पटना कालेज @ 160 : प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह, जिन्होंने सन 1948 में स्नातकोत्तर श्रम और समाज कल्याण विभाग स्थापित किये थे (9)

प्रोफ़ेसर अमृतधारीसिंह, जिन्होंने सन 1948 में स्नातकोत्तर श्रम और समाज कल्याण विभाग स्थापित किये थे

आज ही नहीं आने वाले शताब्दी में भी, आजाद भारत में जब भी पटना कॉलेज का जिक्र किया जायेगा, पटना विश्वविद्यालय का जिक्र किया जाएगा, भारत में औद्योगिक क्रांति में श्रम-श्रमिकों की बात की जाएगी, श्रमिक-प्रबंधन के सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध और कल्याण के बारे में जिक्र होगा, पटना विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों पर चर्चा होगी, नए पाठ्यक्रमों के बारे जिक्र होगा – पटना कॉलेज के तत्कालीन प्राध्यापक प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह और उनके द्वारा दरभंगा हॉउस स्थित गंगा के किनारे वह विशाल बरगद का बृक्ष, पीपल का बृक्ष, काली-मंन्दिर में स्थापित माँ काली की प्रतिमा इस बात का प्रत्यक्षदर्शी होंगे कि इसी भवन के बरामदे वाले कक्ष में प्रोफ़ेसर अमृतधारी सिंह आज़ाद भारत के पहले वर्ष में पटना विश्वविदयालय में स्नातकोत्तर ‘श्रम और समाज-कल्याण विभाग (लेबर एंड सोसल वेलफेयर डिपार्टमेंट) की स्थापना किये थे। अपने स्थापना काल से आज तक उनके द्वारा स्थापित यह विभाग भारतीय उद्योगों को, कारखाओं को हज़ारों हज़ार दक्ष अधिकारियों को उत्पन्न किया जो कभी भी उन उद्योगों में, कारखानों में श्रमिकों और प्रबंधन के बीच तनाब नहीं होने दिया।

सत्तर के दशक की बात है। मेरे बाबूजी श्री गोपालदत्त झा (श्री गोपालजी) पटना के नोवेल्टी एंड कंपनी (प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता) में बहुत ही छोटे मुलाजिम के रूप में कार्य करते थे। सब्जी बाग के सामने स्थित पोस्ट ऑफिस से नित्य डाक लाना, डाक द्वारा किताब या अन्य सामग्री प्रेषित करना, बैंक का कार्य करना, पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन शिक्षकों, लेखकों के दफ्तर अथवा घर पर किताबों का प्रूफ पहुँचाना/लाना और अन्य छोटे-छोटे कार्य का संपादन उनके रोजमर्रे काम था। उससे भी एक महत्वपूर्ण कार्य था किताबों के बण्डल को उत्तर बिहार के पुस्तक विक्रेतों को आगे रेल मार्ग द्वारा भेजने के लिए उन्हें पहले महेन्द्रू घाट से नित्य पानी वाला जहाज की सेवा से भेजना।

महेन्द्रू घाट से बण्डल पहलेजा घाट पहुंचा था, फिर आगे ट्रेनों से उसकी यात्रा शुरू होती थी । उन दिनों उत्तर बिहार को पटना से जोड़ने के लिए गंगा में बच्चा बाबू का जहाज ही एक मात्र साधन था। जाड़ा हो, गर्मी हो, बरसात हो, पटना की सड़कों पर तापमान चाहे आकाश छूता हो या पाताल, बाबूजी नित्य अपरान्ह काल 4 बजे किताबों का बण्डल लेकर महेन्द्रू घाट के लिए रवाना होते थे और मैं उनके पिछलग्गू।

