औ बाबू !! खाली दरभंगा नहि, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्यक विकास में बनैली राजक योगदान सेहो छलै”, लेकिन … ‘पग-पग पोखर, माँछ, मखान….’ यानी ‘राजनीति’ (भाग-9)

टी एन बी कालेज, भागलपुर

चम्पानगर / पूर्णियां : वैसे सत्तर के दशक के पूर्वार्ध से, जबसे पटना से प्रकाशित अख़बारों के कागजों का सुगंध नाक के रास्ते मस्तिष्क तक आया, दरभंगा के लाल किले से, टावर चौक से पटना के गांधी मैदान से, विद्यापति समारोह से, चेतना समिति से मिथिला के ‘सम्मानित’ लोगों का मिथिला के प्रति, मैथिली भाषा के प्रति ‘उदगार’ व्यक्त होते सुना। दिल्ली के जंतर मंतर पर रंग-बिरंगा कसीदाकारी पाग पहने ‘मिथिला के कल्याणार्थ’, ‘मैथिली भाषा के कल्याणार्थ, रक्षार्थ ‘नारे लगते, लगाते’ सुना। दरभंगा के राजा-महाराजाओं की चर्चाएं सुना।

आज भी मोबाईल के वाह्ट्सएप ग्रुपों पर महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, महाराजा रामेश्वर सिंह, महाराजा कामेश्वर सिंह की कीर्तियाँ मिथिला के लोग प्रेषित करते नहीं थकते, चाहे उनका ‘जन्मदिन’ हो या ‘अवसान दिवस’; भले दरभंगा राज की आज की पीढ़ियां ‘सुतल छी आ वियाह होयत अछि’ में विश्वास रखते हों। लेकिन मिथिला के लोग अपने की मिथिलांचल के पूर्वी हिस्से के राजाओं, जमींदारों के बारे में, उनकी कीर्तियों के बारे में, मिथिला और मैथिली भाषा के विकास के लिए उनके द्वारा उठाए कार्यों के बारे में, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में उनके द्वारा संपन्न कार्यों के बारे में एक शब्द लिखने में कलम और दावात आगे नहीं लाये, “चुप्पी” साधे अधिक दिखे। हाँ, दरभंगा-मधुबनी इलाके वाले मिथिला के लोग ‘मिथिला’, ‘मैथिली’, ‘माँछ’, ‘मखान’, ‘पाग’ पर बहस तो ऐसे करते मिले जैसे गोलमेज सम्मेलन कर रहे हों। शब्द बहुत कटु है, लेकिन चिंतन-मंथन अवश्य करें।

जब व्यावहारिक दृष्टि से देखते हैं तो भले आप विश्वास करें अथवा नहीं, औसतन मिथिला के सौ घरों में नब्बे से अधिक घरों में बच्चों से बूढ़ों तक (महिलाओं को अपवाद में रखें) क्या शहर और क्या गाँव, मैथिली भाषा के स्थान पर बोलचाल की भाषा ‘मितहिंदी’ ही दिखती है – मैथिली-हिन्दी और विदेशी भाषाओँ का समिश्रण । पूछने पर कहने में तनिक भी हिचकी नहीं लेते और कहते थकते भी नहीं कि ‘नौकरी-चाकरी-रोजगार पर जाने में उस देश (बगल वाले राज्य, मसलन दिल्ली, राजस्थान, पंजाब, हिमाचल इत्यादि) की भाषा का असर तो परबे करेगा न।”

वे इस हलके में लेते हैं। लेकिन यदि यही सत्य है तो यह ‘चिंतनीय’ है। हमारी मैथिली भाषा की कमर कमजोर हो गई है, तभी दूसरों की भाषाएँ हमारी भाषा पर ‘हावी’ हो रही है। यानी यह कहना सर्वथा गलत है कि “एक बिहारी – सौ पर भारी।” लेकिन इस बात को मिथिला के गणमान्य, विद्वान, विदुषी भाषा के चिंतन-मंथन वाली बैठक में नहीं करते हैं और कैंसर जैसी ऐसी भयंकर बीमारी के निदान के बारे में दरभंगा से दिल्ली तक कभी नहीं सुना, कभी अख़बारों में नहीं पढ़ा।

