पटना पुस्तक मेला-2022 के बहाने ‘मालिक’ को जिन्होंने बिहार के युवाओं को किताब पढ़ने का लत लगाया – श्रद्धांजलि

पटना पुस्तक मेला (फाइल फोटो) गुलजार साहब के बाएं नरेंद्र कुमार झा और खड़े हैं पटना पुस्तक मेला के संयोजक अमित कुमार झा

नई दिल्ली : बात सत्तर की दशक की है। पटना के ऐतिहासिक अशोक राज पथ पर नवनिर्मित गगनचुम्बी इमारत नोवेल्टी एंड कंपनी किताब की दूकान दिन भर की क्रिया-कलाप के बाद बंद होने के कगार पर थी। शाम का समय समाप्त हो गया था और रात्रि बेला प्रारम्भ हो गया था। अशोक राज पथ की ओर खुलने वाला सामने का शटर गिर गया था। दूकान के मालिक श्री तारानंद झा भी हिसाब-किताब कर घर की ओर प्रस्थान करने के क्रम में थे। दूकान के सभी कर्मचारी बाहर प्रतीक्षा में थे। मालिक दूकान और सड़क के बीच फुटपाथ पर महाराणा प्रताप के माफित खड़े थे। अक्सर हां जो व्यक्ति फुटपाथ से जीवन की शुरुआत करता था, एक-एक धागा जोड़कर अटूट रस्सी बनता है, वही जीवन में इतिहास भी बनता है, मालिक उन्हीं व्यक्तियों की श्रृंखला में एक थे और नोवेल्टी तो है ही।

मैं उन दिनों ‘आज के एस्केलेटर’ और उन दिनों का ‘लिफ्ट’ चलाया करता था नोवेल्टी में। उन दिनों मुझमें उतनी क्षमता नहीं थी कि मालिक के सामने खड़ा हो जाऊं। हमारे उम्र के ‘जगना’, ‘दिलीप’, ‘राजकुमार’ जो दूकान के दाहिने कोने पर चाय की दूकान चलाता था, अपने पिता और दादा के साथ, कभी-कभार मालिक के सामने खड़ा दीखता था, लेकिन सर जमीन की ओर होती थी। ऐसा इसलिए नहीं कि हम सभी डरते थे उनसे; ऐसा इसलिए कि हम सभी उन्हें बहुत सम्मान करते थे ।

उस दिन शनिवार था। सभी थके मारे अगले दिन की प्रतीक्षा में घर जाने की तैयारी कर रहे थे। मुझे अगले दिन भी लिफ्ट चलाने के लिए आना था। रविवार को इस भवन में रहने वाले पटना विश्वविद्यालय के छात्रों से मिलने अनेकानेक छात्र आते थे दूर-दूर से। हम भी तैयार होकर, किताब लेकर सुबह-सवेरे लिफ्ट में बैठे पढ़ते रहते थे। जो भी सज्जन आते थे, पहले मेरे सर पर हाथ फेर देते थे और अधिकांशतः उतरने से पहले चाय के लिए भी कह देते थे। जब वे जाने लगते थे तब जेब में कॉपी, पेन्सिल के लिए अठन्नी, एक रूपया, दो रूपया रख देते थे। मैं भी उनके सम्मान में खड़ा होकर नतमस्तक रहता था।

लिफ्ट के तरफ वाले दरवाजे पर श्री त्रिलोचन जी ताला बंद कर रहे थे। इस दरवाजे पर पर ताला लटकने के बाद लोहे का एक गेट पर भी ताला बंद किया जाता था। अभी ताला की चावी अधोमुख घूमना ही था की अंदर से फोन पर ट्रिंग-ट्रिंग की घंटी बजने लगी। ‘हाँ-ना’ होने लगा कि खोला जाए अथवा नहीं। मालिक, जो सामने खड़े थे और उनका कला रंग का एम्बेस्डर कार सामने उनकी प्रतीक्षा कर रही थी, की नजर दरवाजे की ओर मुड़ी; ताला तत्काल खुला।

