पटना कालेज @ 160 : जब बादशाह खान पटना कॉलेज मैदान में कहे थे “बुद्ध को मत भूलो….गाँधी को मत भूलो”, साल 1969 था (11)

खान अब्दुल गफ्फार खान यानी सीमांत गाँधी यानी फ्रोंटियर गांधी यानी बादशाह खान तत्कालीन युवाओं को, छात्रों को, छात्राओं को, शिक्षकों को, शिक्षार्थियों को, गरीबों को, धनाढ्यों को यानी पटना कॉलेज के प्रशासनिक भवन वाले छोड़ पर गंगा पार सिद्धार्थ और महावीर के जन्मस्थली से आने वाली हवाओं के बीच खड़े होकर मंच से सम्बोधित कर रहे थे : बुद्ध को मत भूलो....गाँधी को मत भूलो। साल था सन 1969 ।

शायद बहुत कम लोगों को याद होगा आज जब पटना कॉलेज के प्रशासनिक भवन के ठीक सामने से जाती हुई सड़क, जब वाणिज्य महाविद्यालय के रास्ते गंगा की ओर मुड़ती है, कॉलेज के मुख्य मैदान के दाहिने कोने पर स्थित मिट्टी और बालू की उस विशाल ढ़ेर के बगल में बने मंच से खान अब्दुल गफ्फार खान यानी सीमांत गाँधी यानी फ्रोंटियर गांधी यानी बादशाह खान तत्कालीन युवाओं को, छात्रों को, छात्राओं को, शिक्षकों को, शिक्षार्थियों को, गरीबों को, धनाढ्यों को यानी पटना कॉलेज के प्रशासनिक भवन वाले छोड़ पर गंगा पार सिद्धार्थ और महावीर के जन्मस्थली से आने वाली हवाओं के बीच खड़े होकर मंच से सम्बोधित कर रहे थे : बुद्ध को मत भूलो….गाँधी को मत भूलो। साल था सन 1969 ।

पटना कालेज के आज के शिक्षक, छात्र-छात्राएं, शिक्षकेत्तर कर्मचारी भले इस बात से अनभिज्ञ हों, लेकिन पटना कालेज का प्रशासनिक भवन वाला यह मैदान और इस मैदान का दाहिना किनारा, वहां की मिट्टी, वहां के ईंट-पथ्थर, वहां की हवाएं आज भी इस बात का गवाही देते हैं कि इसी स्थान पर कोई पौने-सात फीट लम्बा एक सामाजिक प्रवर्तक आया था । अपने प्रवास के दौरान सीमांत गांधी रो-रो कर, बिलख-बिलखकर, अवरुद्ध कंठ से बार-बार यह बात दोहराते रहे, कहते रहे: आज़ाद भारत के लोग “गौतम बुद्ध” को भी भूल गए और “महात्मा गाँधी” को भी याद नहीं रख पाए। जबकि बिहार में ही मोहन दास करमचंद गांधी ‘महात्मा गांधी’ बने और नेपाल की तराई में स्थित लुम्बिनी में जन्म लिए ‘सिद्धार्थ’ को बिहार में ही ‘बोधित्व’ प्राप्त हुआ और वे “गौतम बुद्ध” बने।
हमारी पीढ़ी के लोग महात्मा गाँधी को नहीं देखा होगा, यह पक्का है। लेकिन ‘सीमांत गांधी’ को भी शायद बहुत कम लोग ‘साक्षात्’ देखे होंगे। उन्हें स्पर्श किये होंगे। उनकी बातों को सुने होंगे और आज तक याद भी रहे होंगे, भले समय अपनी गति से 53 वर्ष निकल गया हो। मैं बहुत भाग्यशाली हूँ।

हमारे लिए दस वर्ष की आयु में, पटना के एक ऐतिहासिक विद्यालय – टी के घोष अकादमी – के छात्र के रूप में सीमांत गांधी के लिए बनाए जाने वाले मंच के लिए ‘बांस’ के टुकड़ों को दो-तीन मित्रों के साथ खींच-खींच कर लाना, रस्सी कम हो जाने पर एनी बेसेंट रोड स्थित श्री बद्री साहू की दूकान से दौड़कर लाना, पीने का पानी दौड़कर या तो इक़बाल हॉस्टल के फुलबारी में लगे नल से या फिर प्रशासनिक भवन के सामने वाले फुलबारी में लगे नल से लाना, मनोविज्ञान के प्राध्यापक प्रोफ़ेसर शमशाद हुसैन के आदेश पर गरमा-गरम सिंघारा, पूड़ी-कचौड़ी और जलेबी लाना, पटना कॉलेज के तत्कालीन चतुर्थ-वर्गीय कर्मचारी श्री रामाशीष जी और श्री भोलाजी (माली) का प्रिय-पात्र होना – एक इतिहास के पन्ने पर हस्ताक्षर करने से कम नहीं था।