छोटे-छोटे दो-तीन बंडल होने पर वे कन्धा पर उठाकर चल देते थे। बहुत अधिक बण्डल होने पर, या अधिक वजन होने पर रिक्शा ले लेते थे। उन दिनों नोवेल्टी से महेंद्रू घाट का किराया अधिकतम चालीस पैसे और दूरी दो किलोमीटर से अधिक नहीं। देखते ही देखते मखनियां कुआं, गोविन्द मित्र रोड, पटना मार्किट पार कर जैसे ही अलंकार ज्वेलर्स से आगे सब्जीबाग की ओर बढ़ते थे, दाहिने हाथ पीरबहोर थाना के दाहिने दीवार के साथ मुड़कर महेन्द्रू घाट के लिए चल देते थे। यह रास्ता महेन्द्रू घाट परिसर में ही प्रवेश करता था।

उन दिनों सड़कों पर साईकिल, रिक्शा और पैदल चलने वालों की ही जनसँख्या अधिक होती थी। सड़क पर वाहन वाले, मसलन स्कूटर वाले, मोटर साईकिल वाले, अम्बेस्डर वालों की संख्या अप्ल्संख्यक में थी। हाँ, तांगे वाले और टमटम वाले भी सड़कों पर अपनी उपस्थिति बनाये रखते थे। बीच बीच में टेंपो वाले दीखते थे। बाबूजी कहते थे कि सन 1950 में भारती भवन, जो आज का एक मशहूर प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता है, इसी महेंद्रू घाट के इलाके से एक गुमटी से प्रकाशन की दुनिया में प्रवेश किया था।
मैं बाबूजी के साथ ऊँगली पकड़कर चलता रहता था। जीवन का महत्व और जीवन का रहस्य दोनों का पाठ पढ़ते रहता था, सीखते रहता था। इस ब्रह्माण्ड में एक अनपढ़, अशिक्षित माता-पिता भी अपने बच्चों के लिए विभागाध्यक्ष – कुलपति – कुलाधिपति – शिक्षाविद – शिक्षामंत्री से कम नहीं होते हैं। यह बात पढ़े लिखे माता-पिता नहीं समझेंगे।

बाबूजी औसतन रविवार को छोड़कर, महीने में कम से कम बीस दिन आवक-जावक 40-50 पैसे, यानी एक रूपया बचाने के लिए कंधे पर किताबों का बण्डल रखकर कोई 2 किलोमीटर का रास्ता पैदलतय करते थे। मैं टेनिया जैसा, कंधे में अपनी लम्बाई का कपड़े का एक झोला लिए,बाबूजी का कभी बाएं तो कभी दाहिने तरफ कमीज पकड़े, कदम ताल करते उनके पदचिन्हों पर चला करता था।उन दिनों माँ गाँव में रहती थी।

बाबूजीजबशाममेंदिन-भर के खर्च का हिसाब मालिक के सामने रखते थे, तो उसमें “रिक्शा किराया”जुड़ा होता था और एक श्रेणी था“ अन्य खर्च” जिसमें चाय और मेरे लिए बिस्कुट, लवणच्युस सम्मिलित होता था। यदि देखा जाय तो इस तरह वे महीने में 22 से 25 रुपये का बचत करते थे। यह बात मालिक (श्री तारा नन्द झा) तो जानते ही थे, उनके घर के सभी सदस्य भी बाद में अवगत हो गए थे; खासकर उस दिन से जब मालिक की पत्नी श्रीमती जमुना देवी (अब दिवंगत) और उनके बड़े बेटे नरेंद्र कुमार झा की पत्नी श्रीमती इन्दु देवी हम दोनों बाप-बेटे को रंगे हाथ महेन्द्रू घाट के बाहर सब्जी बाजार में पकड़ीं जब बाबूजी अपने कंधे पर बंडल उठाये थे । खैर।

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कहते हैं एक पिता, चाहे गरीब का हो या जमींदार का, राजा-महाराजाओं का, अपने संतानों के लिए ‘ब्रह्माण्ड’ होता है। धनाढ्यों के पिता-संतान के बारे में जो सुना और जो विगत पांच दशकों देखा, उससे मन में एक सवाल उत्पन्न हो रहा है और उस प्रश्न का उत्तर सदैव ढूंढ रहे हैं – क्या धनाढ्यों का, जमींदारों का, राजा-महाराजाओं का, या यूँ कहें कि जिस संतान को अपनी जीवन-रेखा लिखने के लिए खुद कोई मसक्कत नहीं करना पड़े, पसीने को आँखों से नहीं निकालना पड़े, पिता और पुरखों की अपार संपत्ति प्राप्त हो – क्या वैसे पिता और संतान का संवेदनात्मक, भावात्मक सम्बन्ध वैसा ही होता है जैसे एक निर्धन का ? मेरा मानना है ‘नहीं’ । खैर।

