पटना कॉलेज@160: यह गली सन 1974 की सम्पूर्ण क्रांति का साक्षी है, लालू, सुशिल मोदी, अश्विनी चौबे इत्यादि उभरते नेता यहाँ ‘लघुशंका’ किया करते थे (6)

यह गली और यह नुक्कड़ सन 1974 की सम्पूर्ण क्रांति का प्रथम द्रष्टा है, साक्षी है। Photo Rahul Mishra

सन 1974 के 12मार्च, मंगलवार को पटना कॉलेज मुख्य द्वार के अंदर कक्षाओं और प्रशासनिक भवन की ओर जाती हुई उम्र से लम्बी सड़क पर जब सीआरपीएफ के जवानों को शैक्षिक परिसर में आंदोलनकारी छात्रों की भीड़ को समाप्त करने के लिए आंसू गैस के गोले फेंकने पड़े, जबाब में आंदोलनकारी छात्र अपने अपने घरों और कमरों में जाने के वजाय, उस आंसू गैस के गोले पर पेशाब कर, पानी डालकर उसकी तीब्रता को कम करने की अथक परिश्रम कर, उसे उठाकर पुनः सीआरपीएफ पर फेंखने लगे – उस क्षण देश के ऐतिहासिक और प्रतिष्ठित सुरक्षा एजेंसी के जवानों को, जिसमें कई अभिभावक भी थे, कई पिता भी थे, कई बड़े भाई भी थे और जिनके ऊपर अपने-अपने संतानों को पढ़ाने का जबाबदेही भी था – आंदोलन की शुरुआत को देखकर एक अभिभावक के रूप में प्रदेश ही नहीं, बल्कि आने वाले समय में सम्पूर्ण देश में शिक्षा और शैक्षिक संस्थाओं की धज्जी उड़ते देख रहे थे। शिक्षा और शैक्षिक संस्थाओं का राजनीतिकरण हो गया था। छात्र भटक गए थे। आज तक उस मार को देश का 99.5+ फीसदी भोक्ता उठ नहीं पाया, जबकि उस दिन के आंदोलनकारी देश – प्रदेश के सत्ता पर कब्ज़ा भी किये और सत्यानाश भी

यह गली और यह नुक्कड़ सन 1974 की सम्पूर्ण क्रांति का प्रथम द्रष्टा है, साक्षी है। आज जहाँ यह पानी गिरा देख रहे हैं, सत्तर के दशक में इस गली के प्रवेश के साथ (इसी स्थान पर) बाएं हाथ एक लकड़ी का बना ‘गुमटी’ (दूकान) रखा होता था। उस गुमटी के पीछे लालू प्रसाद यादव, सुशिल कुमार मोदी, नरेंद्र सिंह, बशिष्ठ नारायण सिंह, अश्विनी चौबे, चंद्रदेव प्रसाद वर्मा और पटना कालेज के सैकड़ों छात्र, सैकड़ों मूंछ की रेखाओं जैसी उभरते नेताओं के ‘अगलग्गू’ से ‘पिछलग्गू’ तक ‘लघुशंका’ किया करते थे। उन दिनों जो नेता ‘बेलबाटम’ अथवा पैंट पहनते थे, उनके लिए तो सहज था; लेकिन लालू प्रसाद यादव, अश्विनी चौबे, सुशील कुमार मोदी जैसे महानुभावों के लिए लघु-शंका से ‘निवृत’ होना बहुत कठिन कार्य होता था। वे सभी पैजामा-कुर्ता घारी होते थे। और पैजामा-कुर्ता में ‘शंका’ से निवृत होना प्रत्येक पल सशंकित ही रहना पड़ता था। बिना अर्ध-नग्न हुए ‘लघुशंका’ से भी निवृत नहीं हो सकते थे।