आज भले मिथिला लोक-चित्रकला को विश्व में प्रचार-प्रसार के माध्यम से फैलाएं, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मिथिला लोक चित्रकला के कलाकार आज मृत प्राय हो गए हैं, जहाँ तक ‘आर्थिक संरक्षण और सम्पोषण’ का सवाल है । समाज, सरकार अथवा मिथिलांचल के जिला प्रमुखों से इस ऐतिहासिक लोक चित्रकला को उतना संरक्षण नहीं मिलता है, जितने का वह हकदार हैं। आज स्थिति ऐसी हो गयी है की मिथिलाञ्चल के लोग, विशेषकर पुरुष समुदाय, न केवल ‘पाग के वास्तविक महत्व’ से अपरिचित हैं, बल्कि उसका सम्मान भी नहीं कर पा रहे हैं । अगर ऐसा नहीं होता तो इस पाग को ‘सब धन बाईस पसेरी’ जैसा सभी के माथे पर सजाकर फोटो-सेशन नहीं करते, सोशल मीडिया पर या भारत की सड़कों पर “पाग का राजनीतिकरण नहीं होने देते, नहीं करते। शब्द कटु हैं, लेकिन विचार करने योग्य है। कल तक पाग पर किसी तरह की चित्रकारी की मान्यता नहीं थी, शायद आज भी नहीं होगी । लेकिन आज स्थिति ऐसी है जैसे मिथिला समाज की आम सहमति से अपने पारंपरिक प्रतीक ‘पाग’ के स्वरूप को बदल दिया गया हो। या फिर, बाजार का चमक-दमक मिथिला की सांस्कृतिक संकेत पर अपना कब्जा कर लिया हो।

आगे बढ़ते हैं। जिस महामहोपाध्याय ने मिथिला का चित्रण ‘पग-पग पोखर, माँछ, मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या, वैभव, शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक’ इन शब्दों में किये थे, वे बहुत दूरदर्शी थे​ ​और उन्हें ज्ञात था कि आने वाले समय में मिथिला के लोग उनकी कविता को मिथिला के चौराहों पर ‘पाठ’ करके, मिथिला का ‘गुणगान’ करके अपने-अपने हिस्से की मिथिला अपने नाम लिखाएँगे, राजनीतिकरण करेंगे । इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिस समय इस कविता की रचना हुई होगी, उस कवि के नजर में मिथिला और उसकी गरिमा अपने उत्कर्ष पर रहा होगा।

जब मिथिला में असंख्य पोखर / तालाब रहा होगा तो उसके महार (इम्बैंकमेंट) पर पान की खेती, मखान की खेती होती होगी, जिसका उपयोग अपने-अपने घरों में, आगंतुकों के लिए, सगे-सम्बन्धियों के लिए किया जाता होगा। कोई सौ वर्ष पहले तक मिथिला में ‘शिक्षा’ चाहे ‘प्राथमिक’ हो, ‘माध्यमिक’ हो या ‘उच्च शिक्षा हो – पढ़ने वालों के साथ-साथ पढ़ाने वालों की किल्लत नहीं थी। अपने-अपने क्षेत्र के अनेकानेक आचार्य, प्राचार्य, महामहोपाध्याय समाज में उपलब्ध थे। शिक्षा के मामले में बनारस और इलाहाबाद की दूरियां मिथिला से अधिक नहीं थी। पाटलिपुत्र में भी मिथिला के लोग आकर शिक्षित होते थे।

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सबसे महत्वपूर्ण बात तो माँछ (मछली) से सम्बंधित है। माँछ की कथा-व्यथा बनारसी पान जैसी है। बनारस में पान की खेती नहीं होती, लेकिन हज़ारों-हज़ार पान की दुकानें हैं। प्रत्येक चार दुकान या चार मकान के बाद पान की दुकानें मिलेंगी। लगभग सभी किस्मों के पान यहाँ, जगन्नाथ जी, गया और कलकत्ता आदि स्थानों से आते हैं। पान का जितना बड़ा व्यावसायिक केन्द्र बनारस है, शायद उतना बड़ा केन्द्र विश्व का कोई नगर नहीं है। काशी में इसी व्यवसाय के नाम पर दो मुहल्ले बसे हुए हैं। केवल शहर के पान विक्रेता ही नहीं, बल्कि दूसरे शहरों के विक्रेता भी इस समय इस जगह पान खरीदने आते हैं।

