पटना कॉलेज@160: छः ऐसे प्राचार्य हुए जो गलियों में रहने वाले गरीब-गुरबों के बच्चों को नाम से ही नहीं, बाप के नाम से भी जानते थे (5)

प्रोफ़ेसर के पी अम्बष्ठा

प्रोफ़ेसर के पी अम्बष्ठा साहेब पटना कालेज के सामने एनी बेसेंट रोड में, जहाँ हम सभी किराये के मकान में रहते थे, मेरे मकान से तीन घर बाद रहते थे – एकदम कुटिया नुमा, लाल रंग का। मकान के पीछे खेत। लकड़ी का दरवाजा सीधा सड़क पर खुलता था।उन दिनों जब भी अम्बष्ठा साहेब से मिलने जाते थे, वे अखबार लेकर बैठे होते थे और सम्पूर्ण अखबार को लाल-रंग में रंगे होते थे। कभी-कभार प्रोफ़ेसर प्रेम कुमार एक छात्र जैसा अपने शिक्षक के सम्मुख खड़े मिलते थे। सेव-जैसा लाल चेहरा और उस पर गुस्सा, यानि कुल टमाटर जैसा लाल ।

पूर्णिया से बाद मगध की राजधानी, जहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य राजा हुआ करते थे, चाणक्य जैसे उनके गुरु थे – मैं इस राजधानी में पहली बार अपना सर पिता-रूपी ब्रह्माण्ड के नीचे श्री तारा बाबू की दुनिया में अपना सरछुपाया। श्री तारा बाबू को हम सभी “मालिक” कहते थे। बहुत कड़क-मिजाज के थे।अनुशासन उनके जीवन में बहुत महत्व रखता था। समय के बहुत पाबंद थे। मेहनतउनके जीवन का मूल-मंत्र था, गायत्री मन्त्र जैसा। मुझे दूकान केअलावे मछुआ टोली स्थित उनके घर पर आने-जाने की पूरी स्वतंत्रता थी। घर पर हमारे उम्र के उनके पोते-पोतियाँ-नतनियां मुझे अपने घर का हिस्सा ही समझते थे। मुझे आज तक ऐसी कोई घटना याद नहीं है जिसमें हमें उन लोगों की बातों से, व्यवहारों से कोई कष्ट हुआ हो, आत्मा दुखी हुआ हो।

मैं उस दिन नहीं जानता था कि नोवेल्टी की भूमि पर और पटना कालेज परिसर में ही त्रिनेत्रधारी महादेव मेरे जीवन की रेखाएं खींचने का एपिसेंटर बनाएंगे। लेकिन आज साढ़े – पांच दसक बाद भी उन तमाम बातों का याद रहना इस बातका गवाह है कि महादेव को मैं कभी धोखा नहीं दिया। मालिक और उनके परिवार, परिजनोंको दिए जाने वाले सम्मान में कोई कटौती नहीं किया। तभी तो आज भी मालिक की तीसरी पीढ़ी भी मुझे उतना ही सम्मानित नजर से देखता हैं, जितने सम्मान के साथ हम सभी बचपन में घर पर खेला कहते थे।

उन दिनों पटना कालेज हम जैसे मोहल्ले के बच्चों के लिए मूलतः घर जैसा था। यहाँ अध्ययन करने शहर के विभिन्न कोनों से छात्र-छात्राएं आते थे। जबकि हम सभी बच्चे पटना कॉलेज परिसर की मिट्टी को अन्तःमन से प्रणाम करते थे। समय और माँ सरस्वती से कामना करते थे कि जीवन में शिक्षा के प्रति भूख कभी कम नहीं हो। परिणाम यह होता था कि चाहे प्रोफ़ेसर चन्द्रिका जी हों या प्रोफ़ेसर शमशाद हुसैन या फिर प्रोफ़ेसर सहाय जी। सबों का हाथ आशीर्वाद स्वरुप हमेशा सर पर होता था।