कई मर्तबा तो पटना विश्वविद्यालय के ये सभी महानुभाव शंकाओं से निवृत होते समय ऊपर-दाएं-बाएं यह भी देखते रहते थे कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है। सबसे अधिक डर उस गली में रहने वाले बुजुर्गों से होता था। क्योंकि उन दिनों पटना नगर निगम के कर्मचारी औसतन 365-दिनों में 52 रविवारों को छोड़कर शेष 313 दिन हड़ताल पर ही रहते थे। नालियां खुली होती थी। इस गली में भी बाएं हाथ लम्बी और गहरी खुली नाली थी, जिससे मुद्दत से जमा पानी धीरे-धीरे आगे की ओर उन्मुख होता रहता था। गली के बच्चे सुबह-सवेरे इस ऐतिहासिक गली की नाली का परंपरागत रूप से इस्तेमाल करते थे – लघु और दीर्घ शंकाओं से निवृत होने के लिए। बच्चे तो बच्चे होते थे और घर में ‘कमाऊ शौचालय’ था, जिसका निकास भी इसी गली के तरफ था। आम तौर पर शौचालय जाने के बाद मन सशंकित रहता था, कहीं अधिक तेज से ‘आवाज’ नहीं निकल जाय। ऐसी स्थिति में गली में आवक-जावक लोग बाग़ कभी-कभार आवाज भी लगा देते थे – अरे झाजी संभल के।

गली के नुक्कड़ के दाहिने हाथ वाले तीन-तल्ला मकान पर सम्मानित श्री जगदीश प्रसाद जी रहते थे। यह उनका पुस्तैनी घर था। आज भी है लेकिन जगदीश बाबू अब नहीं हैं। उनकी पत्नी भी अब नहीं हैं। उनके माता-पिता भी अब नहीं हैं। जगदीश बाबू की पत्नी श्रीमती शांति जी हिंदी साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षर आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी की मुंहबोली साली थीं। शास्त्रीजी जब भी पटना प्रवास करते थे, यहीं रुकते थे। हम सभी बच्चे, उनके घर के लोग ‘मौसाजी’ की सेवा करने में हरदम तत्पर रहते थे।

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जगदीश जी की एक दूकान थी ‘शांति कैफे’ जो उनके मकान के सबसे नीचले तल्ले में थी। उसका रास्ता तो गली से भी था, लेकिन दूकान के मद्दे नजर मुख्य प्रवेश अशोक राजपथ से था। इसलिए प्रातःकाल दूकान खुलने के साथ-साथ इस गली के दो महत्वपूर्ण व्यक्ति – श्री जगदीश बाबू और श्री ननकू जी (यादव) – साफ़ सफाई पर विशेष ध्यान रखते थे। ननकूजी का होटल गली के दाहिने तरफ नुक्कड़ पर थी – चाय, नास्ता, जलेबी, सिंघाड़ा, गुलाब जामुन इत्यादि। इसलिए इस गली के नुक्कड़ वाले कोने को कोई शौचालय नहीं बना दे, दोनों बहुत तत्पर रहते थे।

उन दिनों महामहीम गूगल झा धरती पर अवतरित नहीं हुए थे, यानी, सामाजिक क्षेत्र का ‘कैमरे वाला मिडिया (मोबाईल फोन) का ब्रह्मास्त्र भी जन्म नहीं लिया था। पटना की सड़कों पर कंधे पर कैमरा लटकाये साईकिल से, मोपेड से, स्कूटर से दाहिने लटके/झुके जो भी कैमरामैन अवलोकित होते थे उनमें सत्यनारायण दूसरे, कृष्ण मुरारी किशन और राजीव कांत सर्वाधिक चर्चित थे। इनके अलावे कभी-कभार श्री बीरजी अपने ब्लू रंग के स्कूटर से मोटा शरीर लिए दिखाई देते थे। बीर जी की दूकान अशोक राजपथ पर स्थित पटना विश्वविद्यालय पुस्तकालय के दाहिने प्रवेश द्वार (आप निकासी कह सकते हैं) के ठीक सामने इलाहाबाद बैंक के सामने ‘सन्नी स्टूडियो” के नाम से विख्यात था।

