‘पढ़ेगी बेटी-बढ़ेगी बेटी’ नारा बिहार के सरकारी नियमों के अधीन ‘दम तोड़ रहा है; मंत्री कहते हैं: ‘हम मंत्री हैं, फ़ाइल के पीछे मैं नहीं, आप दौरें, मैं नहीं दौड़ता’ (भाग-2)

बांकीपुर महिला उच्च विद्यालय का एक दृश्य - पीछे 'पवित्र गंगा' लेकिन शैक्षिक और मानसिक पतन के कारण जिस महिला ने 'बांकीपुर महिला विद्यालय' की शुरुआत की थी अपने घर में, उस महिला का मूल विद्यालय आज 'अमूल्य और ऐतिहासिक' होने के बाद भी बिलख रहा है, रो रहा है बिहार के हृदयहीन 'नेतृत्व' में - तस्वीर: इंटरनेट से 

पटना।  कलकत्ता : भारत की सड़कों पर, खासकर बिहार की राजधानी पटना की सड़कों पर कुकरमुत्तों की तरह पनप रहे राजनेताओं और उनके द्वारा सम्पोषित, संरक्षित ‘दुधारू विद्यालयों’ में पटना के लोग, माता-पिता, अभिभावक भले अपने बच्चों को, विशेषकर बालिकाओं को प्रवेश के लिए ‘कुछ भी करने को तैयार’ हों; लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि तत्कालीन ‘अविभाजित’ कालखंड में बिहार में ‘महिला शिक्षा’ की अग्रणी महिला को बिहार के लोग भूल गए हैं। नेताओं ही नहीं, मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री की बात ही नहीं करें। तभी तो विगत दिनों बिहार का एक शिक्षा मंत्री अपने दफ्तर में कुर्सी पर बैठे कह ही दिए: “मैं प्रदेश का शिक्षा मंत्री हूँ और फाईल के पीछे-पीछे मैं नहीं चलता, आपका काम है, आप चलें।” शिक्षा मंत्री महोदय के ये शब्द प्रदेश में ‘पुरातात्विक मोल’ के विद्यालयों और वहां प्रदान की जाने वाली शिक्षा-स्तर का जीवंत – ‘मृत मानसिकता’ – एक दृष्टान्त है। 

प्राथमिक स्तर से प्राक-विश्वविद्यालय कक्षाओं तक बिहार की राजधानी पटना में कितने विद्यालय हैं और कितने छात्र उसमें शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, यह बात तो प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग के सम्मानित अधिकारी और शिक्षा मंत्री बताएँगे; लेकिन एक बात स्पष्ट है कि पटना शहर में महिला शिक्षा की सूत्रधार और अग्रणी कौन-कौन महिला थी, सैकड़े 99 फ़ीसदी छात्र-छात्राएं-अभिभावक-अधिकारी-मंत्री नहीं जानते होंगे।

इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते हैं कि अगर यह सवाल ‘कौन बनेगा करोड़पति में महानायक अमिताभ बच्चन सात-करोड़ और अधिक मूल्य के बराबर प्रश्न कर दें, तो सामने कुर्सी पर बैठे ‘महामानव’ शायद सभी “दांत निपोड़” देंगे, “अपना “बत्तीसी” निकाल देंगे – गर्व से – और कहते भी नहीं शर्माएंगे “लाईफ लाईन” इस्तेमाल करूँगा । वैसे दिल्ली से लेकर बिहार के सभी 28 जिलों के 45,103 गावों सहित भारत के 6,28,221 गाँव में ‘बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ’ नारा का जबरदस्त व्यापारीकरण हो रहा है। नीतीश बाबू अगर समय मिले तो सोचियेगा जरूर। 