अगर ऐसा नहीं होता तो मुझ जैसा गरीब का बेटा, अर्थ से दीन, पटना की सड़कों पर, पटना कालेज के छात्रावासों में, प्राध्यापकों के निवासों पर सुबह-सवेरे अखबार फेकने वाला वह बालक आगे चलकर पटना के अशोक राज पथ से कलकत्ता की चौरंगी के रास्ते, दिल्ली के राजपथ होते हुए लन्दन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों में अपनी मेहनत का, अपनी सोच का, अपनी हुनर का, अभी पेशा का ध्वज कैसे लहराएगा – पत्रकारिता को पुनः परिभाषित कैसे करता। यह शब्द एक श्रद्धांजलि स्वरुप हैं उन महात्मनों को जो मेरी जीवन को संवारने में भूमिका निभाए। दिल्ली के राजपथ तक आते आते कई लोग ईश्वर को प्यारे हो गए, उनमें मेरे ब्रह्माण्ड (पिताजी) और नोवेल्टी एण्ड कम्पनी के मालिक और पटना कॉलेज के दर्जनों प्राध्यापक भी थे। लेकिन आज भी वे सभी मेरे इर्द-गिर्द ही हैं और मैं महसूस भी करता हूँ।

साठ के दशक के उत्तरार्ध पटना के एक विद्यालय से शिक्षण-शुल्क नहीं देने के कारण मेरा नाम कट गया था। मैं चौथी कक्षा में पढता था। यह बात मैं बाबूजी को नहीं बताया था। वजह था – बाबूजी की तनखाह उतनी अधिक नहीं थी की वे तक्षण फ़ीस जमा कर पाते या किसी दूसरे विद्यालय में नाम लिखाते । मैं चुपचाप रहता था। उस समय हम अपने पिता के साथ अशोक राज पथ पर बेगम साहेब की कोठी के अहाते में दाहिने तरफ एक छोटी सी कोठरी में रहते थे। उस समय नोवेल्टी एण्ड कम्पनी का पुराना एक-मंजिला मकान टूट रहा था और नए बहु-मंजिला इमारत बनने की तैयारी हो रही थी।

बेगम साहिब का यह अहाते काफी खुला था। अहाते के बाएं तरफ उनके कर्मचारियों के लिए क्वॉर्टर्स था। इस परिसर में हमारे उम्र के छोटे-छोटे बच्चे रहते थे। हम सभी एक साथ खेलते-कूदते थे। लेकिन सुबह-सवेरे जब वे बच्चे अपने-अपने विद्यालयों के लिए युनिफ़ॉर्म पहनकर जाने लगते थे, मैं मकान के दीवार या खम्भे का ओट लेकर उन्हें टकटकी निगाह से देखा करता था। कभी-कभी अपनी गंजी के निचले हिस्से को उठाकर अपनी आँखों को पोछ लिया करता था। आख़िर रोना कौन चाहता था।

बाबूजी सुबह दस बजते-बजते दूकान चले जाते थे। मन में पढ़ने की लालसा हिन्द महासागर में उठने वाले तूफ़ान जैसा उठता था। समय के आगे जैसे लाचार हो गए थे। बाबूजी के जाने के बाद मैं इधर-उधर भटकता रहता था। संध्या के करीब चार बज रहे थे। भगवान सूर्य अस्ताचल की ओर उन्मुख थे। सूर्य की रौशनी में लालिमा थी। बेगम साहिब के महल में गली की ओर से जाने वाले रास्ते पर सूर्य की लाल किरणें कार्पेट जैसा बिछा दिख रहा था।

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कहते हैं ‘खाली दिमाग शैतान का’ – मैं अपने छोटे से कमरे में प्रवेश लिया। कमरे का आकार दस फिट लम्बा-चौड़ा से अधिक नहीं था। कमरे के अंदर बाएं तरफ दीवार से सटकर पुआल बिछा था, जिसके ऊपर एक बड़ी दरी को चार तह में मोड़कर बिछा दिए थे बाबूजी। उसके ऊपर एक चादर बिछा था। कमरे में एक रस्सी के ऊपर पहनने के कुछ वस्त्र टंगे थे। उसी के नीचे एल्युमिनियम के बर्तन में चावल-दाल रखा था। प्रभात स्टोव भी वही रखा था। जब खाना बनाने का समय होता था, पीतल वाला प्रभात स्टोव और अन्य सामग्री को लेकर कमरे बाहर एक छोटे से बरामदे पर चले जाते थे। इस बरामदे के दस कदम आगे एक बहुत गहरा पानी से भरा कुआं था।

