जब उस्ताद विलायत हुसैन खान ने ‘संगीतज्ञों के संस्कार’ में लिखा ✍ ‘बिहार में कुमार श्यामानन्द सिंह से बेहतर संगीत का पारखी कोई और नहीं है….’🙏 (भाग-7)

चम्पानगर ड्योढ़ी

पूर्णियां / चम्पानगर : बनैली राज के राजाओं का अपने प्रजाओं के उत्थान के लिए, चाहे आर्थिक क्षेत्र हो, सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो या शिक्षण – सभी क्षेत्रों में योगदान रहा है और यही कारण है कि आज भी बनैली राज की पीढ़ियां अपने पूर्वजों द्वारा संपन्न कार्यों को धरोहर के रूप में सुरक्षित और संरक्षित रखने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं। ‘अपवाद’ समाज के सभी तबकों में होता है, बनैली राज भी ‘अछूता’ नहीं है। फिर भी, उन दिनों दरभंगा के राजाओं द्वारा उपेक्षित मिथिला का यह पूर्वी हिस्सा, आज मिथिला के अन्य क्षेत्रों से अधिक संपन्न है, विशेषकर ‘मानसिकता’ में। खैर।

यह बात इसलिए यहाँ लिख रहा हूँ क्योंकि भारतीय संगीत के मर्मज्ञ और पूजनीय उस्ताद विलायत हुसैन खान ने अपनी पुस्तक ‘संगीतज्ञों के संस्कार’ में लिखा है: “बिहार में कुमार श्यामानन्द सिंह से बेहतर संगीत का पारखी कोई और नहीं है।” कोई चौदह शब्दों का यह वाक्य किसी मनुष्य को मानव से ‘महामानव’ बना देता है, दिया था।

कुमार श्यामानंद सिंह चंपानगर में अपने निवास पर अपने समय के हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कई उस्तादों को संरक्षण और सम्पोषण किया। कभी उन्होंने न चेहरे को मलिन होने दिया, ना ही कभी हाथ पीछे किया। अलबत्ता, अपनी महान संपत्ति का इस्तेमाल किया शास्त्रीय संगीत जो जीवित रखने के लिए किया ताकि संगीत, संगीतज्ञ, संस्कार जीवित रहे और हमारा देश भारत भी जीवित रहे । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को सीखने और उसके विकास का एक नहीं सैकड़ों द्वार खोल दिए। आज ही नहीं कल भी चंपानगर के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा है, रहेगा कि चंपानगर स्टेट उस्ताद सलामत अली खान, खुर्जा के उस्ताद अल्ताफ हुसैन खान और उस्ताद बच्चू खान साहब, और कई अन्य लोगों को निवास और संरक्षण प्रदान किया गया था।

साल 1942: बाएं से – एक अपरिचित, कुमार दुर्गानंद सिंह, कुमार जयानंद सिंह, कुमार विमलानंद सिंह, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, कुमार तारानंद सिंह और कुमार श्यामानंद सिंह

कहते हैं कुमार श्यामनन्द सिंह शास्त्रीय संगीत का सम्पूर्ण विकास के लिए, लोगों तक पहुँचाने के लिए, प्रदर्शन के लिए कई महान उस्तादों को भी आमंत्रित किया करते थे । मसलन: “आफताब-ए-मौशिकी” उस्ताद फैयाज खान, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद मुबारक अली खान, उस्ताद निसार हुसैन खान, पंडित डी.वी. पलुस्कर, सूरश्री केसरबाई केरकर, सवाई गंधर्व, उस्ताद विलायत हुसैन खान, उस्ताद हाफिज अली खान, उस्ताद अल्ताफ हुसैन खान, पंडित जसराज, दिलीप चंद वेदी, उस्ताद मुश्ताक हुसैन खान, पंडित नारायणराव व्यास, पंडित बसवराज राजगुरु और उस्ताद सलामत अली खान और नजाकत अली खान, मलंग खान (पखावज), अलाउद्दीन खान (सरोद), मुश्ताक अली (सितार), पंडित भोलानाथ भट्ट, पंडित चिन्मय लाहिरी, महावीर मलिक, जदुवीर मलिक और रामचतुर मलिक आदि।

