पटना कॉलेज@160:  कोई भी प्राध्यापक, व्याख्याता, प्राचार्य,  रजिस्ट्रार, कुलपति, चपरासी नहीं होंगे जो हरिहर की दूकान पर लस्सी नहीं पिये होंगे  (7)

हरिहर का ऐतिहासिक दूकान और पटना कॉलेज के लोगबाग - फोटो: राहुल मिश्रा 

पटना विश्वविद्यालय, पटना कॉलेज, साइंस कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज के कोई भी छात्र, कोई भी छात्राएं, कोई भी प्राध्यापक, कोई भी व्याख्याता, कोई भी प्राचार्य, कोई भी रजिस्ट्रार, कोई भी कुलपति, कोई भी चपरासी, कोई भी रिक्शावाला, कोई भी नेता, कोई भी पिछलग्गु, कोई भी पंडित, कोई भी पुजारी, कोई भी मुसलमान, कोई भी सिख, यानी पटना की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा, जो पटना सिटी से ऐतिहासिक गांधी मैदान जाने वाली उम्र से लम्बी सड़क – अशोक राजपथ – से यात्रा किये होंगे, कभी-न-कभी हरिहर की दूकान पर लस्सी अवश्य पिए होंगे और फिर मगही पान, बनारसी पान, मीठा पान अवश्य खाये होंगे ।

बनारस के बाबू बिश्वनाथ मुखर्जी साहेब कहते हैं कि बनारस में पान की खेती नहीं होती, लेकिन हज़ारों-हज़ार पान की दुकानें हैं। इसके अलावा ‘डलिया’ में बेचने वालों की संख्या कम नहीं है। प्रत्येक चार दुकान या चार मकान के बाद आपको पान की दुकानें मिलेंगी। मोहल्ला के मकानों, गलियों और सारे शहर की सड़कों पर पान की पीक की मानो होली खेली जाती थी। वैसे अब भी होती होगी, लेकिन सुनते हैं सिपाही जी तुरंत दण्डित कर देते हैं। वैसे यहाँ के दुकानदार अपनी दुकान में किसी किस्म की गंदगी रखना पसन्द नहीं करते, सिवाय अपने हाथ और कपड़ों को कत्थे के रंग से रंग कर रखने के, वह सभी सामान खूब साफ रखता है। आदमकद शीशा, कत्थे का बर्तन, चूने की कटोरी, सुपारी का बर्तन और पीतल की चौकी माँज-धोकर वह इतना साफ रखता है कि बड़े-बड़े कर्मकांडी पंडित के पानी पीने का गिलास भी उतना नहीं चमक सकता।

लगभग सभी किस्मों के पान यहाँ आते हैं जैसे जगन्नाथ जी से, गया से और कलकत्ता आदि स्थानों से आते हैं। पान का जितना बड़ा व्यावसायिक केन्द्र बनारस है, शायद उतना बड़ा केन्द्र विश्व का कोई नगर नहीं है। काशी में इसी व्यवसाय के नाम पर दो मोहल्ले बसे हुए हैं। सुबह सात बजे से लेकर ग्यारह बजे तक इन बाजारों में चहल-पहल रहती है। केवल शहर के पान विक्रेता ही नहीं, बल्कि दूसरे शहरों के विक्रेता भी इस समय इस जगह पान खरीदने आते हैं। यहाँ से पान ‘कमाकर’ विभिन्न शहरों में भेजा जाता है। ‘कमाना’ एक बहुत ही परिश्रम पूर्ण कार्य है – जिसे पान का व्यवसायी और उसके घर की महिलाएं करती हैं, यह ‘कमाने’ की क्रिया ही बनारसी पान की ख्याति का कारण है। इस समय भी बनारस में दस हजार से अधिक पुरुष और स्त्रियां ‘कमाने’ का कार्य करते हैं।