मैं कुछ देर बाबूजी का बक्सा जो कमरे में किनारे रखा था, टकटकी निगाह से देख रहा था। बाबूजी साल में एक बार बड़ा-दिन की छुट्टी में (दिसंबर महीने) में गाँव जाते थे। वे अपनी कमाई में से पैसे बचाकर रखते थे ताकि गाँव जाते समय मदद मिल सके। उन पैसों में सभी के सभी एक-एक रूपये के नए-नए नोट होते थे, जिसे बाबूजी पेपर क्लिप में लगाए हुए थे। मेरी मूर्खता अपनी पराकाष्ठा पर थी। मुझे यह अंदाजा नहीं था कि बाबूजी जितने रुपये यहाँ रखे हुए हैं, उसे गिनती कर ही रखे होंगे और उन्हें ज्ञान अवश्य होगा की बक्से में कितने रुपये हैं। मैं तो एक-एक रुपये के नोटों की मोटाई देखकर यह सभी बातें सोच रखा था।

मैं धीरे से बक्सा खोला। थरथराते हाथों से उन रुपयों में से एक-एक रुपये का पांच नोट निकला। बक्सा को बिना छेड़छाड़ किये पुनः बंद कर दिया। सांस की गति बहुत तेज थी। शरीर में रक्तचाप बहुत अधिक लग रहा था। स्वयं पर काबू का मन को इधर-उधर बहला रहा था। अब तक रात हो गयी थी। बाबूजी घर आने वाले थे, इसलिए खाना बनाने का सभी सामग्रियां बरामदे पर रख दिया था। बाबूजी अधिकांश समय दाल-सब्जी और भात बनाते थे। उन्हें रोटी बनाना नहीं आता था। रात में खाना खाने के बाद तुरंत सो गया। बाबूजी सर पर हाथ रखकर पूछे भी की कहीं बुखार तो नहीं है? मैं भयभीत था।

लेकिन अपनी सम्पूर्ण जीवन दिख रहा था, शिक्षा का महत्व दिख रहा था, स्कूल जाते बच्चे दिख रहे थे, किताबों के कागजों का सुगंध महसूस हो रहा था। साथ ही, यह भी महसूस कर रहा था की अगर बाबूजी के दैनिक क्रियाकलाप में मदद नहीं किया, अर्थ उपार्जित नहीं किया, माँ, छोटी बहनों का देखभाल नहीं किया तो जीवन जीना दूभर हो जायेगा। बहरहाल, मैं चुपचाप अपने जेब में उस पैसे को रखकर सो गया।

उस रात नींद नहीं हुई। घडी की छोटी सूई 3 पर और बड़ी सूई बारह पर जैसे ही पहुंची, मैं धीरे से उठकर, एक झोला कंधे में लटकाकर बाबूजी को सोया छोड़कर, महादेव को साक्षी मानकर पहली बार कमाने के लिए, पढ़ने के लिए कुछ करने के लिए दरवाजे से बाहर निकलकर अशोकराज पथ पर अपने पैरों का निशान बनाते, कदमताल करते पटना के ऐतिहासिक गांधीमैदान बस अड्डा पहुंचा। उस दिन से आज तक मैं जीवन में किसी भी कार्य को करने के क्रम में हमेशा बायां पैर ही उठता हूँ। लोग कहते हैं, मैं बाम-मार्गी हूँ। परन्तु मैं कहता हूँ की :शरीर के बाएं अंग को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए, उसे दाहिने अंग का सहायक बनने के लिए, हमेशा महत्व देना होगा – इसलिए पहले आप चलें।