बहरहाल, बीते दिनों के इतिहास का पन्ना पोछते बनैली राज के गिरिजानंद सिंह कहते हैं कि “चम्पानगर का वह पुश्तैनी पुश्तैनी महल आजभी विद्यमान है, जिसमें कुमार श्यामानंद सिंह पले बढ़े, जीवन को भरपूर जिया और सतहत्तरवें वर्ष में पंचतत्व में विलीन हो गए लेकिन सप्त सुरों की लहरी में लिपटी लहराती हवाओं के बीच प्रतिष्ठित वाग्देवी का वह अनूठा मंदिर अब नहीं रहा। प्रातः काल की वह संगीत साधना, दोपहर का वह स्वर-विलास और देर रात तक चलने वाला रागिनियों का वह अनुपम श्रृंगार नहीं रहा। बस वहां के संगीतमय माहौल की यादें शेष हैं।”

गिरिजानन्द सिंह

गिरिजानंद सिंह कहते हैं : “यादें अनगिनत हैं, और बातें तो इतनी हैं कि सैकड़ों पन्नों में भी ना समायें।परिवार में वो सबसे बड़े, और मैं सबसे छोटा, व्यक्तित्व में, पद में, गुण में। फिर भी जैसा मैंने उन्हें जाना, पाया और अनुभूत किया, वह अपने आप में एक रुचिकर है, इसमें कोई संदेह नहीं।बात सन 1963-64 ई0 की। मैं सात-आठ वर्ष का था। उन दिनों दुर्गापूजा के महापर्व पर चंपानगर में गवैयों-बजवैयों का जमघट होता था। नवरतन पैलेस के दरबार हॉल में, लगभग एक पखवाड़े तक सुबह-शाम संगीत की महफिल सजती थी।

समूचे हॉल में दुधिया चाँदनी बिछाई जाती थी, और हॉल के बीचोंबीच एक मखमली कालीन के ऊपर उपर एक विशाल मसनद लगाया जाता था। महफिल के समय मेरे बड़े काका, राजकुमार श्यामनन्द सिंह, सहज शालीनता के साथ मसनद से उठंग कर बैठते थे और उनके अगल-बगल मेरे पिताजी समेत अन्य राजकुमारों के बैठने की जगह होती थी। पीछे की ओर सभी रिश्तेदार, हम लोग, अन्य सभासद और श्रोतागण बैठते थे। हॉल के पूर्वी तरफ, एक दूसरे गलीचे पर अपने साजो-समान और साजिंदो के साथ मुख्य कलाकार बैठकर अपना फन प्रस्तुत करते थे। उत्तरी ओर कलाकारों की जमात थी, और दक्षिणी ओर के दरवाजों पर लटके हुए चिक और पर्दो के पीछे राजघराने की स्त्रियाँ बैठकर संगीत का आनंद लेती थी। झाड़ फानूसों से छनकर आती हुई बिजली की रोशनी से संपूर्ण कक्ष एक दूधिया आलोक में नहाया हुआ लगता था। चार बड़े-बड़े सीलिंग पंखे वातावरण को शीतलता प्रदान करते थे। ऐसे शांत स्निग्ध वातावरण का निर्माण होता था कि मानो महाश्वेता भगवती सरस्वती का साक्षात आविर्भाव हुआ हो।”

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तत्कालीन दृश्यों के समेटते गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं कि “नियत समय पर काकाजी अपना आसन ग्रहण करते और पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार किसी कलाकार के गायन अथवा वादन से संगीत-सभा आरंभ होती थी। जब कभी किसी कलाकार द्वारा बेहतरीन प्रस्तुति की जाती तो संपूर्ण सभागार संगीत से झूम उठता था, और एक अजीब समा बंध जाती थी। लोग इस तरह मंत्रमुग्ध होकर संगीत का आनंद लेते थे, कि प्रस्तुति के समापन पर प्रतीत होता था जैसे समय एकाएक रुक गया हो। सभा स्तब्ध हो गई हो। चारों ओर निशब्द-नीरव शांति के बीच केवल पंखों का घर्र-घर्र ही सुनाई देता था। काकाजी धीरे से शाबाशी देते, कोई बात छेड़ते अथवा केवल मुस्कराकर रह जाते थे। फिर अगली प्रस्तुति होती थी, फिर वही संगीत के सागर में डूबना-उतराना, और फिर वही चुप्पी और पंखों का घर्र-घर्र।”