क्योंकि अगर वैसा नहीं होता तो आज पांच दशक के बाद भी वो सभी बातें इस कदर याद नहीं आते और पटना कॉलेज के 160 वे वर्ष पर अपने महाविद्यालय के सम्मानार्थ, वहां की मिट्टी के सम्मानार्थ, तत्कालीन शिक्षकों के सम्मानार्थ या फिर व सभी जिन्होंने हमारे जीवन-निर्माण में गिलहरी की तरह ही सही, अपनी-अपनी भूमिका निभाए थे, उनके सम्मानार्थ आज ये शब्द नहीं दोहराता, नहीं लिखता। यह भाग्य और प्रारब्ध की ही तो बात है।

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संभव है आज भी पटना कॉलेज के अनन्य छात्र-छात्राएं-शिक्षक भारत देश के विभिन्न स्थानों पर अपना-अपना जीविकोपार्जन कर जीवित होंगे, लेकिन सन 1969 में सीमांत गांधी का पटना कॉलेज में पदार्पण शायद भूल गए होंगे। या फिर उसे याद रखना उनके लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा होगा।

लेकिन आज 53-वर्ष बाद भी बिहार के एक शिक्षक को, एक सामाजिक प्रवर्तक को, हिंदी-उर्दू साहित्य के दर्जनों किताबों के लेखक, विधानसभा पत्रिका ‘साक्ष्य’ के संपादक, ‘दोआबा’ पत्रिका के संपादक, उर्दू कथा डायरी ‘रेत पर खेमा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत, ‘छोटा सा एक पुल’, ‘पहाड़ मेरे सखा है’, ‘रेत से आगे’, ‘चाक पर रेत’, ‘जिन्दा होने का सबूत’, अतीत का चेहरा’ जैसे दर्जनों रचनाओं के हस्ताक्षर, महान राजनीतिज्ञ, विधान सभा के पूर्व अध्यक्ष श्री जाबिर हुसैन साहेब को जब कल फोन किया और पूछा कि “सर…. शिवनाथ झा बोल रहा हूँ… पटना कॉलेज में श्रद्धेय सीमांत गांधी किस वर्ष आये थे? सभी बातें याद है लेकिन साल याद नहीं आ रहा है…” सम्मानित जाबिर हुसैन साहब, इससे पहले कि मैं अगली सांस लूँ, कहते हैं “1969” – मेरी खुशी का ठिकाना न रहा।

और फिर याद आ गया “वह दो चवन्नी” जो मंच के पास दूसरे दिन मिला था जब हम सभी छोटे-छोटे बच्चे फिर बांस के टुकड़ों को खींच-खींचकर एक जगह एकत्रित कर रहे थे। दरियों को खींच-खिंच कर मोड़ रहे थे ताकि उसे फिर सामने व्यायामशाला-सह-परीक्षा कक्ष में रखा जा सके। जिस समय ‘दो चवन्नी’ मिला था, पटना कॉलेज के एक मित्र ‘गिरीश’ जो हमारे साथ स्कूल में पढता भी था और जिसके पिता पटना कॉलेज के चतुर्थ-वर्गीय कर्मचारी भी थे, बहुत खुश हुआ था। उन दिनों पटना कॉलेज के सामने ननकू जी के होटल में पांच पैसे में सिघाड़ा (समोसा) और बारह पैसे में काला-काला बड़ा-बड़ा गुलाब जामुन मिलता था।

पूर्णिया (गढ़बनैली) के रास्ते गाँव (दरभंगा) से मगध की राजधानी पटना कुछ वर्ष पहले ही आया था। बाबूजी पटना के एक मशहूर प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता नोवेल्टी एंड कंपनी में एक मामूली कर्मी के रूप में काम करते थे। आखिर खुद सांस लेने के लिए और बाल-बच्चों के परवरिश के लिए काम तो करना ही पड़ेगा – चाहे आपकी योग्यता के अनुसार हो अथवा नहीं। नोवेल्टी के मालिक बाबूजी का बहुत सम्मान करते थे उनके व्यवहार और योग्यता को मद्दे नजर रखकर। बाबूजी संस्कृत के विद्वान थे, लेकिन जो कार्य करते थे, उसका संस्कृत से कोई लेना-देना नहीं था। खैर।

