बनैली के राजाओं के वंशज तत्कालीन चौधरी-वंश के जमींदारों की भूमिका को कभी नहीं बिसरे, आज भी नहीं, विशेषकर टंकनाथ चौधरी को🙏(भाग-8)

मिथिला के दो हस्ताक्षर

पूर्णियां / बनैली / चम्पानगर / दरभंगा : साल 1938 था और देश में बिहार और बंगाल के नेताओं के बीच कमर-कस उठापटक हो रहा था। बंगाल के अग्रणी नेता थे सुभाष चंद्र बोस। सुभाष बोस को बिहार के नेताओं के साथ ठन गई थी। दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के अतिरिक्त कोई नहीं था जो बिहार के नेताओं और सुभाष बोस के बीच मध्यस्थता कर दोनों के चेहरों पर मुस्कान ला सकें। महाराजा डॉ सर कामेश्वर सिंह वह सभी पाठ पढ़े थे, जो तत्कालीन भारतीय समाज, बिहार के समाज और मिथिला के समाज के उन्नयन के लिए आवश्यक था।

उधर, भारतीय राजनीतिक मानचित्र पर आज़ादी हासिल करने के लिए इन्किलाब-जिंदाबाद के नारे बुलंद हो रहे थे। तभी कलकत्ता के श्री एच.एन.गुहा रे को एक बात सूझी – क्यों न महाराजाधिराज दरभंगा को बिहार के नेताओं और सुभाष बोस के बीच की खाई को समतल करने के लिए लाया जाए । उन दिनों बिहार का नेता का वास्तविक अर्थ ‘देश का नेता” होना होता था, आज जैसा नहीं कि दो बार नुक्कड़ पर भाषण दे दिए और चार घुटने कद के नेता के साथ तस्वीरें खिंचा लिए और सोशल मीडिया पर अपने-अपने प्रोफ़ाइल’ में ‘पॉलिटिशियन’, ‘पब्लिक फिगर’ दर्ज कर दिए। आज तो सभी बिहारी नेता अपना-अपना मुंह फाड़े प्रदेश के पार्टी प्रमुख के भवन के प्रवेश द्वार के तरफ, उनकी गाड़ी के तरफ देखकर मन गदगद कर लेते हैं। अपनी सोच, समाज और राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य बोध को पटना के गांधी मैदान में त्यागकर, सामाजिक सरोकार को तिलांजलि देकर, स्वहित में कारोबार करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो आज बिहार का हश्र भी ऐसा नहीं होता। अभी क्या हुआ है, धीरज रखें – आने वाला समय बदतर होने वाला है।

बहरहाल, उस दिन बैसाख का अंतिम दिन था। श्री एच.एन. गुहा रे दिनांक 14 अप्रैल, 1938 को दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह को एक पत्र लिखे। पत्र में लिखा था:

“Your Highness,
My respectful Pronam to your Highness on the last day of Baishakh which falls on to-day. I pray to God for your Highness ‘long, healthy and peaceful life.’

I saw Boses – they have already spoken about the compromise to Behar leaders. Mr. Sarat Bose, who will proceed to Darjeeling for some time, asked me to get a copy of the terms of Compromise so that he may send me, with a letter of introduction to Behar leaders – if you approve of it kindly instruct.Awaiting the pleasure of hearing from you soon.

I remain,
Your Highness’
Most obedient servant”

श्री एच.एन. गुहा रे दिनांक 14 अप्रैल, 1938 को दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह को एक पत्र लिखे।

इस पत्र को प्रेषित किये चार साल बीत गए थे। उस दिन 11 अप्रैल था। शायद सं 1942 का साल रहा होगा। वह दिन दरभंगा राज और महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के लिए ऐतिहासिक था। श्री सुभाष चंद्र बोस के परिवार के सदस्यगण दरभंगा आये थे, महाराजाधिराज से मिलने। यह बात मैं नहीं, दस्तावेज कहता है। महाराजाधिराज की बड़ी पत्नी अपनी डायरी में इस बात का जिक्र की हैं। महारानी अपने जीवन के अंतिम समय तक अपने दिन चर्चा के बारे में लिखती थी। खैर।

