‘नेपथ्य’ में ‘नवीन’, ‘मंच’ पर ‘मोदी’ और ‘घर-घर तिरंगा’ : राष्ट्रीय ध्वज अपने-अपने घरों पर फहराने का मौलिक अधिकार तो 23 जनवरी, 2004 को ही दे दिया था सर्वोच्च न्यायालय…फिर

'नेपथ्य' में 'नवीन', 'मंच' पर 'मोदी' और 'घर-घर तिरंगा'

नई दिल्ली: आज सोचता हूँ कि राष्ट्र ध्वज को अपने-अपने घरों पर फहराने का मौलिक अधिकार तो 23 जनवरी, 2004 को भारत का सर्वोच्च न्यायालय ने युवा नेता और उद्योगपति नवीन जिंदल की याचिका पर कोई दस वर्ष के वाद-विवाद पर दे दिया था। फिर…. …… खैर। उन दिनों भारत में ‘गूगल’ महाशय का जन्म नहीं हुआ था। देश में सोशल मीडिया नामक किसी ‘निर्जीव’ पदार्थ का कोई अस्तित्व नहीं था। देश की आबादी भी तीन अंक को प्राप्त नहीं किये थे। युवाओं की संख्या ‘स्वर्ण जयंती संख्या’ को प्राप्त नहीं किया था । देश को आज़ादी हुए 48 वर्ष हुआ था। लेकिन सरकारी नियमों के अनुसार देश का ‘आन बान शान’ यानी एक भारतीय का, समाज का, राष्ट्र का गरिमा और गौरव का सूचक, यानी “तिरंगा” को अपने घरों में, छतों पर, दफ्तरों में, सार्वजानिक स्थानों पर, अपने देश की प्रतिष्ठा को, सम्मान को उजागर करने का अधिकार नहीं था। 

ऐसा करने से वह व्यक्ति तत्काल प्रभाव से स्वतंत्र भारत के नियमों के अधीन “तिरंगा का अपमान” करने के जुर्म में कानून के गिरफ्त में आ जाता था। स्वाधीनता दिवस अथवा गणतंत्र दिवस के अलावे झंडोत्तोलन प्रायः “नगण्य” अवसरों पर होता था। हाँ, देश-विदेश के किसी राजनेता के निधन के अवसर पर उनके सम्मान में झंडा नियम के तहत झंडा को झुकाया अवश्य जाता था – राष्ट्र शोक अथवा राज्य शोक के रूप में। 

नब्बे के दशक का प्रारंभिक वर्ष था। उन दिनों मैं दिल्ली से प्रकाशित दी इण्डियन एक्सप्रेस समाचार पत्र में एक ‘रिपोर्टर’ के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया था। यहाँ सेवा प्रारम्भ करने से पूर्व कलकत्ता से प्रकाशित “दी टेलीग्राफ” और “संडे” पत्रिका में कार्य किया था। इण्डियन एक्सप्रेस अख़बार में उन दिनों दिल्ली के न्यायालयों से सम्बंधित समाचारों को देखता था। ख्यात, विख्यात, कुख्यात मुकदमें, जिसमें नेता, अभिनेता, अधिकारी, कर्मचारी, अपराधी, टेररिस्ट्स, दबंग, सोशलाइट्स, बिजनेस बैरून, माफिया आदि कानून के गिरफ्त में होते थे, विशेष ध्यान रखना पड़ता था, ताकि कोई खबर छूटे नहीं और नौकरी बची रहे। 

प्रधानमंत्री ने लोगों से आग्रह किया कि इस महोत्सव में, ‘घर-घर तिरंगा’ के इस ऐतिहासिक अभियान में देश का प्रत्येक नागरिक अपनी भागीदारी दे।

वैसे भारत के पत्रकार बंधु-बांधव भले खुद को खुश रखने के लिए अथवा परिवार-समाज में अपना ‘सिक्का’ ज़माने, चलाने के लिए यह महसूस करते हों कि उनके बिना समाचार पत्र चल नहीं सकता, ख़बरें प्रकाशित हो नहीं सकती, वो हैं तो पत्र-पत्रिकाओं का वजूद है  – हकीकत यह है कि वे झूठे स्वप्न में जीवित रहते हैं। किसी भी संस्था को ‘कर्मियों’ की जरूरत तब तक ही रहती है जब तक वह ‘दुधारू’ है और समय के साथ कोई दूसरा अवतरित नहीं हो गया है। खैर। 