बाबूजी कहते थे:“किताब का वजन बहुत भारी नहीं होता।बशर्ते तुम किताब को भारी नहीं समझो। यह सिद्धांत किताबों की खरीद-बिक्री से अधिक किताबों को पढ़ने-पढ़ाने में लागु होता है।तुम जैसे ही किताब को अपने जीवन से, अपने भविष्य से भारी मान लोगे; वैसे ही तुम उन अनन्त-लोगों की लम्बी कतार में स्वयं को खड़े पाओगे, जहाँ तुम्हे अपनी परछाई भी नहीं दिखेगी।तुम्हारी अपनी ही परछाई लोगों की परछाई के साथ गुम हो जाएगी।”

पटना के अशोक राजपथ पर अपने कंधे पर किताबों का बोझ उठाये और प्रत्येक अगले कदम पर जीवन का पाठ पढ़ाते बाबूजी कहते थे : “मैं इस किताब के बण्डल को अपने कंधे पर लेकर तुम्हारे साथ इसलिए नित्य चलता हूँ ताकि तुम्हे किताब का वजन मालूम हो सके, तुम्हे किताब का महत्व मालूम हो सके। इसलिए किताबों को सूंघने की आदत डालो। कागज का गंध एक बार अगर नाक के रास्ते मष्तिष्क में जगह बना लिया, मैं समझूंगा मेरे साथ तुम्हारा आना-जाना सार्थक हो गया। मैं उस दिन तक नहीं रहूँगा, लेकिन तुम्हारे किताबों के प्रत्येक पन्नों में मैं स्वयं को पाउँगा, मुझे बहुत ख़ुशी होगी।”

नोवेल्टी में किताबों का, खासकर प्राथमिक और माध्यमिक किताबों का अम्बार इसलिए भी था क्योंकि जब बिहार स्टेट टेक्स्ट बुक कमिटी की पैदाइश हुई ताकि बिहार के स्कूली बच्चों को सस्ते दामों पर और आसानी से किताबें उपलब्ध हो सके, तब नोवेल्टी एण्ड कम्पनी एक सिस्टर कन्सर्न नोवेल्टी इंटरप्राइजेज खोला था और बिहार के‌ 9 वितरकों का भी वह सबसे पहला वितरक था। अन्य वितरक थे: रांची (सुबोध ग्रंथमाला)चक्रधरपुर (चाईबासा), हजारीबाग (खंडेलवाल बुक डिपो व ‌माध्यमिक शिक्षक संघ), जमशेदपुर सेन बुक स्टोर्स / अग्रवाल बुक डिपो), भागलपुर (भारत बुक डिपो),धनबाद (विद्या भवन), पटना(बिहार स्टोर्स) ।

इस बीच टेक्स्ट बुक कमेटी की सभी पुस्तकों की टिप्पणी (नोट) के लिए सन 1970 में नोवेल्टी एक और सिस्टर कंसर्न खोला ‘छात्रोपयोगी प्रकाशन’ और इस प्रकाशनके माध्यमसे सुबोध ग्रंथमाला, राॅची के मालिक स्व.प्रेम नारायण शर्मा को एक तरहसे बतौर सी एण्ड एफ अधिकारी बनाकर उनका भी विकास किया गया। छात्रोपयोगी प्रकाशनने बहुतों को रोजगार दिया। छात्रोपयोगी प्रकाशन की पुस्तकों का प्रकाशन नोवेल्टी कलर प्रिंटिंग वर्क्स में होता था जो नया टोला में धरहरा कोठी गली में अवस्थित था। उस प्रेस को श्री गणनाथ मिश्रा चलाते थे। गणनाथ मिश्रा की खजांची रोड में जनता होमियो हॉल दवा दूकान के सामने एक तबला, हारमोनियम की भी दूकान थी, जो उन दिनों उस क्षेत्र का एकलौता प्रतिष्ठान था ।

