75 साल की आज़ादी, 15 संवैधानिक प्रमुख ‘राष्ट्रपति’ और भारतीय संविधान का 108 बार संशोधन, यानी हम अमेरिका से आगे हैं

स्वागतम : राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली। तस्वीर: आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम

रायसीना हिल, नई दिल्ली : वैसे निर्णय तो 18 जुलाई को होगा जब देश के प्रत्यक्ष निर्वाचन से चुने गए विधायक और सांसद अप्रत्यक्ष रूप कुल 10,79,000 मतों का प्रयोग कर भारतीय गणतंत्र को एक अदद राष्ट्रपति चुनकर देंगे। आज़ाद भारत के 75 वें वर्ष की समाप्ति के बीस दिवस पूर्व, यानी 25 जुलाई को देश को एक नया राष्ट्रपति प्राप्त होगा। संख्या के अनुसार, यह दुःर्भाग्य है, कि आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी देश में न तो कांग्रेस-गठबंधन के पास और न ही भाजपा-गठबंधन के पास बहुमत है जिससे वे अपनी पसंद के उम्मीदवार को राष्ट्रपति नहीं बना सकते। स्वाभाविक है संख्या के इस खेल में ‘सर्वसम्मति’ का होना उतना ही कठिन है, जितना बिहार के कोसी नदी में बाढ़ के समय पानी की धारा को नियंत्रित करना। इसलिए ‘मिलकर’ या ‘एक-जुट होकर’ किसी एक व्यक्ति को, चाहे महिला हों या पुरुष, महामहीम बना देना मुस्किल है। 

विगत दिनों प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक डॉ वेद प्रताप वैदिक तो यहाँ तक कह दिए कि “किसी राजनीतिक व्यक्ति पर सर्वसम्मति नहीं हो सकती, यह तर्क अपने आप में बड़ा खतरनाक है। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि राजनीति में जितने भी व्यक्ति है उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो निष्पक्ष हो, ईमान की बात कहता हो, सिर्फ राष्ट्रहित की बात सोचता हो और भारत को अपनी पार्टी से बड़ा मानता हो? अगर यह सही है तो धिक्कार है, भारत की राजनीति पर!  इसका अर्थ यह हुआ कि हमारे नेताओं के पास अपना कोई विवेक, अपना कोई अंतःकरण, अपना कोई ईमान नहीं है। वे सब अपने-अपने राजनीतिक दलों के नौकर-चाकर हैं। वे सब प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों के मजबूर कर्मचारी हैं। हमारी राजनीति में क्या ऐसे व्यक्ति भी नहीं हैं, जो राष्ट्रपति या राज्यपाल के संवैधानिक पदों पर पहुंचकर अपनी दलीय राजनीति से ऊपर उठ जाएं। शायद नहीं है।” और यही कारण है कि शरद पवार जैसे नेता ने गैर-राजनीतिक राष्ट्रपति की मांग कर डाली, वे भी अपने जगह दुरुस्त हैं। 

इतना ही नहीं, डॉ वैदिक यह भी कहे कि “डॉ. अब्दुल कलाम के अलावा कौन गैर-नेता भारत का राष्ट्रपति बना है, याद नहीं पड़ता। यह भी याद नहीं पड़ता कि अब्दुल कलाम ने ऐसा कौनसा काम कर दिया, जो उन्हें राजनीतिक राष्ट्रपतियों से अलग श्रेणी में ले जाता हो इससे उल्टे, जिन्हें हम राजनीतिक राष्ट्रपति मानते हैं, जैसे डॉ. राजेंद्रप्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन और ज्ञानी जैलसिंह, उन्होंने अपने-अपने प्रधानमंत्रियों की नींद हराम कर दी थी। ऐसे भी राजनीतिक राष्ट्रपति हुए हैं, जिन्होंने खुद को रबड़ की मुहर या ‘अंगूठा टेक’ सिद्ध किया है। वे आए और गए! आज भारत को ऐसा राष्ट्रपति चाहिए, जो सक्रिय राजनेता की न सही, कम से कम ब्रिटिश राजा की-सी भूमिका तो निभाए। वह सरकार को ‘मार्गदर्शन, प्रोत्साहन और चेतावनी’ तो दे। आज की हताश और दिग्भ्रिमित सरकार के सिर पर ऐसा राष्ट्रपति बैठना चाहिए जो उक्त तीनों काम कर सके। उसका रजानीति या गैर-राजनीतिक होना सबसे खास महत्वपूर्ण नहीं है।”

