मधुबनी जिले के ‘सरिसब-पाही’ और दरभंगा जिले के’उजान’ गाँव के ‘दो झा की कहानी’, एक ने पिता को सम्मानित किया, दूसरे ने पुत्र को नया जीवन

मधुबनी जिले के सरिसब-पाही गाँव के सम्मानित श्री आदित्य नाथ झा यानी श्री आदित्य बाबू और मधुबनी जिले के ही उजान गाँव के (सरिसब-पाही से कोई दस किलोमीटर दूर) के एक दीन श्रोत्रिय के पुत्र में एक एक ऐतिहासिक समानता है - "प्रारब्ध" का - श्री आदित्य बाबू शहीद रामचंद्र पांडुरंग टोपे यानी तात्या टोपे के पौत्र श्री नारायण राव टोपे को सन 1957 में सम्मानित किये, आज़ादी के आंदोलन के 100-साल पर । समय का तकाज़ा देखिये, उस दिन के 49 वर्ष बाद उजान गाँव के एक श्रोत्रिय श्री गोपाल दत्त झा यानी बिक्कू बाबू का बेटा तात्या टोपे के पौत्र श्री नारायण राव टोपे के पुत्र श्री विनायक राव टोपे और उनके परिवार को नया जीवन - तभी तो श्री विनायक राव टोपे कहते हैं: "शिवनाथ जी, आपने हमारा जीवन बदल दिया, आप मेरी बेटी का कन्यादान कर दें और रोने लगे ........"

उजान (मधुबनी) : सत्तर के दशक में हमारे गाँव की सड़कों पर जब कभी मोटर गाड़ी अथवा बस जाती थी तो घंटों तक जमीन से आसमान तक मिट्टी का पाऊडर उड़ता दीखता था, जैसे मिट्टी को जीने का वजह मिल गया हो। मुद्दत से जमीन पर लोगों के पैर के नीचे दबते-दबते उसे भी दबे रहने की आदत हो गई थी। तभी अचानक एक बहुत भारी गाड़ी उधर से जाती थी, और न्यूटन का दूसरा सिद्धांत लागू हो जाता था। जमीन पर मुद्दत से सोयी पड़ी मिट्टी उस गाड़ी के पहिये को आगे निकलते ही, लम्बी सांसों के साथ आसमान में उड़ने लगती थी, विचरण करने लगती थी, मानो मिट्टी भी जीवंत हो गई हो। सम्पूर्ण वातावरण में एक बेहतरीन खुसबू फैल जाता था जो इस बात का गवाह होता था कि इस रास्ते कोई चार पहिया वाहन गया है, जिसने मिट्टी को भी जीवित कर दिया हो, जान फुक दिया हो।

उन दिनों तक मेरे गाँव के अलावे बिहार के कोई पचास हज़ार से अधिक गाँव (आज यदि बिहार और झारखण्ड को जोड़ दिया जाय तो गाँव की संख्या सतहत्तर हज़ार से अधिक हो गई है) पक्की सड़क की कल्पना तक नहीं की थी। पक्की सड़क देखी भी नहीं थी, गाँव के ग़रीब-गुरबों द्वारा बासमती चावल या गेहूं की रोटी की तरह। हां, राजनेताओं द्वारा जिस तरह ‘आश्वासन’ दिया जाता है आज, उस दिन भी दिया जाता था और उसी आश्वासन पर क्या जीवित, क्या निर्जीव – ईंट, पत्थर सभी विश्वास करने लगते थे, सोचने लगते थे – ‘आज भले कष्ट है, कल ठीक हो जायेगा’ । उन दिनों पत्थरों के टुकड़ों के साथ मिट्टी का लेप सड़क पर यदा-कदा अवश्य देखी जाती थी। बारिसों के मौसम में बैलगाड़ी, टायर गाड़ी की पहियों के निशान उन सड़कों पर कुछ उसी तरह दीखता था, जिस तरह समाज में हम जैसे गरीब-गुरबों के पीठों पर, कन्धों पर मेहनत के निशान बन जाते हैं। खैर।

