अदालतों में स्थानीय भाषाओं के प्रयोग से ‘वादी’ और ‘प्रतिवादी’ के बीच की दूरी समाप्त हो सकती है…..

प्रदेश के उच्च न्यायालयों के सम्मानित मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों की बैठक में

नई दिल्ली: मुद्दत बाद देश के किसी प्रधानमंत्री ने अदालतों में स्थानीय भाषाओं के इस्तेमाल पर महत्व दिया। स्थानीय भाषाओं के प्रयोग पर जोर दिया और उपस्थित न्यायविदों को कहा भी कि मैं ऐसी बैठकों में अनंत बार सम्मिलित हुआ हूँ, सुझाव दिया हूँ, उस दृष्टि से वे उनसे वरिष्ठ हैं। इसलिए प्रधान मंत्री खुलेआम कहे कि स्थानीय भाषाओं के प्रयोग से भारत के लोगों का अपने देश के भारतीय न्याय प्रणाली न्यायिक व्यवस्था में विश्वास बढ़ेगा और वे इससे अधिक जुड़ाव महसूस करेंगे। 

मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहना कि ‘हमें अदालतों में स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। इससे न केवल आम नागरिकों का न्याय प्रणाली में विश्वास बढ़ेगा बल्कि वे इससे अधिक जुड़ाव भी महसूस करेंगे,’ संभव है देश की अदालतों में परत-दर-परत मिट्टी में जमे मुकदमे के फाइलों को सूर्य की रौशनी देखने का समय मिल जायेगा । प्रधान मंत्री का यह कहना व्यावहारिक रूप से कितना हकीकत में लागु हो पायेगा, यह तो समय बताएगा; लेकिन देश के लोग अगर ‘सकारात्मक सोच’ रखेंगे तो इतना अवश्य है कि आज़ाद भारत में इस तरह का यह पहला कदम होगा। प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों से न्याय प्रदान करने को आसान बनाने के लिए पुराने कानूनों को निरस्त करने की भी अपील की।

विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र के नेता का मानना है कि भारत में, जहां न्यायपालिका की भूमिका संविधान के संरक्षक की है, वहीं विधायिका नागरिकों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। मेरा मानना है कि इन दोनों का संगम एक प्रभावी व समयबद्ध न्यायिक प्रणाली के लिए रोडमैप तैयार करेगा। साथ ही, ‘2015 में, देश में लगभग 1,800 कानूनों की पहचान की, जो अप्रासंगिक हो चुके थे। इनमें से, केंद्र के ऐसे 1,450 कानूनों को समाप्त कर दिया गया। लेकिन, राज्यों ने केवल 75 ऐसे कानूनों को समाप्त किया है।प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि जब भारत स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है, तो एक ऐसी न्यायिक प्रणाली के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, जहां न्याय आसानी से उपलब्ध, त्वरित और सभी के लिए हो।

हमारे देश में जहां एक ओर जुडिशरी की भूमिका संविधान संरक्षक की है, वहीं लेजिस्लेचर नागरिकों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है। प्रधान मंत्री का मानना है कि संविधान की इन दो धाराओं का ये संगम, ये संतुलन देश में प्रभावी और समयबद्ध न्याय व्यवस्था का रोडमैप तैयार करेगा। 

हमारे शास्त्रों में कहा गया है- ‘न्यायमूलं सुराज्यं स्यात्’। अर्थात् किसी भी देश में सुराज का आधार न्याय होता है। इसलिए न्याय जनता से जुड़ा हुआ होना चाहिए, जनता की भाषा में होना चाहिए। जब तक न्याय के आधार को सामान्य मानवी नहीं समझता, उसके लिए न्याय और राजकीय आदेश में बहुत फर्क नहीं होता है। दुनिया के कई देश ऐसे हैं। जहां कानून बनाते हैं तो एक तो लीगल टर्मिनोलॉजी में कानून होता है। लेकिन उसके साथ एक और कानून का रूप भी रखा जाता है। जो लोक भाषा में होता है, सामान्य मानवी की भाषा में होता है और दोनों मान्य होते हैं और उसके कारण सामान्य मानवी को कानूनी चीजों को समझने में न्याय के दरवाजे खटखटाने की जरूरत नहीं पड़ती है। हम कोशिश कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में हमारे देश में भी कानून की एक पूरी तरह लीगल टर्मिनोलॉजी हो, लेकिन साथ–साथ वो ही बात सामान्य व्यक्ति की समझ में आए। उस भाषा में और वो भी दोनों एक साथ विधान सभा में या संसद में पारित हो ताकि आगे चलकर के सामान्य मानवी उसके आधार पर अपनी बात रख सकता है। दुनिया के कई देशों में ये परंपरा है। 