कोई ऊपर – कोई नीचे 18 जुलाई को : तस्वीर: आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम

राष्ट्रपति के चुनाव में संसद को दोनों सदनों के सांसद और विधानसभा के चुने हुए विधायक वोट करते हैं। अलग-अलग राज्यों के विधायकों के मत का नंबर अलग होता है। देश के कुल 776 सांसद वोटिंग में भाग लेंगे। इस चुनाव में सांसदों+ विधायकों की संख्या 4,809 है। राष्ट्रपति चुनाव में कुल वोट की संख्या 10.79 लाख हैं। सांसदों के एक वोट की वैल्यू 700 (MP Vote Value in President Election) है वहीं अलग-अलग राज्यों में विधायकों के वोट का वैल्यू अलग होता है। यूपी में एक विधायक के वोट का वैल्यू 208 है। देश के राज्यों के सभी विधायकों के वोट का वैल्यू 5 लाख 43 हजार 231 है। वहीं, लोकसभा के सांसदों का कुल वैल्यू 5 लाख 43 हजार 200 है। विधायक के मामले में जिस राज्य का विधायक हो, उसकी आबादी देखी जाती है। इसके साथ उस प्रदेश के विधानसभा सदस्यों की संख्या को भी ध्यान में रखा जाता है। वेटेज निकालने के लिए प्रदेश की पॉपुलेशन को इलेक्टेड एमएलए की संख्या से डिवाइड किया जाता है। इस तरह जो नंबर मिलता है, उसे फिर 1000 से डिवाइड किया जाता है। अब जो आंकड़ा हाथ लगता है, वही उस राज्य के एक विधायक के वोट का वेटेज होता है। 1000 से भाग देने पर अगर शेष 500 से ज्यादा हो तो वेटेज में 1 जोड़ दिया जाता है।

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बहरहाल, देश के 15वें राष्ट्रपति के लिए वोटिंग 18 जुलाई को होगी और 21 जुलाई को नतीजे आएंगे। नए राष्ट्रपति 25 जुलाई को शपथ लेंगे। एनडीए की तरफ से द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu) जबकि विपक्ष की तरफ यशवंत सिन्हा (Yashwant Sinha) राष्ट्रपति कैंडिडेट हैं। वैसे विगत दिनों सिन्हा ने कहा: “15वें राष्ट्रपति के चुनाव जिस तरह से हो रहे हैं, ऐसा भी कभी नहीं हुआ। यहां तक कि जब देश में 1970 में आपातकाल था तो भी ऐसा नहीं हुआ। अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन हुआ, देश में बेरोजगारी चरम पर है और महंगाई आसमान छू रही है। हमारा लोकतंत्र बुरे वक्त से गुजर रहा है। सत्ताधारी दल और इसकी सरकार सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को नुकसान पहुंचा रहा है। इतना ही नहीं, पिछले कई दशकों में मैंने इस तरह से सरकारी एजेंसियों का आतंक नहीं देखा। मैं पांच साल तक अटल जी की सरकार में था। मेरे दिमाग में भी भी नहीं आया कि इनकम टैक्स डिपार्टमेंट या फिर ईडी का यूज किया जाए। उस समय किसी एजेंसी का दुरुपयोग नहीं होता था। लेकिन आज के समय में ईडी और आईटी डिपार्टमेंट दोनों का बेशर्मी से इस्तेमाल किया जा रहा है।”

उधर वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रम राव का कहना है कि “नौकरशाही से राजनीति में प्रविष्ट हुए यशवंत सिन्हा को यदि कुछ भी लाज-लिहाज हो तो राष्ट्रपति चुनाव से हट जायें। हजारीबाग में अपने व्यवसाय को देखें। व्यापार बढ़ाएं, ज्यादा मुनाफा कमायें। राजनीति में हनीमून पर दोबारा आये हैं। अब पूरा हो गया। क्योंकि जनसेवा तो राजनीति में अब चन्द निस्वार्थ जन के लिये ही रह गयी है।” यशवंत सिन्हा को इसी जुलाई 1 को ही नाम वापस ले लेना चाहिए था, जब उनकी प्रस्ताविका कुमारी ममता बनर्जी ने कहा था : ”भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रपति पद हेतु राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को चुनावी मैदान में उतारने से पहले विपक्ष के साथ चर्चा की होती तो विपक्षी दल उनका समर्थन करने पर विचार कर सकते थे।” उन्होंने यह भी कहा कि ”मुर्मू के पास 18 जुलाई होने वाले राष्ट्रपति चुनाव जीतने की बेहतर संभावना है, क्योंकि महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन के बाद एनडीए की स्थिति मजबूत हुई है।”

