पटना कॉलेज @ 160: एक ऐतिहासिक कालेज जो ‘ए झा’, ‘बी झा’, ‘सी झा’, ‘डी झा’ और ‘एच झा’ प्रोफेसरो  के लिए विख्यात था (4)

पटना कॉलेज यानी 'ए झा', 'बी झा', 'सी झा', 'डी झा' और 'एच झा' -  फोटो राहुल मिश्र 

बिहार में किसी भी विश्वविद्यालय अथवा महाविद्यालय में प्राध्यापकों की ऐसी सूची नहीं रही होगी जो इस ऐतिहासिक कालेज में थी यानी ‘ए झा’, ‘बी झा’, ‘सी झा’, ‘डी झा’ और ‘एच झा’। यह तो पक्का है कि #पटनाकालेज ही नहीं, बल्कि पटना विश्वविद्यालय में वर्तमान में पढ़ रहे अथवा पढ़ा रहे छात्र-छात्राओं और प्राध्यापकों के एक विशाल समूह को यह मालूम नहीं होगा कि बिहार में सिर्फ और सिर्फ पटना कॉलेज ही ऐसा था, जहाँ ‘ए झा’, ‘बी झा’, ‘सी झा’, ‘डी झा’ और ‘एच झा’ नामक प्राध्यापक थे, जो अपने-अपने विषयों में हस्ताक्षर थे, पारंगत थे।

उससे भी बड़ी बात यह थी कि वे सभी विद्वान लोग पटना के अशोक राजपथ पर स्थित पहले के दो तल्ला से लेकर बाद में बने पांच-तल्ला भवन – नोवेल्टी एंड कंपनी – में महीने में औसतन एक सप्ताह सांध्य कालीन चाय की चुस्की लेना नहीं भूलते थे। वे कभी भी यह नहीं भूलते थे कि चाय के बाद या तो ‘हरिहर’ या फिर ‘बीरबल’ का ‘मगही पान’ का रसास्वादन करना। चाय का बंदोबस्त तो नोवेल्टी के बरामदे के दाहिने कोने पर ‘महेश’ या ‘जगना’ या फिर दोनों के ‘बाबूजी’ के हाथों हो जाती थी, पान के लिए उस दूकान में कार्य करने वाला ‘टेनिया’ (यानी मैं – इस कहानी का लेखक) हमेशा सज्ज रहता था। दूकान की सीढ़ी से जितनी ही दूरी ‘हरिहर पान वाला’ था, उतनी ही दूरी ‘बीरबल पान वाला।” आज भी हरिहर का बेटा अपने पिता की दूकान से पांच हाथ पहले पहले के इण्डिया बस हॉउस (वर्तमान में अस्पताल) की ओर जाने वाली गली के नुक्कड़ पर विराजमान है। खैर।

समयांतराल ‘ए झा’, ‘बी झा’, ‘सी झा’, ‘डी झा’ और ‘एच झा’ नामक ‘अल्फबेटों’ से प्रारम्भ होने वाले नामों में कुछ और ‘अल्फाबेट्स’ वाले नाम जुड़ते गए जिनका ‘उपनाम’ ‘झा’ नहीं होकर ‘मिश्र’, ‘मिश्रा’, ‘चौधरी’, ‘पाठक’, ‘सिंह’, ‘सिन्हा’ ‘प्रसाद’, ‘कुमार’ इत्यादि होता था । पटना कालेज के जो पांच ऐतिहासिक अल्फाबेट्स वाले प्राध्यापक थे उनमें प्रोफ़ेसर अनिरुद्ध झा, प्रोफेसर बेचन झा, प्रोफ़ेसर चेतकर झा, प्रोफ़ेसर दिवाकर झा और प्रोफ़ेसर हेतुकर झा थे ।