बाबूजी के साथ पटना में रहने के कारण गाँव में लोग बाग़ ‘पटनिया’ कह कर भी सम्बोधित करते थे। उनके सम्बोधन में ‘तालु’ और ‘जिह्वा’ के सञ्चालन से यह आभास हो जाता था कि महाशय गरीब ब्राह्मण के बेटा का मजाक उड़ा रहे हैं, अथवा पीठ थपथपा रहे हैं। माँ-बाबूजी उन दिनों कहते थे कि जिस तरह गाँव के किसी गरीब व्यक्ति की पत्नी अगर खूबसूरत हो, तो वह पूरे गाँव की ‘भौजाई’ बन जाती है; ‘भावो’ अथवा ‘पुतोहु’ कोई नहीं बनाना चाहता उसे; उसी तरह समाज में जो गरीब होता है, चाहे किसी भी जाति अथवा संप्रदाय का हो, समाज के संभ्रांतों के लिए, धनाढ्यों के लिए वह महज एक हंसी का पात्र होता है। तुम भी उसी श्रेणी में हो, तुम्हारी गरीबी का मजाक भी लोग उसी तरह उड़ाएंगे जिस तरह पटना में पतंग उड़ाते हैं।लेकिन तुम अपना धैर्य नहीं खोना, अपना आपा नहीं खोना, चेहरे पर मुस्कराहट में कभी कमी नहीं करना। तुम एकलौते व्यक्ति होगे जो समय की पारखी नजर में होगे। समय तुम्हे प्रत्येक पग आंकेंगा, परीक्षा लेते रहेगा – तुम हमेशा सज्ज रहना।

उन दिनों पटना की सड़कें मेरे पदचाप को पहचान गई थी। साथ ही, पटना के गाँधी मैदान से पटना विश्वविद्यालय के रानी घाट स्थित प्रोफ़ेसर कालोनी तक सड़कों के प्रत्येक पग पर रहने, मिलने वाले ‘कुत्ते’ बेहतरीन मित्र बन गए थे। उन दिनों आज की तरह ‘कुत्ते सामाजिक घरोहर नहीं हुए थे, जो समाज के लोगों को संभ्रांतों की श्रेणी में सूचीबद्ध कर सके। कुत्तों की जिंदगी, हम जैसे निर्धनों जैसी ही सड़कों पर जीने के लिए होती थी। उन सबों से नित्य सूर्योदय से पहले मुलाकात होती थी। कभी-कभी पटना के गाँधी मैदान के बाएं छोड़ पर स्थित बिहार राज्य पथ परिवहन निगम डिपो के प्रवेश द्वार के दाहिने कोने पर ‘अनिल बाबू’ चाय वाले से ‘चमचम, डंडा बिस्कुट’ उन मित्रों को दे देते थे, वे सभी खुश हो जाते थे। माँ कहती थी – ‘भूख सभी को लगती है, चाहे दो पाया हो या चार पाया, और तुम अपनी सामर्थ्य भर जो भी हो सके, खिलाते रहना उन जीवों को, सभी अन्तःमन से आशीष देंगे।

उस दिन अपने गाँव ‘उजान’ से ननिहाल ‘लालगंज’ जा रहे थे। हाफ पैंट, पैर में हवाई चप्पल (इससे अधिक की क्षमता नहीं थी) और सावा-रुपये ‘गज’ कंट्रोल (राशन की दुकान) से मिलने वाला कपड़ा का बुशर्ट। बुशर्ट में कम कपड़ा लगता था और सिलाई भी बहुत कम थी। हमारी इस यात्रा के दो साल बाद मनोज कुमार द्वारा निर्मित रोटी-कपड़ा और मकान का वह गीत ‘कपड़े की सिलाई मार गई, बाकी जो कुछ बचा, मंहगाई मार गई’ गीत हवा में उड़ी थी – जो सच भी था, लोग भोग रहे थे, मूक-बधिर होकर।

