पटना कालेज @ 160 : ईंट, पत्थर, लोहा, लक्कड़, कुर्सी, टेबल, प्रोफ़ेसर, छात्र, छात्राएं, माली, चपरासी, प्राचार्य सबके थे रणधीर भैय्या (12)

पटना कॉलेज के ईंट, पत्थर, लोहा, लक्कड़, कुर्सी, टेबल, घास, पत्ता, नल, पानी, गाय, गोरु, प्रोफ़ेसर, छात्र, छात्राएं, माली, चपरासी, प्राचार्य - किस-किसका नाम गिनाऊँ, वे सबका तो तो थे ही, उनका भी सब था ।

हमारे रणधीर भैया भी गजब का आदमी थे। पटना कॉलेज के ईंट, पत्थर, लोहा, लक्कड़, कुर्सी, टेबल, घास, पत्ता, नल, पानी, गाय, गोरु, प्रोफ़ेसर, छात्र, छात्राएं, माली, चपरासी, प्राचार्य – किस-किसका नाम गिनाऊँ, वे सबका तो तो थे ही, उनका भी सब था । इस तस्वीर में पीछे बाएं से जो महाशय खड़े हैं, का नाम है अजय नारायण शर्मा। पटना कॉलेज और फिर पटना विश्वविद्यालय के क्रिकेट टीम के कप्तान थे। कितने रणजी खेले होंगे, उनको भी याद नहीं होगा। वह तो पटना से प्रकाशित अखबार वाले धन्यवाद के पात्र हैं कि आज भी 62-किलो के इस महामानव को देखते ही पहचान लिए।

इसी तस्वीर में बीच पंक्ति में बैठे है – बाएं से हमारे रणधीर भैया, बीच में वीरेंद्र भैया (वीरेंद्र मोहन प्रसाद) और उनके बगल में बैठे हैं प्रोफ़ेसर सुरेश बाबू। ऊपर की पंक्ति में अजर नारायण शर्मा के साथ खड़े हैं हमारे सुरेश भैया (सुरेश प्रसाद) और सबसे दाहिने हैं नीलू भैया। यह पटना कालेज का खेलकूद विभाग है। एक पर एक।

इस तस्वीर को देखकर मुझे विश्वास है कि रणधीर वर्मा के जितने चाहने वाले होंगे, जो उनके जीवन काल में उनसे पांच-दस सेकेण्ड के लिए भी रु-ब-रु हुए होंगे, जो दो शब्द उनसे बात किये होंगे – वे उनका हो गए होंगे।

हमारे रणधीर भैया धनबाद के हीरापुर में बिनोद बिहारी महतो के शॉपिंग कॉम्पेक्स स्थित बैंक ऑफ़ इण्डिया परिसर में वीरगति प्राप्त किये। वीरगति प्राप्त करने से पूर्व धनबाद के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक रणधीर प्रसाद वर्मा बोकारो के डीआईजी के रूप में प्रोनत्ति हो गए हे। उनके जानने वाले तो लाखों-करोड़ों लोग है, जिसमें राजनेताओं की कतार अधिक लम्बी है, वे उन्हें अधिक जानते होंगे। लेकिन यह तस्वीर शायद उनके घर में भी नहीं होगी आज, विश्वास है।

पटना कॉलेज के 160 वर्ष पर आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम कहानी श्रृंखला में पटना कॉलेज के रणधीर वर्मा की कहानी जो मैं लिख रहा हूँ, वह न केवल मेरी जिन्दगी का अहम् हिस्सा आज भी है, बल्कि रणधीर भैय्या आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हिस्सा हैं । कहानी पढ़कर आप भी चकित हो जायेंगे। रणधीर भैय्या से पटना कालेज के सामने या पटना कालेज परिसर में रहने वाले तत्कालीन लोगों का, जब रणधीर भैय्या कालेज के छात्र थे, और हम सभी “लड़कन-बुतरू” – एक गजबे का रिस्ता था। जैसे ही उन पर नजर पड़ी, हम सब भूखे भी रहते थे तो मुस्कुरा देते थे। उनके चेहरे पर गजब का आकर्षण था। उनमें बड़े-बुजुर्गों, बच्चों के प्रति एक अजब का सम्वेदना था। इस तस्वीर मन मोहतरमाओं को अगर कुछ पल के लिए ‘दाएं-बाएं’ कर दें तो सभी तत्कालीन युवा ‘युग के युवा’ थे।

हमारे ज़माने में सातवीं कक्षा में बोर्ड परीक्षा होती ही। साल 69 था। उन दिनों दसवीं कक्षा का बोर्ड परीक्षा परिणाम ो स्थानीय अख़बारों में – आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाइट और प्रदीप – में प्रकाशित होता था, लेकिन सातवीं बोर्ड का परीक्षा फल विद्यालय में आता था। म जिस दिन परीक्षा फल निकला था, हम अपने विद्यालय से परिणाम लेकर घर आ रहे थे। पटना कालेज के सामने शांति कैफे के नीचे रणधीर भैया खड़े थे। वे मझे देखते ही पूछे – रिजल्ट निकला?