लोग आज भले ही ‘हिंदी’ और ‘संस्कृत’ की उन्नत्ति के लिए विभिन्न प्रकार के नारे लगाएं, चाहे सरकारी-स्तर पर हो या गैर-सरकारी-स्तर पर; लेकिन सच तो यही है कि आज जब सम्पूर्ण देश हिंदुस्तान की आज़ादी के 75 वर्ष पर आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, हमारी अपनी भाषा, हिंदी भाषा, अभी तक ‘राष्ट्रभाषा’ नहीं बन पाई। राष्ट्र उसे सम्मान नहीं दे सका, जिसका वह ‘हकदार’ है। देश हिंदी को अपना नहीं बना सका। साल के 365 दिनों में 15 दिन ‘पखबाड़े’ के रूप में हिंदी को समर्पित करता है। अब जब देश के लोग 365 दिनों में 350 दिन ‘इंग्लिश’, ‘हिंगलिश’ और लठमार भाषाओँ का प्रयोग कर अपनी बातों का आदान-प्रदान करते हैं, तो बेचारी हिंदी पंद्रह दिनों में क्या कर लेगी ?

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पढ़े-लिखे विद्वान-विदुषियों की बात करने की क्षमता मुझमें नहीं है, लेकिन आज भी अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनाये गए नियम, कानून चल रहे हैं। हिंदी को आज भी वह स्थान नहीं मिला पाया, जो मिलना चाहिए था। बड़े-बड़े विद्वानों-विदुषियों, समाज के संभ्रांतों के बीच जैसे ही हम हिंदी में बोलना शुरू करते हैं, सामने वाले अपनी कान और नाक की खुदाई करने लगते हैं। कहते हैं समाज के उन संभ्रांतों के सामने जब तक ‘कमर नहीं हिले’, ‘कंधे पर बेवजह लकवा नहीं मारे – हिलता-डुलता नहीं रहे’, ‘बेवजह हाथ दंड-बैठकी नहीं करे’, बात-बात में ‘सीट-सीट’ नहीं बोले – समझ लें हम संभ्रांतों के समूह में रहने लायक नहीं हैं, चाहे संभ्रांतों में महिलाएं हों या पुरुष। ‘तीसरे तबके’ के लोगों को तो समाज अभी तक हृदय से लगाया ही नहीं है। खैर।

कारण यह भी है कि जिला में जिलाधिकारी राज करते हैं, पुलिस अधीक्षक शासन करते हैं। प्रदेश से लेकर सम्पूर्ण देश में, यानी पटना के अशोक राज पथ से दिल्ली के राजपथ तक नौकरशाहों का साम्राज्य है जो भारतीय आवाम द्वारा ‘चयनित’ 4121 विधान सभा और 426 विधान परिषदों के विधायकों, 245 राज्यसभा और 545 लोकसभा के सांसदों और विभिन्न मंत्रालयों के मंत्रियों और राष्ट्राध्यक्षों के द्वारा ‘निष्पादित” किये जाने वाले कार्यों में ‘अंग्रेजी शब्दों के विन्यास के सामने बेचारी हिंदी जो वैशाख और जेठ महीने में भी पूस और माघ महीने जैसी ठिठुरती ही नजर आती है। खैर।

उस दिन पटना कॉलेज के इस ऐतिहासिक मैदान में सीमांत गांधी और उनके साथ जितने भी लोग थे, अंग्रेजी शब्दों को अपने जिह्वा पर नहीं आने दिया। आखिर अंग्रेजों को भारत से भगाए तो महज 22 साल ही हुए थे और इन 22 सालों में जो 15 अगस्त, 1947 की रात को जन्म लिए थे, उनकी मूंछों की रखाएँ स्वतः खींचनी शुरू हो गई थी और अनवरत बढ़ रही थी। उस युग में ‘फ़ास्ट-फ़ूड’ का भारतीय चौहद्दी में नामोनिशान नहीं था, इसलिए युवाओं और युवतियों में ‘यावनारम्भ’ भी देर से दस्तक देता था।

सीमांत गांधी को मुंगेर के आर डी एंड डी जे कॉलेज में भाषण देना था। वे एक पोटली हाथ में लिए दिल्ली हवाई अड्डा पर उतरे थे फिर वहां से पटना के लिए रवाना हुए। दिल्ली हवाई अड्डे पर अन्य गणमान्यों के अलावे श्रीमती इंदिरा गांधी स्वयं उनकी आगुआई में कड़ी थी। आखिर श्रीमती गांधी अपना बचपन भी तो उनके सानिग्ध में बिताई थी। सीमांत गांधी दिल्ली से पटना आये।