बाद में, प्रोफ़ेसर जगदीश चंद्र झा (जे सी झा), प्रोफ़ेसर एम एन झा (प्रोफ़ेसर मित्र नंदन झा), प्रोफ़ेसर आनंद मिश्र आदि भी जुड़े । प्रोफ़ेसर जे सी झा उन दिनों टटका-टटका पटना विश्वविद्यालय में आये थे विदेश से । राजेंद्र नगर मोइनुल हक़ स्टेडियम के सामने रहते थे। प्रोफ़ेसर जे सी झा वर्तमान में बॉलीवुड के एकमात्र ‘झा क्रिटिक’ (सुभाष के झा) और वर्तमान में विश्व बैंक में साउथ एशिया रीजन के क्लाइमेट चेंज और डिसास्टर रिस्क मैनेजमेंट के वरिष्ठ अधिकारी आभास झा के पिता थे। खैर।

उन दिनों पटना कॉलेज के तत्कालीन प्राध्यापकगण अपने-अपने विषयों में पारंगत होने के बावजूद कभी भी वे पटना कॉलेज अथवा बी एन कालेज स्टाफ क्लब में बैठकर तत्कालीन विषयों पर चर्चा करने में कोताही नहीं करते थे। चाहे भूगोल का चौहद्दी के बारे में हो या राज्य-देश और विश्व की राजनीति के बारे में, चाहे हिंदी साहित्य में बेवजह स्थानीय भाषाओं का प्रवेश और दखलंदाजी की बात हो या फिर प्रदेश के उद्योगों में कार्यरत कामगारों के बारे में हो – समाज के सभी क्षेत्रों से सरोकार रखने वाले वे प्राध्यापकगण चर्चाएं खूब करते थे, खुलकर करते थे ।

उनकी चर्चाएं इतनी सामायिक होती थी कि स्थानीय अख़बार वाले, मसलन आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप के संपादक महोदय उसे प्रकाशित करने में भी कोताही नहीं करते थे। इतना ही नहीं, प्रदेश के तत्कालीन राजनेताओं, विधि-व्यवस्था में कसरत करते लोग उन प्राध्यापकों की बातों को, चर्चाओं को कभी भी ‘अन्यथा’ के रूप में नहीं स्वीकारते थे – चाहे वे राजनेताओं को पटना के गांधी मैदान में सार्वजनिक रूप से शब्दों से नग्न कर देते हों। अनुशासन अपने उत्कर्ष पर था और प्राध्यापकों की ‘इज्जत’ भी थी।

यह बात साठ के दशक के पूर्वार्ध से लेकर सत्तर के दशक के उत्तरार्ध तक अपने उत्कर्ष पर था। या यूँ कहें कि जब तक पटना विश्वविद्यालय परिसर में प्रदेश की राजनीतिक व्यवस्था की गन्दी हवा प्रवेश नहीं ली थी। बिना किसी भय और द्वेष के तत्कालीन प्राध्यापक, मसलन प्रोफ़ेसर आर एस शर्मा, प्रोफ़ेसर वी पी वर्मा, प्रोफ़ेसर चेतकर झा, प्रोफ़ेसर अनिरुद्ध झा, प्रोफ़ेसर हरि मोहन झा, प्रोफ़ेसर योगेंद्र मिश्र, प्रोफ़ेसर गणेश प्रसाद सिन्हा, प्रोफ़ेसर पी एन शर्मा, प्रोफ़ेसर केदारनाथ प्रसाद, प्रोफ़ेसर के के दत्ता, प्रोफ़ेसर सचिन दत्त, प्रोफ़ेसर आर सी सिन्हा, प्रोफ़ेसर महेंद्र प्रताप, प्रोफ़ेसर डी एन शर्मा आदि खुलकर विभिन्न विषयों पर ‘सकारात्मक बहस’ करते थे।

तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था की आलोचना करते थे, कभी-कभी पीठ भी थपथपाते थे। उन सभी लोगों के मन में एक बात अवश्य होती थी कि उक्त बैठक में होने वाली चर्चाओं का सकारात्मक प्रभाव पटना विश्वविद्यालय के सभी कालेजों पर पड़े। एक गजब का अनुशासित और शिक्षित माहौल था उन दिनों। आज के लोग, चाहे छात्र हो या प्राध्यापक, विभागाध्यक्ष हों या प्राचार्य, कुलपति हों या कुलाधिपति – सोच नहीं सकते हैं।

ये भी पढ़े   पटना कालेज @ 160 : पटना विश्वविद्यालय के दो समाजशास्त्री जिन्होंने समाज शास्त्र को पुनः परिभाषित किये (10)

मैं पटना आया ही था और बाबूजी ‘बुक सेंटर’ से निकलकर नोवेल्टी एंड कंपनी आ गए थे। बाबूजी अंग्रेजी के ज्ञाता नहीं थे। हिन्दी और संस्कृत विषयों में उतना ज्ञान अवश्य रखते थे कि अपने बच्चों को आदमी से इंसान बनने का मार्ग बताते रहें। वे कहते थे, रास्ता मैं बताऊंगा, उसे प्रसस्त तुम्हें करना है, अपनी मेहनत से, बात से, विचार से। उनका अक्षर बहुत ही बेहतरीन था। वे बनारस के मणिकर्णिका घाट और गौहाटी के कामाख्या मंदिरों में तंत्र की साधना किये थे। वर्षों बाद उन्हें सिद्धता भी मिली थी। भगवद्गीता का सभी 700 श्लोक उन्हें कंठस्थ था। बातचीत के दौरान जब भी किसी विषय पर अथवा विचार पर दृष्टान्त देने की बात होती थी, बाबूजी हमेशा भगवद्गीता को उद्धृत करते थे।

वे हमेशा कहते थे: “जीवन में पढ़ने के महत्व को कभी कम नहीं होने देना। भूख तीन तरह की होती है मनुष्य के शरीर में। एक भूख शरीर के निचले हिस्से में होगी। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे शरीर का आकार-प्रकार बढ़ता है, शारीरिक भूख की परिभाषा भी बदलती जाती है। उस भूख पर नियंत्रण रखना। दूसरी भूख शरीर के मध्य ‘पेट’ में होती है। यह भूख जीवित रहने के लिए आवश्यक है। लेकिन इसे ‘जीवित रहने’ से अधिक नहीं बढ़ने देना। और तीसरी भूख शरीर के ऊपरी हिस्से में, मष्तिष्क में होती है। इस भूख को जितना अधिक चाहो, बढ़ाना।

बाबूजी कहते थे: “तुम जिस स्थान पर आज हो (नोवेल्टी एंड कंपनी) यह स्थान तुम्हे उस भूख (मस्तिष्क की भूख) को शांत करने में, उत्तेजित करने में मददगार होगा। इस संसार में बहुत कम बच्चे हैं जिन्हे किताब नसीब होता है और तुम तो किताबों के समुद्र में हो। जो इसे लिखते हैं, उन्हें देखते हो, जानते हो; जो प्रकाशित करते हैं वहां भी तुम जाते-आते हो, जो बेचते हैं उन्हें तो जानते ही हो – बस तुम पढ़ते रहना। शिक्षा ही तुम्हारा प्रथम और अंतिम अस्त्र होगा। जीवन में कभी मेहनत करने में लुकाछिपी नहीं करना। मेहनत समय और ईश्वर के नजर में रहता है। ईश्वर और समय तुम्हें हमेशा अपनी नजर में आंकते रहेंगे। बचपन से किताबों के बीच रहने के कारण कागज के पन्नों का सुगंध से यह अंदाजा हो जाता था कि कितना जीएसएम वाले कागज़ पर उस पुस्तक की छपाई हुयी है।”

