“जहां हमारा (हिन्दुस्तानियों का) लहू गिरा है, वह कश्मीर हमारा है…”

यासिन मलिक। तस्वीर: 'दी हिन्दू' के सौजन्य से 

स्वतंत्र कश्मीर के लिये मुजाहिद यासिन मलिक को कल (25 मई 2022) उम्रकैद हो गयी। अभियोजन के (सरकारी) वकील नील कमल ने फांसी की सजा मांगी थी। यासिन के वकील अखण्ड प्रताप सिंह ने कहा कि “गौर किया जाये कि यासिन ने 1994 से हिंसा तज दी थी।” आरोपी ने कहा उसकी आस्था गांधीवादी हो गयी है। मगर जज प्रवीण सिंह ने टोका कि “चौराचौरी की हिंसा के बाद बापू ने आंदोलन वापस ले लिया था। हिंसा की भर्त्सना की थी। यासिन ने ऐसा नहीं किया। लिहाजा आजीवन कारावास।”

मगर यह सजा आंशिक है, केवल एक पक्ष में ही दी गयी है। यासिन के सह-अभियुक्तों में डा. फारुख अब्दुल्ला, तत्कालीन मुख्य निर्वाचन आयुक्त आरवीएस पेरिशास्त्री, राजीव गांधी भी नामित होने चाहिये।

कारण ? भारत सरकार की एक साजिशभरी हरकत ने इस भ्रमित भारतद्रोही (मगर कट्टर पाकिस्तान—विरोधी), प्रताप कालेज के स्नातक को आतंकवादी बना दिया। जम्मू—कश्मीर आजादी फ्रन्ट का सिरमौर बना दिया। हत्यारा बना दिया। कश्मीर घाटी में 1987 में राज्य विधानसभा का चुनाव था। एक पोलिंग बूथ पर यासिन तब मुस्लिम यूनाइटेड फ्रन्ट के प्रत्याशी मोहम्मद यूसुफ शाह का चुनाव एजेंट था। अमीर कदल विधानसभा क्षेत्र के निर्वाचन अधिकारी ने आधी रात के बाद यासिन को बताया कि “उसकी पार्टी का प्रत्याशी काफी बढ़त बनाये है। सुबह तक वह विजयी घोषित हो जायेगा। अत: अब घर जायें। आराम करें।” सरकारी तंत्र पर यकीन कर इक्कीस—वर्षीय यासिन घर चला गया। सुबह उसने अखबार में पढ़ा कि फारुख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस का प्रतिद्वंदी विजयी घोषित हो गया। अंतिम चक्र की मतगणना में उसके वोट उसकी जमानत बचाने लायक भी पर्याप्त नहीं थे। जीत का तो सवाल ही नहीं था। विधानसभा में फारुख अब्दुल्ल तथा राजीव—कांग्रेस को बहुमत मिल गया।

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मुझसे एक इन्टर्व्यू में (श्रीनगर 3 जनवरी 1991) को यासिन ने इस नाइंसाफी और फर्जीवाड़ा को सिलसिलेवार वर्णित कर बताया था। तब वह श्रीनगर में भारतीय वायुसेना के अधिकारियों की हत्या का अभियुक्त था। विशेष अनुमति पर सरकार ने फौजी हिरासत में यासिन से मुझे मिलाया था। मगर तब तक भारत के लोकतांत्रिक मतदान में उसकी आस्था नष्ट हो चुकी थी। प्रेस कांउसिल का सदस्य होने के कारण मैं ने अपने अध्यक्ष तथा सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज ने राजेन्द्र सिंह सरकारिया को यह घटना बतायी थी। इसके अलावा प्रेस कांउसिल की जांच समिति में मेरे सहसदस्य तथा सम्पादक पत्रकार बीजी वर्गीस को भी इस इन्टर्व्यू के बारे में बता दिया था। वर्गीस इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाइम्स तथा टाइम्स आफ इंडिया के संपादक रह चुके थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को भी इस बारे में पता था।