पटना के गाँधी मैदान बस अड्डे के प्रवेश द्वार के कोने पर दाहिने तरफ एक चाय की दूकान होती थी उन दिनों। अब तक घड़ी की छोटी सूई चार पर पहुँचने वाली थी और बड़ी सूई 10 पर पहुंची थी। बस अड्डा के प्रवेश द्वार के बाएं तरफ एक विशालकाय बरामदा था। जहाँ यात्रीगण अपने-अपने गंतव्य के लिए टिकट लेते थे। साथ ही, उसी बरामदे पर पटना से प्रकाशित आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाईट, प्रदीप और जनशक्ति अखबार का बंडल उतरता था। ये सभी अखबार धनबाद, रांची, डाल्टेनगंज, दरभंगा, पलामू, पूर्णिया, बिहार शरीफ और अन्य शहरों के लिए होती थी। साथ ही, यहाँ यात्रीगणों के लिए भी अखबार बेचा जाता था।

मैं अपनी जेब से बाबूजी के बक्से से चोरी किये गए पांच रूपये का नोट निकाला और अपने पास 40 नए पैसे खुदरा था. यह खुदरा पैसा नोवेल्टी में किसी के लिए चाय, तो किसी के लिए पान या अन्य कोई कार्य करने के एवज में मिला था। उसे मिलाकर यानि, यथायोग्य पूंजी 5 रुपये 40 पैसे से आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाईट, प्रदीप और जनशक्ति अखबार ख़रीदा। उन दिनों इन्डियन नेशन अखबार की कीमत 12 पैसे, आर्यावर्त की कीमत 10 पैसे, सर्चलाईट की कीमत 8 पैसे और प्रदीप – जनशक्ति की कीमत पांच पैसे थे। मैं अपनी पूंजी से जो अखबार ख़रीदा था, उसे वहीँ के यात्रियों के हाथों बेचा। यह काम कोई चार घंटे तक चला। मन में सोच रहा था जब घर पहुंचू, तब तक बाबूजी दूकान चले गए हों। ऐसा ही हुआ।

चार घंटे बाद उसी चाय की दूकान के बाहर रखे लम्बे टेबल पर बैठकर झोला से पैसे निकाल कर गिनना शुरू किया। दो नए पैसे, तीन नए पैसे, पांच नए पैसे, बीस नए पैसे, चौवन्नी, अठन्नी सबों को अलग-अलग रखा, जोड़ा तो चार घंटों में पांच रुपये चालीस पैसे कुल नौ रुपये साठ पैसे में बदल गए थे। मन में व्याकुलता के स्थान पर प्रसन्नता स्थान बना लिया था। यह बिस्वास हो गया था की हम आगे पढ़ सकते हैं।

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दूसरे-तीसरे दिन भी यह क्रिया जारी रहा। तीसरे दिन देर शाम में बाबूजी कमरे से आवाज दिए। आवाज में “पिता का स्वर” था। मेरा रक्त चाप बढ़ गया। सांसे चढ़ने लगी। अब तक बाबूजी पांच बार आवाज लगा चुके थे। मैं कमरे के दरवाजे पर दस्तक दिया। मुझे देखते बाबूजी पूछे: “बक्से से पैसा निकाले हो?” मैं नकारात्मक जबाब दिया। जब एक बार सत्य को छुपाने के लिए झूठ बोला, फिर पांच बार और झूठ बोला। पांचवी बार ‘नहीं’ इधर मुख से निकला, उधर बाबूजी का तमाचा गाल पर रसीद हो गया। फिर क्या था अनेकानेक थप्पड़, छड़ी, लात कोई चालीस किलो के शरीर पर गिरने लगा। कहते हैं जब किसी को मार लगती है, मोहल्ले वाले भी अपना-अपना हाथ साफ़ कर लेते हैं। मुझे पैर में रस्सी बांधकर उस कुएं में लटका दिया गया। उस रात पिता दुश्मन जैसा दिख रहे थे। मेरे सर के बाल पानी के पास था।

मन में एक विस्वास जरूर था कि बाबूजी पानी में डुबाकर मारेंगे तो नहीं, लेकिन ऊपर लोगों के मुख से सुन अवश्य रहा था की “बड़ा होकर चोर बनने से बेहतर है बचपन में ही मर जाय” – वह आवाज द्वारिका बाबू का था। द्वारिका बाबू भी नोवेल्टी में ही कार्य करते थे। वे बाबूजी को बारम्बार कह रहे थे, ‘चोर पुत्र होने से बेहतर है उसकी मृत्यु को जाय। इसे सबक सीखना जरुरी है ……” कुछ पल बाद मैं लगभग बेहोश अवस्था में ऊपर था और चारो तरफ लोग रखे थे।

