पटना कालेज @ 160 : अपने दशकों पुराने किसी भी परिचित को देखकर पटना कालेज की मिट्टी, नोवेल्टी एंड कंपनी की सीढियाँ जीवंत हो उठती हैं (8)

आमने-सामने : स्कुल और कालेज। फोटो : राहुल मिश्र

आज अपने दशकों पुराने किसी भी परिचित को देखकर पटना कालेज की मिट्टी, नोवेल्टी एंड कंपनी की सीढियाँ, दीवारें, यहाँ की मिट्टी, कुर्सियां, बैठकी मानो जीवंत हो उठती हैं, सम्वेदना की पराकाष्ठा पर पहुँच जाती हैं – जैसे एक दूसरे से बातचीत करती हों – मेरे जन्म के तीन साल बाद, यानी 1962 में बिरेन नाग के निर्देशन में हेमंत कुमार एक फिल्म बनाये थे। नाम था “बीस साल बाद।” इस फिल्म में वहीदा रहमान, बिश्वजीत चटर्जी, मनमोहन कृष्णा, असित सेन मुख्य किरदार की भूमिका निभाए थे । उस ज़माने में शायद ”बीस साल बाद” पहली फिल्म थी जिसकेनिर्माता, निर्देशक, गीतकार और गायक/गायिका को फिल्फेयर पुरस्कार से नबाजा गया था।आज छः दशक बीत गए ”बीस साल बाद” फिल्म के बड़े-बड़े पोस्टरों को सिंनेमा घरों मेंचढ़े और उतरे। लेकिन आज भी भारत के हरेक तबके के लोगों के होठों पर, चाहे मर्द हों या महिला, बच्चे हों या बूढ़े, उस फिल्म के कम से कम तीन बेहतरीन गीत बार बार आते हैं। जैसे गीतकार शकील बदायुनी साहब कल ही लिखें हों और लता मंगेशकर, हेमंत कुमार कल ही गीत को गाये हों ।

हमें ख़ुशी है कि वहीदा जी और बिश्वजीत बाबू आज स्वस्थ हैं और हमारे बीच हैं। पटना कॉलेज के 160 वर्ष के उपलक्ष में मैं इस कहानी के माध्यम से शकील बदायुनी (20 April 1970), हेमंत कुमार (26 सितम्बर, 1989), असित सेन (25 August 2001) और लता मंगेशकर (6 February 2022) को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ क्योंकि “सपने सुहाने लड़कपन के – मेरे नैनो में डोले बहार बन के”, जरा नजरों से कह दो जी निशाना चूक न जाए” और “बेक़रार करके हमें यूँ न जाइये आपको हमारी कसम लौट आइये) पटना कालेज में ही नहीं, पटना विश्वविद्यालय में ही नहीं, भारत के सभी शैक्षिक संस्थानों में जहाँ “प्यार” जीवित है, चाहे “निर्जीव पाठ्य-पुस्तकों” से हो या “सजीव आत्मा” से। क्योंकि हमारा शैक्षिक संस्थान निर्जीव होते हुए भी हमें आत्मबोध कराता है। अब सवाल यह है कि हम सजीव होते हुए भी ईंट-पत्थर से बनी उस निर्जीव संस्थान को कितना सम्मान देते हैं, याद रखते हैं – अपने अंतिम सांस तक।