विक्रम राव आगे कहते हैं कि “उत्तर प्रदेश का राष्ट्रीय राजनीति का ध्रुव केंद्र है और यहाँ यशवंत सिन्हा के लिये धूमधाम से अखिलेश यादव ने समर्थन जुटाया। पर दरार पड़ गयी। चचा शिवपाल के शब्दों में भतीजा अपरिपक्व हैं। मगर नासमझी इस कदर ? ओमप्रकाश राजभर को न बैठक में बुलाया। न उनसे सिन्हा के लिए समर्थन मांगा। खिसियाये राजभर योगी आदित्यनाथ के घर पर डिनर खाने चले गये। वहां द्रौपदी मुर्मू के लिये सभी अपने वोट की घोषणा कर रहे थे। वहीं शिवपाल सिंह भी वादा कर आये। शिवपाल समाजवादी पार्टी के कुछ और वोट काट सकते हैं। उन्होंने ने कहा कि ”मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राष्ट्रपति चुनाव में राजग प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट मांगा है। लिहाजा मैं मुर्मू को ही वोट करूंगा।” श्री यादव ने यहां कहा,  ”मैंने पहले ही कहा था, राष्ट्रपति चुनाव में जो प्रत्याशी मुझसे वोट मांगेगा, मैं उसके पक्ष में वोट करुंगा। योगी आदित्यनाथ ने मुझसे (द्रौपदी मुर्मू के लिये) वोट देने को कहा था और मैंने फैसला किया है कि मैं उन्हें वोट दूंगा।”  जयंत चौधरी बच गये। सपा मुखिया के साथ रह गये। मगर क्या फर्क डाल पाएंगे ?

द्रौपदी मुर्मू – एनडीए का राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार। तस्वीर ‘मिंट’ के सहयोग से

विश्लेषण के बाद राव का कहना है कि सिलसिलेवार अन्य राज्यों पर यदि गौर करें तो अन्नाद्रमुक और अन्य सहयोगी दल एनडीए की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करेंगे। मुर्मू ने अन्नाद्रमुक नेताओं – के. पलानीस्वामी और ओ. पन्नीरसेल्वम, तमिल मनीला कांग्रेस के अध्यक्ष जी. के. वासन, पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) के अध्यक्ष डॉ. अंबुमणि रामदास से मुलाकात की। सभी ने उनके प्रति समर्थन व्यक्त किया। वहीं शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने भी कहा कि वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की उम्मीदवार का समर्थन करेगा। शिअद ने मुर्मू का समर्थन करने का फैसला किया है। पार्टी का मानना है कि वह अल्पसंख्यकों, शोषित और पिछड़े वर्गों के साथ-साथ महिलाओं की प्रतीक है। देश में गरीब व आदिवासी वर्गों के प्रतीक के रूप में उभरी हैं। यही वजह है कि पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में उनका समर्थन करेगी। ‘सिख समुदाय पर अत्याचारों के कारण हम कांग्रेस के साथ कभी नहीं जायेंगे।’

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उधर, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कह चुकीं हैं कि ”यदि एनडीए की ओर से पहले द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी के बारे में बता दिया जात तो हम भी राजी हो जाते और सर्वसम्मति से उन्हें चुना जा सकता था। ममता बनर्जी ने द्रौपदी मुर्मू की जीत की संभावनाएं ज्यादा होने की बात भी स्वीकार की।” 

विक्रम राव का मानना है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजग उम्मीदवार के बारे में कहा भी है कि ‘हम लोगों को पूरा भरोसा है कि मुर्मू भारी बहुमत से जीतेंगी। यह बहुत खुशी की बात है कि एक आदिवासी महिला देश के सर्वोच्च पद के लिये उम्मीदवार है।’ मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा अब द्रौपदी को वोट देगा जिससे गठबंधन सहयोगी कांग्रेसी पार्टी को शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। इसी तरह, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने स्पष्ट किया कि सिर्फ अनुसूचित जनजाति की महिला होने के कारण ही उनकी पार्टी ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति चुनाव के लिये समर्थन देने का ऐलान किया है। उनका एक ही विधायक है।