इस डायरी में लिखे शब्दों के महत्व को दरभंगा राज की आज की पीढ़ी नहीं समझेगी – अगर समझती तो आज महाराजाओं की कीर्तियों का दस्तावेज, भारत के समाज में उनकी गाथाओं की गरिमा यूँ ही मिट्टी पलीद नहीं होता। लेकिन दरभंगा राज से दूर मिथिला का पूर्वी इलाके के तत्कालीन राजाओं की आज की पीढ़ियां दस्तावेजों का महत्व समझती है, अपने पूर्वजों की गाथाओं को पुरातत्व स्वरुप रखने की महत्ता समझती है । क्या महत्व हैं उन क्षणों का, अवसरों का जब इतिहास लिखा गया था उनके पूर्वजों के द्वारा।

महाराजाधिराज की बड़ी पत्नी अपनी डायरी में इस बात का जिक्र की हैं।

यह बात यहाँ इसलिए उद्धृत कर रहा हूँ कि पिछले दिनों साथ-सत्तर के दशक में जब मैं अपने बाबूजी के साथ पटना के मशहूर प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता ‘नोवेल्टी एंड कंपनी’ में कार्य करता था, दूकान के लोगों के लिए, ग्राहकों के लिए ‘पान’, ‘चाय’ बीड़ी’ ‘सिगरेट’ या अन्य सामान दौड़कर लाने वाला एक छोटा बच्चा था। उस ज़माने में श्री योगनाथ झा (अब डाक्टर योगनाथ झा) भी वहां कार्य करते थे। विगत दिनों अपने एक ऐतिहासिक कार्य के सिलसिले में घर आये।

डॉ. योगनाथ झा मिथिला के श्रोत्रिय समाज से सम्बन्धी जो आज मिथिला में हैं भी या फिर उनकी दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी, पीढ़ियां एक अथवा अनेक कारणों से अपने मूल-स्थान से विस्थापित होकर कहीं अन्यत्र भी चले गए, उनके लिए “वंशावली” तैयार किये – बेहतरीन दस्तावेज है, ऐतिहासिक है । दो भागों में प्रकाशित (प्रथम भाग: 384 पृष्ठ और द्वितीय भाग: 428 पृष्ठ) यह ऐतिहासिक वंशावली इस समुदाय के लोगों के लिए महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि 812 पृष्ठों में मिथिला के सभी उच्च कोटि के श्रोत्रियों का यह जीवंत किताब है, उनका ‘वजूद’ इस किताब में समेटा हुआ है।

ऐसी कोशिश थी कि अगर मिथिला के सभी श्रोत्रिय ब्राह्मण इस पुस्तक को धरोहर स्वरुप भी अपने घरों में रखें तो आज ही नहीं आने वाली पीढ़ियों को यह मालूम रहेगा कि ‘वे कौन है’, उनकी उत्पत्ति कहाँ से हुई है।’ डॉ योगनाथ झा, दरभंगा के मिश्रीगंज, पटेल चौक (कबड़ा घाट) में रहते हैं। परन्तु, आधुनिक पीढ़ी के लोगों ने उस पुस्तक की महत्ता को ‘नजर-अंदाज’ कर दिए और यह कहते भी नहीं थके कि ‘आज के इस वैज्ञानिक युग में वंशावली का क्या काम?’ ‘आज तो इंटरनेट पर विवाह से सम्बंधित अनेकानेक साइट्स हैं। वंशावली की आवश्यकता तो विवाह-काल में ही है, इत्यादि-इत्यादि ऐसी बातों का जिक्र किये जो ‘अपच्य’ था। खैर। हम चाहे आज ही नहीं, आने वाले समय में भी कितने ही उत्कर्ष पर पहुँच जायँ, हमें अपनी उत्पत्ति का ज्ञान होना नितांत आवश्यक है, यह मेरी सोच है।

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मिथिला समाज को डॉ. योगनाथ झा का ऐतिहासिक योगदान

बहरहाल, दस्तावेजों को खंघालने पूर्णियां चलते हैं मालद्वार-राजौर यानी चौधरी वंश के बारे में जाने के लिए, वह टंकनाथ चौधरी जिन्होंने मिथिला और मैथिली को साहित्य के मामले में एक नई दिशा दिए बाबू कीर्त्यानंद सिंह और बाबू कालिकानन्द सिंह से मिलकर ।