बनारसी पान पर चर्चा यहाँ इसलिए कर रहा हूँ कि आज मिथिला में माँछ की उपलब्धिता जितना है वह मिथिला के दो फीसदी लोगों का उदर शांत नहीं कर सकता। मिथिला के बाज़ारों में जो माँछ आप देख रहे हैं वह बंगाल, आंध्र प्रदेश से आती है। मिथिला में महज ‘ठप्पा’ लगता है। अब सोचिये खाते हैं बंगाल की – आंध्र की मछली और आज भी कविता पाठ किये हैं “पग-पग पोखर माँछ …… ” समय के साथ मिथिला अपनी इस पहचान को न सिर्फ खो दिया है, बल्कि इन सभी चीजों पर अब दूसरे प्रदेशों द्वारा कब्जा भी हो गया है। इस दृष्टि से मिथिला की पहचान खतरे में है।

पूरे मिथिला में पोखरों की संख्या पर विश्लेषण अगर दरकिनार भी कर दें, तो सिर्फ दरभंगा के महाराजा के साम्राज्य में तक़रीबन 9113 पोखर और तालाब थे। आज कितना है, आप स्वयं आंक लें। अतः वास्तविकता यह है कि मिथिला की पहचान पर, माँछ पर, पान पर, मखान पर ग्रहण लग गया है और ‘अवसरवादी’ लोगों का हाल यह है कि दिन-रात-सुबह-शाम अपने-अपने हितों के लिए ‘पग-पग पोखर, पान , मखान ..” कविता पाठ करते थक नहीं रहे हैं। पूरी मिथिला की सांख्यिकी आप निकालें, दरभंगा जिले में रोज तकरीबन 8 टन मछली की खपत है, लेकिन दरभंगा ज़िले से मात्र 500 किलो तक भी मछली बाजार में नहीं पहुंच पाती है। खैर।

राजा कीर्त्यानंद सिंह

आइये, मिथिला के पूर्वी भाग चलते हैं। ‘कीर्ति यस्य सा जीवनी’ इस संस्कृत वाक्यांश ने राजा कीर्त्यानंद सिंह के व्यक्तिगत प्रतीक का एक हिस्सा बनाया। इसका अर्थ है ‘वह, जिसने प्रसिद्धि और लोकप्रियता अर्जित की है, वह हमेशा जीवित रहता है।’ मनुष्य नश्वर है। उनके परोपकार, दान और बलिदान के कार्यों से ही मृत्यु के बाद भी उन्हें याद किया जाता है और उनकी प्रशंसा की जाती है। दूसरे शब्दों में मनुष्य अपने जनहित के कार्यों से अमर हो जाता है। यद्यपि इस आदर्श वाक्य का उपयोग किया गया था और इसका पालन कीर्त्यानंद सिंह ने किया था।

बनैली राज के बाबू गिरिजानन्द सिंह कहते हैं कि “एक बार महात्मा गांधी ने कुमार गंगाानंद सिंह की देशभक्ति की भावनाओं की जमकर तारीफ करते हुए कहा था की देशभक्ति, शिक्षा और सामाजिक सेवा, कुमार गंगाानंद सिंह हमारे जैसे एक हैं।” इसी तरह ‘हिन्दू दृष्टिकोण’ के सम्पादक इन्द्र प्रकाश ने लिखा, “वह हिन्दू उद्देश्य और उसके आदर्शों के बहुत बड़े समर्थक हैं और उन्होंने हिन्दू समाज के उत्थान के लिए बहुत कुछ किया है।” यह सच भी है। अपने जीवन काल में बनैली के राजाओं ने अपने राज के धन का एक बड़ा हिस्सा अपने लोगों और देश के लाभ के लिए खर्च करके, कुछ ऐसा अर्जित किया जो वास्तव में इस भौतिकवादी दुनिया में बहुत दुर्लभ है। और यही कारण है कि राजकीय कागजातों पर भले बनैली राज को समाप्त समझा जाए, लेकिन दशकों बाद आज भी उनके दान और जनहित के कार्यों के लिए याद किया जाता है और यही तो ‘कीर्ति यस्य सजीवती’ है।”