हमारे गाँव में, उन दिनों और आज भी, एक सीधी सड़क है जो उजान प्राथमिक विद्यालय के सामने से निकलती बाबा बिदेश्वर को प्रणाम करते राष्ट्रीय राजमार्ग से मिलती थी और फिर बाएं-दाहिने की ओर निकलती है। बाएं हमारा ननिहाल और दाहिने लोहना रोड, झंझारपुर, तमुरिया, चिकना, घोघरडीहा, परसा होते निर्मली की ओर जाती थी। हम अपने प्राथमिक विद्यालय के तत्कालीन शिक्षकों को प्रणाम कर सीधा सड़क नापते चला जा रहा था, जब तक बाबा बिदेश्वर का सदियों पुराना टीला पर स्थित मंदिर न आ जाय। यह मंदिर महादेव का शताब्दी-पुराना मंदिर है। इस मंदिर के सामने खुले मैदान में एक इनार (कुआँ का बड़ा भाई) पर रूककर हाथ-पैर धोकर बाबा बिदेश्वर को प्रणाम किया। जेब में सिर्फ उतने ही पैसे थे जिससे ‘बतासा’ खरीदकर बाबा को प्रसाद भी चढ़ा दूँ और उसी प्रसाद को स्वयं ग्रहण, इनार का पानी पीकर अपनी आत्मा को तृप्त कर लूँ।

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माँ कहती थी, ‘महादेव जानते हैं कि जो प्रसाद वह मुझे चढ़ाएगा, वह खुद ही ग्रहण करेगा, आखिर भूख तो उसे लगेगी ही, वह भी तो जीव ही है और जीवों को जिन्दा रखने का दाईत्व भी तो महादेव का ही है, बतासा तो एक बहाना है आराध्य और आराधना करने वालों के बीच।’ फिर ऊँची टूटी-फूटी-अधपक्की’ सड़क को पकड़कर मैं लालगंज की ओर अग्रमुख हो गया।

लालगंज के पास ही सरिसब-पाही गांव है। कहा जाता है कि मिथिला की पुण्य भूमि के जितने पूज्य स्थल हैं उनमें सबसे विशिष्ट सरिसब ग्राम रत्न है। जब से मिथिला का इतिहास उपलब्ध है तब से इस गांव का इतिहास उपलब्ध है अपने अनेकों गौरव गाथाओं के साथ जो इसे अन्य सभी पूज्य स्थलों में विशिष्ट दर्शाता है। सरिसब एक विशाल गांव है जो मिथिला के प्राचीन नगर अमरावती के मध्य में स्थित है। इसके उत्तर में ‘भौर’ और ‘रैयाम’, पृर्व में ‘लोहना’ और ‘खररख’, दक्षिण में ‘गंगौली’ और ‘सखवाड़’ तथा पश्चिम में ‘पण्डौल’ स्थित है। ये सभी ग्राम प्राचीन हैं और सभी ग्रामों का इतिहास उपलब्ध है परन्तु सरिसब इन सभी से सबसे प्राचीन है। सरिसब का अर्थ संस्कृत में ‘गौर सर्षप’ है जिसका पर्यायवाची शब्द ‘सिद्धार्थ’ है। प्राचीन काल में इस क्षेत्र में ‘गौर सर्षप’ की खेती होती थी जिस कारण यह क्षेत्र ‘सिद्धार्थ’ क्षेत्र से प्रसिद्ध हुआ। सिद्धार्थ क्षेत्र का उल्लेख पुराणों है। कपिल मुनि के आश्रम से दो योजन पूर्व सिद्धार्थ क्षेत्र अवस्थित है। कपिल मुनि का एक आश्रम कपिलेश्वर में स्थित है। सरिसब की ग्राम देवता मां सिद्धेश्वरी हैं जिनकी प्रतिमा आज भी सरिसब ग्राम के मध्य में स्थित एक विशाल मन्दिर में पूजी रही है।