बनैली राज के गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि “महीपति झा नामक एक मैथिल पंडित के पुत्र रामलोचन, मालद्वार के चौधरी-वंश के संस्थापक हुए । प्राचीन मालद्वार के अंतर्गत् पूर्वी दिनाजपुर का रजौर नामक एक परगना, जो अब बांग्लादेश में है, रामलोचन चौधरीको मालद्वार के तत्कालीन शासक से प्राप्त हुआ और उन्होंने वहीं अपना मुख्यालय बनाया जो रामगंज के नाम से जाना जाता था। रामलोचन ने राज सूचक चौधरी पद ग्रहण किया और एक स्थानीय राजा के रूप में जाने गये। रजौर की गद्दी पर बैठने के साथ ही वे मालद्वार के प्राचीन ‘श्याम राय’ के मंदिर के सेवायत-पद पर भी आसीन हुए । उनके पुत्र राजा दुर्गा प्रसाद और पौत्र राजा बुद्धिनाथ चौधरी के समय में इस ज़मीन्दारी का काफी विस्तार हुआ। सौरिया राज्य जिस समय पतनोन्मुख हुआ उस समय बुद्धिनाथ ने सूर्यास्त कानून के माध्यम से उसके पूर्वी भाग का अधिकांश खरीद लिया जिसके फलस्वरूप पूर्णियाँ जिले में मालद्वार इस्टेट की मिल्कियत बढ़ कर 23 वर्ग मील हो गई। इस भाग की देखरेख के लिये कदवा के निकट एक कचहरी स्थापित की गई जिसका नाम दुर्गागंज रखा गया।”

गिरिजानंद सिंह

गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं कि “बुद्धिनाथ ने शालमारी के पास, गोरखपुर धाम का शिव मंदिर और तेघरा में काली मंदिर की स्थापना की। बुद्धिनाथ चौधरी के दो पुत्र हुए – छत्रनाथ चौधरी और टंकनाथ चौधरी । टंकनाथ चौधरी रामगंज में रहे और छत्रनाथ चौधरी ने दुर्गागंज में अपना मुख्यालय बनाया। रामगंज में टंकनाथ चौधरी ने एक इंगलिश हाइ स्कूल की स्थापना की जिसमें दो सौ लड़कों के लिये एक छात्रावास का भी निर्माण किया गया। वे 1921 ई0 में विधान परिषद में जमींदारों के प्रतिनिधि सदस्य के रूप में चुने गये। कहते हैं कि 18 नवम्बर, 1925 को सरकार ने टंकनाथ चौधरीको ‘राजा’ की पदवी से सम्मानित किया। राजा टंकनाथ चौधरी लगातार सात वषों तक दिनाजपुर नगरपालिका के कमिश्नर और लगातार पंद्रह वषों तक दिनाजपुर जिला परिषद के चेयरमैन रहे। अपने मित्र, कुमार कालिकानंद सिंह और राजा कीर्त्यानंद सिंह के साथ मिलकर उन्होंने जिस प्रकार कलकत्ता विश्वविद्यालय में मैथिली भाषा की पढ़ाई आरंभ करवायी और उसका पोषण करने की दिशा में रजौर चेयर की स्थापना की वह सदैव प्रशंसनीय रहेगा।

आम जन-जीवन की उन्नति में हमेशा चौधरी-वंशका योगदान रहा जिसके साक्ष्य के रूप में इनके द्वारा स्थापित, न केवल दुर्गागंज का उच्च-विद्यालय बल्कि दुर्गागंज, सोनैली और चांदपुर के मघ्य- विद्यालय और सोनैली का गोशाला विद्यमान है। इतना ही नहीं, दुर्गागंज और सोनैली के अस्पताल भी उन्हीं की देन है। सन 1947 ई0 के हिन्दू-मुसलमान दंगों के समय रामगंज बुरी तरह प्रभावित हुआ और राजा टंकनाथ चौधरी के वंशज, पुर्वी पाकिस्तान में अपनी ज़मीन्दारी, सारी धन संपदा और अपने वंश के अधिष्ठाता श्याम-राय को वहीं छोड़कर, भारत में अपने कचहरी (सोनैली) में जा बसने पर बाध्य हुए ।