लेकिन विश्वविद्यालय क्षेत्र में होने के साथ-साथ किताबों की बढ़ती मांग के मद्दे नजर ‘तबले’ का थाप बंद हो गया और प्रकाशन की गति तीब्र करने के लिए अजन्ता प्रेस खुला। समय बदल रहा था और किताबों, कागजों की दुनिया में भी बदलाव आ रहा था। इधर पटना कालेज भवन की दीवारों पर, बॉउंड्री वालों को कहीं सफ़ेद तो कहीं लाल किया जा रहा था। परिसर में छात्र-छात्राओं की संख्या, प्राध्यापकों की संख्या और गुणवत्ता में भी परिवर्तन हो रहा था। उधर नोवेल्टी ने कागज डिस्ट्रीब्यूटर टीटागढ़ पेपर मिल्स के सी एण्ड एफ एजेंसी रामनारायण-बद्रीदास के मालिक पुरुषोत्तम बाबू को एक और फर्म‌ ‘नोवेल्टी इंटरप्राइजेज (पी)’ खोलकर टीटागढ़ के बाद हिंदुस्तान के सबसे बड़े पेपर मिल ईस्ट एंड वेस्ट पेपर इंडिया लिमिटेड, बम्बई की पैदाइश पर मालिकाना हक़ दिया। यह सम्भतः 1968-1969 का कालखंड था।

उस ज़माने में पटना में कुकुरमुत्तों की तरह प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता नहीं पनपे थे। चाहे स्कूली छात्र-छात्राएं हों या कालेज के, विश्वविद्यालय के मूल किताब पढ़ते थे। अपने-अपने कालेजों में सभी कक्षाओं में शत -प्रतिशत उपस्थिति देते थे। पुस्तकालयों में खचाखच भीड़ होती थी। इस दृष्टि से पटना कालेज का पुस्तकालय – जिसके पुस्तकालय अध्यक्ष श्री महेंद्र प्रसाद जी थे – हमेशा अब्बल रहता था। जिस तरह उत्तर बिहार के प्रमुख शहरों, मसलन अररिया, बेगूसराय, मधेपुरा, समस्तीपुर, दरभंगा, सीवान, सुपौल, सहरसा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी मुंगेर, हाजीपुर इत्यादि शहरों में पटना से किताबें प्रचुर मात्रा में जाते थे; वहीँ उन शहरों से पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं पटना विश्वविद्यालय में नामांकन के लिए आते थे।

पटना कॉलेज में नामांकन होना अपने आप में एक सामाजिक प्रतिष्ठा की बात होती थी। नोवेल्टी के अलावे पुस्तक भण्डार, भारती भवन, लक्ष्मी पुस्तकालय, मगध राजधानी प्रकाशन, साइंटिफिक बुक कंपनी, मोतीलाल बनारसी दास, राजकमल प्रकाशन, स्टूडेंट्स फ्रेंड्स, भी किताब भेजा करते थे।

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#बहरहाल, सत्तर के दशक में जिस स्थान पर श्रीमती जमुना देवी और श्रीमती इंदु देवी हम दोनों बाप-बेटे को देखी थी, जब बाबूजी अपने कंधे पर किताबों का बण्डल लिए महेन्द्रू घाट पार्सल करने जा रहे थे और मैं एक छोटा बच्चा अपने पिता की ऊँगली पकड़कर जीवन का मार्ग प्रशस्त कर रहा था; अस्सी के दशक में उसी स्थान से सौ कदम आगे गंगा के किनारे एक बार फिर दोनों सम्मानित महिलाओं से मुलाक़ात हुई। उस दिन बाबू जी नहीं, बल्कि माँ के साथ मैं था और स्थान था पटना विश्वविद्यालय में ‘लेबर एंड सोशल वेलफेयर डिपार्टमेंट के संस्थापक, पटना कालेज के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व-प्राध्यापक, वरिष्ठ अर्थशात्री, टिस्को के अवकाश प्राप्त निदेशक और हथुआ राज द्वारा स्थापित, संरक्षित और संचालित ‘हथुआ मेटल्स एंड ट्यूब्स लिमिटेड’ के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक सम्मानित प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह का आधिकारिक आवास – हथुआ हॉउस।