संगीत महफिलों के अपने कायदे कानून तो थे ही, राज दरबारों के तौर तरीकों के साथ मिलकर एक अत्यंत अनुशासित माहौल बन जाता था। जब तक कोई प्रस्तुति चलती रहती तब तक किसी की क्या मजाल कि चूँ शब्द भी निकाल सके। बैठने की मुद्रा का परिवर्तन करना भी अपेक्षित ना था। अगर कोई ऐसा करता तो राजकुमारों की एक नजर ही उन्हें सहमा कर रख देती। किसी गायन अथवा वादन के बीच सभा से उठकर जाना किसी जघन्य अपराध से कम ना था। ऐसा करने से प्रस्तुतिकर्ता और दरबार दोनों का अनादर समझा जाता था।

परिवार

गिरिजानंद सिंह कहते हैं: “विजयादशमी और लक्ष्मीपूजा की संध्या बैठकों में स्वयं काकाजी प्रस्तुतिकर्ता की कालीन पर विराजते और उनके मसनद को हम लोग हथिया लेते थे। इस अवसर पर विशेष भीड़भाड़ होती थी, और चिक के पीछे बैठने वाला स्थान भी ठसाठस भर जाता था। जो लोग शास्त्रीय संगीत से अधिक रुचि न भी रखते थे वे भी काकाजी के मनोहारी संगीत का रसास्वादन करने के लिए खिंचे चले आते थे। काकाजी हारमोनियम बजाकर गाया करते थे और उनके पीछे उनके दो शागिर्द विशालकाय तानपुरों से सुर छेड़ा करते थे। काकाजी के प्रिय तबला वादक ऋषिकांत सिंह तबले पर संगत करते थे। गाने की प्रस्तुति के बीच जब किसी तान की अभिव्यक्ति के क्रम में काकाजी अपने दायें हाथ को हवा में लहराते थे तो उनकी कानी अंगुली पर धारण की हुई हीरे की अंगुठी से ऐसी धनुषाकार रेखा खिंच जाती थी जैसे विद्युत लता हो। वह दृश्य आज भी मेरे दृष्टिपटल पर इस तरह अंकित है कि याद आते ही मुझे रोमांचित कर देता है।”

“सभा के अंत में, राजमाता द्वारा एक विशेष भजन सुनाने के आग्रह पर नतमस्तक होकर काकाजी द्वारा ‘बन ठन कर आयो रे गोपी’ गाना, और सभी श्रोताओं का अभिभूत होकर का झूमना मैं कभी भूल नहीं सकता। उन दिनों ‘बेणी माधव’ नाम के एक विशेष कलाकार थे जिनकी प्रस्तुति सुनने के लिए लगभग उतनी ही भीड़ होती थी जितनी काकाजी के लिए। ऐसे अवसरों पर पूरा का पूरा रनिवास उमड़कर पर्दो के पीछे बैठ जाता था। पायल और नुपुरों की ध्वनि से दरबार का ध्यान आकृष्ट ना हो इसके लिए राजघरानें की औरतें दरबार की तरफ कदम बढ़ाने से पहले अपनी पायलें और कड़े खोलकर आँचल में बाँध लिया करती थी। फिर भी औरतें तो आखिर औरतें ठहरीं। बहुत देर तक अपने को संयत न रख पाती थीं, और उनकी फुसफुसाहत कभी-कभी चिक-परदों से छनकर काकाजी के कानों तक पहुँच ही जाती थी। वे एक बार कड़ी नजर से परदों की तरफ देखते और बस, उनकी एक नजर ही काम कर जाती थी। पुनः नियंत्रित होकर औरतें बैठ जातीं और बेणी माधव के गाने का आनंद लेने लगती थीं।”

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ड्योढ़ी का बरामदा जहाँ सैकड़ों संगीतज्ञों के चरण पड़े

गिरिजानंद सिंह आगे कहते हैं कि “काकाजी के दरबार में दो तीन गवैये स्थाई तौर पर रहते थे। उनमें उस्ताद अल्ताफ हुसैन खाँ, उस्ताद बाचू खाँ साहेब और पं0 सूर्यनारायण सिंह प्रमुख थे। अल्ताफ हुसैन खां की यादें काफी धूमिल सी रह गई हैं, परंतु बाचू खाँ जिन्हें हम ‘बच्चू खाँ’ या ‘ओस्ताद’ कहा करते थे, मुझे अच्छी तरह याद हैं। वे काकाजी को तो संगीत का तालीम देते ही थे, मेरी बड़ी बहनों को भी गाना सिखाया करते थे। वे अक्सर शाम के चार बजे मेरी बहनों को गाना सिखाने के लिए गाना-कमरे के एक कोने में हारमोनियम लेकर बैठ जाते। वाणी दीदी, वंदना दीदी, उर्मिला दीदी, और सरोज दीदी उन्हें घेरकर बैठ जाती थीं और नए नए बंदिश सीखा करती थीं। वाणी दीदी और वंदना दीदी खूब मन लगाकर सीखती थीं। उर्मिला दीदी थोड़ी चंचला थीं, अक्सर ओस्ताद उनसे कहते ‘ध्यान से सुनो फिर गाओ, तुम मुझसे आगे-आगे ही गाने लगती हो।’