दिल्ली सल्तनत में मेरी मेहनत ही मेरी पहचान थी, मेरा प्रिय मित्र था। दिल्ली के बहादुर शाह ज़फर मार्ग से संसद मार्ग के रास्ते राजपथ तक जो भी मित्र बने, सभी हमारी मेहनत की ही उपज थे, आज भी हैं । उन दिनों एक्सप्रेस में हमारी एक सहकर्मी थी, सुश्री मीतू जैन। मीतू जैन बेहतरीन महिला हैं। एक बेहतरीन लेखिका भी हैं। एक दिन शाम में वे एक कहानी लिख रही थी। कहानी दिल्ली उच्च न्यायालय से सम्बंधित थी और विषय ‘तिरंगा’ था। 

मुझे देखकर वे दिल्ली उच्च न्यायालय के कुछ अधिवक्ताओं के टेलीफोन नंबर भी मांगी, ताकि कहानी बेहतरीन और दुरुस्त हो। उन दिनों मोबाईल का जमाना नहीं था और दिल्ली के न्यायालयों में, अधिवक्ताओं के कक्षों में महानगर टेलीफोन के तार आया-जाया करते थे, बेख़ौफ़, बिना रोक-टोक के। कहानी तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मजबूत नेता और देश के प्रमुख उद्योगपति श्री ओम प्रकाश जिंदल साहब के पुत्र श्री नवीन जिंदल से सम्बंधित था। 

श्री ओ पी जिंदल साहब देश के एक बेहतरीन उद्योगपति तो थे ही, वे एक बेहतरीन ‘इंसान’ भी थे, संवेदनशील थे, विवेकशील थे – समाज के प्रति, देश के प्रति, युवाओं के प्रति, अर्थव्यवस्था के प्रति, गरिमा के प्रति। ‘स्टील’ के क्षेत्र से जुड़े होने के कारण राष्ट्र को भी स्टील जैसा मजबूत बनाना चाहते थे। मीतू जी की वह कहानी अगले दिन के संस्करण में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। उस कहानी के बाद जब तक एक्सप्रेस में रहा, नवीन जिंदल और तिरंगा से सम्बंधित कहानी करता रहा। दूसरे अख़बारों में जाने के बाद भी सिलसिला जारी रहा। खैर। 

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नवीन जिंदल जिन्होंने तिरंगा को फहराने का मौलिक अधिकार दिलाया भारत के सर्वोच्च न्यायालय से 2004 में

इस घटना के कोई पांच वर्ष नवीन जिंदल दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए अमेरिका के डलास स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस चले गए थे । बात अगस्त 1990 की है। उस समय इराक ने कुवैत पर कब्जा कर लिया था और अमेरिका के नेतृत्व में अनेक देशों ने वहां अपनी सेना तैनात कर दी थी। कुवैत को इराकी कब्जे से मुक्त कराने में कामयाबी भी हासिल की गई थी । कहते हैं ‘बढियें पूत पिता के धर्मे”, स्वाभाविक है ओ पी जिंदल का देश की गरिमा के प्रति सोच का छाप पुत्र पर भी पड़ेगा ही। 

उस युद्ध के दौरान अधिकतर अमेरिकी नागरिक अपने ऑफिस, घर, सार्वजनिक स्थलों, पार्कों और इमारतों पर गर्व और सम्मान के साथ अपना राष्ट्रीय ध्वज फहरा रहे थे। अपने देश और सैनिकों के प्रति अमेरिका के नागरिकों का यह प्रेम नवीन जिंदल जैसे प्रवासी भारतीय युवा के हृदय में एक स्पंदन किया, प्रेरणा का स्रोत बना। वे भी वहां भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराकर अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करना चाहते थे, परन्तु वहां ‘तिरंगा’ कहां मिलता?  कुछ समय बाद इस बात का जिक्र उन्होंने अपने कुछ मित्रों से किया। उनके एक अमेरिकी दोस्त ने ‘तिरंगा’ लाकर दिया। यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के प्रति उनका सम्मान जगा और जब तक वे अमेरिका में रहे प्रतिदिन सम्मान के साथ, गौरव के साथ अपना राष्ट्रीय ध्वज वहां फहराते रहे।  

कहते हैं 1992 में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब नवीन जिंदल भारत वापस आए तो छत्तीसगढ़ के रायगढ़ (तब मध्य प्रदेश में था) स्थित अपनी फैक्ट्री में प्रतिदिन झंडा फहराने लगे। रायगढ़ जैसे स्थान पर ऐसा करना ‘बिजली’ जैसा चमकना और चौरडिक फैलने जैसा था। स्वाभाविक हैं “झंडा नियम” और “नियम को अमल करने-करबाने वाले अधिकारी बीच में आएंगे ही। उन्हें सरकारी अफसरों और पुलिस ने ऐसा करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि इससे झंडे का अपमान हो सकता है। 

