‘पूस की वह रात’, प्रसव-पीड़ा में ‘अर्ध मृत’ वह महिला, उसकी नाभि से जुड़ा ‘निष्प्राण’ वह नवजात शिशु और श्रीमती श्यामा देवी का ईश्वरीय अवतरण – एक समर्पण

'पूस की वह रात', प्रसव-पीड़ा में 'अर्ध मृत' वह महिला, उसकी नाभी से जुड़ा 'निष्प्राण' वह नवजात शिशु और श्रीमती श्यामा देवी का ईश्वरीय अवतरण - एक समर्पण

ग्राम – उजान (दरभंगा) : धनपत राय श्रीवास्तव का ‘हल्कू’ गरीब किसान ‘पूस की उस रात’ में बेहद खुश था। वजह भी था। ‘हल्कू’ कर्ज से गर्दन भर डूबा था। उधर मालिक ‘सहना’ का कर्जा अलग। हड्डी-पसली कपाने वाली ‘पूस की उस रात’ में भी ‘हल्कू’ को अपने मालिक का कर्ज चुकाने के लिए खेत की रखवाली करना पड़ता था। ‘हल्कू’ और उसकी पत्नी ‘मुन्नी’ जो भी काम करते है, उसका अधिकांश हिस्सा उसके मालिक के पास जाता है। क्योंकि उधार के पैसे पर ब्याज दर इतनी अधिक थी कि ‘हल्कू’ को लगता था कि वह पूरा कर्ज कभी नहीं चुका पाएगा।

काफी मेहनत-मसक्कत करने के बाद ‘हल्कू’ तीन रुपये बचा पाया था उस समय। उसे उस पैसे की बहुत जरूरत भी थी – एक कम्बल खरीदने के लिए। रात में बहुत ठंड लगती थी। ‘हल्कू’ की पत्नी इस तीन रुपये को ‘सहना’ को तत्काल नहीं देना चाहती थी। घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था। एक तो ठंढ और उस पर पेट-पीठ एक। शरीर में उस ठंढ को बर्दाश्त करने की ताकत भी नहीं थी। लेकिन ‘हल्कू’ उस पैसे को ‘सहना’ को दे देना चाहता था। वह अपनी पत्नी से बारम्बार कह रहा था कि ‘रातों में ठंड को बर्दाश्त कर लेंगे, ठंड रातें मालिक की प्रताड़ना से बेहतर हैं,’ और फिर वह तीन रुपये सहना को दे दिया।

अँधेरी और बेहद सर्द रात में ‘हल्कू’ धूम्रपान करते हुए खेत पर अपने भाग्य को कोस रहा था। कभी अपने शरीर के बीच अपना चेहरा छुपा लेता था, तो कभी हाथ रगड़ता था, ताकि कहीं से कोई गर्मी प्राप्त हो जाय। उस रात वह मनुष्य और पशु के बीच के सारे भेदों को भुलाकर कुत्ते को अपने बिस्तर पर बुला लिया, उसे गले से लगाया। कुत्ते की शरीर से ‘हल्कू’ को थोड़ी गर्मी मिली। लेकिन कुत्ते को खेत में किसी की आहट सुनाई दी और वह खेत की ओर भौंकते दौड़ गया।

‘हल्कू’ अपने भाग्य को कोसते सुबह का इन्तजार कर रहा था। इस बीच बगल के आम के बगीचे से वह आम के सूखे पत्ते लाता है और उसमें आग लगाता है। कुत्ता को भी अपने पास लाता है। कुछ पल ही सही, गर्मी दोनों महसूस करते हैं। ठंड की उस रात में शरीर गर्म होते ही उसकी आखें लग जाती है और इस बीच नील गाय ‘सहना’ की खेत पर हमला बोल देती है। कुत्ता अपनी वफ़ादारी निभाता रहता है, भौंकता रहता है; लेकिन ‘हल्कू’ का शरीर पूस की उस रात में गर्म होने के कारण जमीन पर ही सही, गहरी नींद में सोया रहता है।

