विश्वविद्यालय-स्तर पर ‘मैथिली भाषा’ एक विषय के रूप में राजबहादुर कीर्त्यानंद सिंह ने प्रारम्भ कराये, लेकिन मिथिला के लोग उनके योगदान पर कभी ‘पुष्पांजलि’ नहीं किये 😢 (भाग-1)

दो अधिष्ठाता : कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति आशुतोष मुखर्जी और राजा कीर्त्यानंद सिंह जिनके कारण ही उच्च शिक्षा में मैथिली विषय पाठ्यक्रम का हिस्सा बना

पूर्णिया: कौन बनेगा साढ़े-सात करोड़पति के हॉट सीट पर बैठे मिथिला के किसी भी सम्मानित मैथिली भाषा-भाषी महानुभाव से अगर अमिताभ बच्चन साढ़े-सात करोड़ मूल्य का एक प्रश्न पूछें कि “भारत के किस विश्वविद्यालय में किस मिथिला के किस राजा के कारण मैथिली भाषा एक विषय के रूप में उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था, साथ ही ‘मैथिली लैक्चर’ स्थापित किया गया था ?” हमें विश्वास है कि ‘हॉट सीट पर बैठे सम्मानित महानुभाव की कुर्सी हॉट हो जाएगी और वे उत्तर नहीं दे पाएंगे। शब्द बहुत कटु हैं, मिथिला के लोगों को हज़म नहीं होगा, परन्तु सत्य यही है। वजह यह है कि मिथिला के लोग दरभंगा के महाराजाओं के अलावे शिक्षा के विकास के क्षेत्र में किसी और राजा-महाराजाओं-जमींदारों के योगदानों को आगे आने नहीं दिए। वजह ‘सर्वविदित’ है।

मिथिला में माँछ-माखन-पाग की राजनीति के कारण आज लोग शायद यह जानते भी नहीं होंगे कि जिस ‘मैथिली’ भाषा को लेकर मिथिला के करीब साढ़े चार करोड़ मैथिली भाषा-भाषी दरभंगा के टावर चौक से दिल्ली के जंतर मंतर तक कुश्ती लड़ रहे हैं; अपने-अपने नामों का सिक्का चलाने का अनवरत प्रयास कर रहे हैं; मैथिली के नाम पर राजनीतिक अखाड़े खोल रखे हैं; आखिर ‘मैथिली भाषा भारत की उच्च शिक्षा में पाठ्यक्रम में कहाँ और कैसे प्रवेश लिया? किस महानुभाव के अथक प्रयास से यह संभव हो पाया था – इस तथ्य को शायद नहीं जानते होंगे।

दरभंगा के राजा-महाराजाओं का भारत के शिक्षा जगत में योगदान अविस्मरणीय है, यह सत्य है; लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि दरभंगा के राजा-महाराजाओं के अलावे भी देश के अन्य राजा, जमींदार का भारत की शिक्षा व्यवस्था मजबूत हो, मिथिला का उत्थान हो, मैथिली भाषा का वजूद हो, पर्याप्त कार्य किये थे – लेकिन आज मिथिला के लोग इतिहास के पन्नों में उसका नाम नजर अंदाज कर दिए हैं।

इतना ही नहीं, लोग माने अथवा नहीं, सं 1977 में कर्पूरी ठाकुर जब बिहार के मुख्य मंत्री थे, और 1980 में डॉ जगन्नाथ मिश्र प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान हुए, “मैथिली” भाषा को मिथिला के नौजवानों के हितार्थ संविधान के आठवें सूची में स्थान प्रदान करने के लिए प्रयास प्रारम्भ किया गया था। उस प्रयास के लगभग 25-वर्ष बाद संविधान के 92 वें संसोधन में ‘बोडो’, ‘डोगरी’, ‘संथाली’ और ‘मैथिली’ भाषाओँ को संविधान के आठवें सूची में स्थान प्राप्त हुआ। साथ ही, संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाओं में ‘वैकल्पिक विषय’ के रूप में दाखिला मिला।

खैर, 2004 से आज तक, यानी विगत दो दशकों में, इन परीक्षाओं में “मैथिली” विषय के साथ कितने अभ्यर्थी उत्तीर्ण हुए हैं और वे मिथिला का कितना कल्याण किये हैं, मैथिली भाषा के विकास के लिए क्या किए, यह एक अलग शोध का विषय है। लेकिन कर्पूरी ठाकुर को या फिर डॉ जगन्नाथ मिश्र को इस पहल के लिए कितना “सम्मान” मिला, यह तो मिथिला के लोग अधिक जानते होंगे।