हम भाग्यशाली हैं कि जहाँ हमने माध्यमिक शिक्षा ग्रहण किया (टी के घोष अकादमी, पटना), हमारा महाविद्यालय उस प्रवेश द्वार के सामने स्थित था, आज भी है और कल भी रहेगा। यह अलग बात है कि हमारा विद्यालय, हमारे महाविद्यालय से 19 वर्ष छोटा है। होना भी चाहिए क्योंकि यहाँ हमें माध्यमिक तक शिक्षा मिलती थी, तो छोटा भाई; और पटना कालेज में उच्चतर शिक्षा प्राप्त होती थी, इसलिए बड़ा भाई। पटना ही नहीं, संभवतः बिहार और भारत में ऐसा शायद ही कोई स्थान होगा जहाँ विद्यालय और महाविद्यालय आमने-सामने एक दूसरे को अपने स्थापना काल से निहार रहे हों। कल ही की तो बात थी अपने विद्यालय के प्रवेश द्वार पर खड़ा था और सोच रहा था कि दोनों संस्थाएं एक-दूसरे से क्या-क्या बात करती होंगी। पहला सवाल आया कि शायद वे एक दूसरे से पूछती होंगी की तुम्हारे संस्थान से उत्तीर्ण छात्र – छात्राएं परिसर से बाहर निकलने के बाद कभी विद्यालय/महाविद्यालय के दीवारों से, मैदाओं से, कक्षाओं से, ब्लेक बोर्डों से हाल-चाल पूछने ये या नहीं ? इस प्रश्न को मन में लेते ही आखें अश्रुपूरित हो गयी क्योंकि 99.5 फीसदी मामलों में उत्तर “नकारात्मक” ही होता होगा। खैर। आज समय है कि हम एक बार स्वयं से पूछें। खैर।

पटना कॉलेज के स्थापना काल से न जाने कितने लाख छात्र-छात्राएं शिक्षा ग्रहण कर यहाँ से निकले होंगे अपने-अपने जीवन के निर्माण में। लेकिन पटना कॉलेज का एक छात्र अपने जीवन के अंतिम सांस तक पटना कॉलेज की दीवारों से खुद को अलग नहीं कर सके। यही कारण है कि स्वयं को किताबों की दुनिया में समर्पित कर अपना रिश्ता पटना कॉलेज से, यहाँ के छात्र-छात्राओं से, प्राध्यापकों से, गैर-शैक्षिक कर्मचारियों से जोड़े रहे। और जब मैं अपने पिता के पास पटना आया तो उस समर्पित व्यक्ति के सानिग्ध में अपने पिता को देखा।

पटना कालेज के पत्र संख्या 557 के अनुसार, जो 12 अप्रैल, 1944 के लिखा गया था, पटना कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य हसानन्द राधा कृष्णा बठेजा लिखते हैं: “This is to certify that Tara Nand Jha (of 1st year class) hasbeen a student of this college since June 1943 and has during this periodprosecuted studies for the I.A. Examination. He bears good moralcharacter and his conduct has been satisfactory. His application in his studieshas been satisfactory. He took part in theextra-curricular activities of the college.”

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एक साल बाद, यानी 2 मई, 1945 को पटना कॉलेज के एथलेटिक क्लब के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर एस. के. घोष लिखते हैं: “I am glad to certify that Mr. T. N. Jha has been a student of mycollege for two years and was a prominent figure in the Athletic Club of the college.He happened to be one of the regular players in thefirst eleven of the college football team taking anactive part in the Annual sports of the college. He is really a very goodsportsman with smart and healthy habits. I wish him success in life.”

समय बदल रहा था। तारा बाबू की मेहनत और विश्वास रंग लाने लगी थी। पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के बैचलर क्वाटर्स के ठीक सामने दो-तल्ला का एक मकान खरीदकर आ गए। इस दो मंजिले मकान में कुछ वर्ष दूकान चलाई गई थी। मैं उस मकान से अपनी जीवन यात्रा अपने पिता, ताराबाबू, उनके बेटा-बेटियों के परिवार के बीच किताब की सुगंध को सूंघते जीवन यात्रा शुरू किया था। साल सं 1965 था। अगले वर्ष 1966 के जनवरी महीने से पुराने को मकान तोड़ना प्रारम्भ हो गया था। हम सभी उस स्थान से पीछे वली मंजिल (बेगम साहेब) स्थित एक गैरेज में आ गए थे।