इसी तरह, सूर्यपुर उर्फ़ सूरजपुर की जमींदारी सैयद जमींदारी सूर्यपुर उर्फ़ सुरजापुर परगने की जमींदार सैयद खान दस्तूर को मुग़ल बादशाह हुमायुँ से, शेरशाह के विरुद्ध मदद करने के पारितोषिक के रूप में मिली थी। दस्तूर खान के बाद उनके दामाद सैयद राय खान ने ज़मीन्दारी संभाली। दस्तूर के नवासे सैयद मुहम्मद जलालुद्दीन खान ने पूर्णियाँ की उत्तरी सीमावर्ती इलाकों से नेपाली भोटियों को मार भगाया और इस बहादुरी के एवज में कहलगाँव परगना के साथ नवाब का खिताब भी हासिल किया। बाद में उन्हीं के एक नौकर ने उनकी हत्या कर दी।

चम्पानगर ड्योढ़ी

एक मत के अनुसार, जलालगढ़ का किला इसी जलालुद्दीन का बनवाया हुआ है। जलाल के बाद मोहिउद्दीन और उनके बहनोई नूर मुहम्मद, नवाब हुये। नूर मुहम्मद के मरने के बाद उनके बेटे सुल्तान, रौशन, रशीद और मकसूद ने क्रमशः गद्दी संभाली। मकसूद के बड़े बेटे जैनुद्दीन मुहम्मद के निसंतान मरने के बाद उनके दोनों भाइयों में उत्तराधिकार को लेकर झगड़ा हुआ मगर निपटारा न हो सका। दोनों चल बसे। अतः उनके दीवान मुहम्मद सैयद को, जमींदारी और कानूनगो दोनों सौंप दी गई। मुहम्मद सैयद के वारिस हुये सैयद मुहम्मद ज़लील। राजस्व चुकाने से इनकार करने की वजह से पूर्णियां के फौजदार सौलत जंग ने चढ़ाई करके ज़लील को गिरफ्तार कर लिया और उनकी ज़मीन्दारी भी छीन ली लेकिन गुलाम हुसैन की कोशिशों के फलस्वरूप ‘सौलत जंग’ के वारिस ‘शौकत जंग’ ने 1756 ई0 में ज़लील के बेटे, सैयद फ़क्रुद्दीन हुसैन को परगना लौटा दिया। सैयद फ़क्रुद्दीन हुसैन ने 1793 ई0 में लाॅर्ड काॅर्नवालिस के स्थायी प्रबंध के अंतर्गत अपने इलाकों का ज़मीन्दारी बंदोबस्त करवाया।

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फ़क्रुद्दीन हुसैन के दो बेटों में बड़े, दीदार हुसैन का वंश खगड़ा-नवाब घराने के नाम से मशहूर हुआ। फ़क्रुद्दीन के छोटे बेटे अकबर हुसैन के निःसंतान होने की वजह से उनकी विधवा ने अपने भाई को ही वारिस बनाया। इनके वंशज किशनगंज-नवाब घराने के नाम से जाने गये। लेकिन किशनगंज वालों ने अपनी सारी संपदा गॅवा दी, जिसका मुख्य अंश नजरगंज के धरमचं लाल और उनके बेटे राजा पी0 सी0 लाल ने खरीदा। बाद में खगड़ा के नवाबों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने के फलस्वरूप किशनगंज वाले एक बार फिर सुरजापुर परगने के हिस्सेदार बने। खगड़ा घराने में नवाब सैयद अता हुसैन, और किशनगंज घराने में नवाब सैयद दिलावर रज़ा प्रमुख हुए ।

गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं कि “महीपति झा नामक एक मैथिल पंडित के पुत्र रामलोचन, मालद्वार के चौधरी-वंश के संस्थापक हुए। प्राचीन मालद्वार के अंतर्गत् पूर्वी दिनाजपुर का रजौर नामक एक परगना, जो अब बांग्लादेश में हैं, रामलोचन चौधरी को मालद्वार के तत्कालीन शासक से प्राप्त हुआ और उन्होंने वहीं अपना मुख्यालय बनाया जो रामगंज के नाम से जाना जाता था। रामलोचन ने राज सूचक चौधरी पद ग्रहण किया और एक स्थानीय राजा के रूप में जाने गये।