जब सुबह होती है, ‘हल्कू’ की पत्नी सम्पूर्ण दृश्य को देखकर उदास हो जाती है। लेकिन ‘हल्कू’ मन-ही-मन बहुत खुश था – अब उसे पूस की ऐसी पसली में छेद करने वाली रात में ‘सहना’ की खेत का रखवाली नहीं करना होगा। अलबत्ता, मेहनत, मजदूरी, मसक्कत करके वह कर्ज चुका देगा। आज से कोई सौ-वर्ष पहले सन 1921 के आस-पास धनपत राय श्रीवास्तव यानी मुंशी प्रेमचंद ने ‘पूस की रात’ की इस मार्मिक कहानी को शब्द बद्ध किये थे। एक लाचार मनुष्य की कहानी को समाज के सामने रखे थे। कहानी कृषि और किसानों की थी। आज सौ साल बाद भी किसानों की स्थिति में कोई बेहतर सुधार नहीं हो पाया है। खैर।

मुंशी प्रेमचंद की इस ‘पूस की रात’ कहानी के कोई 38-वर्ष बाद दरभंगा जिला के उजान गाँव के कनक पुर टोल में दिवंगत पीताम्बर झा के पुत्र गोपाल दत्त झा के घर में एक बालक का जन्म होता है। जब वह बालक अपनी माँ के गर्भ से महादेव रचित इस संसार में अपना पहला कदम रखता है, वह ‘रात भी पूस’ की ही थी। उस रात भी हार-मांस गला देने वाली ठंड नेपाल की तराई वाले हिस्से को दबोचे हुए थी। इधर माँ के गर्भ से उस बच्चे का जन्म होता है और उधर कर्ज में डूबे ‘हल्कू’ जैसे उस बालक के पिता की पत्नी प्रसव में मरणासन्न हो जाती है। कई दिनों से प्रसव-काल में उपयुक्त भोजन उसके गले से नीचे नहीं उतरा था। अन्न के अभाव में ‘हल्कू’ की पत्नी ‘मुन्नी’ से भी बत्तर उस महिला की आर्थिक, सामाजिक स्थिति थी। रात काफी गहरी थी। सन्नाटा चतुर्दिक था। गाँव में, आस-पास के फूस के घरों के दरवाजे बंद थे। सबों के घरों के बाहर दालानों पर घरों की रखवाली करने वाले कुत्तों का परिवार भी ‘गर्म-कोना’ ढूंढकर सोया था अपने-अपने बच्चों के साथ।

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लेकिन उस रात प्रसव-पीड़ा से बेहोश हुई उस महिला की एक शुभेक्षु, जो उम्र में तो छोटी थी ही उससे, उसके बहुत बाद बहु बनकर आई थी उस गाँव में, उस परिवार में; परन्तु उस प्रसव वाली महिला से ‘अन्तःमन’ से एक ऐसी तार से जुड़ी थी, जो उसे तत्काल सचेत कर रहा था, सजग रख रहा था – कहीं कोई ‘अपसकुन’ न हो जाय। कहीं किसी की साँसे न रुक जाय। डाक्टर डी.स्कॉट नामक मनोवैज्ञानिक ऐसी अवस्था को ‘टेलीपैथी’ कहते हैं जब दो मनुष्य ‘भावनात्मक’ रूप से एक दूसरे से जुड़े होते हैं, उनके मष्तिष्क में एक ‘आतंरिक तरंग’ उत्पन्न होते रहते हैं जो समय विशेष पर प्रकट कर देता है।

सन 1959 में ‘पूस की उस रात’ को भी कुछ वैसी ही घटना हुई थी श्रीमती श्यामा देवी @ श्रीमती चन्द्रिका देवी के साथ – इनके मस्तिष्क में उस प्रसव पीड़ा से ग्रसित महिला के प्रति। अगर उस क्षण यह उपस्थित नहीं होती तो शायद न नवजात शिशु अगला सांस ले पाता और ना ही प्रसव-पीड़ा में अर्ध-मृत हुई वह महिला। माँ की नाभी से जुड़ा (शहरों में लोग एमिकल कॉड कहते हैं) वह बच्चा भी शेष बची सांसों को एमिकल कॉड से जुड़े अपनी माँ के साथ लेते महादेव के शरण में उपस्थित हो जाता – जीवन की शुरुआत करने से पूर्व ही जीवन का अंत हो जाता। लेकिन जच्चा-बच्चा दोनों महादेव की नजर में था और महादेव श्रीमती श्यामा देवी जी के मष्तिष्क में उस महिला के दर्द के प्रति एक तरंग उत्पन्न कर रहे थे।