बाबू गिरिजानंद सिंह

बाबू गिरिजानन्द सिंह कहते है कि “हम राजा वेदानन्द सिंह बहादुर से शुरू करते हैं जिन्होंने पूर्णिया के निर्माण के लिए, एक नए शहर के रूप में विकास के लिए सन 1831 ई. में महज 491/- रुपये के वार्षिक किराए पर सरकार को 1203 एकड़ जमीन दिए। वे चाहते थे कि नए क्षेत्र का विकास कुछ इस कदर हो जिसमें सरकारी और सार्वजनिक कार्यालयों के लिए पर्याप्त स्थान मिले। पुराना टाउनशिप पूर्णिया सिटी के इर्द-गिर्द था जो सौरा नदी और अन्य दलदली भूमि के बीच स्थित था। वेदानन्द सिंह काफी दूरदर्शी व्यक्ति थे जो अपनी भूमि पर एक स्वस्थ बस्ती की संभावनाओं को देख रहे थे। वे तक्षण अपनी मदद की पेशकश की जो नए पूर्णिया की नींव रखने में सबसे मूल्यवान साबित हुई। यह अलग बात है कि इस कार्य से उन्हें भू-राजस्व की एक अच्छी राशि का नुकसान हुआ होगा।”

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पीसी रॉय चौधरी के शब्दों में, ““The Banaili Raj has been one of the premier Zamindar families in Bihar not only for the extent of the Estate but also because of the generous patronage the family has given to the cause of Art, Literature and Culture. The Banaili Raj has sponsored a number of educational institutions, libraries, etc; in Bhagalpur district and elsewhere. The Tej Narayan Banaili College in Bhagalpur is an instance. The family has produced several writers in English and Hindi and for some time one of the family members edited a Hindi magazine “Ganga” which was of a high standard .The family has also given liberal donations to various cultural societies and literary writers. Sports have received their particular patronage. Some of the members had encouraged Shikar, Polo and other sports by taking active part in them. Kirtyanand Sinha was a keen Shikari and his books in English on Shikar give us a glimpse of the fast declining wildlife in Bihar. The house has also patronized oriental learning and Culture and has sponsored a number of tols and maktabs.”

गिरिजानंद सिंह कहते हैं : “राजा पद्मानंद सिंह ने वर्ष 1902 में ‘द विक्टोरिया मेमोरियल टाउन हॉल’ के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। कुल 1203 एकड़ भूमि में से कोई पांच 5 बीघा भूमि का एक भूखंड, जिसका सन 1831 में सेटेलमेंट हुआ था, वापस लिया जिसका उपयोग स्थानीय विक्टोरिया मेमोरियल फंड की उप-समिति को प्रदान किया गया, जिसके वे अध्यक्ष थे। लोक कल्याण, विशेषकर शिक्षा के मामले में, सबसे महत्वपूर्ण और यादगार कार्य भागलपुर का तेज नारायण बनैली कॉलेज था। यह कॉलेज 1883 में एक एम.ई स्कूल के रूप में स्थापित किया गया था और पहले दो महीनों के भीतर एक हाई इंग्लिश स्कूल के रूप में स्थापित किया गया । इसके संस्थापक बाबू तेज नारायण सिंह थे जो भागलपुर शहर के एक चिकित्सक बाबू लाडली मोहन घोष से प्रेरित थे। कॉलेज को 1887 में महारानी विक्टोरिया के हीरक जयंती समारोह के अवसर पर ‘द्वितीय कोटि’ का दर्जा दिया गया था और बाद में 1890 में ‘प्रथम श्रेणी’ में परिवर्तित कर दिया गया था।”

गिरिजानन्द सिंह आगे कहते हैं कि “तेज नारायण सिंह और उनके बेटे दीप नारायण सिंह द्वारा 1883 और 1895 में दो ट्रस्ट बनाए गए थे और इसके लिए क्रमशः 1800 और 1200 रुपये का वार्षिक भुगतान प्रदान किया गया। लेकिन उपरोक्त निधि अपर्याप्त होने के कारण कालेज की स्थिति बहुत ख़राब हो गयी थी। अंततः बनैली राज ने इस कालेज के सफल सञ्चालन के लिए, शिक्षा का व्यापक प्रचार प्रसार के लिए “9 आने का उदार दान” दिया गया।” आज भी कालेज के लोग, चाहे शिक्षण कर्मचारी हो या गैर शिक्षण समुदाय के, बनैली राज के उदगार को नहीं भूल पाए हैं।”