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मैं अपना मुंडी हिलाया और कागज आग बढ़ा दिया। वे कागज देखकर एक ‘चटकन’ मारे और गोद में उठाकर ननकू जी के होटल में दो गुलाब जामुन खिलाये फिर कमाल बाइंडिंग हॉउस (स्टेशनरी की दूकान) ले गए। यहाँ वे ढाई-रुपये में “प्रेसीडेंट फाउंटेनपेन खरीदकर, एक चीलपार्क रोशनाई के बोतल के साथ पीठ ठोकते कहते हैं: “पढ़ना…. पढ़ाई से कभी लुक्का-छिप्पी नहीं करना। पढ़ोगे तभी माँ-बाबूजी का नाम करोगे और तुम्हारी भी पहचान अपनी बनेगी।”

अगर कोई “बुतरू” (बच्चा) पटना कालेज गेट के सामने वाली गली की नुक्कड़ पर खड़ा होता था और उसके पैंट कमर को धरती के तरफ उन्मुख होता रहता था तो रणधीर भैय्या रूककर पैंट को यथास्थान कर उस बच्चे के दोराडोरी (कमर में बंधे धागे) से फंसा देते थे। उस गली में यादवों की संख्या अधिक थी। इस तस्वीर में भी सुरेश भैया ‘यादव’ ही थे। लेकिन क्या ‘इंसान’ थे। आज उनका नाम लिखते रोगंटे खड़े हो गए हैं – सम्मानार्थ।

सभी ननकू जी (गली के नुक्कड़ पर होटल के मालिक) के नाती-नतनी-पोता-पोती होते थे, जो दिनभर गली घूमते-रोते-हँसते-लड़ते-खेलते रहते थे। अगर पैंट पहनाने के क्रम में उस बच्चे की मतारी (माँ) सामने हो गयी, तो भैय्या खैर नहीं उसकी। का-का नहीं कहते थे बच्चे की मतारी को रणधीर भैय्या “चुटकी” लेकर। लेकिन मजाल था की कोई पुरुष, यहाँ तक की उस मतारी के पति-भैंसुर-देवर-ससुर चूँ भी कर लें रणधीर भैय्या के सामने-पीछे। यह था अपनापन। ऐसा था स्नेह, प्रेम लोगों में।

रणधीर भैय्या से मेरा ताल्लुकात कुछ अलग था। बात सन 1971-72 की है। मैं पटना के टी के घोष अकादमी विद्यालय में पढ़ता था आठवीं-नवमीं कक्षा में। पटना कॉलेज के सामने वाली श्री ननकूजी वाली गली में ही रहता था। ननकू जी के होटल के ठीक ऊपर पीछे तरफ किराया के मकान में माँ-बाबूजी-भाई-बहन सबों के साथ। सुबह-सवेरे साइकिल से गांधी मैदान अखबार लेने जाता था जिसे गांधी मैदान से पटना लॉ कॉलेज से आगे रानीघाट तक बांटता था। घर वापस आने पर स्कूल और शाम में नोवेल्टी एंड कंपनी में लिफ्ट चलाना। अख़बार बेचने से, लिफ्ट पर काम करने से इतने पैसे हो जाते थे जिससे बड़े इत्मीनान से पढ़ाई करते थे, खाने-पीने में कोई दिक्कत नहीं होती थी किसी को।

रणधीर भैया से नित्य मुलाकात होती थी। कभी कालेज परिसर में, कभी सड़क पर, कभी नोवेल्टी में लिफ्ट पर। जब भी मिलते थे अपने हाथ से माथे के बाल को इधर-उधर कर देते थे। एक अद्भुत आशीष का अनुभव होता था। उन दिनों घर में पढ़ने अथवा सोने का पर्याप्त स्थान नहीं होने के कारण मोहल्ले के बच्चे पटना कालेज के अंग्रेजी विभाग के बरामदे या फिर उसी बरामदे के गंगा छोड़ वाले कोने पर, जहाँ महिला कॉमन रूप था, एक दरी-चादर बिछाकर रात में पढ़ते भी थे और लुढ़क भी जाते थे। रात में रणधीर भैय्या जब सैर करने निकलते थे, तब इस तरफ का भी चक्कर लगाते थे और हम बच्चों को देख लिया करते थे, कुछ पूछना होता था, तो बता भी देते थे।