‘टिस’ की शुरुआत हो गई थी – अपने ही देश में अपना झंडा क्यों नहीं फहरा सकता कोई ? फिर उन्होंने यह संकल्प लिया  कि यह आजादी लेकर रहेंगे और बात आ गई दिल्ली के शेरशाह सूरी मार्ग पर स्थित दिल्ली उच्च न्यायालय में। इस न्यायालय से कोई सौ कदम दूरी पर ‘किंग जॉर्ज-पंचम का आदमकद मूर्ति लगी थी कैनोपी में। दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश से वह भी हटा था। इसी न्यायालय से कोई दो किलोमीटर दुरी पर स्वतंत्र भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री का दफ्तर भी है। नवीन जिंदल का तिरंगा के प्रति आस्था और विश्वास की बातें रायसीना हिल पर पहुँचने लगी थी। 

साल सन 1995 था और इस अधिकार को प्राप्त करने के उद्देश्य से दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर हो चुकी थी । सन 1995 से लेकर सन 2004 तक लगभग दस साल यह लड़ाई चली। वादी-प्रतिवादियों का बहस जारी रहा। न्यायमूर्ति दोनों पक्षों की बातों को सुनते रहे और हम सभी पत्रकार सैकड़ों कहानियां लिखते रहे। हताशा किसी के चेहरे पर नहीं था। न्याय के प्रति सम्मान और विश्वास उतना ही अडिग था, जितना तिरंगा के प्रति। नवीन जिंदल और भारत के लोगों को तिरंगा लहराने, फहराने से सम्बंधित कहानियां भारत के कोई छह लाख से भी अधिक गाँव तक पहुँचते रही थी, अख़बारों के माध्यम से, पत्रिकाओं के माध्यम से, टीवी के माध्यम से, रेडियो के माध्यम से । जिला, प्रदेश, देश, विदेश के अख़बारों में प्रकाशित होते रहे। क्योंकि उन दिनों ‘गूगल महाशय’ नहीं थे और भारत में सामाजिक क्षेत्र से सरोकार रखने वाले ‘सोशल मीडिया’ का जन्म नहीं हुआ था। 

कोई दस वर्षों की लड़ाई के बाद देश में तिरंगा के मामले में, उसे लहराने, फहराने के मामले में एक नया सूर्यादय हुआ और फिर 23 जनवरी 2004 को भारत का सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में भारत के सभी देशवासियों को अपने ऑफिस, घर, कारखाने और सार्वजनिक जगहों पर सम्मानपूर्वक प्रत्येक दिन ‘तिरंगा’ फहराने का मौलिक अधिकार प्रदान कर दिया। 

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तिरंगा के सम्मानार्थ लड़ाई यहीं समाप्त नहीं हुई। अब तक नवीन जिंदल भारतीय संसद का एक हिस्सा हो गए थे, सांसद बन गए थे। अतः एक सांसद के रूप में सरकार से याचना किये कि कोई भी भारतीय अपने कमर के ऊपर तिरंगा धारण कर सकता है। मंत्रालय उनकी याचना स्वीकार किया करने की, अनुमति मिल गई। आज चाहे खेल का मैदान हो या बाघा बॉर्डर पर देश और तिरंगा के प्रति सम्मान हो, लैपल पिन हो, कैप हो, हैंड बैंड हो, आदि के माध्यम से भारत का एक-एक नागरिक, चाहे निर्धन हो, दरिद्र हो, धनाढ्य हो – सम्मान के साथ तिरंगा प्रदर्शित कर राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर सकता है। 

नवीन जिंदल के पिता, श्री ओम प्रकाश जिंदल, जिन्होंने तिरंगा की शान के लिए प्रत्येक पल अपने पुत्र का साथ दिया, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा “तिरंगा फहराने का मौलिक अधिकार” दिए जाने के पंद्रह माह बाद 31 मार्च, 2005 को अंतिम सांस लिए। एक ऐसी यात्रा की शुरुआत और अंत का वे चश्मदीद गवाह रहे, जो आज ही नहीं, आने वाले सैकड़ों वर्षों में जब भी तिरंगा की बात आएगी, जब भी घर-घर तिरंगा फलहराने, लहराने की बात आएगी – जिंदल पिता-पुत्र की बातें जरूर की जाएगी, बिना किसी राजनीती के।