सिंह जी के अनुसार, “रजौर की गद्दी पर बैठने के साथ ही वे मालद्वार के प्राचीन ‘श्याम राय’ के मंदिर के सेवायत-पर आसीन हुए । उनके पुत्र राजा दुर्गाप्रसाद और पौत्र राजा बुद्धिनाथ चौधरी के समय में इस ज़मीन्दारी का काफी विस्तार भी हुआ।सौरिया राज्य जिस समय पतनोन्मुख हुआ उस समय बुद्धिनाथ ने सूयास्त कानून के माध्यम से उसके पूर्वी भाग का अधिकांश भाग खरीद लिया जिसके फलस्वरूप पूर्णियाँ जिले में मालद्वार इस्टेट की मिल्कियत बढ़ कर 23 वर्गमील हो गई। इस भाग की देखरेख के लिए कदवा के निकट एक कचहरी स्थापित की गई जिसका नाम दुर्गागंज रखा गया। बुद्धिनाथ चौधरी ने शालमारी के पास, गोरखपुर धाम का शिव मंदिर और तेघरा में काली मंदिर की स्थापना की।

राजा टंकनाथ चौधरी

बुद्धिनाथ चौधरीके दो पुत्र हुए – छत्रनाथ चौधरी और टंकनाथ चौधरी । टंकनाथ चौधरी रामगंज में रहे और छत्रनाथ चौधरी ने दुर्गागंज में अपना मुख्यालय बनाया। रामगंज में टंकनाथ चौधरी ने एक इंगलिश हाइ स्कूल की स्थापना की जिसमें दो सौ लड़कों के लिए एक छात्रावास का भी निर्माण किया गया। वे 1921 ई0 में विधान परिषद में जमींदारों के प्रतिनिधि सदस्य के रूप में चुने गये। सरकार ने 18 नबम्बर, 1925 को टंकनाथ चौधरीको ‘राजा’ की पदवी से सम्मानित किया। राजा टंकनाथ चौधरी लगातार सात वषों तक दिनाजपुर नगरपालिका के कमिश्नर और लगातार पंद्रह वषों तक दिनाजपुर जिला परिषद् के चेयरमैन रहे। अपने मित्र, कुमार कालिकानंद सिंह और राजा कीर्त्यानंद सिंह के साथ मिलकर उन्होंने जिस प्रकार कलकत्ता विश्वविद्यालय में मैथिली भाषा की पढ़ाई आरंभ करवायी और उसका पोषण करने की दिशा में रजौर चेयर की स्थापना की वह सदैव प्रशंसनीय रहेगा।

गिरिजानंद सिंह के अनुसार, “आम जन-जीवन की उन्नति में हमेशा चौधरी-वंश का योगदान रहा जिसके साक्ष्य के रूप में इनके द्वारा स्थापित, न केवल दुर्गागंज का उच्च-विद्यालय बल्कि दुर्गागंज, सोनैली और चांदपुर के ममध्य-विद्यालय और सोनौली का गोशाला गोशाला विद्यमान है। इतना ही नहीं, दुर्गागंज और सोनैली के अस्पताल भी उन्हीं की दें है। सं 1947 में सामुदायिक दंगों के समय रामगंज बुरी तरह प्रभावित हुआ और राजा टंकनाथ चौधरी के वंशज, पुर्वी पाकिस्तान में अपनी जमींदारी, सारी धन संपदा और अपने वंश के अधिष्ठाता श्याम-राय को वहीं छोड़कर, भारत में अपने कचहरी सोनैली में जा बसने पर बाध्य हुए ।

राजा टंकनाथ चौधरी का किला (वर्तमान में) फोटो: Robiulthg

बनैली राज के आज की पीढ़ी के वंशजों को अपने राज, अपने पूर्वजों, अपने राज्य की प्रजाओं, गाँव, कस्बों, तत्कालीन जमींदारों, समाज में उनका योगदान और अन्य बातें एक राज की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक वंशावली जैसा धरोहर के रूप में सुरक्षित और संरक्षित है। जबकि दरभंगा राज, जिसने मिथिला के पूर्वी हिस्से को, वहां के लोगों को महत्व नहीं दिया, उम्मीद नहीं है कि आज की पीढ़ी को अपने पूर्वजों द्वारा किये कार्यों को। ….