फिर अचानक श्रीमती श्यामा देवी उस अर्धमृत जच्चा-बच्चा के सामने प्रकट होती हैं। चिल्लाती हैं, अगल-बगल की महिलाएं कुछ काल बाद उपस्थित होती हैं। अब तक पुरुष समुदाय के लोग भी बाहर एकत्रित हो जाते हैं। श्रीमती श्यामा देवी सर्वप्रथम ‘उस बच्चे की नाभी’ काटती हैं, पोछती हैं और फिर अपने स्तन से चिपका लेती है। अब तक कोई आवाज नहीं उस बच्चे के मुख से । अन्य महिलाएं उस महिला को सजग कर, सेवा-शुश्रूषा करती हैं ताकि वह मन और शरीर से जीवित’ हो सके। अचानक श्रीमती श्यामा देवी की स्तन से चिपका वह बच्चा पूस की उस रात की सन्नाटे को चिरता चिल्लाता है। उसकी माँ की सांसे जीवित होती है। खून के सम्बन्ध में श्रीमती श्यामा देवी उस बच्चे की ‘भाभी’ है और उसकी माँ ‘सास’ – लेकिन अन्तःमन से सम्बन्ध हृदय का रहा और दोनों जीवन भर श्रीमती श्यामा देवी का ऋणी। आज भी है और जीवन की अंतिम सांस तक रहेगा।” श्रीमती श्यामा देवी महामहोपाध्याय श्री दिगंबर झा (हमारे पितामह श्री पीताम्बर झा के अपने भाई) के पुत्र श्री महाशय बाबू के पुत्र श्री श्रीमंत बाबू की पत्नी थी।

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और वह बच्चा…………”मैं ही हूँ।”

माँ अपनी मृत्यु काल तक कहती रही: ‘तुम पहला दूध मनोर की माँ का पिये थे। मैं तो बेहोश थी, मरणासन्न। अगर उस क्षण वह नहीं होती तो न तुम होते और ना ही मैं। वह थी कि हम-तुम जीवित रहे। तुम्हारे जन्म के समय गरीबी अपने उत्कर्ष पर थी। घर में अन्न का दाना नहीं होता था। यही कारण है कि गर्भावस्था में तुम्हें भी भर पेट भोजन नहीं मिल सका, और मैं भी खा नहीं सकी। लेकिन जैसे जैसे समय नजदीक आ रहा था, मन में एक विश्वास का जन्म हो रहा था। जिस रात तुम जन्म लिए वह कहीं भी ‘अब घर में जश (यश) होगा और तुम ‘जशु (यशु) हो गए। कभी भी वे तुम्हें अपनी संतान से अलग नहीं समझी। तुम उनका हमेशा ऋणी रहोगे।” हमारी पीढ़ी से पहले की पीढ़ियों में श्रीमती श्यामा देवी अंतिम कड़ी हैं। मैं ह्रदय की गहराई से, अन्तःमन से आपको प्रणाम करता हूँ और महादेव से याचना करता हूँ कि आप स्वस्थ रहे।”

श्रद्धेय, आदरणीय श्रीमती श्यामा देवी जिनके कारण आज मैं जीवित हूँ।

आज मुद्दत बाद भाभी श्रीमती श्यामा देवी जी से बात हुई। उन दिनों हम लोगों के छः घरों का आँगन-बाहर लगभग एक था। बाहर दलान का कुछ हिस्सा भले बांस के जाफ़री से बंटा था, लेकिन आँगन की ओर छोटी-मोटी फूस-बांस की भित्ति जैसी थी, जो खुला ही होता था। गाँव से पूर्णिया के रास्ते पटना की ओर अग्रमुख होने से पहले अपने आँगन से दाहिने कोने पर स्थित अमरुद-हरश्रृंगार के पेड़ के नीचे से सबसे पहले श्री छत्रनाथ झा (श्री महाशय बाबू के सबसे छोटे पुत्र और महामहोपाध्याय श्री दिगंबर झा के पौत्र) के आंगन से श्री श्रीमंत भाई (महाशय बाबू के तीसरे पुत्र और महामहोपाध्याय श्री दिगंबर झा के पौत्र) के आंगन में आते थे।