नोवेल्टी उसी गैरेज में चल रहा था और हम अपने पिता के साथ उस गैरेज के बगल एक छोटे से कमरे में रहता था। तारा बाबू बहुत ही अनुशासित व्यक्ति थे, पटना कॉलेज के प्रशासन की तरह। कोई 12 महीने के भीतर तारा भवन बन कर तैयार हो गया। पूरा मकान सीमेंट के रंग का और बॉर्डर मैरून रंग का। उस ज़माने में वह एकलौता मकान था उतना ऊँचा। फिर उसी मकान में नोवेल्टी ला हाउस 1967 में ही खोला गया और वृहस्पतिवार 4 जनवरी 1968 को पटना लाॅ जर्नल रिपोर्ट्स PLJR का उद्घाटन करवाया गया। नोवेल्टी लाॅ हाऊस से कानूनी पुस्तकें भी प्रकाशित की गई थी।‌

उन दिनों पटना अशोक राज पथ के बाएं तरफ पटना विश्वविद्यालय के कॉलेजों, जैसे पटना कालेज, साइन्स कालेज, मेडिकल कॉलेज का पिछले बॉउंड्री गंगा के किनारे समाप्त होता था। सम्पूर्ण इलाक़ा खुला-खुला था। पटना कालेज मुख्य द्वार से कोई दो सौ कदम आगे बाएं तरफ अशोक राज पथ से नीचे निकलती थी खजांची रोड, जो जो अशोक राज पथ के समानांतर बारी पथ से मिलती थी। इसी बारी पथ (अब नया टोला) पर जहाँ खजांची रोड बारी पथ से मिलती थी, बाएं हाथ पर नोवेल्टी स्टेशनर्स दूकान थी। यह दूकान, आज की काजीपुर आवासीय मोहल्ला में प्रवेश लेने वाली गली के ठीक सामने स्थित नालंदा ब्लॉक सेन्टरथी।

आज की पीढ़ी शायद खजांची रोड का भारत के राजनीतिक मानचित्र पर क्या महत्वहै, नहीं जानते होंगे। इसी खजांची रोड के बीचो-बीच (आधी दूरी अशोक राज पथ और आधीदूरी बरी पथ) दाहिने तरफ एक दो माजिला मकान पश्चिम बंगाल के द्वितीय मुख्य मंत्री श्री विधान चंद्र रॉय का जन्मस्थान है।

विधान चंद्र रॉय का जन्म 1 जुलाई, 1882 को पिता प्रकाश चंद्र रॉय और माता अघोर कामिनी देवी के घर में हुआ था। आज भी वह स्थान बिधान चंद्र रॉय की माता “अघोर” को समर्पित है और वहां एक बच्चों का विद्यालय है – अधोर शिशु विद्या मंदिर। विधान चंद्र रॉय की प्रारम्भिक शिक्षा पटना के अशोक राज पथ पर स्थित, या यूँ कहें कि आज के नोवेल्टी एंड कंपनी दूकान से कोई पांच सौ गज की दूरी पर स्थित टी के घोष अकादमी और पटना कॉलेजिएट स्कूल में 1897 तक हुआ था। बाद में, उन्होंने आईए प्रेसिडेंसी कालेज कलकत्ता से और बी ए (गणित में सम्मान के साथ) पटना कालेज से किये। श्री रॉय जनबरी 1948 से जुलाई 1962 तक कोई साढ़े बारह वर्ष तक पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री रहे।

बाबूजी कहते थे सन 1937-38 में नोवेल्टी स्टेशनरी को श्री जय नाथ मिश्र चलाते थे। श्री तारा बाबू उस समय, यानि 1940-41 से 1944-45 तक काॅलेज में पढ़ते थे। उन दिनों वे अपने नित्य के समय से न्यूनतम एक घंटा समय निकाल कर और अवकाश के दिनों 5 – 6 घंटा श्री जयनाथ बाबू को उनके कार्यों में सहयोग करते थे। तारा बाबू सं 1945 में स्नातक करने के बाद स्नातकोत्तर वर्ग में प्रवेश तो लिए, परन्तु, महज 5-6 महीना ही पढाई को आगे बढ़ा पाए।