राजा कमलानंद सिंह

गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि “1903 में कॉलेज को कुमार कलाानंद सिंह और उनके भाई, कुमार कीर्त्यानंद सिंह, जो उन दिनों बिहार के जमींदारों में एकमात्र बी.ए. थे, से उदार दान मिलना शुरू हुआ। आर्थिक स्थिति को मजबूत करने, शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने के उद्देश्य से कॉलेज के ट्रस्टियों ने दोनों भाईयों से सम्पर्क किये। परिणाम यह हुआ कि दोनों भाइयों ने अपनी संपत्ति के एक हिस्से पर एक नया ट्रस्ट बनाया। कॉलेज को 16,000 प्रति वर्ष मिलना प्रारम्भ हुआ। इतना ही नहीं, कालेज को 60 एकड़ जमीन और 3,50,000 रुपये नकद राशि दान दिए। अगले कुछ दशकों के दौरान, कालेज को बनैली राज से कई बड़े और छोटे दान मिलते रहे । परिणाम यह हुआ कि कई साल बाद, 1959 में, बनैली परिवार के रियासत के दान के कारण कॉलेज का नाम तेज नारायण जुबली कॉलेज से बदलकर तेज नारायण बनैली कॉलेज कर दिया गया जो बाद में भागलपुर विश्वविद्यालय का एक अभिन्न अंग हो गया।”

गिरिजानंद सिंह कहते हैं : “इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपनी कॉलेज की शिक्षा के दिनों से, कीर्त्यानंद सिंह ने अपनी शामें विद्वान और प्रभावशाली लोगों की संगति में बिताना शुरू किया। श्री जे.जी. जेनिंग्स उनके अभिभावक थे। परिणाम यह हुआ कि कीर्त्यानंद सिंह का समाज के तत्कालीन कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ और समाज के समकालीन अभिजात वर्ग के संपर्क में वे आये। उन्होंने भारतीय अभिजात वर्ग के साथ-साथ अंग्रेजी कुलीन वर्ग के भीतर भी प्रभावशाली मित्र बनाए। समय बदल रहा था और कीर्त्यानंद सिंह में राष्ट्रवाद का एक विशिष्ट उभार उभरने लगा था। परिणाम यह हुआ कि उनकी वह सोच तत्कालीन प्रत्येक शिक्षित युवाओं को प्रभावित किया और वे युवाओं पर एक अमिट छाप भी छोड़े। वैसे वह समय ब्रिटिश वर्चस्व का था और देशभक्ति की अपनी आंतरिक भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक रियासत के वंशज के लिए यह बहुत मुश्किल था, बल्कि आत्मघाती था, लेकिन वे कभी पीछे नहीं रहे । जेनिंग्स बाद में पटना विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने।”

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गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं: “चुंकि जमींदारों का अस्तित्व ब्रिटिश राज पर निर्भर था, जमींदारों की स्थिति और भी खराब थी । फिर भी, कीर्त्यानंद सिंघ्ह में अपने देश और लोगों के लिए कुछ करने की तीव्र इच्छा पैदा हुई। उन्होंने महसूस किया कि शिक्षा के विकास और उत्थान के लिए अपने प्रभाव और धन का उचित उपयोग करके वह अपने देशवासियों की अच्छी सेवा कर सकते हैं। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए कीर्त्यानंद सिंह ने अपने प्रभावशाली परिचितों और अपनी पैतृक विरासत का सदुपयोग करना शुरू कर दिया। उन्होंने सही ईमानदारी से शुरुआत की। इतना ही नहीं, बनैली राज ने ऐसे छात्रों को वित्तीय सहायता दी, जिन्हें बिहार औद्योगिक संघ की सिफारिश के माध्यम से उच्च अध्ययन के लिए इंग्लैंड भी भेजा गया था। मैंने 1919 की सदस्यता सूची देखी है जिसमें रिकॉर्ड है कि ऐसे प्रत्येक उम्मीदवार को 100 रुपये दिए गए थे। वही सूचियाँ कहती हैं कि रु. 8 मैथिल छात्रों को 110 मासिक वजीफा के रूप में दिया गया।”