विक्रम राव आगे कहते हैं कि प्रतिद्वंदी यशवंत सिन्हा ने द्रौपदी पर तनिक शकुनि के अंदाज में विवाद उठा दिया। वे बोले कि ”यह महिला प्रत्याशी रबर स्टांप राष्ट्रपति बनेगी।” सिन्हा की घोषणा है कि वे खुद राष्ट्रपति चुने गये तो ”केवल संविधान के प्रति उत्तरदायी रहूंगा।” हालांकि भारत का संविधान गत 70 वर्षों में 108 बार संशोधित हो चुका है। तुलना में अमेरिका का संविधान गत सवा दो सौ वर्षों में केवल 25 बार संशोधित हुआ। जब 1975 में एमर्जेंसी इंदिरा गांधी ने थोपी थी तो जनाब यशवंत सिन्हा जी कलक्टरी कर रहे थे। सरकारी अफसर थे उस शासन के जो भ्रष्टाचार-विरोधी संघर्ष में जननायकों को जेल में कैद कर रही थी। तब उन्हीं के परिवारजन लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी इंदिरा गांधी की जेल में नजरबंद थे। बाद में उन्हें जेपी की सिफारिश पर प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने सिन्हा पर कृपा दृष्टि दर्शायी थी। यही सिन्हा जी अब आदिवासी गरीब विधवा द्रौपदी मुर्मू से बेहिचक वचन मांग रहे है कि वे ”नाममात्र” की राष्ट्रपति नहीं रहेंगी। खामोश नहीं रहा करेंगी। मगर जब दस साल मनमोहन सिंह गूंगे रहे, सोनिया की धौंस के चलती रही, तब?”

अब जानिये अगर सिन्हा स्वयं राष्ट्रपति बन गये (मुंगेरीलाल के सपने जैसा) तो यशवंत जी क्या—क्या कर देंगे? वे केन्द्रीय संस्थाओं द्वारा विपक्ष को तंग करना बंद करा देंगे। नीक है, सब इसे स्वीकारते हैं। सांप्रदायिकता को रोकेंगे? दुरुस्त है। राज्य सरकारों को डगमायेंगे नहीं। यह भी वाजिब है। मगर इंदिरा गांधी काल का यही सरकारी (84-वर्षीय) नौकर चालीस साल के दौरान तो ”जी हुजूरी” भर करता रहा। कैसा कर्तव्य निभाया?

विक्रम राव का कहते हैं: “यशवंत सिन्हा को बैठ जाने के आग्रह के लिये तर्क है, वे कभी भी गंभीर चुनौती देने वाले, प्रत्याशी नहीं रहे। विपक्ष की चौथी पसंद रहे। शरद पवार चतुर थे। हार की प्रतीति हो गयी थी। पलायन कर गये। अधिक फजीहत से बचने के पूर्व यशवंत सिन्हा को संतुष्ट होना चाहिये कि उन्हें आशातीत प्राप्ति तो हो गयी। हाशिए पर पड़े इस राजनेता को फोकट में देशव्यापी मीडिया पब्लिसिटी मिल गयी। बड़े-बड़े राजनेताओं से भेंट हो गयी जो अब उनके समर्थक बन बैठे। बिन रकम खर्चे सिन्हा लाभ पा गये। विपुल चुनावी बजट पा गये। फ्री भारत दर्शन करने का मौका मिल गया। अब उनके राजनीति करने में कुछ ही वर्ष रह गये है। वानप्रस्थ खत्म हो गया। संन्यास का वक्त दस साल पूर्व ही आ गया था। अभी भी देर नहीं है कि सिन्हा साहब रिटायरमेंट की घोषणा के लिये। इसमें राष्ट्रहित है। उनका यश भी बना रहेगा।”

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यशवंत सिन्हा – राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार, विपक्ष से

बहरहाल, साहित्य में यश का रंग सफेद, धवल कहा गया है। कवि भूषण ने कहा था कि छत्रपति शिवाजी के अपार यश से तीनों लोकों में सफेदी छा गयी। तब इन्द्र अपने सफेद हाथी ऐरावत को तलाशते रहे। खुद ऐरावत गोरे इन्द्र को खोजता रहा। अत: सारी गोरी चीजें और गोरे लोग खो गये। अब यशवंत को भी यश की तरह गोरे बने रहना चाहिये। पराजय की कालिमा से बचें।