इस आँगन के बाएं तरफ एक भित्ति वाला फूस का घर होता था, जिसे हम सभी ‘भंसाघर’ अथवा ‘पूजाघर’ कहते थे। इसी घर में रहती थी ‘मैंयाँ’, जो महाशय बाबू की पत्नी और मेधानाथ झा @ श्री जयंत बाबू, श्री दीवानाथ झा @ श्रीमंत बाबू, श्री चन्द्रनाथ झा @ श्री नांगर बाबू और श्री छत्रनाथ झा @ श्री छतर बाबू की माँ रहती थी। कद-काठी में दुबली-पतली, कम ऊंचाई की गोरी-चिट्टी महिला हमेशा तत्कालीन बच्चों को आशीष देते नहीं थकती थी। इस आँगन से जुड़ा था श्री जयंत बाबू का आँगन। उस ज़माने में श्री जयंत बाबू के आँगन के बाएं कोने पर (विश्राम घर के बगल में) जो रास्ता उनके गौशाला से बाहर दालान पर और फिर अंदर से श्री चन्द्रनाथ बाबू के घर की ओर जाती थी, एक चापाकल हुआ करता था। वैसे श्री चन्द्रनाथ बाबू (मेरे यज्ञोपवित संस्कार में आचार्य भी थे) के आँगन में भी चापाकल था, लेकिन हम बच्चों के लिए श्री जयंत बाबू के आँगन का चापाकल अधिक पहुँच में था। उसे बार-बार चलाने में बहुत ख़ुशी मिलती थी।

उन दिनों श्री रूप नाथ झा @ श्री मुनाई बाबू, श्री जयंत बाबू और श्री चन्द्रनाथ बाबू के घरों को छोड़कर हम तीन घरों में पानी का इस्तेमाल सामने स्थित उसी ऐतिहासिक इनार (कुआं) से होता था – चाहे पीने के लिए हो, स्नान के लिए हो, रसोई के लिए हो – इसी इनार का पानी जीवन-रेखा था। मुद्दत बाद आज श्रीमती श्यामा भाभी कहती हैं: “हम सभी के घरों में इसी इनार का पानी इस्तेमाल होता था। पानी बहुत मीठा था, आज भी है। आज समय बदल गया है। घरों का रूप-स्वरुप भी बदल गया है। स्वाभाविक है घरों के चहारदीवारी के अंदर चापाकल आ गया है और यह इनार धीरे-धीरे अकेले हो गया है।

उन दिनों इनके घर में जो महिला कार्य करती थी, उसका नाम उसके गाँव के गाम से जुड़ा था। वे ‘मझोरा वाली’ के नाम से जानी जाती थी। इसी तरह छत्रनाथ बाबू के घर में कार्य करने वाली का नाम था ‘कुरसो वाली’ और श्री जयंत बाबू के घर कार्य करने वाली एक वृद्ध महिला थी ‘डोमा माय’ – सबसे बड़ी बात यह थी कि उन सभी महिलाओं को इतना अधिकार था कि वे हम बच्चों को कान पकड़कर दो थप्पड़ रसीद दे और कोई भी, किसी के माता-पिता भी नहीं, चूं शब्द भी नहीं करते थे । लेकिन कभी ऐसा मौका नहीं मिला – न उसे और न हम लोगों को।

माँ कहती थी उन दिनों हमारे पुवारिया घर का आँगन के तरफ का बरामदा की ऊंचाई आँगन की सतह से बहुत कम थी। एक सुबह उसी बरामदे पर लेटकर, जिसमें माँ का पैर का हिस्सा आँगन में था, माँ मुझे दूध पीला रही थी। तभी एक विशाल काय ‘धामन सांप’ माँ के पैर पर चढ़ते, मुझे लांघते, माँ के स्तन को स्पर्श करते आगे की ओर निकल गया। कहते हैं धामन सांप औसतन महिलाओं की दूध पीते उसे मृत्यु को भी प्राप्त करा देता है। उस क्षण माँ की स्थिति क्या हुई थी यह अपनी अंतिम सांस तक नहीं बता पायी। उस घटना के कई दशक तक, याद करते उसके रोंगटे खड़े हो जाते थे। मृत्यु से कुछ माह पहले माँ उस घटना को फिर दोहराई थी और रोने लगी। कहती थी उस दिन मुझे कुछ हो जाता, कोई बात नहीं, लेकिन अगर सांप तुम्हे कुछ कर देता तो मैं कैसे जी पाती। मैं हँसते हुए कहता था: : मेरा ना शिव है, फिर सर्प मुझे क्यों काटेगा?” और माँ हंस दी थी।