कोई ‘साईकिल’ बाँट रहा है तो कोई ‘लैपटॉप’, कोई ‘आटा दे रहा है, तो कोई लवणच्युस’, कोई कपड़ा बाँट रहा है तो कोई बक्सा’ – दुर्भाग्य यह है कि ‘बेहतर सोच वाली मानसिकता’ कोई नहीं मजबूत कर रहा है। क्योंकि बिहार ही नहीं, देश के राजनेता कभी नहीं चाहेंगे की उसके विधानसभा, विधान परिषद्, लोक सभा क्षेत्रों में शिक्षा का वास्तविक प्रसार हो, चुनाव क्षेत्र में शिक्षित, विचारवान मतदाता हों, उनकी पकड़ हो। क्योंकि राजनेताओं की दुकानदारी बंद हो जाएगी। शिक्षा का उनके जीवन में कोई महत्व होता तो सातवीं, आठवीं,नवमीं-दसवीं, इंटर, या फिर कभी ‘विद्यालय का मुख’ नहीं देखने वाला व्यक्ति प्रदेश के विधान सभा में नहीं बैठता और समाज के लोग अपने मत का प्रयोग उन अशिक्षितों के लिए करते भी नहीं। पतन दोनों तरफ बराबर का है। 

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शिक्षा विभाग में एक नियम ‘विद्यालय को खुशहाल बनाने के लिए हैं, वहीं दूसरा नियम ऐसा है जिसके तहत कोई विद्यालय खुल ही नहीं सकता। गाँव, टोले, महल्ले के बच्चे पढ़ ही नहीं सकते। क्योंकि ऐसे विद्यालयों के लिए ‘शिक्षा के प्रति सकारात्मक सोच की आवश्यकता होती है। जिस व्यक्ति के पास ऐसी सोच होता है, वह अर्थ से दरिद्र’ होता है। और वर्तमान राजनीतिक – सामाजिक – प्रशासनिक व्यवस्था में ‘दरिद्रों की जरूरत नहीं है। समाज के संभ्रांत लोग, जो प्रदेश के राजनीतिक – सामाजिक – प्रशासनिक गलियारे में ‘दंड बैठकी’ करते हैं, ‘प्रातः-सांध्य कालीन भ्रमण-सम्मेलन करते हैं, वे तो उन विद्यालयों को समाप्त कर देना चाहते हैं ताकि उस भूमि पर विशालकाय गगनचुंबी इमारत बनाकर लक्ष्मी जी की अगुवाई कर सकें, सरस्वती को भगाकर। 

अगर ऐसा नहीं होता तो पटना के अशोक राज पथ पर खुदाबक्श ओरिएंटल पुस्तकालय के सामने नयाटोला की ओर लुढ़कने वाली खजांची रोड के मध्य में एक ऐतिहासिक मकान “जर्जर” नहीं होता। मुझे विश्वास है कि प्रदेश के विगत 24 मुख्यमंत्रियों की श्रृंखला में आज तक शायद ही कोई महानुभाव मुख्यमंत्री खजांची रोड से गुजरे होंगे, इस भवन को देखे होंगे। हां, केदार पांडेय, दरोगा प्रसाद राय नयाटोला के एक मकान में अवश्य जाते थे, अपने मित्र के घर, लेकिन मार्ग खजांची रोड नहीं होता था।”

टी के घोष अकादमी के पूर्ववर्ती छात्र, पश्चिम बंगाल के द्वितीय मुख्यमंत्री डॉ बिधान चंद्र रॉय का जन्म खजांची रोड के इसी भवन में हुआ था। डॉ बिधान चंद्र राय के नाम पर भारत के करीब 12 लाख से अधिक ऐलोपैथी चिकित्सक “डॉक्टर्स दिवस मानते हैं। डॉ बिधान चंद्र रॉय का वह ऐतिहासिक स्थान और उस स्थान पर कई दशक से चल रही ‘बालिका विद्यालय’ का यह हश्र नहीं होता अगर विगत 75 वर्षों में सत्ता के सिंहासन पर बैठे “सफेदपोश” राजनेताओं के साथ समाज के लोगों की मानसिकता सकारात्मक होती । कुल 16 शिक्षकों में 12 शिक्षकों को “चंदा कर मासिक वेतन’ नहीं दिया जाता। बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के अधिकारी, प्रदेश के शिक्षा मंत्री इस ऐतिहासिक विद्यालय को सरकारी अनुदान, सहायता से इसलिए बंचित नहीं कर देते कि ‘विद्यालय के पास उपलब्ध जमीन में 40 वर्गफीट जमीन कम है जो नियमानुसार आवश्यक है।”