वैसे बनारस की जनता मगही पान के आगे अन्य पान को ‘घास’ या ‘बड़ का पत्ता’ संज्ञा देती है, किन्तु मगही पत्ता के अभाव में उसे जगन्नाथी पान का आश्रय लेना पड़ता है, अन्यथा प्रत्येक बनारसी मगही पान खाता है। इसके अलावा साँची-कपूरी या बंगला पान की खपत यहाँ नाम मात्र की होती है। हो भी कैसे – ममता बनर्जी के राज्य से आने वाला पत्ता कहीं नरेंद्र मोदी जी के राज में बिके। विश्वनाथ मुखर्जी साहब कहते हैं कि ‘बंगला पान’ बंगाली और मुसलमान ही अधिक खाते हैं। मगही पान इसलिए अधिक पसन्द किया जाता है कि वह मुंह में जाते ही घुल जाता है।

धुलने का अर्थ है पान मुँह में रखकर लार को इकट्ठा करना और यह लार जब तक मुँह में भरी रहती है, पान घुलता है। कुछ लोग उसे नाश्ते की तरह चबा जाते हैं। पान की पहली पीक फेंक दी जाती है ताकि सुर्ती की निकोटिन निकल जाए। इसके बाद घुलाने की क्रिया शुरू होती है। अगर आप किसी बनारसी का मुँह फूला हुआ देख लें तो समझ जाइए कि वह इस समय पान घुला रहा है। पान घुलाते समय वह बात करना पसंद नहीं करता। अगर बात करना जरूरी हो जाए तो आसमान की ओर मुँह करके आपसे बात करेगा ताकि पान का, जो चौचक जम गया होता है, मज़ा किरकिरा न हो जाए। शायद ही ऐसा कोई बनारसी होगा जिसके रूमाल से लेकर पजामे तक पान की पीक से रँगे न हों। गलियों में बने मकान कमर तक पान की पीक से रंगीन बने रहते हैं। भोजन के बाद तो सभी पान खाते हैं, लेकिन कुछ बनारसी पान जमाकर निपटने (शौच करने) जाते हैं, कुछ साहित्यिक पान जमा कर लिखना शुरू करते हैं और कुछ लोग दिन-रात गाल में पान दबाकर रखते हैं।

बनारसी पान में कत्था विशेष ढंग से बनाकर प्रयोग किया जाता है। पहले कत्थे को पानी में भिगो देते हैं। अगर उसका रंग अधिक काला हुआ तो उसे दूध में भिगोते हैं। फिर उसे पकाकर एक चौड़े बर्तन में फैला दिया जाता है। कुछ घंटे बाद जब कत्था जम जाता है तब उसे एक मोटे कपड़े में बाँधकर सिल या जाँता जैसे वजनी पत्थर के नीचे दबा देते हैं। इससे कसैलापन और गरमी निकल जाती है। इसके पश्चात सोंधापन लाने तथा बाकी कसैलापन निकालने के लिए उसे गरम राख में दबा दिया जाता है। इतना करने पर वह कत्था थक्का-सा हो जाता है। बनारसी पान में जिस प्रकार कत्था-सुपारी अपने ढंग की होती है, उसी प्रकार चूना भी। ताजा चूना यहाँ कभी प्रयोग में नहीं लाते। याद रखिए कोई भी बनारसी पान विक्रेता अपने पान की दुकान की चौकी पर हाथ लगाने नहीं देता और न लखनऊ, दिल्ली, कानपुर, आगरा की तरह चूना माँगने पर चौकी पर चूना लगा देगा कि आप उसमें से उंगली लगाकर चाट लें। आप सुर्ती खाते हैं तो आपको अलग से सुर्ती देगा – यह नहीं कि जर्दा पूछा और अपनी इच्छा के अनुसार जर्दा छोड़ दिया। यहाँ तक कि चूना भी आपको अलग से देगा। आप उसकी दुकान छू दें, यह उसे कतई पसन्द नहीं, चाहे आप कितने बड़े अधिकारी क्यों न हों!

ये भी पढ़े   पटना कालेज @ 160 : जब बादशाह खान पटना कॉलेज मैदान में कहे थे "बुद्ध को मत भूलो....गाँधी को मत भूलो", साल 1969 था (11)