इसी तरह, गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं कि “पूर्णियाँ सिटी के नज़रगंज इस्टेट के मालिक मूलतः महाजन थे। ये ‘कोठी वाले नकछेदलाल और महेशलाल’ के नाम से जाने जाते थे। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में बाबू नकछेदलाल ने असजाह और श्रीपुर के कुछ अंश खरीदे और उनके पुत्र बाबू धर्मचंद लाल चौधरीने अपनी ज़मीन्दारी का नाम ‘नज़रगंज’ रखा। धर्मचंद लाल चौधरी ने बाबू प्रताप सिंह से हवेली परगना खरीद कर इस्टेट का विस्तार किया। बाद में उन्होंने सुरजापुर एवं पोआखाली के कुछ अंश भी हासिल किये। पूर्णियाँ के कलक्टर के सुझाव पर नकछेदलाल ने सौरा नदी पर एक पक्का पुल बनवाया जो पूर्णियाँ सिटी को नव निर्मित पूर्णियाँ शहर से जोड़ती थी।

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गिरिजानंद बाबू आगे कहते हैं कि “सन 1899 ई0 में धर्मचंद लाल चौधरी की मृत्यु के पश्चात् उनके एकमात्र पुत्र पृथ्वीचंद लाल चौधरी मालिक हुए। ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘राजा’ की पदवी से नवाज़े जाने के आद वे ‘राजा पी.सी.लाल चौधरी’ के नाम से प्रसिद्ध हुये। वे पूर्णियाँ पोलो क्लब के अध्यक्ष थे। गुलाब-बाग का मेला उन्हीं की देन है। आम जनता के मनोरंजनार्थ लगवाया गया यह मेला, लगभग सौ वषों तक इस प्रान्त के सबसे आकर्षक मेले में से एक माना जाता था। राजा पी.सी. लाल चौधरी, सी.बी.ई. ने नज़रगंज में अपने नाम पर एक हाइ-स्कूल खुलवाया और पूर्णियाँ रेलवे-स्टेशन के समीप, अपनी पहली पत्नी, भागवती प्रसाद चौधराइन की स्मृति में एक धर्मशाला भी बनवाया। इतना ही नहीं, पूर्णियाँ अस्पताल के भवन निर्माण में उन्होंने प्रचुर आर्थिक सहयोग दिया था। पृथ्वीचंद ने नज़रगंज को कई सुंदर इमारतों और उद्यानों से सजाया था जिनके भग्नावषेष आज भी मौजूद हैं। राजा की कुलदेवी, त्रिपुरसुंदरी का मंदिर आज भी विद्यमान है परंतु उसमें स्थापित अष्टधातु की मूर्ति की, कुछ वर्ष पूर्व चोरी हो गई।”

गिरिजानंद बाबू के अनुसार, “पुणियाँ में ब्रिटिश शासन कायम होने के कुछ ही महीनों के भीतर कई यूरोपियन यहाँ आकर रामबाग नामक मुहल्ले में बस गये। यहाँ पर एक चर्च और पादरियों के रहने के लिये कुछ मकान बनाये गये थे जिनके अवषेष 1934 ई0 तक विद्यमान थे। 1831 ई0 में जब वे लोग रामबाग से हट कर नए पुणियाँ शहर में अपने आवास कायम करने लगे तब रोमन कैथोलिक चर्च भी पुराने स्थान से हटा कर नये शहर में बनाया गया। 1882 ई0 में दार्जिलिंग के लाॅरेटो काॅनवेंन्ट की पादरिनों ने पुणियाँ में एक स्कूल और छात्रावास की शुरुआत की थी लेकिन बाद में जेसुइट मिशन चर्च की स्थापना के फलस्वरूप वह बंद पड़ गया और कापुचीन मिशन चर्च दार्जिलिंग लौट गया। प्रोटेेस्टेन्ट ईसाइयों द्वारा उन्नीसवीं सदी में स्थापित एंग्लिकम चर्च आज भी पुणियाँ के दर्शनीय स्थानों में से एक है और ब्रिटिश युग की याद दिलाता है। यह स्थान गिरजा-चौक के नाम से विख्यात है।”

