिंह की तरह उज्ज्वल नहीं थे। अपने भाई, जो शरीर से काफी मजबूत थे, की तुलना में वे शरीर और दिमाग में भी काफी कमजोर थे।इसलिए वे एक बड़े भाई की तरह न होकर, एक बेहतरीन मित्रवत थे। आम तौर पर बड़े भाई अपने छोटे भाई की रक्षा करता है और स्वयं को बड़ा दिखाने में गर्व महसूस करता है। कुमार कलानंद सिंह ऐसा नहीं थे। वे कीर्त्यानंद सिंह की क्षमताओं को निहारते थे, धीरे-धीरे उनकी सलाह और समर्थन के लिए उन पर निर्भर होने लगे। कुमार कलानन्द सिंह के रूप में अत्यंत स्नेही और देखभाल करने वाला बड़ा भाई पाकर कुमार कीर्त्यानंद सिंह उन्हें बहुत प्यार करते थे। उन्होंने अपने भाई की दिन-प्रतिदिन की समस्याओं के प्रबंधन के प्रति अपनी विशेष जिम्मेदारियों को समझते हुए अपने बड़े भाई की देखभाल करने के लिए खुद को मजबूत बनाये। परिणाम यह हुआ कि दोनों भाइयों के बीच एक पूर्ण समझ और एकता की भावना विकसित हुई। 

गिरिजानंद सिंह कटे हैं: “वे गरीबी के दिनों से गुजरे थे। अपनी बचकानी मांगों को पूरा करने के लिए कैसे वे मां से जिद किये थे और माँ लैन्डो करेज खरीदने के लिए अपनी बहुमूल्य चूड़ियां बेच दी थीं। पद्मानंद के लोगों द्वारा अपहरण किए जाने के डर से वे एक साथ स्कूल जाता थे। वैसे वे दुर्भाग्यपूर्ण परिणामों को ठीक से समझने हेतु उस समय बहुत छोटे थे, फिर भी उनकी मां उन्हें उनके वैध अधिकारों को समझने में भरसक प्रयास की। भय अवश्य था कि कहीं वे समझाने में विफल रहीं तो क्या होगा। लेकिन उन्होंने उम्मीद की उम्मीद कभी कम नहीं होने दिए और उन्हें विश्वास था कि एक दिन माँ की सभी समस्याएं समाप्त हो जाएँगी। समय बीतता गया। एक समझौता के तहत अपने पिता की संपत्ति का 9 आने का विरासत उन्हें मिला। भाइयों के बीच विकसित हुई एकता की यह भावना लंबे समय में पूरे परिवार के लिए बहुत फायदेमंद साबित हुई। कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण कदम, जो उन्होंने एक साथ उठाए, बनैली राज को विघटन और विखंडन से बचाया, और इसे अंत तक बरकरार रखा।

बाबू गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं कि “1892 के सुलेहनामा की शर्तों के अनुसार, कुमार कलानंद सिंह और कुमार कीर्त्यानंद सिंह संयुक्त रूप से बनैली राज के 9 आने के हिस्से के हकदार हुए। लेकिन यह तय किया गया कि संपत्ति एक आम प्रबंधक के अधीन ही रहेगी, जब तक कि छोटे शेयर धारक, यानी कुमार कीर्त्यानंद सिंह ‘वयस्क’ नहीं हो जाते। और यह समय 23 सितम्बर, को आया। यानी, 23 सितम्बर, 1904 के बाद 9 आने के मालिक अपने हिस्से का अलग प्रबंधन करने के लिए स्वतंत्र थे। कुमार कीर्त्यानंद सिंह और कुमार कलानंद सिंह ने अपनी मां और प्रबंधक शिव शंकर सहाय की सलाह से 12 साल की अवधि के लिए 7 आने का पट्टा लेने का विकल्प चुना। वे अपने विभिन्न लेनदारों को संतुष्ट करने के लिए 7 आने को ऋण के रूप में 4900000/- रुपये की एक बड़ी राशि देने पर सहमत हुए। अब 9 आने ही 7 आने के एकमात्र लेनदार बन गए। जब उपरोक्त पट्टे की अवधि समाप्त हो गई, तो 7 आने का एक नया पट्टा दिनांक पहली सितम्बर, 1916 को 12 वर्षों की अवधि के लिए निष्पादित किया गया। यदि देखा जाय तो ये दोनों पट्टे संपत्ति को अक्षुण्ण रखने के लिए पूरी तरह जिम्मेदार थे। संयुक्त प्रबंधन के लाभों को ज़मींदारों और सरकार ने देखा और सराहा भी । लेकिन परिणाम यह हुआ कि भविष्य में, सरकार ने इसे संपत्ति के विभाजन के हर प्रयास को, जहाँ तक संभव हो, हतोत्साहित करने की नीति बनाई।

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गिरिजानन्द सिंह

गिरिजाबाबू कहते हैं: “आज बनैली राज नहीं है, लेकिन बनैली राज के परिवार का हर वंशज आज भी एक नाम से एकजुट है, वह है बनैली राज । आज प्रत्येक वंशज बिहार की सबसे बड़ी जमींदारी का हिस्सा होने का फक्र महसूस करता है। श्रीनगर शाखा के कई वंशज, जिन्हें मैं जानता हूं, अब बनैली परिवार के सदस्य के रूप में रहना पसंद करते हैं। यह अलग बात है कि पूर्वजों ने श्रीनगर राज के रूप में एक अलग अस्तिव बनाये थे, लेकिन आज सभी बनैली राज के परिवार हैं। बनैली राज एक सम्पूर्ण परिवार था, आज भी है।”