बहरहाल, 1917 के कालखंड में भारत में, खासकर बंगाल में ‘भाषा’ के प्रति ‘सम्मान’ और राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन की नींव मजबूत होना प्रारम्भ हो गया था। उधर देश की राजनीतिक गतिविधियों में अप्रैल के महीने में मोहनदास करमचंद गाँधी बिहार के चम्पारण जिले में नील की खेती और किसानों के सम्मानार्थ सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिए थे। अगस्त के महीने में एड्विन मॉन्टेगुए, जो ब्रितानिया सरकार का भारत के लिए सचिव थे, भारत के लिए अंग्रेजी नीतियों की घोषणा कर चुके थे। सन 1918 के अप्रैल महीने में रॉलेट कमिटी अपना रिपोर्ट प्रस्तुत कर दिया था। एड्विन मॉन्टेगुए और वाइसरॉय चेम्सफोर्ड अपना संयुक्त संवैधानिक प्रतिवदेन भी प्रस्तुत कर चुके थे। देश में राजनीतिक उथल-पुथल की शुरुआत हो गयी थी।

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तभी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भाषा की महत्ता को स्वीकार करते कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने बनैली के राजा कीर्त्यानन्द सिंह का मैथिली भाषा के प्रति ‘निष्ठा’, ‘प्रतिबद्धता’, ‘सम्मान’, भाषा की विकास के लिए उनकी सोच का सम्मान करते उनसे कहे कि अगर ‘तीन दिन के अंदर’ वे 2500 रुपये विश्वविद्यालय में जमा कर दें तो ‘मैथिली भाषा कलकत्ता विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हो जायेगा। ब्रितानिया हुकूमत के इस काल खंड में ‘मैथिली’ भाषा को भारत के किसी भी विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम के रूप में ‘सम्मान’ मिलना, एक बेहतरीन पहल था।

राजा कीर्त्यानंद सिंह

राजा कीर्त्यानन्द सिंह ने मैथिली की सेवा करने मे अपना सौभाग्य समझ कर तुरंत 2500 विश्वविद्यालय में जमा करवाए और फिर अपनी तरफ से 7500 रुपये अतिरिक्त प्रेषित किये। इसका परिणाम यह हुआ कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर कक्षा तक “मैथिली भाषा” एक विषय के रूप में अपना स्थान प्राप्त किया। इतना ही नहीं, एक वर्ष बाद, सन 1919 में कुमार कालिकानंद सिंह और राजा कीर्त्यानन्द सिंह ने मिलकर 1200 रूपये वार्षिक शुल्क देकर छह वर्षों के लिए ‘मैथिली लैक्चर” स्थापित किये।

लेकिन दुर्भाग्य यह है कि विगत 105 वर्षों में मिथिला के एक भी व्यक्ति, मिथिला के एक भी विद्वान, एक भी विदुषी, मिथिला साहित्य के एक भी तथाकथित धनुर्धर, एक भी हस्ताक्षर कभी ‘मैथिली भाषा’ के प्रति राजा कीर्त्यानंद सिंह अथवा कुमार कालिका नन्द सिंह की भूमिका की चर्चा तक नहीं किये और उन सबों की आवाज दरभंगा राज और दरभंगा के लाल किले से बाहर नहीं निकला। चापलूसी, चाटुकारिता पर यह भी एक शोध का विषय है। पटना विश्वविद्यालय में मैथिली की पढ़ाई 1938 में प्रारम्भ हुई।

राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह राजा लीलानंद सिंह के तीसरे पुत्र थे। उनका जन्म 23 सितम्बर, 1883 को हुआ था। सं 1919 में इन्हे राजा बहादुर की पदवी से अलंकृत किया गया। कलानंद और कीर्त्यानंद में बड़ी मैत्री थी। रानी पद्मावती देवी की मदद से इन दोनों ने पद्मानंद के हिस्से के 7 आने को ठीका प्रबंध पर ले लिया और यह व्यवस्था 1939 ई0 तक चलती रही। कलानंद और कीर्त्यानंद 1919 तक एक साथ ड्योढ़ी बनैली चम्पानगर में रहे। स्थानीय लोगों का कहना है कि राज बनैली का स्वर्णिम काल था।