घर-घर तिरंगा फहराएं – देश को मजबूत बनायें 

बात यहीं नहीं रुकी। नवीन जिंदल विदेश में विशालकाय झंडे रात में भी फहराते देखे तो उनके मन में विचार आया कि वे भारत में भी यह काम कर सकते हैं। उन्होंने भारत के केंद्रीय गृह मंत्रालय में याचिका दायर कर विशालकाय राष्ट्रीय ध्वज फहराने की अनुमति मांगी। दिसंबर 2009 में गृह मंत्रालय ने रात में तिरंगा फहराने के प्रस्ताव पर सशर्त सहमति दे दी। मंत्रालय ने कहा कि जहां समुचित रोशनी की व्यवस्था हो, वहां इमारत या विशाल खंभे पर तिरंगा रात में भी फहराया जा सकता है। 

नवीन जिंदल अपनी पत्नी श्रीमती शालू जिंदल के साथ मिलकर फ्लैग फाउंडेशन ऑफ इंडिया की स्थापना किये । तिरंगे के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए अनेकानेक पुस्तिकाएं निकाली गई। फ्लैग फाउंडेशन के तहत अब तक लगभग 100 विशालकाय ध्वज देश में लगाया जा चुका है, जिसमें 13 झंडे 207 फुट से ऊंचे हैं। फ्लैग फाऊंडेशन के इस ऐतिहासिक पहल के बाद अनेक संस्थाएं आगे आईं और अभी तक 500 से अधिक विशालकाय ध्वज लगाए जा चुके हैं। किसी भी देश में इतने विशालकाय झंडे नहीं हैं, जितने भारत में हैं। जिंदल की सोच है कि अगर हम आपके-अपने काम राष्ट्रहित में ईमानदारी से करते रहें तो कोई भी ताकत भारत को खुशहाल राष्ट्र बनने से नहीं रोक सकती। 

परन्तु आज जब व्यावहारिक तौर पर भारत के लोगों से, विद्यालय, महाविद्यालय के छात्र-छात्रों से, दफ्तर जाते कर्मचारियों से, अस्पतालों के डाक्टरों से, नर्सों से,  सार्वजनिक क्षेत्रों के प्रतिष्ठानों में कार्यरत लोगों से, अवकाशप्राप्त कर्मचारियों से पूछते हैं कि “घर-घर तिरंगा फहराने, लहराने का अधिकार किसने दिलाया”? सैकड़े सौ फ़ीसदी लोग युवा जिंदल को नहीं पहचानते हैं। यह दुःखद है, दुर्भाग्य है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आज़ादी के इस अमृत महोत्सव में “घर-घर तिरंगा” के इस अभियान में नवीन जिंदल का प्रयास नेपथ्य में चला गया ? 

प्रधानमंत्री ने अनेकों बार लोगों से आग्रह किया कि इस महोत्सव में, ‘घर-घर तिरंगा’ के इस ऐतिहासिक अभियान में देश का प्रत्येक नागरिक अपनी भागीदारी दे। प्रधानमंत्री ने लोगों से हर घर तिरंगा अभियान को मजबूत करने का आग्रह किया है। श्री मोदी ने स्वतंत्र भारत के लिए ध्वज का सपना देखने वालों के अदम्य साहस और प्रयासों को भी याद किया। उन्होंने तिरंगे से जुड़ी समिति और पंडित नेहरू द्वारा फहराए गए पहले तिरंगे के विवरण सहित इतिहास की कुछ दिलचस्प बातें भी साझा की हैं। उन्होंने यह भी कहा कि 22 जुलाई का हमारे इतिहास में विशेष महत्व है, क्योंकि 1947 में आज ही के दिन हमारे राष्ट्रीय ध्वज को अंगीकार किया गया था। 

अपने ट्वीट्स की एक श्रृंखला में, प्रधानमंत्री ने कहा भी की “इस साल, जब हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, आइए हम हर घर तिरंगा अभियान को मजबूत करें। 13 से 15 अगस्त के बीच तिरंगा फहराएं या अपने घरों में इन्हें प्रदर्शित करें। यह अभियान राष्ट्रीय ध्वज के साथ हमारे जुड़ाव को और मजबूती देगा। आज, हम उन सभी लोगों के अदम्य साहस और प्रयासों को याद करते हैं, जिन्होंने स्वतंत्र भारत के लिए एक ध्वज का सपना देखा था, जब हम औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। हम उनकी दृष्टि को पूरा करने और उनके सपनों के भारत के निर्माण के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराते हैं।”

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नवीन जिंदल: चारों ओर देश का पवित्रतम प्रतीक हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा दिखाई दे रहा है। हम तिरंगे की ऊंचाई और उसके रंगों की गहराई में देश का उज्वल भविष्य देखा है