विगत दिनों सरिसब गाँव के श्री अमोल बाबू कहे थे कि चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मिथिला के सोदरपुर सरिसब मूल के अवदात कुल में महामहोपाध्याय भवनाथ मिश्र का जन्म हुआ था। आजीवन अयाचना व्रत के पालन के कारण भवनाथ मिश्र अयाची नाम से प्रसिद्ध हुए। इनका मातृकुल और पितृकुल आदिकाल से विद्या – वैभव से प्रशस्त रहा है। इनके पितामह विश्वनाथ मिश्र मीमांसा के पण्डित थे और पिता न्याय शास्त्र के उद्भट विद्वान थे। इनके मातामह वटेश्वर ने न्याय दर्शन में दर्पण नाम के ग्रन्थ का प्रणयन किया तथा मिमांसा में प्रभाकर संप्रदाय के महार्णव नाम के ग्रन्थ की रचना की। अयाची मिश्र किसी गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त नहीं की । उन्होंने अपने घर में अपने अग्रज जीवनाथ मिश्र से सभी शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। अर्जित ज्ञान को समय समय पर अपने शिष्यों और औरस पुत्र शंकर मिश्र को समर्पित करते रहे। शंकर मिश्र ने पाँच वर्ष से कम आयु में ही अपूर्व मेधा का परिचय स्वरचित श्लोक द्वारा दे कर राजा द्वारा सम्मानित हुए।

बहरहाल, इसी सरिसब-पाही गाँव में जन्म लिए थे मिथिला के विभूति सर गंगा नाथ झा। सम्मानित गंगा नाथ जी के बारे में एक शब्द भी लिखना हमारी योग्यता से परे हैं। संस्कृत के हस्ताक्षर थे। अंग्रेजी के भीष्म पितामह थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति थे। इनके नाम पर आज भी दर्जनों शोध संस्थाएं हैं, पुस्तकालय है, वाचनालय है, विद्यालय है – ताकि इनका और इनके परिवार का नाम अमिट रहे। इनके सभी संतान शिक्षा, विद्वता, मानवता, आत्मीयता सभी दृष्टि से अपने-अपने क्षेत्रों में एक सफल योद्धा थे, हस्ताक्षर थे। डॉ अमरनाथ झा उसी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कुलपति बने जहाँ इनके पिता कुलपति थे।

सर गंगा नाथ झा के संतानों में एक थे डॉ आदित्य नाथ झा। श्री आदित्य बाबू अंग्रेजों के ज़माने में भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रतीक्षा में अव्वल आये थे। इनका बैच था सन 1936 का। श्री आदित्य बाबू असिस्टेंट मजिस्ट्रेट और कलेक्टर के रूप में युनाइटेड प्रोविंस में सेवा किये। जब 1939 में भारतीय पुलिस सेवा को सम्पूर्ण अधिकार हस्तांतरित किया गया, वे पूर्व भारत के प्रिंसली एस्टेट के सचिव रहे।

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जब देश आज़ाद हुआ श्री आदित्य बाबू उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव बने। वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी के अध्यक्ष भी रहे। प्रशासनिक सेवा की श्रेणी में उन्हें देश के महत्वपूर्ण नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ से भी अलंकृत किया गया। समयांतराल, वे भारत सरकार में सचिव बने, फिर दिल्ली के उपराज्यपाल भी बने, साल था नवम्बर 1, 1966 से सन 1970 तक। श्री आदित्य बाबू से पहले, यानी भारत को स्वाधीनता प्राप्त होने के बाद सबसे पहले शंकर प्रसादा दिल्ली के उपराज्यपाल थे और वे कार्यालय में 1948 से 1954 तक विराजमान रहे। इसके बाद आये पंडित आनंद दत्ता हया जो सन 1954 से 1959 तक उपराज्यपाल के कार्यालय में थे। फिर आये भगवान सहाय जो 1959 से 1963 तक थे और फिर वेंकट विश्वनाथन जिन्होंने महज दो साल सेवा करने के बाद श्री आदित्य बाबू को दिल्ली के उपराज्यपाल का सिंहासन सौंपे।