नोवेल्टी एंड कंपनी के संस्थापक श्री (दिवंगत) तारा नन्द झा

फोन पर दूसरे छोड़ से बिहार टेक्स्ट बुक पब्लिशिंग कॉर्पोरेशन के कार्यालय से अधिकारी सुचना दे रहे थे की “ट्रक निकल चुकी है और कुछ समय बाद पहुँच जाएगी।” अचानक सभी एक-दूसरे को देखने लगे यह जानने के लिए की क्या बात है। सूचना दी गयी की ‘बीटीबीसी का ट्रक पहुँचने वाला है।” बिजली का जो स्विच ‘ऑफ़’ था, तुरंत ऑन हो गया। सभी के थके चेहरों पर अचानक चमक दौड़ गई। यह पक्का हो गया था कि अब अगला तीन घंटा यहीं रहना है क्योंकि किताब को ट्रक से उतारकर कर नीचे बेसमेंट तक, या दूकान के रास्ते पहली मंजिल पर ले जाना होता था।

तभी ‘जगना’ हम सबों के हाथ में एक-एक मीठा पावरोटी का पैकेट थमाया – इशारा काफी था, सभी सज्ज हो जायँ। देर रात कोई साढ़े-बारह बजे तक किताब को अपने स्थान पर रखने का काम समाप्त हुआ। फिर उन्हीं कार्यों को दोहराया गया, जो तीन घंटे पहले किया गया था – दूकान बंद करना। उस रात दूकान में जितनी पुस्तकें आयी थी, उससे कोई दुगुना किताब पहले से रखा था।

सोमवार को सभी अपने-अपने कार्य में लगे थे। मालिक अपनी कुर्सी पर बैठे थे। मोटा काला फ्रेम का चश्मा उनकी नाक पर टिका था। हाथ में कलम और सामने की कुर्सी पर कुछ सम्मानित व्यक्ति बैठे थे। यह समय था बिहार के विभिन्न जिलों में बीटीबीसी का किताब ‘मांग के अनुसार’ भेजना। तभी फिर फोन की घंटी टनटनाई – ट्रिंग-ट्रिंग। अकस्मात् मालिक के चेहरे पर खुशी दिखने लगी। उनके चेहरे पर ख़ुशी रहने से दूकान में एक गजब का रौनक होता था। सभी अन्तःमन से कार्य करते थे। उनका दोनों पुत्र – नरेंद्र कुमार झा और अमरेंद्र कुमार झा – दाहिने-बाएं खड़े थे। उस दिन विद्यालय – टी के घोष अकादमी – में अवकाश था। मैं लिफ्ट के पास खड़ा था।

फाइल फोटो पटना पुस्तक मेला : प्रोफ़ेसर चेतकर झा (बाएं)

तभी मालिक हम सभी बच्चों को बुलाये और एक कार्य का आदेश दिए जो आज से ही प्रारम्भ करना था। बीटीबीसी ने यह निर्णय लिया था कि जिन विक्रेताओं के पास (चाहे व्होलसेलर हों या रिटेलर) किताबों का पुराना स्टॉक है, वे नवीनतम मूल्य पर ‘मुहर लगाकर’ बेच सकते हैं। वैसी किताबों के दामों में महज अठन्नी, चवन्नी का इजाफा था, लेकिन समग्र रूप में वह चवन्नी-अठ्ठनी हज़ारों-हज़ार में अपना मोल रख रहे थे।

हम सभी बच्चे उनकी ओर ‘आशा भरी नजरों से देखे’ और उधर मालिक का आदेश हुआ – ‘जितना मोहर उतना दो छिद्दी (दो पैसा)” और हम सभी तैयार हो गए। किताबों का ‘स्टॉक’ देखकर हम सभी जानते थे की सबों के हिस्से में न्यूनतम दो सौ रुपये जरूर आएंगे और उन दिनों मुझ जैसे बच्चों के लिए दो सौ रूपये की कीमत मेरी जिंदगी से अधिक थी। आज भी मालिक का वह चेहरा और दूकान का वह दृश्य सामने दीखता है, भले समय पचास वर्ष बीत गया हो।