बनारस की पान की बात इसलिए यहाँ कर रहा हूँ क्योंकि पचास के दशक से कोई 2010 तक पटना विश्वविद्यालय, पटना कॉलेज, साइंस कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज के कोई भी छात्र, कोई भी छात्राएं, कोई भी प्राध्यापक, कोई भी व्याख्याता, कोई भी प्राचार्य, कोई भी रजिस्ट्रार, कोई भी कुलपति, कोई भी चपरासी, कोई भी रिक्शावाला, कोई भी नेता, कोई भी पिछलग्गु, कोई भी पंडित, कोई भी पुजारी, कोई भी मुसलमान, कोई भी सिख, यानी पटना की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा, जो पटना सिटी से ऐतिहासिक गांधी मैदान जाने वाली उम्र से लम्बी सड़क – अशोक राजपथ – से यात्रा किये होंगे, कभी-न-कभी हरिहर की दूकान पर लस्सी अवश्य पिए होंगे और फिर मगही पान, बनारसी पान, मीठा पान अवश्य खाये होंगे।

आप विश्वास नहीं करेंगे (मत करें) लेकिन सच यह है कि पटना मेडिकल कालेज के प्राचार्य से लेकर, पटना कॉलेज के प्राचार्य और कुलपति तक, संध्याकाळ अपने घर से रिक्शा पर बैठ कर आते थे, हरिहर की दूकान पर लस्सी पीते थे और फिर एक बर्तन में अपने बच्चों के लिए भी ले जाते थे। इतना ही नहीं, रविवार के दिन देर संध्याकाल सज-धज कर अपनी पत्नी, बच्चों के साथ घूमते-टहलते हरिहर की दूकान तक आते थे, जैसे पिकनिक पर जा रहे हों, लस्सी पीते थे, पान खाते थे और फिर मुस्कुराते घर जाते थे। एक और बात बताता हूँ – भारत के मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी शब्बा करीम, जो पटना के खजांची रोड में रहते थे, और हरिहर की दूकान से उनके घर की दूरी महज एक “सिक्सर” वाली दूरी थी, गर्मी के दिनों में दोनों भाई लगभग रोज हरिहर की दूकान पर लस्सी का आनंद लेते थे। उससे भी अधिक मजेदार बात यह है कि सप्ताह में दो बार बनारस की यात्रा करते थे – वजह: बर्फ लाने के लिए, पान लाने के लिए ।

आज की पीढ़ी विस्वास नहीं करेगी कि खजांची रोड जिस स्थान पर पटना के अशोक राजपथ से मिलती है, वहां से और उसके सौ कदम आगे जो रास्ते महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह का दरभंगा हॉउस होते गंगा की ओर जाती है, उन दोनों सड़कों के मध्य, सड़क की दाहिने तरफ वली मंजिल के प्रवेश द्वार पर श्री हरिहर एक आना प्रति गिलास (750 एमएल) लस्सी बेचते थे और पटना विश्वविद्यालय, खासकर पटना मेडिकल कॉलेज तथा पटना कॉलेज के तत्कालीन छात्र-छात्राओं-प्राध्यापकों के अनुरोध पर वह ‘बनारस’ से वर्फ के सिल्ले लाते थे ताकि लस्सी ठंढा रहे और मजा बरकरार रहे। उन दिनों पटना में अथवा पटना के आसपास किसी भी शहर में वर्फ ज़माने का उद्योग नहीं था। हरिहर अपने लस्सी को एक आना से दस वर्ष पूर्व जब वे अंतिम सांस लिए, पच्चीस रुपये प्रति गिलास तक बेचे और अपने उपभोक्ताओं को अन्तःमन तक संतुष्ट किये । एक आने से पच्चीस रूपये की यात्रा कोई सत्तर वर्ष से भी अधिक का रहा जब वह अपनी दूकान, अपने मित्रमंडली, अपने हज़ारो-हज़ार शुभचिंतकों, हज़ारों प्राध्यापकों, हज़ारों अधिकारियों, हज़ारों चिकित्सकों को छोड़कर अपनी अनंत यात्रा पर निकले।