अब प्रदेश के शिक्षा विभाग के अधिकारियों, शिक्षा मंत्रियों, मुख्यमंत्री महोदय को कैसे बताया जाय कि जिस दिन इस विद्यालय की स्थापना हुई थी, उस दिन प्रदेश के मानचित्र पर उनका कहीं कोई अता-पता नहीं था। जिस महिला ने इस विद्यालय की स्थापना की थी, वह महिला “बिहार में महिला शिक्षा की अग्रणी थी, सूत्रधार थी” । उससे पूर्व तत्कालीन बम्बई (अब मुंबई) से बैलगाड़ी पर चलकर, कोई आठ महीने में पहुँचने वाली पांच महिलाएं (सिस्टर मारिया ग्रोेप्पनेर, सिस्टर अंगेलहॉफ, सिस्टर अलोय्सिआ माहेर, सिस्टर अंटोनिआ फ़ेथ और सिस्टर चैथेरिने स्क्रैबमा) पटना में रोमन कैथलिक चर्च (1850) के तहत भारत में बनी पहला ‘मदर्स हॉउस’ और संत जोसेफ़ कान्वेंट स्कूल का सञ्चालन की थी। कितनी मसक्कत की थी वे महिलाएं बिहार की राजधानी पटना में महिला शिक्षा के प्रसार-प्रसार के लिए, आज के राजनेता, आज के लोगबाग सोच नहीं सकते। खैर, यह बात आज की ‘महिला’ भी नहीं समझेंगी, “पुरुष राजनेतागण” की तो बात ही नहीं करें। अशोक राज पथ और गंगा नदी के बीच (महेन्द्रू घाट के समीप) संत जोसेफ कान्वेंट स्कूल और रोमन कैथलिक चर्च की स्थापना दस एकड़ भूमि में की गई थी । 

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बिहार के शिक्षा जगत से जुड़े ‘वास्तिविक’ और ‘तथाकथित’ महामानव, जो पटना की सड़कों से प्रदेश के विधान सभा तक प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर. विशेषकर ‘महिला शिक्षा के प्रसार-प्रसार’ पर ‘घड़ियाली आंसू’ बहाकर ‘राजनीति’ कर रहे हैं, उन्हें शायद यह भी नहीं मालूम होगा कि ‘आज गोलघर के सामने स्थित जिस विद्यालय (बांकीपुर महिला विद्यालय) का नाम और उसकी उपलब्धि अपने सरकारी बही-खाते में लिखकर दिल्ली तक अपना माथा ऊँचा करते हैं; उस विद्यालय की स्थापना और नामकरण भी उसी महिला ने की थी, जो खजांची रोड के चार-पांच कमरों में रहती थी और खजांची रोड के उसी भवन से बांकीपुर महिला विद्यालय’ के नाम से महिला शिक्षा की शुरुआत की थी । खुद ‘बेहतर शिक्षा दे सके, पटना से हज़ारीबाग जाकर, वहां की शिक्षक-प्रशिक्षण संस्था से पढाई कर, सीखकर फिर पटना आयी और महिला शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए ‘घड़ियाली आंसू’ नहीं, बल्कि ‘खून-पसीना’ बहायी थी। आज पटना के लोग उस महिला को जानते भी नहीं। 

बहरहाल, अब तक अशोकराज पथ – गंगा के बीच संत जोसेफ़ कान्वेंट आ गया था। पटना की महिला शिक्षा, ऑर्फन्स की देखरेख करने का कार्य प्रारम्भ हो गया था। संत जोसेफ कान्वेंट में शिक्षा-व्यवस्था (दाखिला) के लिए दो भाग थे – एक अंग्रेजी हुकूमत के अधिकारियों के बच्चों के लिए और उसी के बराबर भारतीय बच्चों के लिए। विद्यालय परिसर में छात्राओं के चमड़े के रंग में भले काले-गोरे का अंतर होता था; शिक्षा देने में कोई अंतर नहीं था। 