शाम में जब हम सभी बच्चे अपना-अपना कार्य प्रारम्भ किये, तब मुझे एक ऐसा ‘मुहर’ मिला जिसका ‘हैंडिल’ नहीं था और जहाँ ‘हैंडिल लगा होता है, वहां एक छेद मात्र था।” जगना, राजकुमार, दिलीप सभी मेरी ओर देखकर हंस दिया। यह कार्य उन सभी भाइयों का की था। लेकिन मैं खुश था। अपनी पहली ऊँगली वहां फंसाकर किताबों के कवर के बाद दूसरे पृष्ठ पर और कवर के पीछे ‘ठोकने’ लगा। कुल तीन दिन का कार्यक्रम था। पहली ऊँगली का सामने का हिस्सा “भोथा” हो गया था। लेकिन जब छठे दिन 210 रुपये मिले तो सारे दर्द दूर हो गए। उन दिनों एनीबेसेन्ट रोड स्थित ‘बद्री साहू’ की दूकान में चालीस नए पैसे प्रतिकिलो आटा मिलता था, बारह आने प्रतिकिलो बेहतरीन चावल, बीस पैसे किलो आलू, अरहर दाल भी अठन्नी किलो था। बद्री साहू को मैं मुद्दत तक एक ‘आर्यावर्त’ (12 पैसे मूल्य) और एक प्रदीप’ (आठ पैसे मूल्य) नित्य जाड़ा, गर्मी, बरसात को देता था। खैर।

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आज जब यह सुना कि पटना पुस्तक मेला अपने 37 वें वर्ष में पहुँच गया और सेंटर फॉर रीडरशिप डेवलपमेंट (सीआरडी) के तत्वावधान में आगामी 2 दिसंबर से आज़ादी के अमृत महोत्सव के उत्तरार्ध पटना के गाँधी मैदान में ऐतिहासिक पटना पुस्तक मेला फिर “गुलजार” होने जा रहा है, बारह-दिवसीय इस ऐतिहासिक पुस्तक मेला में देश के नामचीन प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं के अतिरिक्त लाखों की संख्या में पूरे प्रदेश के पुस्तक प्रेमियों का भी समागम होगा; अचानक बिना हैंडिल वाला वह मुहर, हज़ारों किताबों पर ‘खट-खट मुहर की आवाज’, वह रात, नोवेल्टी में किताबों का वह अम्बार, हम बच्चों पर मालिक का विश्वास और वह 210 रुपये याद आ गया।

फाइल फोटो पटना पुस्तक मेला

आज यहाँ लिखते मुझे फक्र हो रहा है कि पटना के टी.के.घोष अकादमी में छठा वर्ग में नामांकन के बाद से पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विभाग से स्नातकोत्तर परीक्षा (1981) अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने कर मुझे कभी कोई किताब खरीदना नहीं पड़ा था और ना ही किसी पुस्तकालय में जाना पड़ा था। आभारी हूँ नोवेल्टी एंड कंपनी का, मालिक है।

बहरहाल, सन 1985 से प्रारम्भ होने वाला पटना पुस्तक मेला अब बिहार के लोगों की “एक आदत” सी हो गई है। ‘कोरोना काल’ में इस समागम के नहीं प्रदेश के पुस्तक प्रेमियों को दुःख अवश्य था क्योंकि आज यह जीवन का एक अहम् हिस्सा हो गया है और पुस्तक मेले का इंतज़ार प्रदेश के पाठक तो करते ही हैं, युवापीढ़ी को इसका बेसब्री से इंतज़ार रहता है। 2 दिसंबर से 13 दिसंबर तक चलने वाला इस पुस्तक मेला में सैकड़ों ‘स्टॉल्स’ लगने की सम्भावना है। इस पुस्तक मेले में अबकी बार ‘हेल्थ मेला,’, मैजिकल स्टोरी टेलिंग, इफेक्टिव कैरियर काउंसिलिंग, जन-संवाद, लिटरेचर एंड कल्चरल, कवि सम्मेलन, शास्त्रीय लोक संगीत आदि का व्यापक रूप से आयोजन किया गया है। इसके अलावे रक्तदान का भी कार्यक्रम का भी आयोजन किया गया है।