राजा कालिकानंद सिंह

गिरिजानंद बाबू आगे कहते है कि “बनैली (श्रीनगर राज) की श्रीनगर शाखा ने हिंदी और मैथिली साहित्य में ऐसा बहुमूल्य योगदान दिया है कि साहित्य सरोज कमलाानंद और उनके योग्य पुत्र कुमार गंगानन्द का नाम आने वाली कई पीढ़ियों तक बड़ी श्रद्धा के साथ याद किया जाएगा। कुमार गंगानंद सिंह को उनकी देशभक्ति, उनके हिंदू आदर्शों और प्रांत में शिक्षा के उत्थान के लिए सेवाओं के लिए विशेष रूप से याद किया जाएगा।”
बहरहाल, इससे पहले कि हम बनैली राज द्वारा विभिन्न योगदानों और संबंधित खर्चों पर एक नज़र डालें, हमें पता होना चाहिए कि 1910 में सोने का मूल्य 22 रुपये प्रति भरी (11.664 ग्राम) था। आज, समान गुणवत्ता वाले सोने का मूल्य लगभग 50,440 रुपये प्रति दस ग्राम। इससे हमें 1900 और 1940 के बीच किए गए योगदान के वास्तविक मूल्य का अंदाजा अधिक सटीक मिल सकता है।

दस्तावेजों के अनुसार उनके प्रमुख योगदान निम्नलिखित थे: टी.एन.जे कॉलेज भागलपुर को वार्षिक योगदान के रूप में रु.16000/-, टी.एन.जे. के निर्माण के लिए रु.3,50,000/- कॉलेज की इमारतें, महाविद्यालय में विद्युत स्थापना के लिए रु.25000/-, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को रु.1,00,000/-।, अर्थशास्त्र और पुस्तकों में एक पीठ के लिए पटना विश्वविद्यालय को 25000/- रुपये, बेली लाइब्रेरी, पटना के लिए पर्याप्त राशि, पटना मेडिकल कॉलेज (प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज) को 1,00,000/- रुपये, रु. 25,000/- भागलपुर में एक नए टाउन हॉल के निर्माण के लिए, रु. 2000/- टू गेट पब्लिक लाइब्रेरी एंड इंस्टिट्यूट, पटना 1920 में। कुछ अन्य योगदान थे : वर्ष 1915 में सुल्तानगंज मिडिल इंग्लिश स्कूल के विस्तार के लिए 1 बीघा, 1 कथा, 9 धुर भूमि का उपहार, रु. 4000/- हाई स्कूल गोड्डा को दान के रूप में, रु. 1000/- प्रिंस ऑफ वेल्स रिलीफ फंड के लिए, रु. 2000/- लेडी हार्डिंग मेमोरियल फंड के लिए, रु. 4000/- को अकाल चैरिटेबल रिलीफ फंड, भागलपुर, 10000/- भारतीय राहत कोष में, रु. 10,000 / – हार्डिंग स्मारक, पटना को, रु. 4000/- बरियारपुर औषधालय के निर्माण के लिए, रु. 10,000 साल 1916 में युद्ध के लिए मोटर एम्बुलेंस के लिए, 1920 में पशु चिकित्सा अस्पताल, मालदा के विस्तार हेतु भूमि का उपहार, 1924 से धर्म-समाज संस्कृत कॉलेज मुजफ्फरपुर के गरीब लड़कों के लिए 75 / – प्रति माह, 1925 में बिहार और उड़ीसा कुष्ठ राहत कोष में 4000/-,1920 के बाद से मैट्रिक में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले जिला स्कूल पूर्णिया के छात्र को रजत पदक, 1920 को जिला धर्मार्थ राहत कोष, भागलपुर के लिए 4000/- रुपये, 1923 को जमालपुर में नरगा अनाथालय के लिए 1000/-, 1928 में बॉयज स्काउट मूवमेंट के लिए 15,000/- रुपये, 1928 में काशी अनाथालय संघ को 1500 रुपये, बरियारपुर औषधालय के निर्माण हेतु रु. 4000/- । इतना ही नहीं, बनैली राज ने दो मॉडल फार्म चलाकर वैज्ञानिक कृषि और खेती के कारण को बढ़ावा दिया, जो प्रबंधक, शिव शंकर सहाय के समय में स्थापित किए गए थे।

क्रमशः

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