वह तो सिर्फ बीर जी ही हैं जो पटना के वर्तमान में “नेता”, जो फिल्म जगत में “खामोश” के नाम से कुख्यात हैं, नाम हैं शत्रुघ्न सिन्हा की पहली तस्वीर खींचे थे। बीर जी की वह तस्वीर मुंबई के फिल्म जगत में अमित छाप छोड़ा था। बाबू शत्रुघ्न सिन्हा उन दिनों पटना साइंस कॉलेज के छात्र थे और फिल्म उद्योग में चेहरे पर दाग लिए किस्मत आजमा रहे थे। आगे क्या हुआ यह तो मुंबई ही नहीं, पूरा विश्व जानता है। इसलिए चेहरे के दाग को छिपाएं नहीं, हर दाग बुरे नहीं होते – बाबू शत्रुघ्न सिन्हा साहेब साबित कर दिए हैं।

ननकू जी की दूकान के ऊपर वाले तल्ले में राजेंद्र बाबू अपनी विधवा माँ, पत्नी, तीन पुत्र और एक नई नवेली बहु के साथ रहते थे। उनका निवास सड़क की ओर वाले कमरों में था। इस घर से कोई दस कदम आगे एनीबेसेन्ट रोड की ओर आने पर कमाल बाइंडिंग स्टोर्स – स्टेशनरी विक्रेता – के पास राजेंद्र बाबू की पान की दूकान थी। कभी खुद बैठते थे, कभी माँ, तो कभी तीनों पुत्र समयानुसार। उनका छोटा बेटा बहुत शरारती था। जैसे ही किसी को नीचे नुक्कड़ पर ओट लिए लघुशंका से निवृत होते देख लेता था, झटपट ऊपर से एक मग, एक गिलास पानी निशाना साध कर फेकता था। इस मकान के पीछे वाले हिस्से में एक कमरा ऊपर और एक कमरा नीचे किराये पर मेरे बाबूजी लिए थे। बाबूजी उस समय नोवेल्टी में काम करते थे। घर और कार्यस्थल की दूरी अधिक नहीं थी। हम दसवीं कक्षा में पढ़ते थे ऐतिहासिक टी के घोष अकादमी में।

ननकु जी के होटल के आगे फुटपाथ पर पटना नगर निगम का एक नल होता था। जो अपने निश्चित समय पर सुबह-दोपहर-शाम में ‘सीटी’ बजता था। सीटी बजाना इस बात का संकेत होता था कि सरकारी पानी का आगमन होने वाला है। आज भी वह ऐतिहासिक नल अपने स्थान पर है। इस नल के 105 डिग्री कोण पर ननकू जी का होटल था और 75 डिग्री कोण पर गौरी शंकर जी का ऐतिहासिक पान की दूकान। आज की तारीख में भी वह दूकान अपने अस्तित्व में बरकरार है।

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सम्मानित गौरी शंकर जी का देहावसान 1969 में हो गया। वे अपनी दूकान से कोई पांच मिनट के रास्ते पर पुरन्दरपुर मोहल्ला में संयुक्त परिवार प्रथा को जीवित रखते रहते थे। गौरीशंकर जी पटना कॉलेज के स्थापना के पचासवें वर्ष के आस-पास किराये पर दूकान खोले थे – बनारसी पान वाला । आज उनकी दूकान उनका सबसे छोटा बेटा श्री टुनटुन जी चलाते हैं। टुनटुन जी की आयु भी कोई 70+ में है। टुनटुन जी तीन भाई – जगदीश जी, लालजी बाबू और वे – थे। उनकी दूकान से सटी एक दर्जी की दूकान होती थी, जो उस ज़माने में पटना कालेज के छात्रों का एक बैठक भी होता था।

टुनटुन जी बात करते कहते हैं: “बाबूजी के समय में मैं उनकी हाथ पकड़कर आता था। जैसे जैसे बड़ा हुआ पढाई भी करता रहा। कालेज में आने पर पटना कालेज परिसर में गंगा किनारे स्थित वाणिज्य महाविद्यालय में प्रवेश लिया। बाबूजी के समय से लेकर आज के ज़माने तक पटना कॉलेज के ही नहीं, पटना विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले शायद ही कोई छात्र (यहाँ तक कि छात्राएं भी) और प्राध्यापक होंगे, जो हमारी दूकान से पान खाकर अपना होठ लाल नहीं किये होंगे।”