यह अलग बात है कि बदलते समय में मिथिला के लोगों ने शिक्षा के क्षेत्र में बनैली राज की भूमिका को नजर अंदाज किया, लेकिन इतिहास गवाह है कलानंद और कीर्त्यानंद भाइयों ने शिक्षा के क्षेत्र में, उसके विकास के लिए कई महत्वपूर्ण योगदान दिए। उनका योगदान आज भी पूर्णिया के इतिहास में अंकित है।

सन 1903 में उन्होंने चम्पानगर में एम्. ई स्कूल खुलवाया जो निजी व्यवस्था द्वारा संचालित जिला का पहला विद्यालय था। इसी तरह 1909 में भागलपुर के तेज नारायण जुबली कालेज की बिगड़ती हुई हालत देखकर कलानंद सिंह और कीर्त्यानंद सिंह ने लाखों रुपये देकर उसे नया जीवन दिया।टी. एन. जे. काॅलेज बाद में तेज नारायण बनैली काॅलेज के नाम से प्रसिद्द हुआ। इतना ही नहीं, दोनों भाईयों ने भाइयों ने कई और अनुदान देकर पूर्णियाँ का नाम रोैशन किया। मसलन: पटना विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के रीडरशिप के लिए 25000/-, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में एक लाख रुपये दान किये।

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गिरिजानंद सिन्हा

बनैली राज के गिरिजानंद सिन्हा अपनी पुस्तक “बनैली: रूट्स टू राज” में लिखे हैं कि : “कलानंद सिंह सदैव ऐसा महसूस करते थे कि उपरोक्त सभी अनुदानों में सिर्फ कीर्त्यानंद ही यश के भागी हुए।” यह बात सच भी थी क्योंकि जनता से अधिक आदान-प्रदान बनाये रखने के कारण कीर्त्यानंद सिंह काफी प्रसिद्द थे। उन्होंने यह भी लिखा कि “कलानंद के बड़े लड़के कुमार रामानंद सिंह ने अपने पिता पर दबाब डालकर उन्हें चाचा से अलग होने के लिए मना लिया और दोनों भाई अलग हो गए।” राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह जमींदारों और राजाओं के बीच पहले ग्रेजुएट थे।उन्होंने 1903 में इलाहाबाद महाविद्यालय से बी ए पास किया था। वे इतिहास के स्नातक तो थे ही, अंग्रेजी और हिन्दी के विद्वान भी थे। उन्होंने अपने ‘शिकार’ के अनुभवों पर आधारित दो पुस्तकें अंग्रेज़ी में लिखी थीं – “पूर्णिया ए शिकार लैंड” और दूसरा: शिकार इन हिल्स एंड जंगलस।”

आज पूरा विश्व वन्य प्राणियों की सुरक्षा में भिड़ा है। कितनी ही प्रजातियां ‘बिलुप्त’ होने के कगार पर कड़ी है और ऐसे में उनका संरक्षण अत्यावश्यक है। कीर्त्यानंद सिंह के ज़माने में परिस्थितियां सर्वथा भिन्न थी। पूर्णिया ए शिकार लैंड में वे लिखते हैं: “The country all around is calm, but is not, certainly, devoid of population. A number of scattered thorps dot the plains here and there; but the life of the inhabitants is at times one of danger and dread; for, which their numberless cattle grazing freely in the jungles, attract the cattle lifter from his grassy ambush, the people themselves have at times cleverly to deceive the vigilance of the dangerous man-eater. The welfare of these poor agriculturists and cow herds who are our tenants made me take to the rifle and generated in me and all about me a passion for jungle sport which is the subject of this book.”

कहते हैं कीर्त्यानंद सिंह होमियोपैथिक चिकित्सा के भी अच्छे जानकार थे और उन्होंने इस विषय पर ‘होमियोपैथिक प्रेक्टिस नामक किताब लिखी भी लिखे थे। कीर्त्यानंद सिंह ने काफी कम उम्र में राजनीतिक जीवन में प्रवेश लिया था । मॉर्ले मिन्टो रिफॉर्म्स’ के अंतर्गत वे पुराने बंगाल के विधान परिषद के माननीय सदस्य थे। बिहार और उड़ीसा प्रान्त के गठन होने पर वे पुनः विधान परिषद में भागलपुर के जमींदारों के प्रतिनिधि सदस्य के रूप में चुने गये। सन 1909 ईश्वी में वे भागलपुर के बिहार औद्योगिक सम्मेलन के अध्यक्ष बनें। भागलपुर में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने हिन्दी भाषा की बड़ी सेवा की। सं 1914 के जून माह में वे “राजा” की ुआपाधी से अलंकृत हुए। वे काफी लम्बे समय तक ‘बिहारोत्कल संस्कृत समिति’ के अध्यक्ष भी रहे। जुलाई 1917 को कीर्त्यानंद सिंह ‘चंपारण अग्रेरियन कमिटी’ में जमींदारों के प्रतिनिधि चुने गये और उन्होंने जिस प्रकार जमींदार और रैयत के बीच सामंजस्य सामंजस्य कायम किया, वह न केवल तत्कालीन सरकार बल्कि महात्मा गांधी के द्वारा भी सराहा गया। बाद में, 1919 ई0 में ‘राजाबहादुर’ की उपाधि से अलंकृत किया गया।