बहरहाल, श्री आदित्य बाबू भारतीय प्रशासनिक सेवा के अव्वल अधिकारी तो थे ही, संस्कृत का ज्ञान उन्हें पुस्तैनी मिला था। वे अपने ज़माने के अव्वल संस्कृत के वक्ता थे। यही कारण है कि जब वे उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव थे, वे संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के ‘समवर्ती कुलपति’ भी थे। वे भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय में सचिव भी बने। आज सरिसब-पाही के लोगबाग स्वयं को चाहे जो भी कह लें, स्वयं को अलंकृत कर लें; लेकिन सच तो यही है कि सरिसब-पाही ही नहीं, शायद मिथिला में उनके बाद ऐसा सम्मान आज तक किसी को नहीं प्राप्त हुआ है। वैसे श्री गोविन्द बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के शासन में सं 1937 से 1954 तक छाये रहे और उसी दौरान श्री आदित्य बाबू भी, लेकिन पंत जी के बाद जब श्री सम्पूर्णानन्द उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए, आदित्य बाबू के सम्मान में चार-चाँद लगता गया। खैर।

माँ-बाबूजी कहते थे कि ‘जीवन में तुमसे तुम्हारी सम्पूर्ण वस्तुओं को कोई भी छीन सकता है, लेकिन तुम्हारा ‘प्रारब्ध’ तुमसे कोई नहीं छीन सकता, माँ-बाप भी नहीं। ईश्वर ने जो प्रारब्ध तुम्हारे लिए लिखे हैं, माँ के गर्भ में उसकी नाभि के साथ जब तुम्हारी उत्पत्ति हुई, तुम्हारा विकास होता गया, हाथों में रेखाएं खींचती गई, ईश्वर तुम्हारा प्रारब्ध भी लिखते गए। जो कार्य तुम्हे करना है, जो कार्य तुम्हारे हाथों संपन्न होना है – वह अवसर, वह अधिकार तुमसे कोई नहीं छीन सकता, गाँठ बाँध लो’ – माँ-बाबूजी की बातें सत्यता के उत्कर्ष पर था।

आदित्य बाबू के पैतृक घर से हमारा पैतृक घर अगर हम उसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर चलें, जिस मार्ग पर सत्तर के दशक में अपने गाँव से ननिहाल पैदल चले थे; आज उस राष्ट्रीय राजमार्ग से सरिसब-पाही और उजान की दूरी कोई दस किलोमीटर की होगी, जिसे अधिकतम आधे घंटे में तय की जा सकती है। जिस वर्ष श्री आदित्य बाबू की मृत्यु हुई, मैं उजान से सरिसब-पाही की यात्रा कर रहा था और मेरा प्रारब्ध आदित्य बाबू के गांव से मेरे गांव आ रहा था, मेरे कपाल पर लिखने के लिए, और ऐसा ही हुआ।

सन 1957 में जब भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का 100 वां वर्ष मनाया जा रहा था, उत्तर प्रदेश के वीर योद्धाओं को, जिन्होंने अपने-अपने परिवार और परिजनों को छोड़कर, मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने-अपने प्राणों को उत्सर्ग किये थे, इतिहास में एक अमिट अध्याय जोड़े थे; उन वीर-बांकुरों के परिवारों और परिजनों-वंशजों को उत्तर प्रदेश शासन के तरफ से सम्मानित किया जा रहा था। गजब का दृश्य था वह। वैसे उस आंदोलन को सौ वर्ष हो गए थे, लेकिन ऐसा लग रहा था कि कानपुर शहर का बिठूर गाँव और अवध के नबाव सिराजुदौला का शहर लखनऊ उस दिन जीवित हो गया था।