उस दिन मैं पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-दी इण्डियन नेशन समाचार पत्र समूह में पत्रकारिता की नीचली सीढ़ी पर अपना पैर जमा लिया था और पटना विश्वविद्यालय से अर्थशात्र विषय में ही स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त कर परीक्षा-परिणाम की प्रतीक्षा में था। कुछ सप्ताह बाद परीक्षा परिणाम भी निकला और मुझे मेरा नाम विश्वविद्यालय सूचना पट्ट पर आठवें स्थान पर दिखाई दिया।

प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह मधुबनी ड्योढ़ी के राजा परिवार से थे। शिक्षा से समुद्र की गहराई के बराबर लगाब था। जिस दिन उन्हें यह मालूम हुआ कि मैं अब आर्यावर्त – इण्डियन नेशन अख़बार में प्रूफ-रीडर की नौकरी की शुरुआत किया हूँ, घर को संरक्षण मिलेगा, पढ़ने में अब कोई दिक्कत नहीं होगी, वे बहुत खुश हुए थे। उनसे मुलकात हम जैसे लोगों के लिए मुश्किल तो अवश्य था, लेकिन नामुमकिन नहीं था। उनकी पत्नी (दाई जी) उनकी बेटी श्रीमती माया झा, पुत्र श्री इंदुधारी सिंह, बिंदुधारी सिंह, बड़ी बहु श्रीमती रीता सिंह मुझे ही नहीं, मेरे सभी भाई-बहनों को बहुत स्नेह करती थीं। आज भी उन लोगों का प्यार और सम्मान बरकरार है।

प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह की बहुत इक्षा रहती थी की समाज का प्रत्येक बच्चा शिक्षित हो, चाहे वह किसी भी जाति, समुदाय का हो। उसके पिता अथवा अभिभावक किसी भी प्रकार का कार्य कर जीवन यापन करता हो। वे कहते थे कि आज अथवा कल, भारतीय अथवा विदेशी मुद्राओं की कीमत चाहे कितनी भी अधिक हो जाए, चाहे कितना भी कम हो जाए, समाज में – चाहे सभ्य हो अथवा असभ्य – शिक्षा और शिक्षित व्यक्ति का मोल कभी कम नहीं होगा। एक धनाढ्य (परन्तु अशिक्षित) व्यक्ति जब भी अपने आपको देखेगा, उसका सर हमेशा एक शिक्षित व्यक्ति के सामने झुका रहेगा चाहे वह शिक्षित व्यक्ति समाज के किसी भी निम्न वर्ग का ही क्यों न हो।

अपने जीवन काल में उन्होंने न जाने कितने गरीबों को, निरीहों हो, असहायों को शिक्षा प्राप्त करने में, शिक्षा के माध्यम से अपने जीवन को सफल बनाने में मदद किए हैं। यह बात अलग है कि आज भले ही मदद प्राप्त कर्ता उन बातों को अपने ह्रदय में दफ़न कर दिए हों। लेकिन मुझे सार्वजानिक रूप से यहाँ लिखने में तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है कि प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह के सम्पूर्ण परिवार का हम लोगों पर कितना उपकार था, आज भी है। आखिर ‘शिक्षा का महत्व भी तो तभी है जब हम सच लिखें भी।’