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बारी पथ में ‘नोवेल्टी स्टेशनर्स’ की दूकान मकान के नीचे थी और ऊपर मालिक सपरिवार रहते भी थे। बाद में वह स्थान बिहार स्टोर्स (तेज नारायण झा) को दिया गया जब मालिक खजान्ची रोड स्थित राजा राम मोहन रॉय सेमिनरी स्कूल के सामने आ गए ।‌ कुछ समय बाद, यह स्थान उस ज़माने के विख्यात दशरथ बाइंडर को देकर नोवेल्टी स्टेशनर्स के साथ-साथ मालिक भी सपरिवार अशोक राज पथ पर स्थित खुदा बख्श खां लाइब्रेरी के सामने पेट्रोल पम्प के ठीक बगल में आ गए।

यह पेट्रोल पम्प उन दिनों अशोक राज पथ का लैंड मार्क था। कारण यह था की अशोक राज पथ पर गुलजार बाग़-पटना सिटी से लेकर गाँधी मैदान तक कोई भी पेट्रोल पम्प नहीं था। यह तत्कालीन वाहन मालिकों का एक पसंदीदा स्थान भी हुआ करता था। इसके दोनों तरफ दवाई की दूकानें हुआ करती थी और सामने बिहार यंग मैन्स इंस्टीच्यूट का दफ्तर। इस स्थान पर कुछ वर्ष रहने के बाद यहीं बगल में एक दूसरी दूकान सेन्ट्रल स्टोर्स वाले, जो लवणच्युस बेचते थे, को 1960 में दे दिया गया।

उस ज़माने में श्री जयनाथ बाबू लहेरियासराय पुस्तक भंडार में मैनेजर बनकर चले गए। उसी समय तारा बाबू ने उसे नोवेल्टी एण्ड कम्पनी बनाकर स्वयं पुस्तकों को By A Professor लेखक बनकर ‌लिखना प्रारम्भ किया। उन्होंने कई पुस्तकों का नोट भी लिखा था जो बहुत बिकता था। उदाहरण: फ्री इंडिया बुक फोर का नोट भी उन्होंने लिखा था जो प्रकाशित होने के बाद एक लाख से दो-तीन लाख प्रतियों तक बिकता था। इन्हीं प्रकाशनों ने नोवेल्टी एण्ड कम्पनी को बाद में एक हद तक अजन्ता प्रेस प्राइवेट लिमिटेड को बनाया जिसके दो प्रबन्ध निदेशक थे: एक जयनाथ मिश्र दूसरे श्री तारा बाबू के अपने चाचा थे।

बहरहाल, उस दिन मैं अपने पिता के पीछे गलियारे से दूकान में प्रवेश-द्वार के पास दरवाजे का ओट लिए खड़ा था। पिता की सम्पूर्ण शरीर हमारे शरीर को ढंके हुए था। हमारे बाएं हाथ पर तारा भवन के ऊपर वाले तल्ले पर जाने के लिए लिफ्ट था, जो अक्सर हां हम उम्र में बहुत छोटे होने के बाद भी चलते थे, पेट भरके लिए। लिफ्ट में चढ़ने वाले महानुभाव लोग मुझे अपने दाहिने-बाएं हाथों से सर पर हाथ रखते चले जाते थे। मेरी निगाह पिता के सामने कोई पांच फिर की दूरी पर बैठे उस भवन के स्वामी पर थी। वे दिखाई तो नहीं दे रहे थे, लेकिन उनकी आवाज उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को, शारीरिक हाव-भाव को आखों के सामने आईने के तरह साफ़-साफ़ दिखता था।

हमारे पीछे से गंगा छोड़ से आने वाली हवा जली दूध की खुसबू वाली चाय का सुगंध ला रहा था। दूकान पर जगना बैठा था और सामने फुटपाथ पर कई ग्राहक खड़े थे। कोई चाय की चुस्की ले रहे थे, तो कोई अपनी पाली की प्रतीक्षा में टुकुर-टुकुर उबलती चाय के वर्तन को देख रहे थे। मैं भी मालिक की बातों का, उनके मुख से निकलने वाले प्रत्येक शब्दों की प्रतीक्षा कर रहा था। मन ही मन सोच भी रहा था कि क्या होगा ?