आज की पीढ़ी शायद इस बात से अनभिज्ञ होगी कि उन दिनों नोवेल्टी एक मंजिला मकान था जब मैं यहाँ अपने जीवन की बुनियाद रहा था । नोवेल्टी के दाहिने तरफ त्रिवेदी स्टूडियो और बाएं सरदार जी की एक बिजली की छोटी सी दूकान कृष्णा स्टोर्स थी। इसी नाम से अब यह दूकान फ़्रेज़र रोड स्थित चांदनी चौक मार्केट (तत्कालीन आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्र के दफ्तर के बगल में) ‌है।कृष्णा स्टोर्स के ठीक बगल में नेशनल बुक डिपो था (जो अब पटना कालेज के सामने है), एक फल वाले की दूकान थी और उसके बाद रीगल होटल। रीगल होटल के बाहर बिजली के खम्भे के नीचे एक मौलवी साहेब की अण्डे की दूकान थी – पन्द्रह पैसे में एक और चौवन्नी में दो अंडे । रीगल के बाद एक किताब की दूकान पुस्तक महल थी, पुस्तक महल के बगल में नालन्दा के रस्तोगी का पुस्तक जगत था ‌(जो अब बीएन कालेज के सामने है)। फिर एक दवाई की दूकान । इन दो दूकानों के बीच बीरबल पान वाला था । इस दूकान से चार कदम पर एक रास्ता नीचे लुढ़कती थी, खजान्ची रोड और खजान्ची रोड के ठीक सामने अशोक राज पथ पर दाहिने तरफ था ऐतिहासिक खुदाबख्श पुस्तकालय।

नोवेल्टी के दाहिने तरफ तत्कालीन पटना के एक सम्भ्रान्त फोटो स्टूडियो था – त्रिवेदी स्टूडियो। इस स्टूडियो में पटना के सम्भ्रान्त, सुन्दर लोग ही फोटो खिंचवाते थे। फिर थी उषा सिलाई मशीन का प्रशिक्षण केंद्र। इस प्रशिक्षण केंद्र के दाहिने दीवाल से लगी कोई चार-फिट की एक छोटी सी किताब की दूकान थी, जो इस भवन के पीछे बेगम साहिबा के आवासीय कालोनी में रहने वाले कोई सज्जन चलाते थे। उनकी एक आँख खराब थी। सिलाई मशीन और इस किताब की दूकान के सामने फुटपाथ पर साईकिल बनाने वाले एक मिस्त्री जी कार्य करते थे। इस किताब की दूकान से कोई दस फिट दाहिने हरिहर पान वाले की एक दूकान थी और उन्ही के दूकान से लगी थी एक चश्मे की दूकान ।

पटना पुस्तक मेला में महान कार्टूनिस्ट श्री (दिवंगत) आर के लक्ष्मण (फ़ाइल फोटो)

आज के वर्तमान तारा भवन से पहले जब यहाँ दो-मंजिला मकान था, जिसमें नोवेल्टी एंड कंपनी थी, और जिस दूकान में मेरी जिंदगी की शुरुआत हुई थी, उस भवन में बाएँ तरफ लोहे का खींचने वाला गेट था, जो एक गली-नुमा रास्ते से 25-कदम चलने के बाद छोटा सा आँगन में निकलता था। आँगन के दाहिने कोने पर एक सीढ़ी थी। आँगन से सड़क की ओर दूकान में प्रवेश का रास्ता था। आम तौर पर आँगन में किताबों के बण्डल, रस्सी, सुतली, गत्ता, क़ैंची, चाकू, सुराही, रखा होता था। ग्राहकों का किताब तक्षण इस आँगन में बांधा जाता था। यह आँगन और बरामदा हमारे पिता-रूपी ब्रह्माण्ड की दुनिया थी। यहीं रहते थे मेरे बाबूजी, इस दूकान के अंदर ही वे अपना आशियाना बना रखे थे। वजह भी था – उनकी उतनी आमदनी नहीं थी, या यूँ कहें की आवश्यकता भी नहीं थी की बाहर किसी मोहल्ले में किराये पर मकान लें।

मैं इस राजधानी में पहली बार अपना सर पिता-रूपी ब्रह्माण्ड के नीचे तारा बाबू की दुनिया में अपना सर छुपाया। मुझे दूकान के अलावे मछुआटोली स्थित उनके घर पर आने-जाने की पूरी स्वतंत्रता थी। घर पर हमारे उम्र के उनके पोते-पोतियाँ मुझे अपने घर का हिस्सा ही समझते थे। मुझे आज तक ऐसी कोई घटना याद नहीं है जिसमें हमें उन लोगों की बातों से, व्यवहारों से कोई कष्ट हुआ हो, आत्मा दुःखी हुआ हो।