टुनटुन जी आगे कहते हैं: “उन दिनों के बने गंहकी (ग्राहक) की पीढ़ियां जैसे जैसे आगे बढ़ती गई, इस दूकान के गद्दी (जो पान लगाते थे, पैसे लेते थे) पर बैठने वाले भी बदलते गए – लेकिन भगवान का कृपा है कि आज भी सम्बन्ध बने हुए हैं। पान का सम्बन्ध ही कुछ ऐसा होता हैं। कई गंहकी तो ऐसे थे कि महेन्द्रू से, सुल्तानगंज से, पटना सिटी से रिक्शा से, गाड़ी से, टमटम से पान खाने आते थे। उन दिनों रात के कम से कम बारह बजे तक दुकानें खुली होती थी, खासकर जब पटना विश्वविद्यालय में परीक्षा का समय होता था। देर रात झुण्ड में लड़के चाय पीने, पान खाने, सिगरेट पीने आते थे – मन तो तड़ोताजा करने के लिए। सन 1974 के आंदोलन या उससे पहले भी, पटना कॉलेज या पटना विश्वविद्यालय के शायद ही कोई नेता होंगे (नहीं ही माने) जो इस दूकान पर बाबूजी के हाथों, हमारे बड़े भाइयों – जगदीश जी और लालजी भैया – पान नहीं खाये होंगे।”

टुनटुन जी कहते हैं: “लालू यादव हों या सुशील मोदी हों, राम विलास पासवान हों, अश्विनी चौबे हों, या फिर आज के भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा हो – सभी ननकू होटल, बनारसी पान वाला और शांति कैफे दुकानों को आज भी जानते हैं। मुद्दत तक यहाँ जमघट लगाते थे। पान खाते थे।”

बहरहाल, उस दिन शायद मंगलवार था और सन 1974 साल का 12 मार्च। देश में राजनीतिक सत्ता के बदलाव के लिए बिहार के छात्र – युवा वर्ग सड़क पर आ गए थे। वैसे आंदोलन में नेतृत्व की किल्लत थी क्योंकि जयप्रकाश नारायण का अभ्युदय नहीं हुआ था। स्थानीय शासन, व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन प्रारम्भ हो गया था। उस दिन सुबह-सवेरे पटना कॉलेज के मुख्य द्वार पर आंदोलनकारी छात्र सड़क पर आ गए थे। यत्र-तत्र तोड़-फोड़ की घटना प्रारम्भ हो गयी थी। सभी सरकारी वाहन (वैसे उन दिनों कितने वहां चलते ही थे सिवाय पटना वीमेंस कॉलेज/मगध महिला कॉलेज की ऑनर्स की छात्राओं को उनके कॉलेज से पटना कालेज लाना) ऑफ दी रोड थी। लेकिन सरकारी कार्यालय, चाहे विश्वविद्यालय का उनका अपना ही दफ्तर/भवन क्यों न हो, में तोड़फोड़ के कारण भय का वातावरण था। ईंट वाजी, पत्थर वाजी प्रारम्भ हो गया था स्थानीय पुलिस पर। पटना के गांधी मैदान से महेन्द्रू मोहल्ला तक, आगे भी सभी दुकानों का दरवाजा नीचे गिरा दिया गया था। कुछ दुकानदार, खासकर राशन दूकान वाले, अपने दरवाजे को बंद कर भी अंदर से जरूरतमंदों को आटा, चावल, दाल, तेल आदि की आपूर्ति कर रहे थे। किसी को कुछ पता नहीं था कि आगे पल, अथवा आने वाले दिनों में क्या होने वाला है।