मालिक बाबूजी को आवाज देकर बुलाये थे। इससे पहले वे मुझे दूकान में चहलकदमी करते देखे थे। वे बहुत ही मृदुल परन्तु कठोर व्यक्तित्व के मानव थे। अनुशासन उनके जीवन का अस्त्र था। समय के बहुत बहुत पावंद थे। घडी की सूई भी अपना समय दूकान में उनके प्रवेश से मिलती थी। बाबूजी वहीँ खड़े थे। मालिक अब तक सामने मेज पर रखे कुछ कागजातों को देख रहे थे। उन दिनों औसतन उनके मेज पर किताबों का प्रूफ रखा होता था जो वे खुद भी देखा करते थे। अचानक वे अपनी गर्दन उठाये, सामने बाबूजी खड़े थे। वे अपना दोनो हाथ आगे एक-दूसरे के ऊपर रखकर चुपचाप खड़े थे। बाबूजी के तरफ देखते और फिर अपनी आँखों को दाहिने-बाएं घुमाते, बाबूजी से पूछते हैं:

गोपालजी, आप अपने बच्चे को स्कूल में अब तक दाखिला नहीं कराया है? बाबूजी लम्बी साँसे लेते कहते हैं: नाम लिखाया था मालिक खजांची रोड में। लेकिन दो महीने से फ़ीस नहीं देने के कारण नाम कट गया। स्कूल में कुछ शिक्षक नगर निगम के विद्यालय में पढ़ने को कहा, यह बात उसे अच्छी नहीं लगी।” कुछ और बातें बाबूजी कह रहे थे। मालिक अपने दाहिने हाथ में पेन्सिल को घूमा रहे थे। बाएं हाथ का तलहथ्थी गाल पर था। वे टकटकी निगाहों से बाबूजी की बातों को सुन रहे थे। मैं मालिक और बाबूजी की बातों को सुन रहा था। दूकान में उपस्थित सभी लोग शांत थे। किसी भी कोने से चूं की आवाज नहीं आ रही थी। ऐसा लग रहा था की भगवान् कृष्ण अपने गलों पर हाथ रखकर, अपने चक्र को उंगलियों पर घुमा रहे थे। सम्पूर्ण वातावरण शांत था।

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इसी बीच मालिक अपने सामने रखे काले रंग के फोन के रिसीवर को उठाए। दाहिने हाथ की पहली उंगली से पांच अंकों को पांच बार घुमाए। दूसरे छोड़ से कुछ घंटी बजने के बाद आवाज आया। इससे पहले की दूसरे छोड़ वाले कुछ बोलते, मालिक कहते हैं: “हेल्लो !! आचार्यजी हैं क्या? मैं नोवेल्टी से तारा बाबू बोल रहा हूँ।” दूसरे छोड़ पर टी के घोष अकादमी के प्राचार्य ही थे। मालिक उनसे कहते हैं: “प्राचार्य जी, गोपाल झा को आप जानते ही हैं। उनका एक छोटा बच्चा है। उसे छठे वर्ग में प्रवेश दे देते तो उपकार होता।” फिर दोनों के बीच कुछ बातें हुई और बाबूजी को आदेश हुआ कल विद्यालय जाकर प्रवेश दिलाना। ख़ुशी तो उन्हें बहुत थी, मैं भी बहुत चहक रहा था। लेकिन मन में हिन्दमहासागर जैसा तूफ़ान उठ रहा था।

