मिथिला स्टूडेंट्स यूनियन का ‘पीला झंडा’ एक ‘विश्वास’ का प्रतीक है, एक ‘शुरुआत’ का प्रतीक है, एक ‘संकल्प’ का प्रतीक है

मिथिला स्टूडेंट्स यूनियन का पीला झंडा एक विश्वास का प्रतीक है, एक शुरुआत का प्रतीक है, एक संकल्प का प्रतीक है

दरभंगा: आप माने या नहीं, समय आ गया है। बिहार के नौजवानों को, युवकों को, युवतियों को बिना किसी राजनीतिक पार्टी के झंडे तले अथवा राजनेताओं का पिछलग्गू (फॉलोवर्स) बने, एकजुट होकर अपने-अपने पंचायत से लेकर विधानसभा क्षेत्रों के उत्थान के लिए कार्य करना होगा। साथ ही, अपने कार्यों से, अपनी सोच से, बिहार विधान सभा में कुर्सी तोड़ते 243 सम्मानित सदस्यों को चुनौती देना होगा – ‘सभ्यता’ के साथ, ‘अनुशाशन’ के साथ और ‘तन्मयता’ के साथ, ‘आत्मविश्वास’ के साथ। अन्यथा लिख लें जीवन भर “पिछलग्गू” ही बने रह जाएंगे और पटना के जयप्रकाश नारायण अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे  पर आगंतुक नेताओं के स्वागतार्थ ‘ताली’ बजाते रह जायेंगे। 

आज समय आ गया है कि हम बिहार के नौजवानों को प्रदेश के विधान सभा में विभिन्न बीमारियों से पीड़ित समान्नित सदस्यों को कार्यमुक्त कर स्वास्थ लाभ की कामना की जाय। समय आ गया है जब जीवन के अंतिम सांस तक विधान सभा की कुर्सियों का मोह भांग नहीं होने वाले सम्मानित विधायकों को वृद्धावस्था में अपने परिवार और परिजनों के साथ समय गुजारने का अवसर दिया जाय। अगर विगत चुनाव के आंकड़े पर नजर दिया जाय तो 2015 चुनाब की तुलना में “वृद्ध” विधायकों की संख्या अधिक है। 

2015 चुनाव में 40-वर्ष और कम आयु के विधायकों की फ़ीसदी जहाँ 16 फीसदी थी, वहीँ 41 से 55 वर्ष की आयु वाले 53 फीसदी थे। आकंड़ों का फीसदी भले 14 फीसदी और 48 फीसदी 2019 विधानसभा चुनाव के बाद हो गयी हो, लेकिन 56 से 70 वर्ष वाले विधायकों की फीसदी 27 फीसदी से बढ़कर 33 फ़ीसदी और 70 से अधिक उम्र वालों की फीसदी 5 फीसदी है। यह अनुसन्धान ही नहीं, बल्कि सार्वजनिक विश्लेषण करने का समय है कि अगर बिहार सरकार के विभिन्न कार्यालयों, यानी सरकारी नौकरी में कार्यकरने वाले कर्मचारी 60-वर्ष में सेवा से अवकाश प्राप्त करने लायक हो जाते हैं – किसी किसी परिस्थिति में उम्र से पहले भी सेवामुक्त होने हेतु फ़रमान प्राप्त कर लेते – तो फिर उन वृद्ध विधायकों को नई पीढ़ियों के साथ, नए युवकों-युवतियों के साथ क्यों न विस्थापित किया जाय ? 