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कोई बारह वर्ष पहले, 2010 में, जिस वर्ष माँ अपनी अनंत यात्रा पर निकली थी, गाजियाबाद स्थित घर में दरवाजे पर खड़ी होकर गाँव जाने की ज़िद कर रही थी। बड़े भाई गाँव में एक बहुत बेहतरीन घर बनाये हैं। मैं उन्हें बार-बार मना कर रहा था। वह बार-बार कह रही थी ‘अगर मृत्यु को भी प्राप्त की तो उसी स्थान पर मरना चाहूंगी जहाँ मैं आयी थी। इस शब्द को सुनकर मुझे हंसी आ गयी। वह हँसते मेरी हंसी का कारण पूछी।

उसे देखते मैंने कहा: मैं अपने पिता का संतान हूँ, उनके भाईयों – भतीजों का चहेता हूँ जो तंत्र विद्या में महारथ थे। तुम्हारी अंतिम यात्रा उसी स्थान से होगी जहाँ तुम अभी खड़ी हो। समय यही कहता है। तुम विश्व के किसी भी कोने में रहोगी, बाबूजी के पास जाने के लिए, अपने शुभेक्षुओं के पास पहुँचने के लिए, अपने माता-पिता के पास पहुँचने के लिए तुम्हे अपनी यात्रा की शुरुआत इस स्थान से करनी होगी, जहाँ तो अभी खड़ी हो। इस प्रारब्ध को कोई नहीं टाल सकता है। तुम लिख लो।” माँ मुस्कुरा दी।

जून के महीने में माँ गाँव की ओर कूच की थी। अगस्त में गाँव में उसकी तबियत ख़राब हुई। हृदयाघात का शिकार हुई। मोहन बाबू, बेचन बाबू सभी उसे उसी क्षण मधुबनी लाये। सरकारी अस्पताल की स्थिति नारकीय थी। डाक्टर के स्थान पर ‘सुवर’ मरीजों के वार्ड में चार-पांच बार हाल-चाल पूछने सपरिवार आते थे। लाखों मच्छर-कीड़े-मकोड़े भी अस्पताल में अपना साम्राज्य बना लिए थे। देश आज़ाद था।

माँ की सबसे प्रिय भाई और शिक्षक श्री जीवनाथ मिश्र (श्री जीबू बाबू, लालगंज) माँ को देखने आये। माँ की चौथी बेटी ममता मधुबनी में सपरिवार उसकी सेवा में समर्पित थी। अगली दिन मां दिल्ली की ओर रवाना हुई। उसके छोटे पुत्र और मैं साथ थे। सबों को सूचना दे दिया गया था अगर रास्ते में कुछ होता है तो हम बनारस की ओर प्रस्थान कर जाएंगे। लेकिन विधि का विधान तो निश्चित था। गाजियाबाद स्टेशन पर उसके बड़े पुत्र और गाँव के उसके बच्चे-बुतरू उसकी प्रतीक्षा में थे। यहाँ अस्पताल में भर्ती हुई। पांच दिन के बाद डाक्टर के अंतिम शब्द “घर ले जाएँ और सेवा करें” – अंतिम सूचना पर परिचायक था। यह सूचना ‘शिक्षक दिवस’ के दिन की थी। कुछ सप्ताह बाद जितिया का पारण था। इस जिस दिन भारत की कोई माँ व्रत तोड़ती है, जिसे वह अपने बच्चों की हिफाजत के लिए रखती है – पारण के दिन। माँ को गढ़मुक्तेश्वर में गंगा को साक्षी मानकर मुखाग्नि दिया गया। उसका व्रत टूटा और वह अग्नि के रास्ते अपने पति के पास पहुँचने के लिए यात्रा की शुरुआत की। जाते समय उसके चेहरे पर तेज था। अपने संतान से हर माता-पिता हारना चाहता है – माँ हारकर भी जीत गयी।