मेरे पटना आगमन के कुछ वर्ष पूर्व श्री तारा बाबू इस जमीन को क्रय किये थे और अपने जीवन और व्यवसाय को नए सिरे से गढ़ने की एक कभी नहीं समाप्त होने वाली यात्रा का आरम्भ करने जा रहे थे। उस ज़माने में नोवेल्टी के दाहिने तरफ त्रिवेदी स्टूडियो और बाएं सरदारजी की एक बिजली की छोटी सी दूकान कृष्णा स्टोर्स थी। आज इसी नाम से अब यह दूकान फ़्रेज़र रोड स्थित चांदनी चौक मार्केट (तत्कालीन आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्र के दफ्तर के बगल में) ‌है।

कृष्णा स्टोर्स के ठीक बगल में नेशनल बुक डिपो था, जो समयांतराल अब पटना कॉलेज के सामने चला गया है। इस दूकान के बाद एक फल वाले की दूकान थी, फिर गीता प्रेस की एक दूकान और और उसके बाद रीगल होटल। रीगल होटल के प्रवेश द्वार से एक हाथ बाएं हटके बाहर बिजली के खम्भे के नीचे एक मौलवी साहब की अण्डे की दूकान थी – पन्द्रह पैसे में एक और चौवन्नी में दो । रीगल के बाद एक किताब की दूकान ‘पुस्तक महल’ थी। पुस्तक महल के बगल में नालन्दा के रस्तोगी साहेब का ‘पुस्तक जगत’ था, जो बाद में बीएन कॉलेज के सामने चली गयी। फिर एक दवाई की दूकान । इन दो दूकानों के बीच बीरबल पान वाला था ।

इस दूकान से चार कदम पर एक रास्ता नीचे लुढ़कती थी, खजान्ची रोड और खजान्ची रोड के ठीक सामने अशोक राज पथ पर दाहिने तरफ था ऐतिहासिक खुदाबख्श पुस्तकालय। ख़ुदाबक्श पुस्तकालय के बगल से उस दिन भी एक रास्ता चिकित्सा महाविद्यालय के रास्ते गंगा के किनारे जाता था। समय का प्रारब्ध देखिये, आज भी खुदाबख्श राष्ट्रीय ओरिएंटल पुस्तकालय के निदेशक श्रीमती शायस्ता बेदार के पास और मेरे पास एक-दूसरे का संपर्क है। विगत दिनों जब दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के बारे में साठ के दशक के प्रारंभिक महीनों के बारे में जानकारी चाहिए थी, मोहतरमा शायस्ता बेदार खुद ख़ोज की और मुस्कुराते उपलब्ध करायीं। खैर।

ये भी पढ़े   पटना कॉलेज@160: छः ऐसे प्राचार्य हुए जो गलियों में रहने वाले गरीब-गुरबों के बच्चों को नाम से ही नहीं, बाप के नाम से भी जानते थे (5)

नोवेल्टी के दाहिने तरफ तत्कालीन पटना के एक सम्भ्रान्त फोटो स्टूडियो था – त्रिवेदी स्टूडियो। इस स्टूडियो में पटना के सम्भ्रान्त, सुन्दर लोग ही फोटो खिंचवाते थे। फिर थी उषा सिलाई मशीन का प्रशिक्षण केंद्र। इस प्रशिक्षण केंद्र के दाहिने दीवार से लगी कोई चार-फिट की एक छोटी सी किताब की दूकान थी, जो इस भवन के पीछे बेगम साहिबा के आवासीय कालोनी में रहने वाले कोई सज्जन चलाते थे। उनकी एक आँख खराब थी। सिलाई मशीन और इस किताब की दूकान के सामने फुटपाथ पर साइकिल बनाने वाले एक मिस्त्री जी कार्य करते थे। इस किताब की दूकान से कोई दस फिट दाहिने हरिहर पान वाले की एक दूकान थी और उन्हीं के दूकान से लगी थी एक चश्मे की दूकान । मुझे इस दो-सौ कदम तक ही चहलकदमी करने की इजाजत थी। इससे अधिक नहीं। मैं कोई पांच-छः साल का था।