गिरिजानंद जी के अनुसार, “पुणियाँ के युरोपियन ज़मीन्दारों और वाशिंदों में दो नाम प्रमुख हैं- एलेक्ज़ेन्डर जाॅन फोर्ब्स और पामर। रानी इन्द्रावती की ज़मीन्दारी की पतनावस्था में, पामर ने श्रीपुर, कुमारीपुर, कटिहार और फ़तेहपुर सिंघिया का लगभग 25 प्रतिशत अंश खरीदा था। पामर की एकमात्र बेटी, मिसेज डाउनिंग, उसकी उत्तराधिकारिणी हुई। मिसेज डाउनिंग के दो वारिस हुए – उसका बेटा सी.वाइ. डाउनिंग और बेटी मिसेज़ हेज़। कटिहार के निकट ‘मनशाही कोठी’ में इनका मुख्यालय था। आज हेज़ साहब का भव्य आवास, पुणियाँ काॅलेज के मुख्य भवन के रूप में पहचाना जाता है।”

चम्पानगर में दुर्गापूजा

1859 ई0 में मुर्शिदाबाद के महाजन बाबू प्रताप सिंह से सुल्तानपुर परगना खरीद कर एलेक्ज़ेन्डर जाॅन फोर्ब्स ज़मीन्दार बना और उसी के नाम पर सुल्तानपुर परगने में फोर्ब्सगंज नामक शहर बसाया गया। एलेक्ज़ेन्डर जाॅन फोर्ब्स के बाद उसका बेटा आर्थर फोर्ब्स सुल्तानपुर परगने का ज़मीन्दार हुआ लेकिन कलकत्ते में अधिक रहने की वजह से वह अपनी ज़मीन्दारी के प्रति लापरवाह था। उसके मैनेजरों के अत्याचार ने आम जनता में आर्थर की छवि खराब कर दी थी। 1938 ई में आर्थर फोर्ब्स की मृत्यु हुई। आज फोर्ब्स साहब के आवासीय स्थान में पुणियाँ महिला काॅलेज का भवन खड़ा है।

पुणियाँ में नील की खेती सबसे पहले जाॅन केली ने शुरु की। बाद में कई यूरोपियनों ने यहाँ जोर शोर से नील की खेती की। इनमें शिलिंगफ़ोर्ड-वंश सबसे अग्रणी था जिन्होंने नीलगंज, महेन्द्रपुर, भवबाड़ा इत्यादि छःस्थानों में नील की फ़ैक्ट्रियाँ {नीलहा कोठी} स्थापित की। ‘जो’ और ‘जाॅर्ज’ शिलिंगफ़ोर्ड प्रख्यात शिकारी हुये। ‘जो’ शिलिंगफ़ोर्ड के हाथों मारा गया एक विशाल गेंडा कलकत्ते के संग्रहालय में आज भी मौजूद है। पुणियाँ में इस परिवार का भव्य आवास ‘मरंगा हाउस’ के नाम से विख्यात था। इस वंश के ए0 जे0 शिलिंगफ़ोर्ड के वारिस टेरी विलियम्स के आवास में वर्तमान डाॅन बाॅस्को स्कूल प्रांगण है। इस के अलावा चाल्र्स शिलिंगफ़ोर्ड और अमेलिया मारिया शिलिंगफ़ोर्ड का नाम प्रमुख रूप से जाना जाता है।

कुर्सेला इस्टेट के नाम से विख्यात बाबू अयोध्या प्रसाद सिंह के परिवार के लोग बड़े ज़मीन्दार तो न थे पर अगाध भू संपत्ति {लगभग 32000 एकड़} के मालिक होने के कारण, ज़मीन्दारी इस्टेटों के समकक्ष समझे जाते थे। बाबू अयोध्या प्रसाद सिंह 1881 ई0 में पटना से आकर कुरसेला में बसे। उनके पुत्र रघुवंश प्रसाद सिंह को ब्रिटिश सरकार ने राय बहादुर की उपाधि देकर सम्मानित किया। इन्होंने कुरसेला में दो विद्यालय और एक अस्पताल बनवाया। पुणियाँ का सुख्यात ‘कलाभवन’ नामक सांस्कृतिक संस्थान इन्हीं की देन है। इनके तीन पुत्र हुये- अवधेश प्र. सिंह, अखिलेश प्र. सिंह और दिनेश प्र. सिंह। पुणियाँ में बनमनखी के निकट विष्णुपुर के बाबू वीरनारायण चंद का घराना भी ज़मीन्दारी इस्टेटों के समकक्ष माना जाता था।

क्रमशः …..✍️

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