एसोसिएशन ऑफ़ डैमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के आंकड़े के अनुसार वर्तमान विधान सभा में “वृद्धों” की संख्या “युवाओं” की तुलना में अधिक है – मसलन 126 सम्मानित विधायकों की उम्र 51 और 80 वर्ष है, जबकि 115 सम्मानित विधायक 25 और 50 वर्ष के हैं। अगर आप ध्यान देंगे तो प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री सम्मानित नीतीश कुमार जो आगामी पहली मार्च को “सेप्टुआजेनेरियन” की सूची में अंकित होने जा रहे हैं। यानी वे 71-वर्ष के होने वाले हैं। सुनने में रहा है कि यही कारण है कि उनसे छः माह उम्र में बड़े देश के ‘सेप्टुआजेनेरियन प्रधानमंत्री’ नीतीश कुमार के सम्मानार्थ उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी से उठाकर दिल्ली के महामहीम की कुर्सी पर – चाहे कनिष्ठ हो या वरिष्ठ – बैठाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं । प्रधानमंत्री चाहते हैं कि प्रदेश का कमान “सेप्टुआजेनेरियन, ऑक्टोजेनेरियन, नॉनजेनेरियन” के हाथों नहीं, बल्कि जिस तरह सरकारी कर्मचारी 60 वर्ष में सेवा मुक्त हो जाने लायक, पेंशन पाने लायक हो जाते हैं; विधायकों और सांसदों के लिए भी यही नियम होनी चाहिए। 

सबसे बड़ी बात तो ‘राजनीति का अपराधीकरण’ से सम्बंधित है। बिहार में कुल 123 विधायकों, यानी 51 फीसदी का सम्बन्ध प्रदेश के अपराध जगत से है। इनमें 19 विधायक ‘हत्या’ के मामले में आरोपित हैं, जबकि 31 ‘हत्या करने की कोशिश’ में। कोई आठ सम्मानित विधायक ऐसे हैं जो ‘महिला के उत्थान और संरक्षण’ की बात तो करते हैं; परन्तु वे ‘महिला उत्पीड़न’ मामलों में आरोपित हैं। जहाँ तक उन सम्मानित विधायकों का राजनीतिक पार्टी के साथ सम्बन्ध का सवाल है, सबसे अधिक राष्ट्रीय जनता दल के विधायक (44) हैं, फिर भारतीय जनता पार्टी के 37 विधायक, जनता दल और कांग्रेस के 11, सीपीआई (एमएल) के आठ तथा ऐमिम के पांच विधायक।

यह तो अपराध की बात हुई। अब जरा धन की बात पर चर्चा करें। जब दिल्ली से धन प्राप्त करने की बात होती हैं, दिल्ली के माध्यम से विश्व के अन्य देशों से धन मांगने की बात होती है; बिहार के नेता से लेकर अधिकारी तक (मांगने वाले) अपने प्रदेश को सबसे गरीब राज्य घोषित कर देते हैं। भीख मांगने में तनिक भी संकोच नहीं करते हैं। यह कहने में तनिक भी लज्जित नहीं होते उनके राज्य में लोगों को दो-जून की रोटी तक नसीब नहीं है। चिकित्सा सुविधा के अभाव में नित्य हज़ारों लोग मृत्यु को प्राप्त करते हैं। शिक्षितों का प्रतिशत कागज पर सबसे नीचे रख देते हैं। उद्योग को मृत करार कर उसका तेरहवीं-चौदहवीं भी कर देते हैं। गया जाकर बिहार के सभी उद्योगों के नाम पर ‘पिंडदान’ भी कर देते हैं। क्योंकि सवाल ‘मुफ्त में मिलने वाले पैसे का है और फिर बन्दर-बाँट।” 

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मन में हैं विश्वास 

लेकिन कभी यह आंकने की कोशिश नहीं की जाती है कि प्रदेश के विधान सभा में इत्र से नहाये, लाख़ों-लाख की आधुनिक साज-सज्जा से लैश चार-पहिया वाहन से उतरने वाले सफ़ेद वस्त्रधारियों में कोई 67 फीसदी महामानव “करोड़पति” हैं। यानी 12 करोड़ आवादी वाले राज्य में, जहाँ 243 लोग प्रदेश की जनसख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनमें 168 महामानवों के पास न्यूनतम करोड़ों की संपत्ति हैं और अधिकतम 41 करोड़ की संपत्ति हैं। 

सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) और विपक्ष के राष्ट्रीय जनता दल के 149 सम्मानित विधायक ‘करोड़पति’ हैं। फिर भारतीय जनता पार्टी के 33 विधायक, कांग्रेस के 17 विधायक, लोक जनशक्ति पार्टी के एक विधायक करोड़पति और अधिक संपत्ति के मालिक हैं।एसोसिएशन ऑफ़ डैमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के आंकड़े के अनुसार खगड़िया के विधायक पूनम देवी यादव की संपत्ति विधान सभा के प्रति विधायक की संपत्ति से कोई चौदह-गुना अधिक है। इनके बाद भागलपुर के विधायक माननीय अजीत शर्मा साहेब का स्थान है। शर्मा जी कोई 40 करोड़ संपत्ति के मालिक हैं। 

अब आप सोचें कि कागज पर जिस प्रदेश का शैक्षिक दर कागज पर 69.83 फीसदी है, जहाँ पुरुष साक्षरता दर 70.32 फीसदी है, महिला करीब 53. 57 फीसदी साक्षर हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कोई 57 फीसदी पुरुष और 30 फीसदी महिला साक्षर हैं – उस राज्य में नवमी कक्षा वाला स्वयंभू नेता ही ‘मुख्यमंत्री’ का दावा कर सकता है और लोग उसे चुनकर भेजेंगे भी – चाहे भय से भेजें चाहे पिछलग्गू होने के कारण। 

क्योंकि विगत 22 मुख्यमंत्रियों की सूची में प्रदेश पहला और दूसरा विधान सभा के बाद, यानी श्रीकृष्ण सिन्हा जब 26 जनवरी, 1950 को प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय में आसीन हुए, तबसे अपने जीवन के अंतिम सांस (31 जनवरी, 1961) के बाद बिहार कभी विकास का मार्ग देखा नहीं। यह अलग बात है कि इन विगत वर्षों में यानी 31 जनवरी, 1961 से 10 मार्च, 1990 तक 20 मुख्यमंत्रियों ने कार्यालय और कुर्सी का शोभा बढ़ाये। सन 1990 के बाद (अगर बीच के सात-दिवस – 3 मार्च, 2000 से 10 मार्च, 2000 को नजर अंदाज कर दिया जाय, जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे), यानी 10 मार्च, 1990 से 6 मार्च, 2005 तक राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व में लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी के कार्यकाल में प्रदेश की विकास रेखाएं किस ओर उन्मुख हुई, यह तो प्रदेश के लोग अधिक जानते हैं। 

इसी बीच अवतरित होते हैं जीतन राम मांझी प्रदेश के 23 वें मुख्यमंत्री के रूप में और कार्यालय में उपलब्ध रहे कुल 228 दिन। पन्द्रहवीं विधान सभा का समय था।  माझी साहब अपने कार्यालय के दौरान प्रदेश के विकास पर कोई चर्चा नहीं किये; अलबत्ता, “चूहा” व्याख्यान पर समय निकाले। परिणाम यह हुआ कि नीतीश कुमार के हाथों जबरदस्त ‘झटका’ खाये। अगर जीतन राम मांझी के कार्यकाल को बक्से में बंद कर दिया जाय तो सम्मानित नीतीश कुमार, यानी प्रदेश के ‘विकास पुरुष’ 24 नवम्बर, 2005 से आज तक यानी पिछले 16 वर्ष 272 दिनों से प्रदेश के सिंहासन पर विराजमान है। विकास सम्बन्धी आंकड़े को आप निरिक्षण करें। 