उसी दौर में वीपी सिंह सरकार के गृहमंत्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया (महबूबा की अनुजा) का अपहरण हुआ था। पांच क्रूर आंतकवादियों की रिहाई के एवज में रुबिया मुक्त हुयी थी। नूरा कुश्ती के शक की सुई केन्द्रीय गृहमंत्री पर टिकी थी। अर्थात यासिन की बात वजनदार ही थी। भारत का सत्ता केन्द्र कश्मीरी आवाम को अब्दुल्ला—सल्तनत का गुलाम ही बनाये रखना चाहती थी। और इसीलिये यासिन ने हथियार उठा लिये, जो माओत्से तुंग ने पीड़ितों को सिखाया था।

हिरासत में पूछा भी था मुझसे यासिन ने: “क्या विकल्प है हम पीड़ितों के लिये?” मेरा सवाल था “कब तक लड़ोगे?” वह बोला “आप अंग्रेजों से कब तक लड़ते रहे?” समझाने की कोशिश में मैंने कहा : “गोरे लोग सात समुंदर दूर थे। हम तो पहाड़ के नीचे है।” वह नहीं माना। यासिन बोला पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी जंग चलेगी। फिर मैंने जानना चाहा कि “कश्मीर यदि इस्लाम के नाम पर भारत से अलग हुआ था, तो आपके तीस करोड़ सहधर्मी भारत में किस आधार पर रह पायेंगे ?” यासिन का उत्तर बड़ा स्पष्ट और साफ था : “कश्मीरियों का कोई भी वास्ता इन हिन्दुस्तानी मुसलमानों से नहीं है। हमारी लड़ाई जुदा है।” आकर मैंने दिल्ली और लखनऊ में सबको बताया। मगर कोई भी मिल्लत का आदमी अथवा जमात ने यासिन को मजहब का वास्ता देकर समझाने की तनिक भी कोशिश नहीं की।

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यासिन मलिक त्रासद का शिकार रहा। अटल बिहारी वाजपेयी ने उसका पासपोर्ट जारी किया था। केन्द्रीय काबीना मंत्री जार्ज फर्नांडिस उससे मिले थे ताकि संवाद द्वारा समाधान निकले। सरदार मनमोहन सिंह ने यासिन को अपना राज्य अतिथि बनाया था। फिर बात क्यों नहीं बनी ? बेईमान मतदान प्रणाली जो जनमत से प्रवंचना करती है, वही एकमात्र कारण रही।

यह बात 1977 की है। केंद्रीय चुनाव आयोग के अधिकारी मोरारजी देसाई के पास पूछने गये थे : “कश्मीर और बंगाल के विधानसभाई मतदान पर क्या आदेश है?” प्रधानमंत्री को पहले अचरज हुआ फिर आक्रोशित हुये । उनका सुझाव था :”निर्बाध, निष्पक्ष चुनाव हो।” नतीजन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट बंगाल में और शेख अब्दुल्ला श्रीनगर में पूरे बहुमत से जीते। तभी शेख ने कहा भी : “आजादी के बाद कश्मीर का यह पहला ईमानदार निर्वाचन हुआ।” शेख और मोरारजी परस्पर विरोध खेमों में थे। उन्हें भली भांति स्मरण रहा कि 1948 से तब तक (नेहरु युग से राजीव काल तक) चुनावी धांधली बड़ी आम बात थी। यासिन मलिक इसका जीवंत सबूत है। उसे पाकिस्तान धन देता रहा क्योंकि फारुख, मुफ्ती, उमर और महबूबा की भांति वह राजकोष से दूर—दूर ही था। कोर्ट में उसने अपनी हिंसक अपराधों को बेहिचक स्वीकारा है। राजीव गांधी के हत्यारों की भांति यासिन पर भी सरकार को कृपापात्र होना चाहिये।

यह पूछे जाने पर कि उसने शांति मार्ग क्यों नहीं अपनाया ? यासिन द्वारा दिये गये उत्तर पर अदालत को गौर करना चाहिये। यासिन ने कहा : “घाटी में बंदूक संस्कृति की इब्तिदा मुझसे हुयी है। हम चाहते है कि हमें सुना जाये।” सभी कश्मीरी भलीभांति समझते है कि भारतीयों का उत्सर्ग याद रखना चाहिए कि : “जहां हमारा (हिन्दुस्तानियों का) लहू गिरा है, वह कश्मीर हमारा है।” समझौते का आधार भी यही होगा।

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