हरिहर को मैं कभी गुस्सा में नहीं देखा। इतना ही नहीं, उसके मुख पर हमेशा खुशियाँ और मुस्कान रहता था। उन दिनों पटना कॉलेज के साथ-साथ पटना मेडिकल कालेज के छात्र-छात्राएं-प्राध्यापक उससे अक्सरहां पूछते थे कि “इस मुस्कान का राज क्या है?” और हरिहर मुस्कुरा देता था। इस कहानी में जिस तस्वीर को आप देख रहे हैं वह हरिहर का छोटा बेटा अरुण है जो पिताजी के साथ उन दिनों अपनी दुकान पर एक छोटे टेबल पर बैठा होता था और चम्मच से पिताजी द्वारा बनाये लस्सी में “मलाई” डालता था। उन दिनों लस्सी पीने वाले ग्राहक हरिहर और गिलास में रखे लस्सी को कम, इसके हाथों की चम्मच को अधिक देखते थे। शायद में सोचते भी होंगे की “बच्चा है मलाई अधिक डालेगा।” हरिहर दस वर्ष पूर्व कोई नब्बे + वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त किया। हरिहर का बड़ा बेटा अरविन्द, जो अपने पिता के साथ कंधे-से-कंधे मिलाकर पटना विश्वविद्यालय के छात्रों को, छात्रों को खुश रखता था, अपने पिता के पास ही है।

ये भी पढ़े   पटना कॉलेज @ 160: एक ऐतिहासिक कालेज जो 'ए झा', 'बी झा', 'सी झा', 'डी झा' और 'एच झा' प्रोफेसरो  के लिए विख्यात था (4)

उस पान की दूकान पर हरिहर अपनी जिंदगी की शुरुआत उस समय किये जब पटना कालेज का परिसर विद्यार्थियों से धीरे-धीरे भर रहा था। परिसर में किताबों के पन्नों की खुसबू उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। साल पचास के दशक से पूर्व का है, लेकिन मैं हरिहर को सन 1965 से जानता हूँ जब मैं बाबूजी के पास तत्कालीन दो तल्ला नोवेल्टी एंड कंपनी में आया था अपनी जिंदगी की शुरुआत करने, पढ़ने के लिए, जीवन पथ पर आगे पढ़ने के लिए। हरिहर की खूबसूरत दूकान से नोवेल्टी की दूरी पांच सांस के बराबर भी नहीं थी। हरिहर की दूकान बेहतरीन लकड़ी के मोटे-मोटे धुमावदार आकृति में बने खम्भे से बनी थी। सामने कोको-कोला, फंटा आदि की बोतलें सजी रहती थी। नीचे फर्स और गद्दी पर सफ़ेद चादर बिछा होता था। गर्मी के दिनों में शाम होते ही सड़कों की सफाई हो जाती थी। पानी का छिड़काव भी होता था। सुगन्धित अगरबत्ती से सम्पूर्ण इलाका खुशबु मय होता था और उस खुशबु में लस्सी में मिलाये जाने वाला गुलाब जल – ओह।
अरुण, उन दिनों भी और आज भी हमारा अच्छा दोस्त है। उसके पिता, उसके बड़े भाई और वह मुझे बेहद स्नेह करते थे क्योंकि मैं पंडित जी का बेटा था और बाबूजी को अशोक राजपथ पर स्थित तत्कालीन के मालिक, चाहे किताब वाले हों या पान वाले, चाहे साईकिल वाले हों या सब्जी वाले, सभी बहुत पसंद करते थे, सम्मान देते थे। मैं उनको मिलने वाले उसी सम्मान के तले जीवन की शुरुआत किया था।

सैद्धांतिक रूप से पटना में मेडिकल स्कूल (पटना मेडिकल कॉलेज) का इतिहास 23 जून 1874 से गिना जा सकता है। पटना के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ. डी. बी.स्मिथ सहित पांच शिक्षकों और 20 छात्रों के साथ पटना मेडिकल कॉलेज प्रारम्भ हुआ था। उन दिनों बंगाल के लिफ़्टीनेट गवर्नर थे सर रिचर्ड मंदिर। कहा जाता है कि मेडिकल स्कूल को मंदिर स्कूल ऑफ मेडिसिन के रूप में उन्हीं के नाम पर नामित किया गया था। यह भी कहा जाता है कि मेडिकल स्कूल को अपनी पुरानी स्थान बांकीपुर डिस्पेंसरी (जहां अब बीएन कॉलेज हॉस्टल है) उसे स्थानांतरित कर दिया गया था। इस स्थान को मुराद बाग के नाम से भी जाना जाता था। यह भी कहा जाता है कि मुराद के पूर्वज मिर्ज़ा रुस्तम सफ़वी 16वीं शताब्दी में सम्राट जहाँगीर के शासनकाल में बिहार के राज्यपाल थे।