स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त करने के पश्चात प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह पटना कालेज के अर्थशात्र विभाग में प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवा की शुरुआत किये। देश आज़ादी की ओर उन्मुख था। भारत के लोगों, युवाओं के साथ-साथ वे भी स्वतंत्र भारत में होने वाले सूर्योदय और आकाश की लालिमा को देख रहे थे, अनुभव कर रहे थे। तभी उनके मन में एक ख्याल आया कि आज़ाद भारत में युवकों के लिए, युवतियों के लिए रोजगार के अवसर तो खुलेंगे ही, देश में उद्योगों की स्थापना तो होगी ही – अगर उन युवकों को एक विशेष दिशा में, विशेष विषय में दक्ष किया जाय तो शायद अन्य कामगारों की तुलना में प्रतिष्ठान में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी, उद्योगों का भी विकास होगा और देश का विकाश तो स्वतः होना ही है।

दशकों पहले उनकी पत्नी दाई जी कही थी: “वे चाहते थे कि समाज में शिक्षित व्यक्तियों का भरमार तो हो ही, उनमें दक्षता की किल्लत नहीं हो। जिस विषय में वे पारंगत हैं, उस विषय का वास्तविक ज्ञान होना भी नितांत आवश्यक है। इसलिए वे चाहते थे कि पहले खुद ज्ञान अर्जित करूँ, उसे अमल में लाएं और फिर उस दिशा की ओर युवाओं को भी उन्मुख करें। पटना विश्वविद्यालय का लेबर एंड सोशल वेलफेयर डिपार्टमेंट उसी सोच का परिणाम था।”

पटना कॉलेज से ‘शिक्षा के लिए छुट्टी” लेकर प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह अमेरिका गए जहाँ उन्होंने ‘श्रमिकों और सामाजिक कल्याण’ पर बेहतर से बेहतर ज्ञान अर्जित किये।

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उनकी बहु, श्रीमती रीता सिंह जो आज जमशेदपुर में एक प्रतिष्ठित संस्था में कार्यरत हैं, कहती है: “अमेरिका जाने के पीछे दादा जी (ससुर) का शायद यह मकशद था कि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान, या फिर प्रथम विश्व युद्ध और उसके भी पहले, भारत से लाखों लोगों का प्रवास हुआ था विश्व के अन्य देशों में, खासकर श्रमिकों के रूप में। सभी प्रवासित यह चाहते थे कि आने वाली पीढ़ियां अर्थ से, ज्ञान से कमजोर नहीं हो। वे विदेशों में रहकर अपने जीवन में, परिवार के जीवन में विभिन्न प्रकार के बदलाव लाये। अनेकानेक प्रयोग किये । नौकरी से व्यापार तक, चाहे किसी भी तरह का काम हो, सभी में मन लगाकर कार्य किये, अनुभव प्राप्त किये और फिर अपने-अपने जीवन में बदलाव लाये। मुझे लगता है दादाजी को यह बात बहुत प्रभावित किया। वे इस बात को ह्रदय से लगाए होंगे की एक व्यक्ति अपनी मेहनत, सोच और शिक्षा से अपने जीवन में परिवर्तन ला सकता है। वे कालेजों में, शैक्षिक संस्थाओं में युवाओं की एक नई पीढ़ी तैयार करना चाहते थे जो आज़ाद भारत में तत्काल आवश्यकता होने वाली थी। पटना विश्वविद्यालय का लेबर एंड सोशल वेलफेयर डिपार्टमेंट की स्थापना दादाजी की उन्ही सोच का परिणाम था।