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बैंक ऑफ़ बिहार की स्थापना 1911 ई0 में हुई थी। बाबू कीर्त्यानंद सिंह इस बैंक के कार्यशील निदेशक के रूप सन 1929 से 1937 ई0 तक प्रांत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बाद में बैंक ऑफ़ बिहार का स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया में विलय हो गया। इतना ही नहीं, बंगाल के सीतारामपुर में उन्होंने ‘कीर्त्यानंद आयरन एंड स्टील वर्क्स’ खोलकर औद्योगीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास किया था। इस कंपनी ने 1921-22 ई में उत्पादन कार्य प्रारम्भ किया था और गुणवत्ता में यह टाटा कंपनी और बंगाल आयरन कंपनी के समकक्ष माना गया। दुर्भाग्यवश यह ‘कामयाब’ नहीं हो पाया।

उन्होंने 1906 ई0 में प्रांत के पहले अंग्रेजी दैनिक अख़बार ‘द बिहारी’ को सुदृढ़ और सुव्यवस्थित करने में बड़ी मदद की।यही ‘द बिहारी’ बाद में ‘सर्चलाइट’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।”राजा” की उपाधि से अलंकृत होने पर तत्कालीन दैनिक अख़बार ”द एक्सप्रेस“ ने लिखा- “The title of Raja conferred on Kumar Kirtyanand Sinha of Banaili, will undoubtedly be received with very great satisfaction. Raja Kirtyanand Sinha has freely opened his purse for all good works, calculated to promote the advancement of the province, and it is an honour which he richly deserves.”

1933 ई0 में ‘हाउस्टन माउण्ट एवरेस्ट एक्सपीडिशन के अंतर्गत पूर्णियां में ही बेस कैम्प बनाकर एवरेस्ट की चोटी के ऊपर से प्रथम उड़ान भरी गई।उल्लेखनीय है कि इस उड़ान-दल ने राजा कीर्त्यानंद सिंह और दरभंगा के महाराजा के संरक्षण और आतिथ्य में रहकर अपना कार्य पूरा किया था। पी.एफ.एम. फेलोज़ लिखते हैं: “The Raja of Banaili, a cheery personality, who had shot over hundred tigers, offered us his fleet of motor-cars, remarking that, if possible, he would like to retain one or two of his own. He had seventeen. He seemed astonished, as if at an unusual display of moderation, when only three cars and a lorry were required.”

यह भी सत्य है कि राजा कीर्त्यानंद सिंह ने 1928 ई0 में पूर्णियाँ-सहरसा रेलवे लाइन पर भोकराहा के निकट निजी कोष से एक रेलवे स्टेशन बनवाया जो आज कीर्त्यानंद नगर के नाम से जाना जाता है। इतना ही नहीं, उन्होंने 1935 ई. में पूर्णियां जिला स्कूल का नया भवन बनवाने के लिए 17.5 एकड़ ज़मीन और प्रचुर धन देकर महत्वपूर्ण सहयोग दिया। इस सम्बन्ध में कलकत्ता से प्रकाशित द स्टेट्समैन ने ने लिखा: “The Rajah Bahadur of Banaili has presented 17½ acres of land at Purnea for the purpose of building the new Purnea Zila School to replace the old school ruined by the Bihar Earthquake.” बाद में वे उच्च और अनियमित रक्तचाप से अस्वस्थ रहने लगे। 1936 ई0 में वे बीमार पड़े और उनकी हालत बिगड़ती चली गयी। अंतिम समय में उन्हें एक विशेष रेलगाड़ी से बनारस ले जाया गया। ‘काशी’ स्टेशन पर पहुँचते ही उनका हँसता-मुस्कुराता शरीर ‘पार्थिव’ हो गया।

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