हमारे तत्कालीन नोवेल्टी भवन में बाएँ तरफ लोहे का खींचने वाला गेट था, जो एक गली-नुमा रास्ते से 25-कदम चलने के बाद छोटा सा आँगन में निकलता था। आँगन के दाहिने कोने पर एक सीढ़ी थी। आँगन से सड़क की ओर दूकान में प्रवेश का रास्ता था। आम तौर पर आँगन में किताबों के बण्डल, रस्सी, सुतली, गत्ता, क़ैंची, चाकू, सुराही, रखा होता था। ग्राहकों का किताब तक्षण इस आँगन में बांधा जाता था। यह आँगन और बरामदा हमारे पिता-रूपी ब्रह्माण्ड की दुनिया थी।

वजह भी था – उनकी उतनी आमदनी नहीं थी, या यूँ कहें की आवश्यकता भी नहीं थी की बाहर किसी मोहल्ले में किराये पर मकान लें। पूर्णिया से बाद मगध की राजधानी, जहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य राजा हुआ करते थे, चाणक्य जैसे उनके गुरु थे – मैं इस राजधानी में पहली बार अपना सर पिता-रूपी ब्रह्माण्ड के नीचे श्री तारा बाबू की दुनिया में अपना सर छुपाया। श्री तारा बाबू को हम सभी “मालिक” कहते थे। बहुत कड़क-मिजाज के थे।

अनुशासन उनके जीवन में बहुत महत्व रखता था। समय के बहुत पाबंद थे। मेहनत उनके जीवन का मूल-मन्त्र था, गायत्री मन्त्र जैसा। मुझे दूकान के अलावे मछुआ टोली स्थित उनके घर पर आने-जाने की पूरी स्वतंत्रता थी। घर पर हमारे उम्र के उनके पोते-पोतियाँ मुझे अपने घर का हिस्सा ही समझते थे। मुझे आज तक ऐसी कोई घटना याद नहीं है जिसमें हमें उन लोगों की बातों से, व्यवहारों से कोई कष्ट हुआ हो, आत्मा दुःखी हुआ हो।

उस दिन मैं नहीं जानता था कि नोवेल्टी की भूमि पर ही त्रिनेत्रधारी महादेव मेरे जीवन की रेखाएं खींचने का केन्द्र बिंदु बनाएंगे । लेकिन आज साढ़े – पांच दसक बाद भी उन तमाम बातों का याद रहना इस बात का गवाह है कि महादेव को मैं कभी धोखा नहीं दिया। मालिक और उनके परिवार, परिजनों को दिए जाने वाले सम्मान में कोई कटौती नहीं किया।

तभी तो आज भी मालिक की तीसरी पीढ़ी भी मुझे उतना ही सम्मानित नजर से देखता हैं, जितने सम्मान के साथ हम सभी बचपन में घर पर खेला कहते थे। खैर, शायद उसी दिन महादेव ने मालिक के हाथों एक “बिन्दु जैसी नींव” भी रख दिया था जो आगे चलकर पटना के अशोक राज पथ से कलकत्ता की चौरंगी के रास्ते, दिल्ली के राजपथ होते हुए लन्दन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों में अपनी मेहनत का, अपनी सोच का, अपनी हुनर का, अभी पेशा का ध्वज लहराएगा। यह एक श्रद्धांजलि स्वरुप हैं उन महात्मनों को जो मेरी जीवन को संवारने में भूमिका निभाए। दिल्ली के राजपथ तक आते आते कई लोग ईश्वर को पराये हो गए, उनमें मेरे ब्रह्माण्ड (पिताजी) और नोवेल्टी एण्ड कम्पनी के मालिक भी थे। लेकिन आज भी वे सभी मेरे इर्द-गिर्द ही हैं और मैं महसूस भी करता हूँ।