खैर, देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद 1962 में पदमुक्त होने के बाद पटना शिफ्ट हो गए थे। वे दिल्ली में नहीं रहे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद की पटना के लिए विदाई नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से हुई थी। देश के दूसरे राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन 1962 से 1967 तक अपने पद पर रहने के बाद चेन्नै शिफ्ट हो गए थे। डॉ. जाकिर हुसैन 13 मई 1967 से लेकर 3 मई 1969 तक देश के तीसरे राष्ट्रपति रहे। उनका पद पर रहते हुए निधन हो गया था। उनकी और उनकी पत्नी शाहजहां बेगम जामिया मिलिया इस्लामिया के पास के कब्रिस्तान में चिरनिद्रा में हैं।

दरअसल डॉ. जाकिर हुसैन की शवयात्रा राष्ट्रपति भवन से जामिया मिलिया इस्लामिया की तरफ गई थी। शव यात्रा रास्ते में पुराने वेस्ली रोड से गुजरी थी, इसलिए उस सड़क का नाम आगे चलकर डॉ जाकिर हुसैन रोड कर दिया गया था। भारत के चौथे राष्ट्रपति वीवी गिरी 24 अगस्त 1969 से 24 अगस्त 1974 तक अपने पद पर रहने के बाद चेन्नै चले गए थे। उनके नाम का एक प्लॉट लंबे समय से ईस्ट दिल्ली के विकास मार्ग पर खाली पड़ा है। उसमें उनकी नेमप्लेट भी लगी है। राष्ट्रपति डॉ फखरुद्दीन अली अहमद का 11 फरवरी 1977 को पद पर रहते हुए निधन हो गया था। एन संजीव रेड्डी 1977 से 1982 तक देश के राष्ट्रपति रहे। वह भी राष्ट्रपति भवन को छोड़ने के बाद दिल्ली से चले गए थे। उनका 1996 में बेंगलुरु में निधन हो गया था। ज्ञानी जैल सिंह 1982-1987 तक देश के राष्ट्रपति रहे। वे राष्ट्रपति भवन को छोड़ने के बाद तीन मूर्ति के पास सर्कुलर रोड के एक बंगले में रहने लगे थे। सर्कुलर रोड को अब उमाशंकर दीक्षित मार्ग कहते हैं। वे शीला दीक्षित के ससुर और स्वाधीनता सेनानी थे।

आर वेकटरामन 1987-92 तक देश के नवें राष्ट्रपति रहे। वे दिल्ली में तो नहीं रहे पर जब वे चेन्नै वापस गए तो काफी हंगामा इसलिए हुआ क्योंकि उनके पास अपने तीन घर थे। इसके बावजूद उन्होंने राज्य सरकार से सरकारी आवास की मांग की। उनके बाद शंकर दयाल शर्मा देश के राष्ट्रपति 1992-1997 रहे। उनका 1999 में निधन हुआ। उन्हें सफदरजंग रोड में बंगला मिला था। उनके बाद उनकी पत्नी विमला शर्मा उस बंगले में 2020 तक रहीं। केआर नारायणन राष्ट्रपति पद पर 1997-2002 तक रहे। वे राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद लुटियन दिल्ली में ही रहे। एपीजे अब्दुल कलाम पद से मुक्त हुए तो उन्हें सरकार ने 10 राजाजी मार्ग का बंगला आवंटित किया। ये बेहद खास बंगला है। राष्ट्रपति पद से 2017 में मुक्त होने के बाद प्रणव कुमार मुखर्जी भी इसी बंगले में रहे। यहां उनका निधन हुआ। यह डबल स्टोरी बंगला है। लुटियन दिल्ली के बहुत ही कम बंगले बंगले डबल स्टोरी है। इसी बंगले में भारत के पहले गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी भी रहे हैं। चूंकि इधर कुछ समय तक सी राजगोपालचारी भी रहे हैं, इसलिए इसके आगे की सड़क का नाम उनके नाम पर राजाजी मार्ग रख दिया गया था। प्रणव कुमार मुखर्जी से पहले प्रतिभा पाटिल देश की राष्ट्रपति रहीं। वह अपने पद को छोड़ने के बाद पुणे शिफ्ट कर गई थीं। दरअसल नियम यह है कि सरकार को पूर्व राष्ट्रपति को सेवा से मुक्त होने के बाद राजधानी में कैबिनेट मंत्री को आवंटित होने वाला बंगला ही आवंटित करना होता है। अगर उनकी मृत्यु हो जाती तो वह बंगला उनकी पत्नी/ पति को मिल जाता है।

यानी, लुटियन दिल्ली का एक बंगला महामहिम रामनाथ कोविंद के नाम। 

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