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शायद उसी दिन महादेव ने मालिक के हाथों एक “बिन्दु जैसी नींव” भी रख दिया था जो आगे चलकर पटना के अशोक राज पथ से कलकत्ता की चौरंगी के रास्ते, दिल्ली के राजपथ होते हुए लन्दन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों में अपनी मेहनत का, अपनी सोच का, अपनी हुनर का, अभी पेशा का ध्वज लहराएगा। यह एक श्रद्धांजलि स्वरुप हैं उन महात्मनों को जो मेरी जीवन को संवारने में भूमिका निभाए। दिल्ली के राजपथ तक आते आते कई लोग ईश्वर को पराये हो गए, उनमें मेरे ब्रह्माण्ड (पिताजी) और नोवेल्टी एण्ड कम्पनी के मालिक भी थे। लेकिन आज भी वे सभी मेरे इर्द-गिर्द ही हैं और मैं महसूस भी करता हूँ।

कहते हैं इस दूकान और दूकान की पुस्तकों की छाया में पटना ही नहीं, अविभाजित बिहार के लाखों-करोड़ों छात्र-छात्राएं विद्यार्थी-अवस्था से वयस्क हुए, और फिर वृद्ध भी । जिस तरह नए किताब के सफ़ेद पन्ने समय और उम्र के साथ अपना रंग बदलते, एक गजब की खुसबू छोड़ते सफ़ेद से सीपिया रंग का हो जाता है, जो इस बात का गवाह होता है की उसने अपने रंग यूँ ही नहीं बदले, बल्कि लोगों को जीने का सबक सीखाते बड़ा हुआ है – पटना के अशोक राज पथ पर स्थित नोवेल्टी एण्ड कम्पनी (प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता) दूकान की सीढ़ियों पर बैठकर न जाने कितने लोग महज मनुष्य से इन्शान बने और इतिहास में अपना नाम हस्ताक्षरित किये।

बहुत काम लोग जानते होंगे, खासकर आज की पीढ़ियां, जो आगामी 2 दिसंबर से पटना के गाँधी मैदान में पटना पुस्तक मेला का चश्मदीद गवाह होंगे, सन 1946 में नोवेल्टी एण्ड कम्पनी का रजिस्ट्रेशन हुआ था। श्री तारानंद झा कागज-किताब की दुनिया में बिहार के ऐतिहासिक भूकंप, जो सं 1934 में आया था और प्रदेश को तहस-नहस कर दिया था, उसके कोई चार साल बाद प्रवेश लिए थे। उन दिनों तारा बाबू कागज, कलम या अन्य स्टेशनरी सामग्रियों, मसलन कोरस का कार्बन, पेंसिल, फुलस्केप कागज, स्याही, स्केल, लमन्चुस, चौकलेट इत्यादि बेचना प्रारम्भ किया था। यह व्यवसाय सन 1938 से 1940 तक चला। यह व्यवसाय ‘नोवेल्टी स्टेशनर्स’ के नाम से जाना जाता था।

पटना पुस्तक मेला में गुलजार साहब – फ़ाइल फोटो

उन दिनों पटना अशोक राज पथ के बाएं तरफ पटना विश्वविद्यालय के कालेजों, जैसे पटना कालेज, साइन्स कालेज, मेडिकल कॉलेज का पिछले बॉउंड्री गंगा के किनारे समाप्त होता था। सम्पूर्ण इलाका खुला-खुला था। अशोक राज पथ से दाहिने तरफ कोई आधे-किलोमीटर और कम की दूरी पर एक-एक सड़क दाहिने नीचे निकलती थी, अशोक राज पथ के सामानांतर बारी पथ से मिलती थी। इसी बारी पथ (अब नया टोला) पर जहाँ खजांची रोड बारी पथ से मिलती थी, बाएं हाथ पर नोवेल्टी स्टेशनर्स दूकान थी। यह दूकान, आज की काजीपुर आवासीय मोहल्ला में प्रवेश लेने वाली गली के ठीक सामने स्थित नालंदा ब्लॉक सेन्टर थी।