समय बीत रहा था। हम सभी तत्कालीन बच्चे भी बड़े हो रहे थे। शिक्षा हेतु स्थानीय उजान मिडिल स्कूल में नामांकन लिया। श्रीमंत बाबू के पुत्रों में चौथा और पांचवा पुत्र – श्री सेतु नाथ झा (भूंनी) और श्री होत्रीनाथ झा (गुन्नी) – उम्र में कुछ छोटा होने के बाद भी अन्तःमन से एक-दूसरे के प्रति बहुत समर्पित थे। उन सबों के घरों में चावल की खेती, अरहर की खेती बहुत अधिक होती थी, स्वाभाविक है घर में चावल का खपत भी बहुत अधिक था। हमारे घर की आर्थिक स्थिति धनपत राय के ‘हल्कू’ और ‘मुन्नी’ से भी बत्तर थी। चावल (भात) या अरहर दाल मुद्दत हो जाया करता था।

विगत दिनों गाजियाबाद स्थित घर पर मिट्टी की कियारी में मिट्टी खनते समय खुर्पी बारम्बार एक ठोस पदार्थ से टकरा रही थी। धीरे से निकला तो शिवलिंग नुमा दिखा। मैं उसे माँ के द्वारा स्थापित कोई 22-वर्ष पुराना बरगद के वृक्ष के नीचे स्थान सुरक्षित कर दिया – हे महादेव !!!

अक्सरहां स्कूल में हम सभी अपना-अपना टिफ़िन बदल लेते थे। बदलने की शुरुआत भुन्नी करता था। उसके टिफ़िन में चावल की रोटी और अन्य स्वादिष्ट पकवान होता था, जबकि मुझे मेरी माँ मकई, गेहूं की रोटी देती थी साथ में कुछ सब्जियां। आज जब श्रीमती श्यामा भाभी से इस बात का जिक्र किया तो ‘कुछ पल वे रुक गई। आवाज नहीं आने के बहाने से शायद फोन को होल्ड पर रख दीं। मेरा गला भी अवरुद्ध था। उन दिनों का दृश्य आँखों के सामने था। फिर कहती है: तुमको सभी बातें याद है यह फक्र की बात है। फिर माँ की तरह कहती है की सब समय है। समय प्रत्येक पल परीक्षा लेती है। उस दिन भी लेती थी। लेकिन तुम सभी तैयार रहते थे। आज का जीवन उसी परीक्षा का परिणाम है।”

उन दिनों जब हम अपने घर से सीधा श्री चन्द्रनाथ बाबू के घर के सामने से होते दाहिने हाथ मुख्य मार्ग पर पहुँचते थे – जहाँ से दाहिने हाथ शंकरी पोखर की ओर और बाएं गऊटोली होते एक रास्ता (कलमबाग-खेत होते) लोहना रोड स्टेशन की ओर और बाएं अपने मिडिल स्कूल की ओर जाती थी, इसी नुक्कड़ पर दाहिने हाथ एक विशालकाय परिसर में घर था। यहाँ ‘दाई मैंय्या” रहती थी। ‘दाई मैंय्या’ श्रीमंत बाबू चारो भाइयों के पिता श्री महाशय बाबू की दूसरी माँ थी। गाँव में ‘सतमाय’ कहते हैं। ‘दाईं मैंयाँ’ के घर के ठीक सामने सड़क के बाए हाथ एक और वृद्ध विधवा का घर था। हम सभी इन्हे ‘काकी-मौसी’ कहते थे। काकी-मौसी हमारे पितामह श्री पीताम्बर झा के भाई नीलाम्बर झा के प्रथम पुत्र की विधवा थी। नीलाम्बर झा के दूसरे पुत्र प्रोफेसर रूप नाथ झा जो न्यायशास्त्र, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र और ज्योतिषी के प्रखंड विद्वान थे। वे मिथिला रिसर्च इन्स्टीट्यूट दरभंगा में कुछ समय तक शास्त्रचूडामणि के प्राध्यापक भी थे। लगभग 46-वर्ष पहले, यानी जून 25, 1976 को इनका शरीर पार्थिव हो गया।

आज मुद्दत बाद बाबूजी याद आ गए जब श्री रुपनाथ झा (श्री मुनाई बाबू), जो उनके तंत्र-मन्त्र विद्या के गुरु और आचार्य भी थे, एक दिन उन्हें दण्डित भी किये थे। मुद्दत पहले जब बाबूजी इस विद्या में महारथ हासिल किये था। एक दिन सत्यनारायण भगवान की पूजा हेतु धोती रंगकर बाहर सूखने दिए थे। घर में कार्य करने वाली एक महिला उस धोती को लेकर चली गयी। पूजा के समय धोती नहीं मिलने पर वे सीधा उस महिला के घर पहुंचे और धोती के बारे में पूछताछ किये। वह महिला नकार गयी। क्रोधित बाबूजी उसे बार-बार कह रहे थे कि धोती दे दो अन्यथा वह तुम्हारे साथ ही जाएगी। ऐसा ही हुआ।