विगत दिनों आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम मिथिला स्टूडेंट्स यूनियन के संस्थापक अध्यक्ष अनूप मैथिल से बात किया। बातचीत का मुख्य पहलू था बिहार के युवाओं का राजनीतिक भविष्य।  बहुत ही सरल और सरस भाव में अनूप मैथिल कहते हैं: “समय आ गया है कि रक्तचाप से पीड़ित, सांस की बीमारी से ग्रसित, चीनी की बीमारी के कारण सुबह-शाम अपने चुनाव क्षेत्र के विकास सम्बन्धी बातों पर चर्चा किये बिना नित्य दस किलोमीटर पैदल चलने सम्बन्धी डाक्टर की सलाह को मानने पर मजबूर विधायकगण, जो कभी अपने विधान सभा क्षेत्र के विकास के लिए मुंह खोलने की कोशिश नहीं किये; अपने मतदाताओं को बरगलाकर विधान सभा की कुर्सियां तोड़ते रहे, उन सबों का विसर्जन किया जाय – राजनितिक मुख्यधारा से, विधान सभा से। 

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मैथिल साहब आगे कहते हैं: “संभव है कि प्रदेश के युवाओं को एकजुट होने में समय लगे, लेकिन इतना विश्वास रखें कि बिहार में परिवर्तन अवश्य होगा। हमें संकल्प लेना होगा। हमें पिछलग्गू (फॉलोवर्स) नहीं, बल्कि ‘नेतृत्व देना होगा।”

अनूप मैथिल कहते हैं: “हमें प्रदेश के सभी 9 डिवीजनों में, 38 जिलों में, 101 सब-डिवीजनों में, 534 ब्लॉकों में और 8463 पंचायतों में कर्मठ युवाओं को पहचानना होगा। चाहे महिला हो या पुरुष, उन्हें स्वयं से रूबरू होना होगा। सबों में कुछ न कुछ गुण है। उन्हें अपने गुणों को पहचानना होगा। क्योंकि प्रथम और द्वितीय विधान सभा के बाद प्रदेश को जिन-जिन लोगों ने नेतृत्व दिया, वे सभी ‘स्वयं-सेवा’ का ‘स्वयंसेवक’ बन गए। मतदाता, श्रमिक, किसान, मजदूर सभी कल भी ‘रोटी-प्याज’ भी मसक्कत के बाद खा पाते थे, उनके बच्चों को विद्यालय जाना सपना था – आज भी स्थिति में परिवर्तन नहीं आया है। राजनेतागण चाहे जितने भी आंकड़े दिखा दें । 

वजह यह है कि इन वर्षों में वे प्रदेश के लोगों की, नेताओं की मनोवृति में परिवर्तन नहीं कर पाए। शिक्षा का महत्व उनके लिए नगण्य है। यही कारण है कि वे विद्यालय जाने के लिए छात्र-छात्राओं की मानसिकता परिवर्तन करने के बजाय ‘लुभाते’ है – किसी को साइकिल देते, तो किसी को पैजामा। कहते हैं विद्यालय आओगे तो खाना मिलेगा। अशिक्षित माता-पिता भी अपने बच्चे को सुबह-सवेरे यह कहकर विद्यालय भेजते हैं कि वह भूखा नहीं रहेगा- मिड डे मिल के अधीन कम से कम खिचड़ी तो मिल जायेगा। अब खिचड़ी वाली मानसिकता से प्रदेश में शिक्षा का विकास कैसे होगा? 

अनूप मैथिल आगे कहते हैं : आज समय आ गया है कि बिहार के सभी युवाओं को, चाहे वे किसी भी जिले में, किसी भी पंचायत में, किसी भी गाँव में रहते हों, “उन्हें आन पर आना होगा।” उन्हें पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री (दिवंगत) सुश्री जे जयललिता जैसा ‘संकल्प’ लेना होगा की आने वाले समय में वे प्रदेश का नेतृत्व करेंगे। अन्यथा गाँठ बाँध लें – पटना के जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा पर दिल्ली या देश के अन्य राज्यों से आने वाले नेताओं के आगमन पर जीवन पर्यन्त ‘ताली’ बजाते रह जायेंगे – वह भी ‘उधार’ में । क्योंकि एक समय था जब ममता बनर्जी और जयाललिता को उनके प्रदेश के सचिवालय और विधान सभा की सीढ़ियों पर “सार्वजनिक रूप से बेईज्जत” किया गया था। उनकी सोच को लहू-लहूआंन किया गया था। तभी वे प्रतिज्ञा ली – एक दिन इस राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठूंगी जरूर। कहते हैं – प्रतिज्ञा अगर महिला ले तो प्रदेश क्या, देश क्या, विश्व बदल सकता है। 