ऐसा लग रहा था कि बाजीराव पेशवा – II, नाना साहेब, मणिकर्णिका @ रानी लक्ष्मी बाई, पाण्डु रंगराव टोपे @ तात्या टोपे और सैकड़ों अन्य क्रांतिकारियों की आवाज, उनके घोड़ों की टाप, तलवारों की टकराहट, अंग्रेजी हुकूमतों के अधिकारियों का ‘हाहाकार’ बिठूर गाँव और गंगा के किनारे ‘मसेकर घाट’ पर हो रहा हो। ऐसा लग रहा था जैसे चतुर्दिक भारत माता की जय का गगन चुम्बी शंखनाद हो रहा हो। हज़ारों लोगों के बीच लखनऊ में उत्तर प्रदेश शासन की ओर से, तत्कालीन राज्यपाल श्री वराह वेंकटगिरी के तरफ से तात्या टोपे के पौत्र श्री नारायण राव टोपे को सम्मानित किया जा रहा था। श्री नारायण राव टोपे कानपूर के गंगा तट पर स्थित तात्या टोपे के घर और मंदिर (बिठूर) में रहते थे। उन्हें सम्मान के साथ लखनऊ लाया गया था। आखिर देश को आज़ाद हुए महज दस वर्ष हुए थे, देश में प्रधानमंत्री का दफ्तर जवाहरलाल के अधीन ही था। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री गोविन्द बल्लभ पंत देश के गृह मंत्री बन गए थे। नारायण राव टोपे अपने पूर्वज तात्या टोपे की मृत्यु के बाद भी बिठूर की धरती का त्याग नहीं किये – उनके सम्मानार्थ। साथ ही, अपने पुत्र श्री विनायक राव टोपे से भी वचन लिए कि इस पवित्र स्थान को अभी नहीं त्यागेंगे। ऐसा ही हुआ।

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श्री नारायण राव टोपे को सम्मानित कर रहे थे श्री आदित्य बाबू। अपने हाथों से उन्हें पहले द्वितीय-वस्त्र के रूप में ‘रेशमी शॉल’ से सम्मानित किये। फिर चांदी की एक थाल उनके हाथों में दिए जिस पर सन सत्तावन आंदोलन की मूर्ति बनी थी, एक प्रशस्ति पत्र और फिर 1001/- रुपये नकद तथा सरकार की ओर से जीवन पर्यन्त मासिक मिलने वाली आर्थिक मदद। जिस चांदी की थाल, प्रशस्ति पत्र नारायण राव टोपे को सौंपा गया था, उस ताल पर श्री आदित्य बाबू का हस्ताक्षर था। लिखा था: “राज्यपाल, उत्तर प्रदेश शासन की ओर से – आदित्य नाथ झा, मुख्य सचिव।” यानी मधुबनी जिले के सरिसब-पाही का एक पुत्र उत्तर प्रदेश के एक क्रांतिकारी पुत्र के वंशज को सम्मानित कर रहे थे जिसका भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में अक्षुण भूमिका था।

इस घटना के 49-वर्ष बाद, यानी सन 2006 के जून महीने में मैं तात्या टोपे के उसी घर में बिठूर में मंदिर में सपरिवार बैठा था और सामने बैठे थे श्री नारायण राव टोपे के पुत्र श्री विनायक राव टोपे, उनकी अर्धांगिनी श्रीमती सरस्वती टोपे, दो पुत्रियां और एक पुत्र। सन 1957 का सम्पूर्ण दस्तावेज सामने था। वह चांदी का थाल हाथ में था और आँखों से अश्रु उस थाल पर गिर रहा था। सम्पूर्ण वातावरण शांत था। पत्नी समझ गई थी। श्री नारायण राव टोपे स्तब्ध थे। वे समझ नहीं पा रहे थे आखिर मामला क्या है।