समयांतराल यह महसूस किया गया कि प्रमाण पत्र धारक चिकित्सक उस समय की चुनौतियों का सामना करने की स्थिति में नहीं थे जब मलेरिया, टाइफाइड, पेट संबंधी विकार, उच्च प्रसवपूर्व और मातृ मृत्यु दर, प्लेग और हैजा के लगातार प्रकोप के कारण सरकार और समाज परेशानियों का सामना कर रही थी। परिणाम यह हुआ कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में उच्च स्तर के चिकित्सा प्रशिक्षण के बारे में तत्कालीन व्यवस्था विचार करने लगी। लेकिन उस समय की राजनीतिक स्थिति अनुकूल नहीं थी। पहली अप्रैल 1912 को बंगाल से बिहार और उड़ीसा के अलग होने के साथ, स्वयं का एक मेडिकल कॉलेज बनाने की आवश्यकता और अधिक तीव्र हो गई। बिहार सरकार द्वारा चयनित 18 छात्रों को डिग्री कोर्स और मेडिकल ट्रेनिंग के लिए कलकत्ता मेडिकल कॉलेज भेजकर एक अस्थायी समाधान निकाला गया। विश्व युद्ध (1914-1919) के प्रकोप ने एक बार फिर पटना में एक पूरी तरह से सुसज्जित मेडिकल कॉलेज की संभावनाओं को प्रभावित किया।

बाबूजी कहते थे बिहार विधानमंडल ने एक प्रस्ताव पारित करके सरकार को पटना में एक मेडिकल कॉलेज की तत्काल स्थापना करने के लिए कहा और 1919 के अधिनियम के तहत बिहार में बाबू गणेश दत्त सिंह स्थानीय मंत्री बन गए। स्वशासन (चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग की एक शाखा के रूप में) जिन्होंने इस योजना में गहरी रुचि ली। पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर सैयद सुल्तान अहमद ने भी अपने अच्छे पद का उपयोग किया। दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह पटना में दरभंगा हाउस को पटना विश्वविद्यालय को दान कर दिया। साथ ही, पटना मेडिकल कॉलेज की स्थापना के लिए पांच लाख रुपये का योगदान भी किया। समय बीतता जा रहा था और गंगा के किनारे बसा पटना शहर में शैक्षिक वातावरण के साथ-साथ, शैक्षिक संस्थाएं भी उत्तरोत्तर मजबूत हो रहीं थी, उनका विस्तार हो रहा था।

ये भी पढ़े   पटना कॉलेज@160: कॉलेज का प्रवेश द्वारा, प्रवेश द्वार के सामने ऐतिहासिक वृक्ष-ब्रह्म तथा घोखेवाज लोगबाग (3)

आज के मेडिकल छात्र-छात्राएं शायद यह सुनकर बेहोश हो जायेंगे कि 30 छात्र-छात्राओं के साथ जिस वर्ष “टेम्पल मेडिकल स्कूल” की स्थापना हुई थी, उस समय उन छात्र-छात्राओं का पूरे शैक्षिक-सत्र के लिए शैक्षिक-शुल्क मात्र दो रुपये था। यह परंपरा शायद 1925 तक चली। तत्पश्चात टेम्पल मेडिकल स्कूल का स्थानांतरण दरभंगा हो गया और पटना में दी प्रिंस ऑफ़ वेल्स मेडिकल कॉलेज की स्थापना हुई। दिन था फरवरी महीना का 25 तारीख और साल 1925 था। उसी वर्ष मेडिकल कालेज बंगाल से 35 छात्रों को दी प्रिंस ऑफ़ वेल्स मेडिकल कॉलेज भेज दिया गया।