आज की पीढ़ी शायद खजांची रोड का भारत के राजनीतिक मानचित्र पर क्या महत्व है, नहीं जानते होंगे। इसी खजांची रोड के बीचोबीच (आधी दूरी अशोक राज पथ और आधी दूरी बरी पथ) दाहिने तरफ एक दो मंजिला मकान पश्चिम बंगाल के द्वितीय मुख्य मंत्री श्री विधान चंद्र रॉय का जन्मस्थान है। विधान चंद्र रॉय का जन्म 1 जुलाई, 1882 को पिता प्रकाश चंद्र रॉय और माता अघोर कामिनी देवी के घर में हुआ था। आज भी वह स्थान बिधान चंद्र रॉय की माता “अघोर” को समर्पित है और वहां एक बच्चों का विद्यालय है – अधोर शिशु विद्या मंदिर। विधान चंद्र रॉय की प्रारम्भिक शिक्षा पटना के अशोक राज पथ पर स्थित, या यूँ कहें कि आज के नोवेल्टी एंड कम्पनी दूकान से कोई पांच सौ गज की दूरी पर स्थित टी के घोष अकादमी और पटना कॉलेजिएट स्कूल में 1897 तक हुआ था। बाद में, उन्होंने आईए प्रेसिडेंसी कालेज कलकत्ता से और बी ए (गणित में सम्मान के साथ) पटना कालेज से किये। श्री रॉय जनबरी 1948 से जुलाई 1962 तक कोई साढ़े बारह वर्ष तक पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री रहे।

“नोवेल्टी स्टेशनर्स की दूकान बारी पथ में नीचे थी और दूकान के ऊपर मालिक सपरिवार रहते भी थे। बाद में वह स्थान बिहार स्टोर्स (तेज नारायण झा) को दिया गया और मालिक सपरिवार खजान्ची रोड स्थित राजा राम मोहन रॉय सेमिनरी स्कुल के सामने आ गए ।‌ कुछ समय बाद, यह स्थान उस ज़माने के विख्यात दशरथ बाइंडर को दे दिया गया और फिर सभी अशोक राज पथ पर स्थित खुदा बख्श खां लाइब्रेरी के सामने पेट्रोल पम्प के ठीक बगल में आ गए । यह पेट्रोल पम्प उन दिनों अशोक राज पथ का लैंडमार्क था। कारण यह था की अशोक राज पथ पर गुलजार बाग़-पटना सिटी से लेकर गाँधी मैदान तक कोई भी पेट्रोल पम्प नहीं था। यह तत्कालीन वाहन मालिकों का एक पसंदीदा स्थान भी हुआ करता था। इसके दोनों तरफ दवाई की दूकानें हुआ करती थी और सामने बिहार यंग मैन्स इंस्टीच्यूट का दफ्तर। इस स्थान पर कुछ वर्ष रहने के बाद यहीं बगल में एक दूसरी दूकान सेन्ट्रल स्टोर्स वाले, जो लवणच्युस बेचते थे, को 1960 में दे दिया गया।

“समय बदल रहा था। मालिक की मेहनत और विस्वास रंग लाने लगी थी। यहीं से कोई 200 गज की दूरी पर पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के बैचलर क्वाटर्स के ठीक सामने एक-तल्ला मकान ख़रीदा गया – पुराना नोवेल्टी, जहाँ से मैं अपनी जिंदगी की शुरुआत किया था। यही स्थान है जहाँ आज गगनचुम्बी नोवेल्टी एंड कंपनी है तारा भवन के नाम से। उन दिनों अमरेन्द्र कुमार झा @ “बौआ जी” महज सात-वर्ष के थे। इस एक-मंजिले मकान में कुछ वर्ष दूकान चलायी गयी। 1966 जनवरी से पुराने एक मंजिला मकान तोड़ना प्रारम्भ कर 12 महीने के भीतर तारा भवन बनाया गया। उन दिनों हम सभी तत्कालीन बेगम साहिबा के अहाते में चले गए थे। एक गराज में दूकान थी और उसी दूकान से दस कदम बाएं एक कुएं के पीछे एक कमरा में बाबूजी के साथ मैं रहता था। फिर नोवेल्टी ला हाउस बना, और पटना लाॅ जर्नल रिपोर्ट्स PLJR का उद्घाटन का उद्घाटन हुआ।