इस बरामदे के अनन्त कहानियां हैं उनमें एक कहानी यह भी है कि इसी बरामदे के नीचे मुख्य मैदान का अशोकराज पथ छोड़ का कोना होता था, आज भी है जहाँ क्रिकेट मैच के दौरान स्कोर-बोर्ड हुआ करता था, सभी खिलाड़ी यही बैठते थे। वजह भी था गर्ल्स कॉमन रूम। उन्ही खिलाडियों में एक “सबा करीम” भी थे जो खजान्ची रोड में रहते थे और दोनों-भाई इस मैदान को जीवन में अन्तरण कर लिए थे। जिस दिन रणधीर भैया का भारतीय पुलिस सेवा में नौकरी हुई, पटना कॉलेज के गेट पर, ननकू जी के होटल के सामने, बनारसी पान दूकान के सामने, शांति कैफे के सामने फटाका छोड़ा गया था। नानकु जी के होटल में जलेबी और गुलाब जामुन हम बच्चों को मुफ्त में।

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बहरहाल, सन 1988 में मैं धनबाद पहुंचा। उस समय धनबाद से प्रकाशित आवाज समूह के न्यू रिपब्लिक अखबार में आया। पटना में आर्यावर्त-इन्डियन नेशन समाचारपत्र को छोड़कर, शायद विधाता यही चाहता था। न्यू रिपब्लिक में कोई एक वर्ष काम किया था, तभी कलकत्ता से प्रकाशित दी टेलीग्राफ में दाना-पानी शुरू हो गया। धनबाद संवाददाता और साथ ही बिहार-बंगाल क्षेत्र की सीमावर्ती इलाकों में भी ढुकने की स्वतंत्रता थी – बस कहानी होनी चाहिए।

अब तक रणधीर प्रसाद वर्मा धनबाद के पुलिस अधीक्षक के पद पर विराजमान हो गए थे। अक्सरहां, छोटे-बड़े शहरों में किसी नए व्यक्ति के अभिवादन के लिए लोगों का तांता लग जाता है। यह तो धनबाद था और आये थे नए पुलिस अधीक्षक जो मिज़ाज से बड़े खतरनाक थे – यह बात स्थानीय लोगों की खोपड़ी में था।

उनके आये कोई दो महीना से अधिक हो गया था। मैं अब तक नहीं गया था। मैं जानता था की उन्हें खबर है कि मैं यहाँ हूँ। मैं उस समय हीरापुर मुख्य सड़क से उनके आवास की और जाने वाली सड़क (बिजली कार्यालय) पर उनके आवास से दो भवन पूर्व धनबाद के ही एक वरिष्ठ अधिकारी श्री सूर्यनारायण मिश्र के ऑउट-हॉउस में रहता था। यह ऑउट हॉउस गुल्लड़ पेड़ के नीचे था और सामने विशाल खुला क्षेत्र जिसमें हम सभी जबरदस्त गुलाब, गोभी, करैला, लौकी, भिंडी, आलू, प्याज, बथुआ साग, पालक साग, कद्दू, धनिया और न जाने कितनी सब्जियां – फूल लगाए थे। यह खेती उस रास्ते जाने वाले सबों को आकर्षित करता था, विशेषकर एस एस एल एन टी कालेज की सुन्दर-सुन्दर छात्राएं।

एक दिन मैं उस खेत में मिटटी खोद रहा था, पानी दे रहा था तभी एस पी साहेब की गाड़ी निकली। हम नजर उठाये ही थे की एस पी साहेब नजर “ढिशूम” से टकरायी । गाड़ी अपनी गति से निकल गयी और मैं सम्मानार्थ अपनी आखें नीचे किये खड़ा रहा। अभी कुछ मिनट ही हुए होंगे, एक सिपाही जी हाँफते-हाँफते आये और बोले “सर !! साहेब बुला रहे हैं।” मैं समझ गया – आज तो कितने रसीद कटेंगे क्योंकि मैं अभी तक गया ही नहीं था मिलने। उनके घर पहुंचा तो सामने सफ़ेद टी-शर्ट और हाफ़-पैंट में रणधीर भैय्या खड़े थे। देखते ही बोले: “आइये!! आपके स्वागत में खड़े हैं।” मैं डरते-डरते ऊपर चढ़ा, पैर छूकर प्रणाम किया। वे सभी गुस्सा भूल गए।