यदि देखा जाय तो वे ही 35 छात्र पटना में चिकित्सा व्यवस्था के लिए “मसाल -वाहक” थे। उन दिनों के हरिहर की दूकान स्थापना और चलन में दी प्रिंस ऑफ़ वेल्स मेडिकल कॉलेज के छात्र-छात्राओं, प्राध्यापकों, गैर-शैक्षिक कर्मचारियों का बहत्वपुर्ण स्थान है। इधर गंगा के तट से अशोक राज पथ के बीच के इलाके में दी प्रिंस ऑफ़ वेल्स मेडिकल कॉलेज की अनेकानेक भवन, विभाग, छात्रावास, प्रशासनिक भवन – मसलन: ऑर्थोपेडिक्स, फिसिओलॉजी, गाइनेकोलोजी, रेडिओलॉजी, बच्चा-वार्ड आदि – बन रहे थे। पटना के मेडिकल साइंस की दुनिया में बिहार के राजाओं ने, जमींदारों ने अधिकाधिक आर्थिक मदद कर इतिहास का निर्माण किया। वहीँ दी प्रिंस ऑफ़ वेल्स मेडिकल कॉलेज के साथ साथ पटना विश्वविद्यालय, पटना कॉलेज के छात्र-छात्राएं, प्राध्यापक हरिहर को अपनी जिंदगी की एक शुरुआत और उसे स्थायित्व देने के लिए सज्ज थे।

आज अशोक राजपथ का भूगोल बिलकुल बदल गया है। उन दिनों जब दो-तल्ला और फिर बाद में पांच-तल्ला नोवेल्टी में टेनिया के रूप में रहता था, वहां के लोगों का छोटा-छोटा कार्य कर देता था। कोई दो पैसे देते थे, तो कोई चवन्नी। किसी को किताब बांधने के लिए रस्सी ला देता था, तो रामचंद्र जी (आज भी नोवेल्टी में हैं) के लिए दौड़कर, कूदक कर हरिहर की दूकान पान लाने जाता था, तो दो कदम में त्रिवेदी स्टूडियो, चौथे कदम में शंकर सिलाई मशीन प्रशिक्षण केंद्र, सामने फुटपाथ पर देवकीजी की साईकिल का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, फिर मोहम्मद मल्लिक की छोटी से एक दूकान, फिर वली मंजिल (बेगम साहेब का महल) और कोने पर हरिहर की दूकान। आगे बढ़ते ही अब्दुल कलाम की चश्मे की दूकान, फिर बंगाल लॉ हॉउस, फिर एवन साईकिल, फिर मोतीलाल बनारसी दास किताब की दूकान, फिर मस्जिद और अंदर पॉपुलर नर्सिंग होम।

आज पटना के अशोक राज पथ पर गणित, विज्ञान, नागरिक शास्त्र, भूगोल, समाजशास्त्र, सभी बदल गया है । आज सड़कों पर किताबों की हर सांस पर एक दुकान तो हैं, लेकिन सड़कों पर किताबों के पन्नों की खुशबु की किल्लत है। आज दी प्रिंस ऑफ़ वेल्स मेडिकल कॉलेज में हज़ारों-हज़ार छात्र-छात्राएं, चिकित्सक और न जाने कौन-कौन भरे पड़े हैं; लेकिन हरिहर जैसे लोगों को हिम्मत और साहस देने वाले छात्र-छात्राओं की किल्लत हैं। कभी दो-दर्जन से कम छात्र-छात्राओं की संख्या से प्रारम्भ होने वाला पटना कॉलेज में आज कितने हज़ार विद्यार्थी हैं, प्राध्यापक हैं – लेकिन हरिहर जैसे लोगों की मानसिकता को मजबूत बनाने वालों की किल्लत है।

कुछ दिन पहले अचानक अरुण के दूकान पर पहुंचा। साथ में पत्नी जी और पुत्र दोनों थे। मैं एक पान खाने के लिए और दो जोड़ी पान रामचंद्र जी के लिए बाँधने को कहा। उसकी दूकान सिमट कर पहले की दूकान से दसवां हिस्सा हो गयी थी। मुझे देखकर कुछ पल वह रुका और फिर कहा: “आप पंडित जी का बेटा हैं न ?” हमारी मुलाक़ात कोई चालीस वर्ष बाद थी। अगली ही सांस में मैं पूछा” “तुम लस्सी में मलाई मिलाने वाला अरुण?” दोनों ठहाका के साथ कुछ ही पल में सत्तर के दशक में चले गए।

इस वर्ष हम पटना कालेज का 160 वां स्थापना वर्ष मनाने जा रहे हैं – हम चाहते हैं कि वह पुराने दिन पुनः दोहराया जाये। क्योंकि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं “सोच बदलो – देश बदलेगा”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here