पटना कॉलेज में तत्कालीन छात्र-छात्राओं को, समाज के लोगों को संबोधित किये। फिर यहाँ से मुंगेर। उन दिनों बिहार के कई जिलों में छोटी-मोटी साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे। अपने संबोधन में बार-बार अवरुद्ध कंठ से सीमांत गांधी कहते रहे: “हम बुद्ध को भी भूल गए और गांधी को भी याद नहीं रख सके।” उनका सीधा निशाना था “देश में अमन शांति हो, चैन हो। सबों में भाईचारा हो।” सम्मानित जाबिर हुसैन साहब सीमांत गांधी के लिए गठित स्वागत समिति का नेतृत्व कर रहे थे। कहते हैं जिस दिन सीमांत गांधी मुंगेर के आर डी एंड डी जे कॉलेज में अपनी उपस्थिति दर्ज किये थे, वह कालेज अपने छः दशक पुराना अस्तित्व से प्रसन्नचित था। आज वह कॉलेज कोई 120 वर्ष पुराना हो गया है।

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हम अपने माता-पिता के साथ उन दिनों पटना कॉलेज के सामने ननकू जी के होटल वाली गली के नुक्कड़ वाले मकान में रहते थे। वह मकान आज तो नहीं है, अब वहां चार-मंजिला भवन बन गया है, लेकिन गली की नुक्कड़ आज भी अपने स्थानसे पटना कालेज के मैदान का वह कोना देखता है और इतिहास के पन्नों में सिमटे, परत-दर-परत धूल जमी बातों को याद कर कभी प्रसन्न होता है तो कभी अश्रुपूरित।

गली के नुक्कड़ का वह ईंट आज भी सीमांत गांधी की उस बात को सुनकर अश्रुपूरित हो जाता है जब पटना कॉलेज के दर्जनों पीपल, बरगद, अशोक, आम के पेड़ों पर बंधे ‘लाउडस्पीकर से आवाज गूंज रही थी : “आज़ाद भारत के लोग “गौतम बुद्ध” को भी भूल गए और “महात्मा गाँधी” को भी याद नहीं रख पाए। जबकि बिहार में ही मोहन दास करमचंद गांधी ‘महात्मा गांधी’ बने और नेपाल की तराई में स्थित लुम्बिनी में जन्म लिए ‘सिद्धार्थ’ को बिहार में ही ‘बोधित्व’ प्राप्त हुआ और वे “गौतम बुद्ध” बने।” उपस्थित हज़ारों हज़ार लोगों में किसी न ताली नहीं ठोका। सबों की नजर जमीन में गरी थी। कहते हैं जब शर्म उत्कर्ष पर होती है तो नजर जमीन के अंदर धंस जाती है।

लेकिन सन 1969 के ठीक दस वर्ष बाद 1979 में पटना कॉलेज के स्थान पर पटना के बांस घाट का दृश्य बहुत ही अमानवीय था। गंगा के किनारे बांस घाट (राजेंद्र प्रसाद घाट) पर लाखों लोगों का सैलाब था। पटना के छुटभैये नेताओं से लेकर दिल्ली और विदेशों के नेताओं और के सामने जब लोक नायक जयप्रकाश नारायण के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि दिया जा रहा था, कोई सम्मानित महानुभाव अपने तलहत्थी पर तम्बाकू ठोक दिए। आखिर पटना के लोग थे। ज्ञानी-महात्मा-विद्वता तो पराकाष्ठा पर थी ही। बगल में खड़े सम्मानित महानुभाव भी तलहथ्थी ठोके।

लोग बाग़ समझे “ताली बजी” और फिर गंगा के इस पार से गंगा के उस पार तक तालियों की गरगराहट – श्रीमती इंदिरा गाँधी अपने दोनों हाथों को अपने कपार पर रखकर शर्म से जमीन के अंदर समां रही थी। चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी – शर्म करो, यह समय ताली बजाने का नहीं है। लेकिन कौन सुनता है। देश की राजनितिक आज़ादी मिले 32 साल हो गए थे। कहीं मूछें घनघोर हो रही थी, तो कहीं मूंछें कट रही थी – कहते सुनते थे फैशन बदल रहा है। खैर।

साठ के दशक से लेकर जय प्रकाश नारायण की ‘सम्पूर्ण क्रांति’ तक पटना कॉलेज परिसर में सामने की गलियों में रहने वाले हम बच्चों की उपस्थिति, सहयोग के बिना संभव ही नहीं था। उन दिनों के छात्र, चाहे हॉस्टल में रहते हों यह अपने-अपने घरों से कॉलेज आते थे, मोहल्ले के बच्चों की टोली से गर्दन भर परिचित होते थे। आज समय और परिवेश के साथ-साथ कालेज की हवाएं भी बदल गई है, बदलना भी स्वाभाविक है। बादशाह खान 20 जनवरी 1988 को अंतिम सांस लिए। पटना कॉलेज की मिट्टी और उस दस वर्षीय बच्चा का नमन स्वीकार करें बादशाह खान साहब

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