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बाबूजी क्रोधित अवस्था में अपने विद्या का प्रयोग किये। उसकी मृत्यु के बाद धोती उसी के घर से निकला। यह बात जब उनके भाई, जो गुरु भी थे, सुने, उन्हें दंड-स्वरुप अपना ही थूक चाटने का आदेश दिया। बाबूजी ‘ना’ नहीं कह सकते थे। फिर एक चेतावनी भी दिए – जीवन में अपनी विद्या को सकारात्मक कार्यों में लगाना और याद रखना अगर तुम ऐसा करोगे तो जिस दिन मैं – यानी तुम्हारा बड़ा भाई और गुरु – जाऊंगा उसी दिन कामाख्या देवी का पट खुलेगा, सालाना पर्व के बाद। मेरी मृत्यु के 16-वर्ष बाद, उस तारीख से दो दिन पूर्व तुम अपनी यात्रा शुरू करोगे और उस दिन कामाख्या देवी का पट बंद रहेगा और बंदी का मध्य-दिवस रहेगा। ऐसा ही हुआ। बाबूजी 23 जून, 1992 को उनके पास पहुंचे। माँ कामाख्या का पट्ट प्रत्येक वर्ष 22-23 और 24 जून का बंद रहता है स्वाजला पर्व के लिए।

बहरहाल, विगत दिनों अपने घर के सामने स्थित को दो-सौ साल पुराना इनार की कहानी लिखने के बाद, दरभंगा के अतिरिक्त नागपुर के एक विद्वद्जन का फोन आया कि वे उजान गाँव के कनकपुर टोल के उस इनार को पुनः जीवित करना चाहते हैं। नागपुर वाले महानुभाव का कहना है कि वे महादेव के अनन्य भक्त है और उनका विश्वास है कि उस क्षेत्र में महादेव के सर्प, गण अवश्य रहे होंगे, होंगे आज भी। उनका कि आज के समय में सरकारी-गैर सरकारी स्त्रोतों से एक और जहाँ पानी का स्त्रोत सामाजिक न रहकर ‘व्यक्तिगत’ हो रहा है, जीव-जंतुओं को पीने के लिए पानी की उपलब्धिता नगण्य होती जा रही है। वैसी स्थिति में उस शताब्दी पुराने कुएं को अगर जीवित किया जाता है तो एक ओर जहाँ प्राकृतिक पुरात्तव जीवंत होगा, वहीँ हम मूक-बधिर जीव-जंतुओं के साथ भी न्याय कर पाएंगे।

आज श्रीमती श्यामा देवी, यानी हमारी पीढ़ी के बच्चों की भाभी, उस पीढ़ी की इकलौती माँ है, महिला है। पंडित लोक नाथ झा यानी लान्हि झा के चार पुत्रों – महामहोपाध्याय श्री दिगम्बर झा, वैयाकरण श्री पीताम्बर झा, महामहोपाध्याय श्री नीलाम्बर झा, पंडित श्री सीताम्बर झा और एक कन्या महामहोपाध्याय बालकृष्ण मिश्र तथा मही मिश्र की माँ श्रीमती कर्पूरी मिश्राइन – परिवार की इकलौती चिराग है जो सबों के सर पर आशीष और स्नेह का हाथ रखने का सामर्थ रखती हैं। महामहोपाध्याय श्री दिगम्बर झा की अगली पीढ़ियों में काशी के विद्वान महामहोपाध्याय श्री महाशय झा की मृत्यु आषाढ़ शुक्ल अष्टमी 1952 को हुआ।

