तीस+ वर्षों से नई दिल्ली के धोबी यमुना नदी में वस्त्र नहीं धोए हैं – #हरदागअच्छेहोतेहै’ : दिल्ली के धोबी घाट के बच्चे तो वस्त्र धोना भी जानते हैं और शिक्षित होना भी। इसलिए वे बेहतर होने के लिए पढ़ रहे हैं। वे जानते हैं की ‘पढ़ेगा इण्डिया तो बढ़ेगा इण्डिया’ का नारा उनके पुरखों ने दिए हैं। वैसी स्थिति में इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि आने वाले दिनों में बड़े-बड़े कार्यालयों में, राजनीति में उत्कर्ष कुर्सियों पर बैठने वाले इनके बच्चे तो “बेदाग़”, “सफ़ेद” वस्त्रों में विराजमान होंगे, दिखेंगे, यह पक्का है; परन्तु उनके बारे में सोचिये जो साबुन, सर्फ़, नील, कड़क शब्दों को कभी सुना ही नहीं। वे यह भी नहीं जानते कि वस्त्रों को धोकर निचोड़ा जाता है, सुखाया जाता है या पहले निचोड़ कर फिर धोया जाता है ।
क्योंकि भारत की सड़कों से भारत की कहानी की इस श्रृंखला में हम आपको एक ऐसे तथ्य से अवगत कराने जा रहे हैं, जिसे सुनकर आप अचंभित हो जायेंगे। नई दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन क्षेत्र में, जिसमें न केवल दिल्ली सरकार के हुकुमनामों की विशाल आवादी है, बल्कि इसमें देश के सल्तनत को चलाने वाले नेताओं, अभिनेताओं, पदाधिकारियों, मंत्रियों, संतरियों, नौकरशाहों, धनाढ्यों, व्यापारियों, कॉर्पोरेटों का, गगनचुम्बी होटलों और उसके लाखों कमरों में दिल्ली-दर्शन करने वाले; चाहे नेताओं का दर्शन करें, अधिकारियों का दर्शन करें, कार्यवश आते हों या अन्य मकसदों से – अगर दिल्ली में मुद्दत से रहने वाले एक खास समुदाय के लोग, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से भारत के संसद में, दिल्ली विधान सभा में बैठे विधायकों के “मतदाता” एक सप्ताह या एक पखवाड़ा या एक माह अपना-अपना कार्य करना बंद कर दें, ‘हैंड-डाउन’ हड़ताल कर दें तो यकीन मानिये, उन नेताओं, सांसदों, विधायकों के शरीर से बदबू आने लगेगी। नई दिल्ली का इलाका दुर्गन्धित हो जायेगा।
लेकिन धन्यवाद के पात्र हैं इस समुदाय के हज़ारो-हज़ार लोग, जिन्हे आप मतदाता भी कह सकते हैं, जिन्हें अपने देश से मुहब्बत है, वह नहीं चाहते कि देश की राजधानी में आने-जाने वाले आगंतुक उनके शहर के बारे में कोई भी नकारात्मक सोच लेकर वापस जाएँ।
आपको जानकर आश्चर्य भी होगा कि नई दिल्ली क्षेत्र में कार्य करने वाले हज़ारों-हज़ार धोबियों का यमुना नदी के प्रदुषण में एक ऊँगली भर का हाथ नहीं है। विगत तीन दशक और उससे अधिक समय से वे नई दिल्ली क्षेत्र में रहने वाले, आने-जाने वालों का वस्त्र यमुना नदी में नहीं धोये हैं। जीवन जी रहे हैं किसी तरह। उनका कहना है कि दिल्ली सरकार का उन पर उपकार है, परन्तु केंद्रीय सरकार को, सम्बद्ध विभाग को चिट्ठी लिखते-लिखते थक गए। सरकार आती गई, जाती गई। मंत्री बनते गए, मंत्री जाते गए – लेकिन उन धोबी समुदाय के मदद के लिए किन्ही का हाथ एक इंच आगे नहीं आया, अलबत्ता, एक मील दूर से ही उन लोगों ने हाथ उठा लिए। परन्तु चुनाव के समय, चाहे संसद का चुनाव हो या विधानसभा का – वोट मांगने में कभी पीछे नहीं रहे। दुखद है।
नई दिल्ली क्षेत्र में करीब 17 स्थानों पर “घोबी घाट” है। मसलन बापूधाम, मोतीबाग, दरभंगा लेन, महादेव रोड, बापा नगर, राजा बाजार, हैली लेंन। कहते हैं दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी भी है, स्मार्ट शहरों में भी इसकी गिनती होती है – परन्तु सरकारी मंत्रियों, सरकारी पदाधिकारियों, गैर-सरकारी संस्थानों के हुकुमनामों, होटलों में आने-जाने वाले पर्यटकों को साफ़-सुथरा-चकाचक वस्त्र उपलब्ध कराने वाला यह समुदाय और उनकी पेशा को “स्मार्ट” नहीं बनाया गया। अगर वे आधुनिक मशीन मांगते हैं तो प्रदान कर्ता “शर्तों” की एक लम्बी सूची हस्तगत करा देते हैं। अब गरीब आदमी अगर जीने के लिए, काम करने के लिए शर्तों को स्वीकार करेगा, तो यकीन मानिये यह समुदाय ही समाप्त हो जायेगा।
वर्तमान स्थिति को देखते हुए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आने वाले दिनों में दिल्ली में इस समुदाय द्वारा सम्पादित कार्य भी कम होने लगे, लोग कम दिखने लगें। इसका कारण यह है कि ‘शिक्षा’ पर तो किसी का एकाधिकार है नहीं। इनके बच्चे भी बेहतर शिक्षा प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। जब बेहतर शिक्षा प्राप्त करेंगे, स्वाभाविक है समाज के धनाढ्यों के बीच, सम्भ्रान्तों के बीच इनके बच्चे भी कुर्सी पर बैठेंगे। चूंकि इनके पूर्वज, माता-पिता वस्त्र होते रहे हैं, इस ज्ञान को वे जानते हैं; अतः आने वाले समय में इनके कपड़ों पर तो दाग नहीं दिखेंगे, यह तो पक्का है – चाहे सरकार में हों, व्यवस्था में हों या कहीं भी हों – लेकिन उनका क्या होगा यह सोचने का प्रश्न है।