उस ज़माने की दो घटना, जो पटना कालेज के राजनीतिक शास्त्र विभाग से जुडी है, महत्वपूर्ण है। उन दिनों नोवेल्टी द्वारा एक राजनीती शास्त्र का किताब छपने के लिए प्रस्तावित था। उन दिनों हाथ से कम्पोज होता था फिर प्रूफ रीडर मुख्य आलेख को पढ़कर, तदनुसार उस प्रूफ में छपे तथ्यों को शुद्ध करता था। ऐसा माना जाता था कि प्रूफ रीडर किताब के लेखक से अधिक महत्वपूर्ण होता था, जहाँ तक किताब के प्रकाशन का सवाल है। मुझे प्रूफ का एक बण्डल लेकर प्रोफ़ेसर चेतकर झा के विभागीय कार्यालय में पहुँचाना था। उनका कार्यालय और नोवेल्टी एंड कंपनी के बीच की दूरी हम बच्चों के लिए हनुमान जैसा उछलकर जाना था। मैं दौड़कर प्राचीन इतिहास विभाग होते राजनीतिक शास्त्र विभाग में प्रोफ़ेसर चेतकर झा के कार्यालय में पहुँच गया। उस समय प्रोफ़ेसर झा अपने कार्यालय में नहीं थे, अलबत्ता उनके सहकर्मी प्रोफ़ेसर मित्र नंदन झा बैठे थे, और कुछ कार्य में मसगुल थे।

ये भी पढ़े   पटना कालेज @ 160 : ईंट, पत्थर, लोहा, लक्कड़, कुर्सी, टेबल, प्रोफ़ेसर, छात्र, छात्राएं, माली, चपरासी, प्राचार्य सबके थे रणधीर भैय्या (12)

इससे पहले की मैं प्रोफ़ेसर चेतकर झा के बारे में कुछ पूछूं, अथवा वह प्रूफ वहां रखकर वापस होऊं; पटना कालेज की पांच-छः छात्राएं कार्यालय में प्रवेश ली। उन दिनों पटना कालेज की छात्राएं भी बेहद खूबसूरत होती थीं। उनमें से एक छात्रा प्रोफेसर मित्रनंदन झा से प्रोफ़ेसर चेतकर झा के बारे में पूछ बैठी – “सर !! प्रोफ़ेसर चेतकर बाबू कहाँ हैं?” प्रोफ़ेसर मित्रनंदन झा अपने कार्य को रोक कर, बिना किसी प्रकार का उत्तर दिए अपने टेबुल का ड्रावर खोले, आलमीरा खोले, विभाग के कोने में रखे अख़बारों, कागजातों को इधर उधर किये, पर्दा को हटाकर देखे – हम सभी यह सोच रहे थे कि शायद कुछ ढूंढ रहे हैं। फिर उन छात्राओं की ओर देखकर प्रोफ़ेसर मित्रनंदन झा कहते हैं: “बहुत ढूंढा चेतकर झा को, नहीं मिले। …..” सभी छात्राएं क्षणभर में रफू चक्कर हो गयीं। मुझे अब बोलने की हिम्मत नहीं थी। मैं यह कहकर उस प्रूफ के बंडल को टेबल पर रख दिया कि तारा बाबू यह प्रूफ दिए हैं। राजनीति शास्त्र के किसी किताब का है जो प्रकाशन के लिए है।” वे लपककर उसे उठाये और मैं कदम-ताल करते नौ-दो-एग्यारह हो गया।

उस घटना से कोई तीन चार साल पहले एक और घटना घटी थी, जिसमें प्रोफ़ेसर चेतकर झा का नाम उत्कर्ष पर था। यह बात नित्य नोवेल्टी में चाय की चुस्की के साथ एक बार अवश्य होती थी। उस ज़माने में पटना विश्वविद्यालय के कुलपति ने राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर के पद को सीधी भर्ती से भरने के लिए कुलाधिपति की स्वीकृति प्राप्त कर पद का विज्ञापन बिहार लोक सेवा आयोग के माध्यम से करवाया था ।