दो भाइयों ने खुद को ड्योढ़ी चंपानगर में स्थापित किये और प्रांत के प्रमुख जमींदारों के रूप में अपनी स्थिति को सफलतापूर्वक मजबूत किये। उनके किले चारों ओर विकसित हुई, नई बस्ती, जिसे ड्योढ़ी चंपानगर कहा जाता है, का नाम उनके पूर्वजों के पुराने गांव की याद में ‘बनैली’ पर रखा गया। नई बनैली की नींव से संबंधित समारोहों के बीच, देवी दुर्गा की एक सुंदर मूर्ति, सफेद पत्थर में, देवी घर में स्थापित की गई। इसकी स्थापना 1908 में की गई थी। मंदिर की दीवार पर शिलालेख में लिखा था: “Aamong the Kings of Aryavarta, the Raja of Banaili, the very generous Leelanand Sinha, realized the worthlessness of the materialistic world. So he remembered the lord Visnu and discarded his body on the banks of the River Ganga. Thus he attained salvation.” ग्रंथों में वर्णित राजा के कर्तव्यों का पालन करने के शौकीन होने के कारण, उन्होंने अन्य राजाओं के अभिमान को अपनी शक्ति और प्रभाव से कुचल दिया। वे सच्चे मन से देवताओं की पूजा करते थे। 

अपने पूर्वजों के प्रति सम्पूर्ण समर्पण को अपने नेत्रों में समेटे बाबू गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं, “सन 1830 में, चैत्र के महीने में, जो बुधवार को पड़ा था, राजा कलानंद सिंह और राजा कीर्त्यानंद सिंह मंदिर के भीतर देवी दुर्गा की प्रतिमा को स्थापित करते परिवार के सम्पूर्ण कल्याण, विकास के लिए आराधना किये, दिप प्रज्वलित किये। आज उस क्षण को 190 वर्ष हो गए। कलानन्द और कीर्त्यानंद की एकता के दिनों में ही बनैली राज का नाम और कीर्ति अपने उच्चतम शिखर पर पहुँची। भाइयों के बीच दोस्ती और भाईचारे का इतना गहरा बंधन था कि वे एक-दूसरे के लिए जान देने के लिए तत्पर रहते थे। कीर्त्यानंद सिंह ने अपनी पुस्तक ‘पूर्णिया ए शिकारलैंड’ में एक घटना का वर्णन किया है:

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देवीघर 

“मैं गर्मी की छुट्टियों का आनंद लेने के लिए घर आया था। मेरा एक दूर का रिश्तेदार अपने मजल लोडर के साथ  बगीचे में चला गया और लोड कर लिया । मैं भी उसके साथ था और बंदूक के पास खेल रहा था, तभी वह अचानक वह चल पड़ी । शॉट्स ने मुझे बांह में लगा, लेकिन सौभाग्य से मैं मजल के इतने पास था कि शॉट्स का विस्तार नहीं हो पाया। फिर भी, मेरी बांह के नीचे से आधा इंच मांस लनिकाल गया और मेरे कपड़ों में आग लग गई। यदि मेरा बड़ा भाई न होता, जो मेरे निकट था, तो मैं बुरी तरह झुलस गया होता, क्योंकि उस समय तक मेरी कमीज की पूरी आस्तीन जल चुकी थी। मेरा भाई दौड़कर मेरे पास आया और उसने मेरे बदन से कमीज फाड़ दी।”

1910 में, कलाानंद सिन्हा और कीर्तिानंद सिन्हा दोनों के नाम राजा की उपाधि के लिए सरकार को प्रस्तावित किए गए थे। सरकार कीर्तिानंद को उपाधि देने के पक्ष में थी क्योंकि वह सार्वजनिक जीवन में अधिक थे और प्रांत में उनकी काफी लोकप्रियता थी। जब कीर्त्यानंद सिंह को सरकार की मंशा का पता चला, तो उन्होंने बहुत प्रयास किया और वरिष्ठ अधिकारियों को आश्वस्त किया कि परिवार और संपत्ति के लाभ के लिए यह अधिक वांछनीय था कि उनके वजाय कुमार कलानंद सिंह को उपाधि से सम्मानित किया जाए। उन्होंने अपने भाई के नाम को वायसराय के पास उपाधि के लिए भेजे जाने पर जोर दिया, और अंत में सफल हुए। 

राजाबहादुर पद्मानंद सिंह 

जब कलानन्द को ‘राजा’ की उपाधि से अलंकृत किया गया और उनके प्रबंधक को राय बहादुर की उपाधि से अलंकृत किया गया। तो बाद वाले ने राजा कलानन्द सिन्हा को लिखा: “I am glad to say that the title has been conferred upon you instead of your brother though we would have been glad to see both of you made Rajas. But since that would have been expecting too much and probably none of you would have got it. We are thankful to government for bestowing the title on you instead of your brother. Though it would be too long to say as to what happened previous to the honour’s list being out. I can say this that your good brother had quite realized the intention of the government and did what was only proper to my mind.

कीर्त्यानंद सिंह के कहा था : “Government has increased the peace and happiness of the family by conferring the title on you as Raja of the family instead of on your brother. I cannot let this opportunity slip without congratulating you on having a brother who is much devoted to you. I hope you will always remember this and feel as I do that your confidence is placed in a person who would do his duty by you, even at great sacrifices to himself when necessary”. इस प्रकार, एक दूसरे में विश्वास और विश्वास के साथ, कलानंद और कीर्तिानंद ने अपनी संपत्ति को मजबूत किया और अपने परिवार को धन और लोकप्रियता के मामले में नई ऊंचाइयों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।

क्रमशः 

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