प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह सन 1947 में, जब देश में आज़ादी की क्रांति अपने शिखर पर थी और एक नए सवेरा का उदय होने वाला था, भारत के युवाओं को ध्यान में रखकर दो वर्ष के लिए अमरीका गए थे। दो वर्ष पर उच्च शिक्षा प्राप्त कर सं 1949 में जब भारत वापस आये तो सबसे पहले अपने कॉलेज में पुनः शिक्षण कार्य प्रारम्भ किये। उस समय श्री सी पी एन सिन्हा पटना विश्वविद्यालय के कुलपति थे। वे पहली जनवरी, 1945 से जून 20, 1949 तक कार्यालय में थे। श्री सीपीएन सिन्हा से पूर्व डॉ सच्चिदानंद सिन्हा पटना विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उन दिनों शैक्षिक संस्थाओं में राजनीतिक डंडे नहीं चलते थे। शिक्षकों और गुरुजन का बहुत महत्व था। वापस आने के बाद प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह बिहार में श्रमिकों के हितों और उनके कल्याण से सम्बंधित अध्ययन के लिए पटना विश्वविद्यालय में एक नए विभाग खोलने के महत्व के बारे में चर्चा किये – श्रम और समाज कल्याण विभाग (लेबर एंड सोशल वेलफेयर डिपार्टमेंट)। प्रोफ़ेसर सीपीएन सिन्हा सहित पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन शैक्षिक अधिष्ठाता प्रोफ़ेसर अमृतधारी सिंह की बातों को बहुत सी महत्व दिया। सभी इस बात पर सहमत थे कि आने वाले समय में बिहार ही नहीं, देश के अन्य राज्यों में औद्योगीकरण के साथ ऐसे दक्ष अभ्यर्थियों की जरुरत होगी जो श्रमिकों और प्रबंधन के बीच एक मजबूत कड़ी के रूप में कार्य करे।

प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह की बड़ी बेटी श्रीमती माया झा कहती हैं: “ददाजी (अपने पिता को कहती थीं) एक जमींदार परिवार से होने के बाबजूद, अन्तः मन से एक शिक्षित, संवेदनशील श्रमिक थे, जो अपने समाज में, अपने वर्गों (श्रमिकों) के लोगों के हितों की रक्षार्थ, उनके कल्याण के प्रति हमेशा प्रतिबद्ध रहते थे। राजा-महाराजाओं की किल्लत उस ज़माने में नहीं थी। बिहार में जमींदारों का आभाव नहीं था। रैयतों की किल्लत नहीं थी। दुर्भिक्ष था तो पर्याप्त शिक्षा की, सकारात्मक सोच की, युवाओं और युवतियों का सार्थक मार्गदर्शन की – और ददाजी में वह सभी बातें कूट-कूट कर भरा था। यही कारण है कि उन दिनों कोई भी व्यक्ति पटना विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर स्तर पर श्रम और समाज कल्याण विभाग खोलने में आपत्ति नहीं किये। और अंततः आज़ाद भारत के प्रथम वर्षगांठ से पहले उनका विभाग खुल गया। आज 74-वर्ष बाद भी उनका नाम इस विभाग से जुड़ा है।”

पहली अक्टूबर, 1917 से आज तक, यानि विगत 105 वर्षों में पटना विश्वविद्यालय में अब तक 53 कुलपतियों का आगमन हुआ। डॉ के के दत्ता, जो पटना विश्वविद्यालय के 15वें कुलपति थे, से अब तक के कुलपतियों को जानता हूँ – सत्तर-अस्सी के दशक वाले कुलपति मुझे भी जानते थे – कुछ नाम से, कुछ निजी तौर पर। लेकिन जब भी सीपीएन सिंह का नाम आएगा, प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह का और उनके श्रम और समाज कल्याण विभाग का नाम आएगा ही।

बहरहाल कुछ वर्ष पटना विश्वविद्यालय में अध्ययन-अध्यापन करने-करने के बाद प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह जमशेदपुर (टिस्को) आ गए जहाँ वे शीर्षस्थ पद तक (निदेशक) पहुंचकर सन 1980 में अवकाश प्राप्त किये। अवकाश के बाद वे हथुआ मेटल्स एंड ट्यूब्स लिमिटेड में अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक बने। प्रोफ़ेसर अमृत धारी सिंह कोई तीस वर्ष पहले सं 1992 में अंतिम सांस लिए (मेरे पिता का देहांत भी इसी वर्ष हुआ था) । उनकी पत्नी उनके देहावसान के 18 साल बाद 2010 में उनके पास पहुंची (मेरी माँ भी 18 वर्ष प्रतीक्षा करने के बाद 2010 में मृत्यु को प्राप्त की) ।

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