फिर, “सरोज दीदी इतनी धीमी आवाज में गातीं कि ओस्ताद सुन ही नहीं पाते थे। वे सबको चुप करवा देते और सरोज दीदी से कहते थे ‘हाँ बेटा’ अब गाओ, सुनू तो अब, क्या गा रही हो।’ ओस्ताद खुद एक पतले, दुबले और कमजोर से दिखने वाले इंसान थे। मैंने सुना है कि छोटी सी आवाज थी उनकी, लेकिन क्या गाते थे, दिल पर चोट करते थे। सरोज दीदी के पीछे-पीछे उनकी संध्या तालीम में मैं भी जा बैठता था। ‘मोरी बैयाँ ना पकड़ो गिरिधारी श्याम, मैं तो विनती करत गई हारी श्याम’ जब वे दीदी लोगों को सीखा रहे थे, तब मैंने भी वह बंदिश चुपके से उठा ली थी। इस तरह से ओस्ताद मेरे भी संगीत गुरु थे।”

वे आगे कहते हैं: “बचपन में मेरे संगी साथी अधिक न थे। दो ही मित्र थे मेरे, चचेरे भाई बिहारी और दिलीप जो रिश्ते में मेरा भतीजा था। बिहारी भाई का एकमात्र शौक था मोटर गाड़ियों के खिलौने खरीदना और उन्हीं से खेलना। उनके पास रंग-बिरंगी सैकड़ों मोटर गाड़ियाँ थी, जिन्हें वे एक अलग कमरे में करीने से सजाकर रखते और बारी-बारी से उन्हें निकालकर कपोल-कल्पित सड़कों पर दौड़ाते थे। मैं भी नियमित रूप से उनके इस खेल में शरीक होता। मोटर गाड़ियों वाले कमरे से लेकर बाहरी बरामदों, सीढ़ियों और सहन में हमने कई सड़कें चौराहें, यहाँ तक की पुर्णियाँ, कटिहार और कुर्सेला जैसे स्थानों की भी कल्पना कर ली थी। बीच-बीच में कई पेट्रोल पंप भी थे। हम तीनों अपनी पसंद की मोटर गाड़ी लेकर हूँ-हूँ करते हुए उन सड़कों पर कभी कम तो कभी अधिक स्पीड में मोटर दौड़ाते थे।”

इन मोटर गाड़ियों के खेल से मुझे एक दूरगामी लाभ हुआ, जब हम अपनी-अपनी मोटर लेकर खेला करते तब निकट के बैठक कमरे में मेरे बड़े काका अपने शागिर्दों को शास्त्रीय संगीत की तालीम दे रहे होते थे। पूरा वातावरण संगीतमय हो जाया करता था। कभी ललित, कभी जौनपुरी, तो कभी मियाँ की टोड़ी जैसी रागिनियों की अवतारणा होती रहती, और हम अपने नन्हे-नन्हे श्रवणेन्द्रियों से उसका रसपान करते हुए अपनी मोटर गाड़ियों को दौड़ाते रहते। उस सुमधुर संगीत ने शनैः शनैः मुझे उस छोटी उम्र में ही गान रसिया बना दिया था। जैसे ही काकाजी किसी लंबी तान या बहलावा करके मुखड़े पर आकर ठहरते वैसे ही मेरी मोटरकार भी रुक जाती और मैं तल्लीन होकर गुनगुनाने लगता। इस प्रकार सात-आठ साल की छोटी उम्र में ही, मैं काकाजी का अप्रत्यक्ष शागिर्द हो गया था। बाद में उनके शागिर्दों में से एक होने का गौरव मुझे भी प्राप्त हुआ। लेकिन मैं उस गौरव को संभाल न सका। मैंने उनसे विद्या ग्रहण करने में कभी वह निष्ठा और एकाग्रता नहीं रखी जो मुझसे अपेक्षित थी। इस बात का पछतावा मुझे जीवन भर रहेगा।