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मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों की ये जॉइंट कॉन्फ्रेंसेस पहले भी होती आई हैं। और, उनसे हमेशा देश के लिए कुछ न कुछ नए विचार भी निकले हैं। लेकिन, ये इस बार ये जो आयोजन अपने आप में और भी ज्यादा खास है। कॉन्फ्रेंस एक ऐसे समय में हो रही है, जब देश अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। आज़ादी के इन 75 सालों ने जुडिसियरी और एस्क्युटीव, दोनों के ही भूमिका और जबाबदेही  को निरंतर स्पष्ट किया है। जहां जब भी जरूरी हुआ, देश को दिशा देने के लिए ये सम्बन्ध लगातार विकसित हुआ है। आज आज़ादी के अमृत महोत्सव में जब देश नए अमृत संकल्प ले रहा है, नए सपने देख रहा है, तो हमें भी भविष्य की तरफ देखना होगा। उन्होंने कहा कि 2047 में जब देश अपनी आज़ादी के 100 साल पूरे करेगा, तब हम देश में कैसी न्याय व्यवस्था देखना चाहेंगे? हम किस तरह अपने न्यायिक व्यवस्था को इतना समर्थ बनाएं कि वो 2047 के भारत की आकांक्षाओं को पूरा कर सके, उन पर खरा उतर सके, ये प्रश्न आज हमारी प्राथमिकता होना चाहिए। अमृतकाल में हमारा विज़न एक ऐसी न्याय व्यवस्था का होना चाहिए जिसमें न्याय सुलभ हो, न्याय त्वरित हो, और न्याय सबके लिए हो।

प्रधान मंत्री के अनुसार देश में न्याय की देरी को कम करने के लिए सरकार अपने स्तर से हर संभव प्रयास कर रही है। हम न्यायिक ताकत को बढ़ाने के लिए प्रयास कर रहे हैं,  जुडिसियल इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर करने की कोशिश चल रही है। केस मैनेजमेंट के लिए आईसीटी के इस्तेमाल की शुरुआत भी की गई है। निचली अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों तक रिक्त पदों को भरने के लिए भी प्रयास हो रहे हैं। साथ ही, जुडिसियल इंफ्रास्ट्रक्चर  को मजबूत करने के लिए भी देश में व्यापक काम हो रहा है। इसमें राज्यों की भी बहुत बड़ी भूमिका है।

नरेंद्र मोदी ने कहा कि आज पूरी दुनिया में नागरिकों के अधिकारों के लिए, उनके सशक्तिकरण के लिए तकनीकी एक मुख्य टूल बन चुकी है। हमारे न्यायिक व्यवस्था में भी टेक्नोलॉजी की संभावनाओं से आप सब परिचित हैं। हमारे सम्मानित न्यायमूर्तियों ने समय-समय पर इस विमर्श को आगे भी बढ़ाते रहते हैं। भारत सरकार भी न्यायिक व्यवस्था में टेक्नोलॉजी की संभावनाओं को डिजिटल इंडिया मिशन का एक जरूरी हिस्सा मानती है। डिजिटल इंडिया के साथ जुडिसियरी का ये इंटीग्रेशन आज देश के सामान्य मानवी की अपेक्षा भी बन गई है।  ये पूरे विश्व में पिछले साल जितने डिजिटल ट्रांजेक्शन हुए, उसमें से 40 प्रतिशत डिजिटल ट्रांजेक्शन भारत में हुए हैं। 

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तकनिकी आज युवाओं के जीवन का स्वाभाविक हिस्सा है। ये हमें सुनिश्चित करना है कि युवाओं की ये एक्सपर्टाइज उनकी व्यावसायिक शक्ति कैसे बने। कई देशों में लॉ यूनिवर्सिटीज में ब्लॉक चेन्स, इलेक्ट्रॉनिक डिस्कवरी, साइबर सेक्युरिटी, रोबोटिक्स, आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस जैसे विषय पढ़ाये जा रहे हैं। हमारे देश में भी लीगल एडुकेशन इन अंतराष्ट्रीय पैमाने के मुताबिक हो, ये हम सबकी ज़िम्मेदारी है। इसके लिए हमें मिलकर प्रयास करने होंगे।

हमारे देश में आज भी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायलय की सारी कार्यवाही इंग्लिश में होती है और मुझे अच्छा लगा CGI ने स्वयं ने इस विषय को स्पर्श किया तो कल अखबारों को पॉजिटीव खबर का अवसर तो मिलेगा अगर उठा लें तो। लेकिन उसके लिए बहुत इंतजार करना पड़ेगा।