अनूप मैथिल कहते हैं : “हमने एक शुरुआत की है। अगर प्रदेश की सरकारी कार्यालयों में अधिकारी कार्य नहीं करते, लोगों को परेशानी होती है, फाइलों का अम्बार होते जाता हैं, अधिकारी घूस मांगते हैं; तो उस कार्यालय में हम शांति-पूर्वक ताला लगा देंगे। हम कभी कानून को अपने हाथ में नहीं लेंगे। बिहार के छोटे-छोटे बच्चे, नौजवान, युवक-युवतियों द्वारा न केवल मिथिला की सड़कों पर जिन्दावाद-मुर्दावाद के नारे लगाएंगे, बल्कि हमारी कोशिश होगी कि उनमें नैतिकता जगे। कभी पंचायत में मुखिया जी के दफ्तर में काम नहीं होने पर ताला लगाएंगे तो कभी ब्लॉक विकास अधिकारी के दफ्तर के फाटक पर जनता के सम्मानार्थ, कल्याणार्थ ताला लटकाएंगे। मिथिला भूमि पर मिथिला स्टूडेंट्स यूनियन का पीला झंडा महज एक झंडा नहीं, आने वाले समय में बिहार विधान सभा, झारखण्ड विधान सभा और लोक सभा तक लहराएगा – गाँठ बाँध लें। 

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अनूप मैथिल आगे कहते हैं: “गाँठ बाँध लें। मिथिला स्टूडेंट्स यूनियन का पीला झंडा एक विश्वास का प्रतीक है, एक शुरुआत का प्रतीक है, एक संकल्प का प्रतीक है।” हमारा पीला झंडा और उस झंडे के नीचे जनता के सम्मानार्थ लड़ने वाले कार्यकर्त्ता कभी भी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के पदचिन्हों पर नहीं चलेंगे। समाज के लोगों को, मतदाताओं को ‘गच्चा’ नहीं देंगे। उन्हें ‘झूठी तसल्ली’ नहीं देंगे। उनके विश्वास के साथ खिलवाड़ नहीं करेंगे। हम तो उनका विश्वास जीतने के लिए घर से निकले हैं। यकीन मानिये, हमारा विश्वास है कि आने वाले समय में “पीला-झंडा” बिहार विधानसभा, विधान परिषद् में कुर्सियां तोड़ने वाले 150 विधायकों और दो दर्जन से अधिक सांसदों के लिए ‘दाद-डिनाई-खुजली का शर्तिया इलाज करने जैसे होने वाला है। आज जो विधायक, जो सांसद अपने विधान सभा और संसदीय क्षत्रों को, मतदाताओं को महत्व नहीं देते (सिवाय चुनाव के समय), उन्हें दुत्कारने में कोई कसार नहीं छोड़ते – कल इस पीला झंडा के नीचे नतमस्तक रहेंगे, समर्पित रहेंगे – क्योंकि उनकी कुर्सियां नहीं रहेगी। 

मिथिला स्टूडेंट यूनियन एक गैर-राजनीतिक छात्र संगठन है, जिसका एकमात्र उद्देश्य भारत में रहने वाले मिथिला और मैथिलों का विकास है। यह बिहार और झारखण्ड में सबसे बड़े छात्र संगठनों में से एक है । यह  भारतीय संविधान तहत सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के प्रावधानों के तहत एक पंजीकृत संगठन है। मिसू के घोषणापत्र में मिथिला क्षेत्र की शिक्षा प्रणाली में सुधार और बिहार के विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में नए शिक्षण कर्मचारियों की भर्ती जैसी कार्यसूची शामिल हैं।