उस भीड़ में अब तक उस परिसर की मालकिन बेगम साहिबा आ गई थी। बेगम साहिबा के मुख्य मकान में इण्डिया बुक हॉउस खुला था। नोवेल्टी उन दिनों बेगम साहिबा के गैरेज में चलता था। बेगम साहिबा उम्र में सबों से बड़ी थे। वे सबों को डांटती मुझे उठायीं और अपने घर लेकर चली गयीं।बेगम साहेब का मकान बहुत विशालकाय था। सफ़ेद रंग का मकान था।परिसर में पेड़-पौधे भी थे। सामने एक बेहतरीन पोर्टिको था जहाँ काली रंग की एकहेरिटेज मोटर गाड़ी लगी होती थी। उस माकन में ही उस समय का सबसे बड़ा पब्लिशर्स का पटना ब्रांच इंडिया बुक हाउस था जिसका मुख्य कार्यालय कलकत्ता में था, जबकि तारा भवन बनते समय नोवेल्टी एण्ड कम्पनी नवाब-बेगम के गैरेज में 12 महीना किरायेदार था।

बेगम साहेब अपने हाथों से पहले मेरा मुँह पोछीं फिर अपने घर के किसी बच्चे के वस्त्र मुझे पहना दीं। अपने घर में ही उन्होंने खाना कहलायीं, कपडा दीं और अपने पास रखने लगीं। बाबूजी से तीन दिनों तक मुलाकात नहीं थी। चौथे दिन मैं शाम में उसी स्थान पर खड़ा था जहाँ अस्थाचल गामी सूर्य की किरणें मुझे ढंककर आगे निकल रही थी। मेरी परछाई बहुत बड़ी हो गयी थी। लोग कहते हैं जब परछाई बड़ी होने लगे, समझाना चाहिए सूर्यास्त हो रहा है। लेकिन उस शाम मेरे जीवन का अंतिम सूर्यास्त था अगले दिन बेहतरीन सूर्योदय के लिए।

बाबूजी की नजर मुझ पर पड़ी। वे आगे आकर बुलाये। मैं सहमे-सहमे आगे बढ़ा। उस घटना के बाद मैं जीवन में कभी भी, उनकी अंतिम सांस तक, उन्हें “ना” नहीं कहा । बाबूजी वहीँ मैदान में बैठ गए और मुझसे फिर वही सवाल पूछे: क्यों पैसा निकाला था? अब तक मैं चीत्कार लेकर रोने लगा। रोने की आवाज सुनकर पुनः लोग एकत्रित होने लगे। मैं फफक-फफक कर रो रहा था। सांस भी रुक रुक कर आ रही थी। इतने में बाबूजी मुझे पहले अपने सीने में सटाये, अपने हाथ से मुझे दबाकर रखा, अपनी साँसों से मेरी साँसों को नियंत्रित किये।

कुछ देर बाद जब मैं सामान्य हुआ, अपनी जेब से सभी पैसे 16 रुपये तीस पैसे निकालकर उनके हाथों में रख दिए। वे अचंभित थे। फिर मैं कहा: “मैं आपके बक्से से पांच रुपये निकला था। चोरी नहीं किया था। सुवह-सुवह बच्चों को स्कूल जाते देखकर पढ़ने की ईक्षा होती है। मैं पढ़ना चाहता हूँ। इसलिए उस पांच रुपये में नोवेल्टी में जो पैसे मिले थे वह चालीस पैसे मिलाया।फिर सुवह-सुवह आपको बिना बताये गाँधी मैदान पैदल चलकर गया। वहां बनर्जी बाबू (बनर्जी बाबू सर्चलाइट और प्रदीप के एजेंट थे) से, पाठक जी (पाठक जी आर्यावर्त और इण्डियन नेशन के एजेंट थे) से अखबार ख़रीदा। फिर वहीं बसों में जाने वाले यात्रियों के हाथों बेचा। पहले दिन चार रुपये का मुनाफा हुआ था। उन दिनों पटना में अख़बारों का क्रय-बिक्रय के लिए मुख्य एजेंट थे मानदाता सिंह।