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बाबूजी कहते थे सन 1950 में मछुआटोली पावर हाउस के ठीक सामने मालिक अपने निवास स्थल के लिए जमीन खरीदकर ‘आनन्द भवन’ बनाये थे। आनंद भवन तीन साल में दिसम्बर 1954 में पूरा बना था और मालिक सपरिवार, जो उस समय नयाटोला में रहते थे, 1 जनवरी 1955 को यहाँ आ गए। आज की यह मालूम नहीं हो कि ‘आज के राष्ट्रकवि’ रामधारी सिंह दिनकर का निवास स्थल व ‘उदयाचल’ प्रकाशन यहाँ 1956-57 में बना था। आनंद भवन के बगल में छविनाथ पांडे 1937 से ही रह रहे थे । आनंद भवन के ठीक सामने रामखेलावन पांडे में 1956 में एक मकान बनाकर रहने लगे। श्री पांडेजी विश्वविद्यालय में हिन्दी के अध्यक्ष थे।

पटना पुस्तक मेला में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक डॉ बिंदेश्वर पाठक – फ़ाइल फोटो

उन दिनों श्री शान्ति बाबू, श्री चौधरीजी, श्री द्वारिका बाबू, श्री सीतारामजी, श्री योगनाथ झा, श्री गनौरियाजी, श्री त्रिलोचन मंडलजी, श्री जगदेव मण्डलजी, मुन्नीलाल जी, नवीन चौधरीजी, राजेन्द्र झाजी, रामप्रीत यादवजी, सुशील झाजी, रमेश झाजी, दिलीप कुमारजी आदि भी ‌काम करते थे। द्वारिका जी तथा अन्य कर्मचारी तारा भवन में ही रहते थे। श्री रामचन्द्र जी बाबूजी के बहुत अच्छे मित्र और शुभचिंतक थे, आज भी हैं। मेरे बाबूजी यहाँ छोटे मुलाजिम के रूप में काम करते थे ।

उत्तर बिहार के प्रमुख शहरों जैसे – अररिया, बेगूसराय, खगरिया, मधेपुरा, समस्तीपुर, दरभंगा, सिवान, सुपौल, सहरसा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी, मुंगेर, हाजीपुर इत्यादि शहरों के पुस्तक-विक्रेताओं की मांग को पूरा करने के लिए पटना के बड़े-बड़े प्रकाशक और पुस्तक विक्रेतागण (मसलन: नोवेल्टी, पुस्तक भण्डार, भारती भवन (शुरू में भारती भवन महेंद्रु घाट पर 1950 के आस पास गुमटी के रूप में आया था), लक्ष्मी पुस्तकालय, मगध राजधानी प्रकाशन, साइंटिफिक बुक कंपनी, मोतीलाल बनारसी दास, राजकमल प्रकाशन, स्टूडेंट्स फ्रेंड्स, एस चाँद एंड कंपनी) किताबों को भेजा करते थे – लेकिन मार्ग यही था।

बाबूजी कहते थे नोवेल्टी एण्ड कम्पनी ने अजंता टेस्ट पेपर 1947 में ही शुरू किया था । हमारा टेस्ट पेपर ही भारती भवन के गोल्डेन गेस पेपर व अन्यों के गेस पेपर का आधार भी बना। कोई 20 वर्ष बाद टेस्ट पेपर बन्द कर दिया गया। हमारे टेस्ट पेपर को कोई भी बीट नहीं कर सका। यही टेस्ट पेपर अजन्ता प्रेस की शुरुआत का भी आधार बना। बाबूजी नित्य अपरान्हकाल 4 बजे किताबों का बण्डल लेकर महेन्द्रू घाट के लिए रवाना होते थे। बहुत अधिक बण्डल होने पर, या अधिक वजन होने पर तो रिक्शा लेते थे, चवन्नी से अठन्नी किराया तक, नहीं तो कंधे पर रखकर कोई 2 किलोमीटर का रास्ता पैदल तय करते थे। मैं टेनिया जैसा, कंधे में अपनी लम्बाई का कपड़े का एक झोला लिए, बाबूजी का कभी बाएं तो कभी दाहिने तरफ कमीज पकड़े, कदमताल करते बाबूजी के पदचिन्हों पर चला करता था। यह क्रिया औसतन सप्ताह में चार दिन अवश्य हो जाता था।