लोक सेवा आयोग ने एक विज्ञापन जारी किया जिसमें आवश्यक योग्यता “विषय में प्रथम या द्वितीय श्रेणी की मास्टर डिग्री थी।” चूंकि संबंधित विश्वविद्यालय क़ानून में ऐसी कोई आवश्यकता नहीं थी, इसलिए कुलपति ने आयोग के माध्यम से एक और विज्ञापन प्रकाशित किया जिसमें योग्यता का उल्लेख “प्रथम या द्वितीय” था। राजनीति विज्ञान या संबद्ध विषय में कक्षा मास्टर डिग्री।” आयोग ने दो विशेषज्ञों से परामर्श करने के बाद नियुक्ति के लिए श्री विश्वनाथ प्रसाद वर्मा के नाम की सिफारिश की, जिनमें से केवल एक साक्षात्कार में उपस्थित था, दूसरे ने डाक द्वारा अपनी राय भेजी थी। विश्वविद्यालय के सिंडिकेट ने मई 7, 1963 की अपनी बैठक में आयोग की सिफारिश पर विचार किया। बाद में फिर अनेकानेक बैठकें हुई और निर्णय को आगे बढ़ाया जाय या रोक लिया जाय – के मुद्दे पर चर्चाएं होती रही।

उस ज़माने में सिनेट और सिंडिकेट बहुत प्रभावशाली होता था। पटना विश्वविद्यालय का सीनेट और सिंडिकेट तो मजबूत था ही। मसला कचहरी पहुंचा । प्रोफ़ेसर चेतकर झा विश्वनाथ प्रसाद वर्मा की नियुक्ति को चुनौती दिए थे। नियुक्ति को चुनौती देते हुए विश्वविद्यालय के कुलाधिपति को अभ्यावेदन दिया गया । पटना विश्वविद्यालय अधिनियम, 1962 की धारा 9(4) के तहत कार्य करने वाले कुलाधिपति ने नियुक्ति करने वाले सिंडिकेट के प्रस्ताव को रद्द कर दिया। यह कहा गया कि संशोधित विज्ञापन अनधिकृत था क्योंकि यह क़ानून के विरुद्ध था और उसमें संशोधन करने की मांग की। और इसलिए भी कि यह कुलाधिपति की पूर्व अनुमति के बिना जारी किया गया था।

यह भी कहा गया कि चूंकि इस चयन से जुड़े विशेषज्ञों में से केवल एक ही साक्षात्कार में उपस्थित था, अधिनियम की धारा26(2) का उल्लंघन किया गया था। इसके अतिरिक्त कुलपति की कार्रवाई का उल्लेख करते हुए यह भी कहा गया कि आयोग द्वारा पुनर्विचार का मामला सिंडिकेट के अधिकार के बिना था और धारा 26(4) (iv) के तहत वारंट नहीं था। बहुत तरह की बातें हुई, अखबार बाजी हुई। प्रोफ़ेसर चेतकर झा और उनके गुट तथा प्रोफेसर विश्वनाथ प्रसाद वर्मा और उनके गुटों के बीच मुंह-फुलौव्वल कई वर्षों तक रहा।

लेकिन, उस घटना के बाद एक निर्णय भविष्य के अभ्यर्थियों के लिए पैमाना बन गया। सीनेट, सिंडिकेट, अदालत, कुलपति, कुलाधिपति – सबों के दफ्तरों में प्रोफ़ेसर चेतकर झा और प्रोफ़ेसर विश्वनाथ प्रसाद वर्मा चर्चाएं आम से चर्चाएं ख़ास हो गए। बहुत सारे क़ानूनी उठा पठक हुए और अंत में प्रोफ़ेसर विश्वनाथ प्रसाद वर्मा यानि वी पी वर्मा साहब राजनीतिक शास्त्र विभाग में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दिए और पटना विश्वविद्यालय अधिनियम में भी कुछ परिवर्तन हुए।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here