मैं लम्बी सांस खींचते फिर कहा: मैं अखबार बेचना चाहता हूँ, आपको मदद करना चाहता हूँ। पढ़ना चाहता हूँ। मेरे बाबूजी भी बच्चों की तरह रोने लगे थे। सामने दाहिने – बाएं रहने वाले सभी लोग, बच्चे, बृद्ध खड़े थे। बेगम साहिब भी अब तक पहुँच गयीं थी। फिर बेगम साहिब बाबूजी को कहती हैं – पंडितजी अल्लाह आपको बहुत बेहतरीन बच्चा दिया है। यह आपके जीवन की सभी मुरादें पूरा करेंगे, इंशाल्लाह।

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1968 से 1975 तक पटना कॉलेज के इक़बाल हॉस्टल, जैक्शन हॉस्टल, मिंटू हॉस्टल, न्यू हॉस्टल, जी डीएस हॉस्टल, फैराइड होटल के सैकड़ों छात्र-छात्राओं के साथ साथ दर्जनों प्राध्यापकों, दर्जनों प्रकाशक और पुस्तक विक्रेताओं (मसलन पुस्तक भण्डार, भारती भवन, लक्ष्मी पुस्तकालय) में आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप अख़बारों को फेंका करता था। विगत दिनों जब पुस्तक भण्डार के श्री रामबाबू जी से बात किया, अपने बारे में बताया तो सबसे पहले यही कहे: “आप तो नोवेल्टी वाले गोपाल बाबू का बेटा हैं न। आपको आज भी वह दिन याद है, यह सिर्फ विधाता का आशीर्वाद है।”

हम लोगों के ज़माने में पटना कालेज के छः ऐसे प्राचार्य हुए जो सम्भवतः कालेज प्रांगण के छात्र-छात्राओं को तो जानते ही थे, कॉलेज परिसर के बाहर सड़क पार की गलियों में रहने वाले गरीब-गुरबों के बच्चों को, चाहे रिक्शा चलाने वाले का बच्चा हो या दुकानदार का – जो कॉलेज परिसर में हुरदंग मचाते थे; नाम से ही नहीं, बाप के नाम से भी जानते थे।

उन प्राचार्यों में सबसे पहले थे प्रोफ़ेसर परमेश्वर दयाल (पी दयाल साहेब), प्रोफ़ेसर महेन्द्र प्रताप साहेब, प्रोफ़ेसर के पी अम्बष्ठा साहेब, प्रोफ़ेसर दामोदर ठाकुर साहेब, प्रोफ़ेसर केदार नाथ प्रसाद साहेब और प्रोफ़ेसर चेतकर झा साहेब । इन पांच प्राचार्यों के कार्यकाल में हम सभी बच्चे सात वर्ष की उम्र से 27 वर्ष की उम्र के हो गए थे। स्कूली शिक्षा से प्रारम्भ कर कॉलेज की शिक्षा के साथ-साथ विश्वविद्यालय की शिक्षा भी समाप्त कर अपने-अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के दिशा में यात्रा प्रारम्भ कर दिए थे। इनमें प्रोफ़ेसर पी दयाल साहेब और प्रोफ़ेसर महेंद्र प्रताप साहेब को छोड़कर, मेरी माँ को, मेरे बाबूजी को अन्य सभी प्राचार्य महोदय, उनकी पत्नियां, उनके बच्चे व्यक्तिगत रूप से भी जानते थे।