उन दिनों माँ गाँव में रहती थी। बाबूजी जब शाम में दिन-भर के खर्च का हिसाब मालिक के सामने रखते थे, तो उसमें “रिक्शा किराया” जुड़ा होता था और एक श्रेणी था “अन्य खर्च” जिसमें चाय और मेरे लिए बिस्कुट, लवणच्युस सम्मिलित होता था। बाबूजी कहते थे: “किताब का वजन बहुत भारी नहीं होता। वसर्ते तुम किताब को भारी नहीं समझो । यह सिद्धांत किताबों की खरीद-बिक्री से अधिक किताबों को पढ़ने-पढ़ाने में लागु होता है। तुम जैसे ही किताब को अपने जीवन से, अपने भविष्य से भारी मान लोगे; वैसे ही तुम उन अनन्त-लोगों की लम्बी कतार में स्वयं को खड़े पाओगे, जहाँ तुम्हे अपनी परछाई भी नहीं दिखेगी। तुम्हारी अपनी ही परछाई लोगों की परछाई के साथ गुम हो जाएगी।”

बाबूजी कहते थे: “मैं इस किताब के बण्डल को अपने कंधे पर लेकर तुम्हारे साथ इसलिए नित्य चलता हूँ ताकि तुम्हे किताब का वजन मालूम हो सके, किताब का महत्व मालूम हो सके। इसलिए किताबों को सूंघने की आदत डालो, कागज़ का गंध एक बार अगर नाक के रास्ते मष्तिष्क में जगह बना लिया, मैं समझूंगा मेरे साथ तुम्हारा आना सार्थक हो गया। मैं उस दिन तक शायद रहूँगा नहीं, लेकिन तुम्हारे किताबों के प्रत्येक पन्नों में स्वयं को पाउँगा। मुझे ख़ुशी होगी।”

सन 1982 में 20 अक्तूबर को मालिक का देहान्त हुआ था। मैं पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर (अर्थशास्त्र विषय) की परीक्षा उत्तीर्ण कर पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इण्डियन नेशन पत्र समूह के इण्डियन नेशन समाचार पत्र के सम्पादकीय विभाग में उप-संपादक-सह-सम्वाददाता के पद पर पहुँच गया था। आज उनके ही आशीष से भारत के महत्वपूर्ण समाचार पत्रों में पत्रकारिता कर, भारत की बातों को ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, लन्दन तक पहुँचाया। पहले देश की बातें लोग लिखते थे, छापते थे, बोलते थे – बाद में हमारे बारे में, हमारे प्रयास के बारे में लिखने लगे, बोलने लगे, छापने लगे, दिखाने लगे।

पटना पुस्तक मेला – फ़ाइल फोटो

बहरहाल, विगत 75 वर्ष के अस्तित्व में बिहार के शैक्षिक और शैक्षणिक वातावरण को मजबूत बनाने में नोवेल्टी एंड कम्पनी की भूमिका तो ऐतिहासिक है ही; इसका योगदान और भी महत्वपूर्ण तब हो गया जब नोवेल्टी एण्ड कम्पनी की अगुआई में पटना में पुस्तक मेला का आयोजन होने लगा। पुस्तक मेला महज एक किताबों, प्रकाशकों, क्रेताओं, विक्रेताओं, पाठकों, अधिकारीयों का मिलन-स्थल ही नहीं, बल्कि बिहार के सांस्कृतिक-शैक्षिणिक विकास में भी योगदान दिया। आज यह पुस्तक मेला बिहार के लोगों की एक आदत सी हो गयी है। बिहार के लोगों में, युवकों में, युवतियों में, कामकाजी महिलाओं में, सडको पर मजदूरी करने वाले श्रमिकों में “किताब खोलकर पढ़ने की आदत की शुरुआत तो पटना पुस्तक मेला से ही हुआ है, किताबों का लत लगाया पाठकों को, नई पीढ़ियों को तभी आज पटना पुस्तक मेला अपने इस मुकाम पर पहुंच गया है। आज पटना पुस्तक मेला भारत का तीसरा और दुनिया के दस प्रमुख पुस्तक मेलों में शामिल है।

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