एक बड़ी आबादी को न्यायिक प्रक्रिया से लेकर फैसलों तक को समझना मुश्किल होता है। हमें इस व्यवस्था को सरल और आम जनता के लिए ग्राह्य बनाने की जरूरत है। हमें न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। इससे देश के सामान्य नागरिकों का न्याय प्रणाली में भरोसा बढ़ेगा, वो उससे जुड़ा हुआ महसूस करेगा। अब इस समय हम यह कोशिश कर रहे हैं कि तकनिकी शिक्षा और चिकित्सा शिक्षा स्थानीय भाषा में क्यों नहीं होना चाहिए। हमारे बच्चे जो बाहर जाते हैं, दुनिया की वो भाषा कोशिश करते हैं, पढ़कर के, फिर मेडिकल कॉलेज की, हम हमारे देश में कर सकते हैं और मुझे खुशी है कई राज्यों ने मातृ भाषा में तकनिकी शिक्षा और चिकित्सा शिक्षा के लिए कुछ शुरुआत किये हैं । तो आगे चलकर उसके कारण गांव का गरीब का बच्चा भी जो भाषा के कारण रुकावटें महसूस करता है। उसके लिए सारे रास्ते खुल जाएंगे और ये भी तो एक बड़ा न्याय है। ये भी एक सामाजिक न्याय है। सामाजिक न्याय के लिए न्यायपालिका की तराजू तक जाने की जरूरत नहीं होती है। सामाजिक न्याय के लिए कभी भाषा भी बहुत बड़ा कारण बन सकती है। 

प्रधान मंत्री ने कहा कि एक गंभीर विषय सामान्य आदमी के लिए कानून की पेंचीदगियां भी हैं। 2015 में हमने करीब 18 सौ ऐसे क़ानूनों को चिन्हित किया था जो अप्रासंगिक हो चुके थे। इनमें से जो केंद्र के कानून थे, ऐसे 1450 क़ानूनों को हमने खत्म किया। लेकिन, राज्यों की तरफ से केवल 75 कानून ही खत्म किए गए हैं। मैं आज सभी मुख्यमंत्रीगण यहां बैठे हैं। मैं आपसे बहुत आग्रह करता हूं कि अपने राज्य के नागरिकों के अधिकारों के लिए, उनकी सामान्य जीवन के लिए कानूनों के जाल को सामान्य बनायें । कालबाह्य कानूनों में लोग फंसे पड़े हैं। उन कानूनों को निरस्त करने की दिशा में आप कदम उठाइये, लोग बहुत आर्शीवाद देंगे। 

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न्यायिक सुधार केवल एक नीतिगत विषय या पपॉलिसी मैटर ही नहीं है। देश में लंबित करोड़ों केसेस के लिए पॉलिसी से लेकर टेक्नोलॉजी तक, हर संभव प्रयास देश में हो रहे हैं और हमने बार-बार इसकी चर्चा भी की है। इस कांफ्रेंस में भी आप सब विशेषज्ञ इस विषय पर विस्तार से बात करेंगे ही ये मुझे पूरा विश्वास है और मैं शायद बहुत लंबे अर्से से तक इस मीटिंग में बैठा हुआ हूं। प्रधान मंत्री ने कहा कि शायद माननीय न्यायमूर्तियों को ऐसी मीटिंग में आने का जितना अवसर मिला होगा, उससे ज्यादा मुझे मिला है। क्योंकि मैं कई वर्षों तक मुख्यमंत्री के रूप में इस कांफ्रेंस में आता रहता था। अब यहां बैठने का मौक़ा आ गया है तो यहाँ से आता रहता हूं। एक प्रकार से मैं इस महफिल में सीनियर हूं। 

इस विषय में मैं जब बात कर रहा था, तो मैं ये मानता हूं कि इन सारे कामों में मानवीय संवेदनाएं जुड़ी हैं। मानवीय संवेदनाओं को भी हमें केंद्र में भी रखना ही होगा। आज देश में करीब साढ़े तीन लाख कैदी ऐसे हैं, जो अंडर-ट्रायल हैं और जेल में हैं। इनमें से अधिकांश लोग गरीब या सामान्य परिवारों से हैं। हर जिले में डिस्ट्रिक्ट जज की अध्यक्षता में एक कमेटी होती है, ताकि इन केसेस की समीक्षा हो सके, जहां संभव हो बेल पर उन्हें रिहा किया जा सके। मैं सभी मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के सम्मानित न्यायमूर्तियों से अपील करूंगा कि मानवीय संविधानों उन संवेदनाओं और कानून के आधार पर इन मामलों को भी अगर संभव हो तो प्राथमिकता दी जाये। 

इसी तरह न्यायालयों में, और ख़ासकर स्थानीय स्तर पर लंबित मामलों के समाधान के लिए मध्यस्थता भी एक महत्वपूर्ण जरिया है। हमारे समाज में तो मध्यस्थता के जरिए विवादों के समाधान की हजारों साल पुरानी परंपरा है। आपसी सहमति और परस्पर भागीदारी, ये न्याय की अपनी एक अलग मानवीय अवधारणा है। अगर हम देखें, तो हमारे समाज का वो स्वभाव कहीं न कहीं अभी भी बना हुआ है। हमने हमारी उन परंपराओं को खोया नहीं है। हमें इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूत बनाने की जरूरत है ।मामलों का कम समय में समाधान भी होता है, न्यायालयों का बोझ भी कम होता है, और सोशल फैब्रिक भी सुरक्षित रहता है। 

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