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बिहार का राजनीतिक कमान अब्दुल गफूर साहब के हाथों था। सत्तर के दशक में गफूर साहब बहुत ही भाग्यशाली राजनेता थे जो एक साल 283 दिनों तक मुख्यमंत्री के सिंहासन पर बैठे रहे। अन्यथा दरोगा प्रसाद राय (310 दिन), भोला पासवान शास्त्री (222 दिन) केदार पांडेय (एक साल 105 दिन), रामसुंदर दास (302 दिन) ही रहे। हाँ, कर्पूरी ठाकुर और डॉ जगन्नाथ मिश्र अधिक दिनों तक कुर्सी पर विराजमान रहे। पांचवा, छठा और सातवां विधान सभा का समय था। प्रशासन का कमान एफ अहमद के हाथों था। अहमद साहब बेहद खूबसूरत दीखते थे। कोई छह फुट लंबे थे। स्मार्ट तो थे ही। पटना कालेज की छात्राओं की नजरों में बहुत सम्मानित भी थे। छात्राएं उन्हें ‘तिरछी नजर” से बहुत ही सम्मान के साथ देखती थी। अब तक पटना कालेज के आस-पास का वातावरण गर्म हो गया था। बीच बीच में कृष्ण मुरारी किशन, सत्यनारायण दूसरे और राजीव जी (सभी फोटोग्राफर्स) दीखते थे। उन्हें देखते वातावरण और भी गर्म हो जाता था – आखिर अख़बारों में छपने का सवाल था।

अब तक स्थानीय पुलिस (पटना पुलिस) के स्थान पर इधर केंद्रीय रिजर्व पुलिस फ़ोर्स (सीआरपीएफ) कमान संभाल लिया था। उन दिनों सीआरपीएफ के सज्ज जवानों की उपस्थिति इस बात का द्योतक होता था कि स्थिति सामान्य नहीं है और स्थानीय प्रशासन कुछ भी नहीं कर सकती है। सीआरपीएफ की अहमियत प्रदेश अथवा केंद्र के गृह मंत्री से भी अधिक होता था – जहाँ तक सम्मान का सवाल है।

सीआरपीएफ की उपस्थिति देखते ही पटना कालेज के आंदोलन कारी छात्रों ने मुख्य द्वार पर लोहे के सिक्कड़ के साथ ताला लटका दिया, ताकि वह अंदर नहीं प्रवेश ले सके। हम सभी जगदीश बाबू के छत से दृश्य देख रहे थे। गोली चलने की नौबत नहीं थी, फिर भी सीआरपीएफ के जवान हम सबों को वहां से हटने को कहते थे। इसी बीच एक महिला प्रशासनिक अधिकारी के आदेश पर आंसू के गोले पटना कालेज परिसर में फेंकना प्रारम्भ हो गया। इधर मुख्य द्वार के दरवाजे को गोली से तोड़ा गया। दुर्भाग्यवश, उस दिन हवा का रुख आंदोलनकारी छात्रों के पक्ष में था। गंगा छोड़ से आने वाली हवा आंसू गैस को उड़ाते मुख्य सड़क की ओर आने लगी। सीआरपीएफ के जवान अपनी आखों के सामने शीशे वाली पट्टी लगाने के बाद भी अपनी आखों को जेब में रखे रुमाल से पोछने से रोक नहीं सके।

उस आंदोलन में पहली बार सीआरपीएफ के जवानों को हताश देखे थे। उन जवानों में कई के संतान पटना विश्वविद्यालय या बिहार के अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र – छात्राएं थे। शायद पटना कालेज के सामने अशोक राज पथ पर सं 1974 की आंदोलन की शुरुआत को देखकर एक अभिभावक के रूप में सीआरपीएफ के जवान प्रदेश ही नहीं, बल्कि आने वाले समय में सम्पूर्ण देश में शिक्षा और शैक्षिक संस्थाओं की धज्जी उड़ते देख रहे थे। शिक्षा और शैक्षिक संस्थाओं का राजनीतिकरण हो गया था। छात्र भटक गए थे। आज तक उस मार को देश का 99.5+ फीसदी भोक्ता उठ नहीं पाया, जबकि उस दिन के आंदोलनकारी देश – प्रदेश के सत्ता पर कब्ज़ा भी किये और सत्यानाश भी…..

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