बाबूजी पैसा कहाँ से लाएंगे ? तभी मालिक अपनी जेब से 30 रुपये निकालकर मुस्कुराते बाबूजी के हाथ में दिए। दृश्य ह्रदय-विदारक था। ऐसा लग रहा था कि जीवन के इस युद्ध को किसी भी हालत में जीतना है और इसके लिए कृष्ण अंततः संकल्प ले चुके। बाबूजी धोती के खूंट से अपनी आँखों को पोछते जैसे ही पीछे मुड़े, मुझे देखकर बिलखने लगे और रो दिए। पिता-पुत्र एक दूसरे को देखते, समय के महत्व को समझते मालिक के तरफ देखते दृश्य से अदृश्य हो गए। साल था 1968 और मैं दूसरे दिन मैं बन गया टी के घोष अकादमी स्कूल का छात्र – कभी अंत नहीं होने वाली एक शैक्षिक जीवन की शुरुआत। इस जीवन की शुरुआत अशोक राज पथ, पटना का पांच-मंजिला मकान “तारा भवन” के नीचले तल्ले पर किताबों के विभिन्न गंधों से सुगन्धित नोवेल्टी एण्ड कम्पनी (प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता) से ही हुयी। बाबूजी कहते थे जीवन में जब भी मेहनतकश इन्शान का उदाहरण देने की आवश्यकता पड़े, मालिक का उद्धरण देना।”

मालिक के उपकार का दृष्टान्त देते एक रात बाबूजी कहे थे: “उस दिन मालिक तुम्हे विद्यालय में प्रवेश के लिए हमसे पूछे थे। कौन पूछता है किसी को ? वह भी जो अर्थ से दीन हो। हम आज के युग की शिक्षा ग्रहण नहीं किये हैं परन्तु जो शिक्षा मेरे पास है, उसका कद्र करना मालिक जानते हैं। इसलिए तुम्हारे प्रवेश के लिए हमें 30 रुपये दिए। तुम आधुनिक शिक्षा से खुद को सज्ज करना। आने वाले समय में अपने संतानों को भी तत्कालीन शिक्षा से सज्ज रखना। शिक्षा ही समस्त समस्यों का अंत है।

आधुनिक बिहार के प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं को शायद यान मालूम नहीं होगा कि पटना के मशहूर प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता नोवेल्टी एण्ड कम्पनी के संस्थापक उस ज़माने के एक बेहतरीन फुटबॉल खिलाडी थे। वे बेहतरीन गोलकीपर थे। उन्हें अपने जीवन में बहुत उम्दा अवसर मिला जीवन को संवारने के लिए। कभी पुलिस कस्टम विभाग से नियुक्ति पात्र आये तो कभी मुंसिफ़ मजिस्ट्रटेट के पद पर नियुक्ति हेतु। लेकिन जीवन तो किसी और तरफ जाना था, खासकर किताबों की खुसबू की ओर, किताबों से भारत के भविष्य को संवारने का जबाबदेही की ओर। वही हुआ, जो प्रारब्ध था।

कहते हैं इस दूकान और दूकान की पुस्तकों की छाया में पटना ही नहीं, अविभाजित बिहार के लाखों-करोड़ों छात्र-छात्राएं विद्यार्थी-अवस्था से वयस्क हुए, और फिर वृद्ध भी।जिस तरह नए किताब के सफ़ेद पन्ने समय और उम्र के साथ अपना रंग बदलते, एक गजब की खुसबू छोड़ते सफ़ेद से सीपिया रंग का हो जाता है, जो इस बात का गवाह होता है की उसने अपने रंग यूँ ही नहीं बदले, बल्कि लोगों को जीने का सबक सीखाते बड़ा हुआ है – पटना कॉलेज प्रांगण से और पटना के अशोक राज पथ पर स्थित नोवेल्टी की सीढ़ियों पर बैठकर न जाने कितने लोग महज मनुष्य से इन्शान बने और इतिहास में अपना नाम हस्ताक्षरित किये।

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