इस संगठन की स्थापना 2015 में मिथिला क्षेत्र में शिक्षा प्रणाली, रोजगार, प्रवास के मुद्दों, साक्षरता, स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति और लघु उद्योगों की कमी को सुधारने के लिए की गई थी। 6 मई 2015: एमएसयू का पहला अभियान दरभंगा , सहरसा , पूर्णिया को स्मार्ट शहरों की सूची में शामिल करने के लिए एक मार्च था। मिसूने एक सार्वजनिक मार्च, सोशल मीडिया अभियान का आयोजन किया और सरकारी कार्यालयों और मंत्रालयों को ज्ञापन सौंपे। दरभंगा हवाई अड्डा एक और मुद्दा था जिसके लिए एमएसयू ने आवाज उठाई थी।  मई 2016 में मिथिला में युवा पीली सेना के नए कार्यकर्ता समूह का उदय हुआ। 

पिछले छह-सात वर्षों में पीला झंडा के नीचे लाखों लोग आये हैं। मिथिला ही नहीं, प्रदेश को बेहतर तरीके से जानने और लोगों को एमएसयू और उसके लक्ष्यों के बारे में जागरूक करना हमारा लक्ष्य है। नैंसी झा अपहरण और हत्या कांड स्थानीय पुलिस और प्रशासन की अकर्मण्यता को उजागर करने में पीला झंडा के प्रति लोगों का विश्वास और अधिक बढ़ा। हमने बिजली के लिए भी लड़ाई लड़े । दरभंगा सहित प्रदेश के अन्य इलाकों में चिकित्सा की पर्याप्त सुविधा को, शिक्षा का प्रचुर साधन हो, भ्रष्टाचार का अंत हो, प्रशासन चुस्त-दुरुस्त हो – हमारी कोशिश जारी है। 

मिथिला स्टूडेंट्स यूनियन की पूर्व राष्ट्रीय महिला अध्यक्ष अनुपम झा कहती हैं: मिथिला स्टूडेंट यूनियन लगातार 2015 ले लेकर अब तक क्षेत्र और छात्र के विकास में कटिबद्ध है। मैं इस यूनियन में लगातार जुड़ी हूं पूर्व राष्ट्रीय महिला अध्यक्ष रह चुकी हूं। यह संगठन चीनी मिल का आंदोलन हो या स्मार्ट मिथिला अभियान की बात हो, नैंसी की न्याय हो या प्रद्युमन को इंसाफ की बात हो, विश्व विद्यालय की सत्र हेतू अनशन हो या मुजफ्फरपुर की चमकी बुखार में मदद हेतू लगातार सफल रहा है, लगातार लड़ रही है। 

विगत पंचायत चुनाव में MSU को अपना किया हुआ संघर्ष को चमकता चांद दिया है । ऐसे ही आने वाले एमएलसी से लेकर लोकसभा विधानसभा तक की चुनाव संगठन की भागीदारी होगी। सरकार की नारा है बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ यह नारा सुशासन की सरकार में पूरी तरह से असफल है। यह सरकार सुशाशन की नहीं बल्कि दुसासन की है। हालाकि देखा जाय तो जब्ती कुर्ती से लेकर जेल होता है फिर बेल होता है अतन्तः अपराधी का मनोबल पुनः बढ़ता है और वो पुनः आकर यहां अपराध करते है। अनुपम झा कहती हैं: “हमारा मानना की तब तक बदलाव नहीं ला सकते है जब तक की  हम सत्ता में नहीं आते है कहते है कि न्याय चाहिए तो शासक बनो अतः संगठन राजनीति में आकर सक्रिय होकर सत्ता को इट से ईट बजाएगी।” 

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