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बाते करते नवीन जिंदल कहते हैं: “राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा हमारे राष्ट्र का पवित्रतम प्रतीक है। इसे कुछ सामग्रियों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि ऐसे तमाम बंधनों से मुक्त किया जाना चाहिए। संशोधित ध्वज संहिता में पॉलियेस्टर को शामिल करने पर जिन लोगों को आपत्ति है, उन्हें अपने अध्ययन का दायरा बढ़ाना चाहिए। संशोधन में जो बातें कही गई हैं, उसे 2005 में ही गृह मंत्रालय ने स्पष्ट कर दिया था। उस आदेश में कहा गया था कि न तो राष्ट्रीय सम्मान के अपमान की रोकथाम का अधिनियम-1971 (प्रिवेंशन ऑफ इन्सल्ट टू नेशनल ऑनर ऐक्ट-1971) और न ही प्रतीक और नाम (अनुचित उपयोग की रोकथाम) अधिनियम-1950 तिरंगे के कपड़े को खास सामग्री तक सीमित रखते हैं। यानी संशोधन पहले के आदेश की ही पुष्टि भर है। खादी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रतीक है। लेकिन बदलते समय के साथ हमें आगे बढ़ना चाहिए और जो अच्छा और प्रगतिशील है, उसे अपनाना चाहिए।”

वे आगे कहते हैं: “राष्ट्रीय ध्वज हमारी पहचान है, यह हमारी आकांक्षाओं और सपनों का प्रतिनिधित्व करता है। राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा सीधे हमारे दिल को छूता है। विश्व कप क्रिकेट में जीत से लेकर मैराथन तक, विरोध प्रदर्शनों से लेकर विजय मार्च तक लोग राष्ट्रीय ध्वज के माध्यम से अपनी भावना प्रगट करते हैं और देश से अपने जुड़ाव को व्यक्त करते हैं। वास्तव में, तिरंगा भारत में घर-घर की पहचान है, हमारे देश की शान है। युद्ध हो या शांतिकाल, यह भारत का प्रतिनिधित्व करता है। लोगों से जुड़ने का इससे बड़ा कोई माध्यम नहीं है। इसके लिए विशेष प्रचार-प्रसार की आवश्यकता नहीं बल्कि इसे फहराने अथवा दर्शाने में जो शंका है, उसे दूर किये जाने की आवश्यकता है। काफी हद तक वहम दूर हुआ है लेकिन इस दिशा में अभी भी काफी काम करना है। भारतीय ध्वज संहिता में संशोधन कर तिरंगे के लिए पॉलियेस्टर के इस्तेमाल को कानून सम्मत बनाना और दिन-रात यानी 24 घंटे झंडा फहराने की इजाजत देना वाकई एक बड़ी पहल है, जो आने वाले समय में पूरे देश को तिरंगामय कर देगा।”

उनका कहना है कि: “हर देश की अपनी संस्कृति और मूल्य होते हैं। हमारे पास अपने राष्ट्रीय ध्वज के प्रति सम्मान दिखाने के लिए बहुत सारे साधन उपलब्ध हैं। मुझे लगता है कि राष्ट्रीय ध्वज की गरिमा सर्वोपरि है और इससे कभी समझौता नहीं किया जाना चाहिए। इसी तरह की दलीलें तब दी गई थीं, जब हमने प्रतिदिन झंडा फहराने के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी थी। हर भारतीय तिरंगे से प्यार करता है और उसे दिल से सम्मान देता है क्योंकि हमारा राष्ट्रीय ध्वज देश का नवीन प्रतिनिधित्व करता है और हमारे लिए देश से ऊपर कुछ भी नहीं।”

अंत में वे कहते हैं कि “आजादी के 75 वर्ष पूरे होने वाले हैं और पूरे देश में एक साल से आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। चारों ओर देश का पवित्रतम प्रतीक हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा दिखाई दे रहा है। हम तिरंगे की ऊंचाई और उसके रंगों की गहराई में देश का उज्वल भविष्य देखा है और तिरंगे की प्रेरणा से राष्ट्र निर्माण और सामुदायिक विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं। तिरंगा फहराना और तिरंगे के माध्यम से देशभक्ति का प्रदर्शन करना हमारी दिनचर्या का अभिन्न अंग होना चाहिए। हम रोज तिरंगा फहराएं और उससे प्रेरित होकर अपने दायित्वों का पूरी निष्ठा से निर्वहन करें। असली राष्ट्रभक्ति यही है और इसी भावना से कोई भी राष्ट्र महान बन सकता है।”

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