प्रोफ़ेसर अम्बष्ठा साहेब पटना कालेज के सामने एनी बेसेंट रोड में, जहाँ हम सभी किराये के मकान में रहते थे, मेरे मकान से तीन घर बाद प्रोफ़ेसर अम्बष्ठा साहेब का घर था – एकदम कुटिया नुमा, लाल रंग का। मकान के पीछे खेत। लकड़ी का दरवाजा सीधा सड़क पर खुलता था। उन दिनों सड़क के दोनों तरफ खुली नालियाँ बहती थी। अम्बष्ठा साहेब के पांच बेटे थे – प्रेम कुमार, कृष्ण कुमार, अशोक कुमार, शशी शेखर और ज्योति शेखर । हम बच्चों का लगाब बड़े (प्रेम कुमार), बीच में शशि बाबू और छोटे (ज्योति शेखर) से ही था। प्रेम बाबू और ज्योति शेखर दोनों पटना विश्वविद्यालय में व्याख्याता ही थे। ज्योति शेखर की नौकरी तो हम लोगों के सामने लगी थी। लवनचूस भी खिलाये थे मोहल्ले के बच्चों को।

प्रोफ़ेसर प्रेम कुमार वाणिज्य महाविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे । उन दिनों ज्योति शेखर जब भी दिल्ली आते थे, जनपथ अथवा चांदनी चौक से मुहल्लों के बच्चों के लिए, टी-शर्ट्स, स्वेटर्स जरूर लाते थे। उनका एक लेब्रेटा था। जबकि प्रेम कुमार साहेब के पास स्कूटर, जो अक्सरहां, वे बाएं झुक कर चलते थे, 20 किलोमीटर की गति से। प्रेम कुमार पटना से प्रकाशित दी इण्डियन नेशन अखबार के स्पोर्ट्स संवाददाता भी थे। उन दिनों, अक्सर हां, विश्वविद्यालय के शिक्षक ही पटना से प्रकाशित अख़बारों में खेल अथवा शैक्षिक संवाददाता का कार्य करते थे। आखिर “भाषा” का प्रश्न था। विगत दिनों ज्योति शेखर हम सबों को छोड़कर चले गए।

उन दिनों जब भी अम्बष्ठा साहेब से मिलने जाते थे, प्रायः सुवह में, वे अखबार लेकर बैठे होते थे और सम्पूर्ण अखबार को लाल-रंग में रंगे होते थे। कभी-कभार प्रोफ़ेसर प्रेम कुमार एक छात्र जैसा अपने शिक्षक के सम्मुख खड़े मिलते थे। सेव-जैसा लाल चेहरा और उस पर गुस्सा, यानि कुल टमाटर जैसा लाल प्रोफ़ेसर अम्बष्ठा साहेब को कहते सुनते थे: “यु पीपुल आर प्रोस्टीच्यूटिंग विथ इंग्लिश ग्रामर।” मजाल था की कोई जुवान भी हिला ले। अगर दरवाजा खुला रहा और प्रेम कुमार देख लिए आते हुए, इशारा से मना कर देते थे। हम भी “पीछे मुड़ -तेज चल” हो जाते थे।

वैसे जब प्रोफ़ेसर चेतकर झा पटना कॉलेज के प्राचार्य बने (फरबरी, 1979-1985) हम इनके पूर्व के प्राचार्य डॉ केदार नाथ प्रसाद, जो पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र स्नातकोत्तर विभाग के अध्यक्ष भी थे; के विभाग में प्रवेश ले लिए थे और एम ए में थे। लेकिन यहाँ मेरी एक विशेषता यह थी की अब तक मैं उस अखबार के सम्पादकीय विभाग में टेनियाँ पत्रकार हो गया था, जिन अखबारों को हम सन 1968 से 1975 तक केदार बाबू को उनके साइन्स कालेज स्थित आवास पर दिया करता था। हमें बहुत सम्मानित और कर्मठ छात्र मानते थे वे।

प्रोफ़ेसर चेतकर बाबू तो सम्पूर्ण पटना विश्वविद्यालय के “बाबा” थे। साथ ही, क्या शैक्षिक, क्या गैर-शैक्षिक कर्मचारीगण, क्या छात्र, क्या छात्राएं सभी अपनी-अपनी बातों, समस्याओं का समाधान “बाबा” के पास आकर ढूंढते थे। पटना कालेज के सामने बनारसी पानवाला और उसके बगल में ननकू जी होटल वाले तो उन्हें हनुमान चालीसा के चौपाई से भी सम्बोधित करते थे। वे दोनों कहते थे: “को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो।”

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