महाशय बाबू के अपने बेमातर भाई श्री दया नाथ झा यानि बंसन्त बाबू और उनकी पत्नी मुद्दत पहले मृत्यु को प्राप्त किये। उन्हें पुत्र नहीं था। महाशय बाबू को चार पुत्र था – श्री मेधा नाथ झा (श्री जयंत बाबू), श्री दीवा नाथ झा (श्री श्रीमंत बाबू), श्री चन्द्र नाथ झा (श्री नांगर बाबू) और श्री छत्र नाथ झा (श्री छतर बाबू) – ये सभी आज परमात्मा के पास उपस्थित हैं अपनी-अपनी अर्धांगिनियों के साथ। श्री जयंत बाबू के पुत्र श्री योगेश्वर झा (श्री बेचन झा) हैं। श्री श्रीमंत बाबू के पांच पुत्र हुए – श्री भीम नाथ झा (श्री मोहन बाबू), श्री सोम नाथ झा (श्री लाल बाबू), श्री जगन्नाथ झा (श्री जोहन बाबू), श्री सेतु नाथ झा (श्री भुन्नी बाबू) और श्री होत्री नाथ झा (श्री गुन्नी बाबू) – इसमें पांचों की अगली पीढ़ी और उसके आगे की पीढ़ियां श्रीमती श्यामा देवी की आशीष से बढ़ रही हैं। इन पांच भाईयों में श्री भीमनाथ झा विगत वर्ष अपने इष्टदेव के पास पहुँचने के लिए यात्रा की शुरुआत कर लिए।

श्री चन्द्रनाथ झा के तीन पुत्र हुए – श्री महेंद्र नाथ झा (श्री भोगन बाबू), श्री देवेंद्र नाथ झा (श्री चुनचुन बाबू) और श्री कला नाथ झा (श्री मिहिर बाबू) – आज सभी स्वस्थ हैं और उनकी अगली और आगे की पीढ़ियां श्रीमती श्यामा देवी के आशीष से बढ़ रही है। श्री चन्द्रनाथ बाबू और उनकी पत्नी अब इस संसार में नहीं हैं। महाशय बाबू के सबसे छोटे पुत्र श्री छत्र नाथ झा भी अब इस संसार में नहीं हैं। श्री छत्र नाथ झा के चार पुत्र हुए – श्री सुशील कुमार झा, श्री सुधीर कुमार झा, श्री सुनील कुमार झा और श्री अनिल कुमार झा। ईश्वर श्री सुनील को अपने पास बुला लिए। मैं दिल्ली में उस क्षण उपस्थित था अपने छोटे भाई के साथ। शेष सभी श्रीमती श्यामा देवी की आशीष से फल-फूल रहे हैं।

श्री पीताम्बर झा के एक पुत्र श्री गोपाल दत्त झा और श्री गोपाल दत्त झा के तीन पुत्र – श्री काशीनाथ झा, श्री शिवनाथ झा, श्री गंगा नाथ झा और पांच बेटी। आज श्री गोपाल दत्त झा, उनकी पत्नी श्रीमती राधा देवी और उनकी चार बेटियां इस पृथ्वी पर नहीं हैं। गोपाल दत्त झा के तीनों पुत्रों की अगली पीढ़ी अपने-अपने शैक्षिक क्षेत्रों में अग्रसर हैं। महामहोपाध्याय न्यायिक पंडित नीलाम्बर झा के दूसरे पक्ष में दो बालक थे – न्याय प्रवर श्री रसिक नाथ झा और न्याय प्रवर प्रोफ़ेसर रूप नाथ झा। श्री रसिक नाथ झा की मृत्यु बहुत पहले हो गयी थी और श्रीमती काकी मौसी उन्हीं की विधवा थीं। पंडित रूप नाथ झा के एक पुत्र श्री श्यामनन्द झा (श्री शास्त्री) हुए। श्री शास्त्री जी ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में पुस्तकालय में थे। आज श्री रूप नाथ झा और श्री शास्त्री जी नहीं हैं। परन्तु इनकी अगली पीढ़ी के वंशज अपने-अपने क्षेत्रों में अग्रसर हैं।

अंततः, आज महामहोपाध्याय श्री दिगम्बर झा, वैयाकरण श्री पीताम्बर झा, महामहोपाध्याय श्री नीलाम्बर झा, पंडित श्री सीताम्बर झा के चौथी-पांचवी-छठी पीढ़ियों के वंशज पूर्वजों के आशीष से खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि त्रिनेत्रधारी महादेव सभी महात्मनों को, उनकी अर्धांगिनियों को अपने शरण में स्थान दे दिए होंगे। मुझे यह भी आशा है की महादेव उन महात्मनों के समय का बनाया हुआ इनार भी आने वाले समय में जीवित हो जायेगा।

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