अपनी आंखों को पोछते जब मैं यह कहा: “टोपे साहब, ईश्वर की लीला देखें। जिस व्यक्ति ने आपके पिता को कोई 49 वर्ष पहले सम्मानित किया था, मैं उनका वंशज नहीं हूँ। शायद मुझे, मेरे माता-पिता को, मेरे घर-परिवार को उनका आज का परिवार, उनकी पीढ़ियां जानते भी नहीं होंगे। लेकिन …… वे सभी बहुत विद्वान थे । भारत के इतिहास में आज तक शायद एक विश्वविद्यालय में कुलपति बाप-बेटा नहीं हुआ है, लेकिन आदित्य बाबू के पिता और उनके भाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति बने। विद्वता में उस परिवार के सामने मेरी औकात नगण्य है। लेकिन विधि का विधान देखिये – जिस व्यक्ति ने आपके पिता को सम्मानित किया था, उनके गाँव से कोई दस किलोमीटर दूर रहने वाले उनके ही समाज (श्रोत्रिय) के एक दीन व्यक्ति का पुत्र आज आपको सम्मानित करने, आपके परिवार को, आपकी बेटियों को एक नई जिंदगी देने हेतु संकल्पित है।” श्री विनायक राव टोपे मंदिर के तरफ, जिस मंदिर में तात्या और उनकी माँ पूजा-अर्चना करती थी, अपना सर झुकाकर उन्हें नमन कर रहे थे। गंगा की ओर से शीतल हवा सम्पूर्ण वातावरण को शीतल कर रहा था। मैं वर्षों पहले ईश्वर द्वारा लिखित अपने प्रारब्ध को पढ़ रहा था।

इस घटना के एक महीने बाद, यानी जुलाई 4, 2006 को विनायक राव टोपे की जिंदगी बदल गयी। जून महीने के अंतिम सप्ताह में हम (मेरी पत्नी, बेटा और मैं) बिठूर से उन्हें अपने घर गाजियाबाद लाये। सम्मान के साथ उन्हें अपने घर में रखा और फिर 4 जुलाई को ‘प्रगति टोपे’ तथा ‘तृप्ति टोपे’ की नौकरी के लिए मेरी पत्नी भारत सरकार के रेल मंत्रालय में बैठकर आवेदन लिखीं। फैक्स से कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया से नियुक्ति पत्र आया और अगले दिन मेरी पत्नी नोएडा स्थित कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया में दोनों बहनों को नौकरी ज्वाइन कराई। नौकरी ज्वाइन करने के बाद फिर लोकमत अख़बार के मालिक द्वारा विनायक राव टोपे का सम्मान किया गया। टोपे साहब को पांच लाख रुपये नकद दिए गए ताकि एक नई जिंदगी की शुरुआत हो।

इस बीच टोपे साहब अपनी बड़ी बेटी प्रगति का विवाह ठीक किये और घर आकर न्योता दिए: “शिवनाथ जी….. आप पति-पत्नी मिलकर हमारा जीवन बदल दिए। आपसे निवेदन है कि मेरी बेटी का कन्यादान आप कर दें।” तात्या टोपे के प्रपौत्र के मुख से यह बात सुनकर सरिसब-पाही और उजान गाँव की वह लम्बी सड़क याद आ गई। बाबा बिदेश्वर में स्थापित महादेव याद आ गए। दिवंगत श्री आदित्य बाबू याद आ गए। दिवंगत बाबूजी याद आ गए। फिर सोचा महज 55 मीटर समुद्र तल से तो ऊँचा है ‘मेरा गाँव उजान’, दरभंगा-मधुबनी इलाके में विद्वानों की, विदुषियों की, धनाढ्यों की, राजा-महाराजाओं की, अधिकारियों की, राज-नेताओं की किल्लत तो है नहीं; समुद्र-तल से जितनी ऊंचाई पर मेरा गाँव स्थित है, इस ऊंचाई पर तो बिहार सहित, दरभंगा-मधुबनी सहित, भारत के लाखों गाँव होंगे, फिर विधाता ने यह कड़ी कैसे जोड़ा?

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