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ड्योढ़ी – संगीत का महल

गुरु-शिष्य शिक्षा पर गिरिजा बाबू कहते हैं: “काकाजी और उनके शागिर्दों के बीच गुरु-कुल परंपरा के अनुरूप ही शिक्षा-दीक्षा का प्रावधान था। शागिर्दी के आरंभिक दिनों में विशेष जिज्ञासु होना अपेक्षित न था। गुरुदेव के साथ बस गाते रहना और शनैः शनैः संगीत की बारीकियों से अवगत होते जाना, यही हमारे गुरुकुल की रीत थी। एक बार जब मैं कालेज की छुट्टियों में घर आया तो काकाजी ने शुक्ल-विलावल के एक खयाल से हमारी तालीम के क्रम को आगे बढ़ाया जो बचपन से ही मुझे बेहद पसंद था।”

‘कल ना पड़त मोहे, निस दिन अरी दई, बिरहा अगन मोरे तन में जरी दई’।

मेरे खुशी की सीमा न रही और मैं मन लगा कर सीखने लगा। लेकिन कुछ ही दिनों में छुट्टियाँ खत्म हुईं और मेरी तालीम अधूरी रह गई। अगली छुट्टियों में जब मैं घर आया तो गुरुदेव मेरे गुरुभाई ‘जित्तन’ को जौनपुरी सिखा रहे थे और मैं भी वही सीखने लगा। एक दिन मैंने हिम्मत कर के गुरुदेव को याद दिला ही दिया

‘काकाजी, वो गाना बताइये ना!’
‘कौन सा?’ उन्हों ने पूछा
‘शुक्ल विलावल’ मैंने तपाक से कहा
काकाजी मुस्करा उठे और और उन्हों ने मुझसे पूछा
‘अच्छा, कल ना पड़त? तुम्हें कैसे मालूम कि ये शुक्ल बिलावल है?’
अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा। क्या जवाब देता। हकलाने लगा
‘अ अ अ ऐसे ही’
‘ऐसे ही क्या?’ काकाजी ने कहा और हँस पड़े।

कुमार श्यामानन्द सिंह का विलियर्ड्स टेबुल

उसी दिन से एक बार फिर वे मुझे शुक्ल बिलावल सिखाने लगे। लेकिन उस दिन के बाद कई महीनों तक उन्होंने मेरा नाम ही रख दिया ‘शुक्ल बिलावल’। जब भी मुझ पर उनकी नजर पड़ती ‘शुक्ल बिलावल’ कह कर मुझे छेड़ते थे। कभी डाँटा नहीं, फटकारा नहीं। लेकिन एक अनूठे ढंग से अपनी बात बता गए। मुझे सबक मिल गया। असल में गुरुदेव के साथ, बार-बार, बस गाते दोहराते हुए, स्थायी-अंतरे को आत्मसात करना था मुझे। आहिस्ते आहिस्ते राग की जटिल बारीकियों से अवगत होना था, एक एक कर सीढ़ियों को चढ़ना था। एकबारगी नहीं।

रोजाना नियमित तालीम के बाद नियमित रेयाज़ भी अपेक्षित था शागिर्दों से। गाने वाला कमरा, हम लोग जब भी खाली पाते थे, शुरु हो जाते थे। दिन, दोपहर, शाम, कभी भी। जब हम लोग तल्लीन हो कर गा रहे होते थे तो कई बार गुरुदेव दरवाजे की ओट में खड़े होकर हमारा रेयाज़ सुन जाया करते थे। बाद में तालीम के समय कहते थे। ‘ठीक ही गा रहे थे’ बस इस जगह पर थोड़ी कसर रह गई’ यहाँ इस तरह से सुर लगाना है’ और उसी जगह से खुद शुरु हो जाते थे।

फिर कुछ क्षण रुक जाते हैं जैसे अपनी आखों के सामने अपने समस्त पूर्वजों को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते कहते कहते हैं: “आज काकाजी हमारे बीच नहीं हैं। माँ-बाप, गुरु-गुरुपत्नी, कोई भी नहीं। लगभग सभी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ गुरुभाई भी चल बसे। कुमार जयानंद सिंह, कुमार शंकरानंद सिंह, सीताराम झा, शक्तिनाथ झा, सभी चले गये। बस उनकी यादें रह गयी हैं, जो बार-बार अतीत के पन्नों से निकल कर हमारे सामने जीवंत हो उठती हैं। मन में एक टीस सी उठती है : ‘ दैय्या कहाँ गए वो लोग, ब्रज के बसैय्या”

क्रमशः …..✍

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