इसी विद्यालय से कोई एक किलोमीटर दूर पटना समाहरणालय के रास्ते सन 1786 में निर्मित तत्कालीन “दी ग्रैनरी” *(आज का गोलघर) के सामने गंगा के किनारे उस महिला की बांकीपुर महिला विद्यालय’ एक नए परिसर में आ गया। लेकिन वह अपनी पुस्तैनी जगह को नहीं छोड़ी। महिला का नाम था – श्रीमती अघोरकामिनी ‘बिधान’, जो प्रकाश चंद्र रॉय की पत्नी थी और श्री प्राणकाली रॉय, जो उस समय ब्रह्मपुर (मुर्शिदाबाद, बंगाल) के समाहरणालय में कार्यरत थे, की बहु थी। श्री प्रकाश चंद्र राय पटना समाहरणालय में कार्य करते थे। श्रीमती अघोरकामिनी जी के पिता ब्रह्मपुर (मुर्शिदाबाद) के एक विख्यात जमींदार थे, नाम था श्री बिपिन चंद्र बसु  महिला पश्चिम बंगाल के द्वितीय मुख्यमंत्री डॉ बिधान चंद्र राय की माँ थी। 
 
कहते हैं जो बंगाल आज़ादी के आंदोलन के समय भारत को क्रांतिकारियों का फ़ौज दिया, बंगाल के मिदनीपुर पुर से बिहार के मुजफ्फरपुर तक, कलकत्ता के राइटर्स बिल्डिंग से पटना सचिवालय के रास्ते दिल्ली के एसेम्ब्ली तक स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारियों का फ़ौज दिया, आज उसी बंगाल के दिवंगत मुख्यमंत्री डॉ बिधान चंद्र राय, उनकी माँ श्रीमती अघोर कामिनी जी को, उनके पुस्तैनी भवन, ऐतिहासिक विद्यालय को पूछने वाला न बंगाल में है और ना ही बिहार में। ऐसा लगता है जैसे सभी “अंतिम सांस की प्रतीक्षा” कर रहे हों, सोच रहे हों कब सांस रुके और उस ‘ऐतिहासिक भूमि’ को ‘बहुमूल्य भूमि’ में बदलकर गहन अर्जित किया जाय। ‘अर्थ के आभाव’ में आज भवन की दशा ‘दर्दनाक’ हो गई है, जो ‘वर्तमान व्यवस्था, वर्तमान समाज, लोगों के लिए निंदनीय है।”

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आज आलम यह है कि जिस बंगाल की महिला ने बिहार में महिला शिक्षा का बीजारोपण की थी, जिसने तीन महिला छात्राओं को लेकर महिला प्रदेश में महिला शिक्षा का श्रीगणेश की थी, महिलाओं को शिक्षा के बारे में ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ सिखाई थी; आज आज़ादी के 75 वर्ष बाद बिहार के शिक्षा विभाग के अधिकारियों, मंत्रियों के सामने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए ‘भीख’ मांग रही है, ‘गुहार’ कर रही है – इधर बिहार सहित देश के अन्य राज्यों में ‘पढ़ेगी बेटी – बचेगी बेटी’ का नारा बुलंद हो रहा है। जबकि हकीकत यह है कि ‘बेटियों की सांस अटक रही है। पढ़ने-लिखने आगे बढ़ने की बात तो कागज पर पन्ना-दर-पन्ना दौड़ रही है। 

कल पढ़ेंगे: अघोर शिशु विद्यामंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष कैप्टन (डॉ) डी के सिन्हा से बातचीत। डाक्टर साहेब की पीड़ा ‘असहनीय’ है वर्तमान महिला शिक्षा के प्रति 

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