एक रात हम सभी पत्रकार बधुगण धनबाद रेलवे स्टेशन के सामने चाय की दूकान पर चाय पी रहे थे तभी कुछ महिलाएं सामने आयी। सभी परिचित थीं। छोटे शहर की यह सबसे बड़ी ताकत होती है, सभी एक-दूसरे को पहचानते हैं। ये महिलाएं “ताली बजाने वाली” “थर्ड जेण्डर” थीं। मैं बहुत ही शांति से कहा “छोटे साहेब पिता बने हैं” (छोटे साहेब यानि एस पी साहेब, बड़े साहेब यानि डिप्टी कमिश्नर साहेब) – साथ खड़े तत्कालीन सभी रिपोर्टर्स मेरी ओर टकटकी निगाह से देखने लगे। किससे झगड़ा (उस जमाने में पन्गा नहीं कहते थे) मोल ले लिया शिवनाथ !!!

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दूसरे दिन सुवह-सुवह प्रचुर मात्रा में मोहतरमा लोग छोटे साहब के घर पहुँच गयीं। छोटे साहब अभी तक प्रातः व्यायाम से वापस नहीं आये थे। आते ही, जैसे ही उनकी जिप्सी लगी, सभी उछलने-कूदने लगीं, ताली बजाने लगीं, आशीष देने लगीं, स्वाभाविक भी है – साहब अभी अभी व्यायाम करके आये थे, गोरा-चिट्टा जवान, मांसपेशियां तनी हुई, किस महिला को अच्छा नहीं लगेगा। छोटे साहब को अब तक समझ नहीं आ रहा था – मामला क्या है ? फिर एक को बुलाये और पूछे। वह भी “विस्तार” से “व्याख्यान” दी – सिपाही जी दौड़ पड़े मेरे झोपड़ी के तरफ।

इस बार मैं पहले से ही तैयार था और अपना चेहरा नीचे किये, भयभीत दशा में पहुंचा। उस समय सरदार दरबारा सिंह (पंजाब के नेता मुख्य मंत्रीं) के पुत्र जो बैंकमोड़ स्थित स्काई लार्क होटल के मालिक भी थे, बैठ थे। मुझे देखते ही रणधीर भैय्या उठे और दाहिने हाथ से मेरे बाएं गाल पर एक थप्पड़ रसीद दिए। मैं चुपचाप चेहरा नीचे किये मुस्कुरा रहा था। बाहर “संभ्रांत महिलाएं” देखकर मुस्कुरा रही थीं। छोटे साहब तो गुस्सा में तमताये हुए थे, बोली भी नहीं निकल रहा था – लेकिन अन्दर से मोम थे। वे घर के अन्दर गए और फिर कुछ रुपये लाकर सम्मानित महिलाओं को दिए – साथ ही, अपने दोनों छोटे-छोटे बेटों दिखाकर कहते हैं : यही है मेरा बेटा, नया नहीं है, दस साल हो गया और आगे उम्मीद भी नहीं रखना।

अब तक गुस्सा रफुचक्कर हो गया था। मैं मन्द-मन्द मुस्कुरा रहा था। फिर मुझे बोले: तुम कहानी कैसे लिखते हो? भेजते हो?” मैंने कहा: पहले हाथ से लिखता हूँ घर पर या पोस्ट ऑफिस में, फिर टेलीप्रिंटर से भेजता हूँ। फिर पूछते हैं: टेलीप्रिंटर पर टाईप करते हो तो घर पर टाइप करो जैसे प्रेम कुमार (डॉ प्रेम कुमार उन दिनों पटना विश्वविद्यालय के वाणिज्य महाविद्यालय में अंग्रेजी के व्याख्याता थे और इण्डियन नेशन अखबार में स्पोर्ट्स समाचार लिखा करते थे) करते हैं। मैं सकुचाते हुए कहा: गोदरेज टाईप राईटर की कीमत 5600/- है, एक बार पूछा था बैंक मोड़ में। फिर कहते हैं, “अच्छा” जाओ, लेकिन आगे कभी गलत हरकत नहीं करना। मैं चुपचाप पीछे मुड़ – तेज चल; भाग हो गया।

उसी शाम कोई आठ बजे एक बड़ा सा डब्बा घर आया। डब्बे के ऊपर गोदरेज प्राईम लिखा था और टाईपराईटर की तस्वीर छपी थी। लाने वाला मुस्कुरा रहा था। वह वही सिपाहीजी थे जो दौड़-दौड़ कर बुलाने आते थे। वे हँस रहे थे और मैं अश्रुपात हो रहा था – वे इस भावनात्मक तार को शायद लपेटकर छोटे साहेब को बताये भी थे।

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