हे प्रभु !! आदमी को कौन पूछे, यहाँ तो ‘रामलला’ भी सात दसक से न्याय की प्रतीक्षा में बैठे हैं

रामलला
रामलला

सामान्यजन को कौन कहे, यहां तो ‘रामलला’ भी ६९ वर्षों से न्याय मिलने की आस में हैं।

देश के संवेदनशील मुकदमों में शामिल यहां के रामजन्मभूमि/बाबरी मस्जिद विवाद का मसला २२/२३ दिसम्बर १९४९ की रात से ही शुरु हो गया था। विवादित ढांचे के बीच वाले गुम्बद में ‘रामलला’ की मूर्ति रख दी गयी थी। हिन्दुओं का कहना है कि ‘रामलला’ प्रकट हुए थे, जबकि मुस्लिम मानते हैं कि मूर्ति जबरदस्ती रख दी गयी थी।

मूर्ति रखे जाने के बाद दोनों समुदायों में विवाद को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने ढांचे के मुख्य गेट पर ताला लगवा दिया था। वर्ष १९५० में दिगम्बर अखाडे के तत्कालीन महन्त रामचन्द्रपरमहंस ने फैजाबाद की जिला अदालत में याचिका दाखिल कर ‘रामलला’ के दर्शन पूजन की अनुमति मांगी।

मुकदमा चलता रहा। इसी बीच १९६१ में विवादित ढांचे में जबरन मूर्ति रखे जाने का आरोप लगाते हुए मुस्लिम पक्ष ने मुकदमा दायर कर दिया। मुस्लिम पक्ष का कहना था कि विवादित ढांचा बाबरी मस्जिद है। मूर्ति जबरन रखी गयी हैं। उसे हटवाकर संपत्ति मुसलमानों को सौंपी जाये।

सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड की ओर से दायर इस मुकदमें के मुद्दई मोहम्मद हाशिम अंसारी बने। बोर्ड की ओर से मुकदमा दाखिल होते ही यह विवाद संपत्ति का मान लिया गया। ‘रामलला’ विराजमान स्थल प्लाट संख्या ५८३ के मालिकाना हक का मुकदमा शुरु हो गया।

वर्ष १९८४ में विवादित धर्मस्थल पर भव्य राम मंदिर निर्माण के लिये विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) ने श्रीरामजन्मभूमि मुक्त यज्ञ समिति बनाकर नये सिरे से संघर्ष शुरु किया। समिति के अध्यक्ष उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरु महन्थ अवैद्यनाथ बनाये गये।

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संघर्ष आगे बढ़ ही रहा था कि एक फरवरी १९८६ को अधिवक्ता उमेश चन्द्र पाण्डेय की याचिका पर फैजाबाद के जिला न्यायाधीश कृष्ण मोहन पाण्डेय ने विवादित ढांचे के गेट पर लगे ताले को खोलने का आदेश दे दिया। ताला खुलते ही वहां दर्शनार्थियों का तांता लगना शुरु हो गया। देश-विदेश से लोग वहां पहुंचने लगे।

नवम्बर १९८९ में मंदिर निर्माण के लिये शिलान्यास हुआ लेकिन अगले ही दिन काम रुकवा दिया गया। इसी बीच विश्व हिन्दू परिषद ने पूरे देश में ‘शिला पूजन’ का कार्यक्रम करवाया। इसी कार्यक्रम के दबाव में तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह और मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के सुझाव पर राजीव गांधी सरकार ने शिलान्यास का निर्णय लिया था।

वर्ष १९९१ में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार बनी। श्री सिंह ने विवादित धर्मस्थल के आसपास ७० एकड़ से अधिक जमीन अधिग्रहीत कर श्रीरामजन्मभूमि न्यास को सौंप दी, हालांकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस पर पक्के निर्माण पर रोक लगा दी। इससे पहले जुलाई १९८९ में न्यायमूर्ति (अवकाशप्राप्त) देवकी नंदन अग्रवाल ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर ‘रामलला नेक्स्ट फ्रेंड’ के रुप में अपने को पार्टी बनाने का आग्रह किया। न्यायालय ने उनकी याचिका मंजूर कर ली।

इस मामले में छह दिसम्बर १९९२ को उस समय नया मोड़ आया जब कारसेवकों ने विवादित ढांचे को ध्वस्त कर दिया। ढांचा ध्वस्त होने के बाद १६ दिसम्बर १९९२ को नरसिम्हाराव सरकार ने लिब्राहन आयोग का गठन करने की अधिसूचना जारी की।

ढांचा गिराने की साजिश के आरोप में लाल कृष्ण आडवानी और अशोक सिंहल समेत भाजपा तथा विहिप के कई नेताओं के खिलाफ थाना रामजन्मभूमि में मुकदमा दर्ज हो गया।

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३० सितम्बर २०१० को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय न्यायमूर्ति एस यू खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति डी़ वी़ शर्मा की विशेष पूर्णपीठ ने विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बराबर बांट कर अपना फैसला सुना दिया। जिस स्थल पर ‘रामलला’ विराजमान हैं उसे रामलला के पक्ष में। बाकी दो हिस्सों में एक सुन्नी वक्फ बोर्ड अौर दूसरा निर्मोही अखाड़ा को देने का आदेश दिया।

निर्मोही अखाडा विवादित ढांचे के बाहर चबूतरे (राम चबूतरा) पर लगातार रामधुन करवा रहा था। निर्माेही अखाडे के दिवंगत महन्थ भास्कर दास कहते थे कि ताला लगने के पहले ढांचे पर उनका कब्जा था। इसलिये मालिकाना हक उन्हें मिलना चाहिये। हाल ही में श्री दास की मृत्यु हुई है।

दिसम्बर २०१० में उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ हिन्दू महासभा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल की। नाै मई २०११ को उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगा दी। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस़ अब्दुल नजीर की पीठ में पांच दिसम्बर २०१७ से सुनवाई शुरु हुई। इस ऐतिहासिक विवाद की आज भी सुनवाई हुई है। न्यायालय अब इस पर १४ मार्च को फिर सुनवाई करेगा।

आजाद भारत के पहले इस मुद्दे को लेकर हिन्दुओं और मुसलमानों में विवाद हुए थे। अंग्रेजों ने मामले को अपने ढंग से दबाया था लेकिन देश स्वतंत्र होने के बाद इस मसले का विवाद अपने ढंग से आगे बढ़ा। वर्ष १९५० में इसमें स्वामित्व को लेकर गोपाल सिंह विशारद ने भी याचिका दाखिल की थी।

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विवाद का कारण बाबर को माना जाता है। हिन्दू पक्ष का कहना है कि रामलला विराजमान स्थल राम जन्मभूमि है जबकि मुस्लिम पक्ष कहता है कि वह स्थल बाबरी मस्जिद है। जिसे बाबर के प्रतिनिधि मीरबांकी ने अयोध्या में रुक कर बनवाया था। हिन्दू पक्ष का कहना है कि रामजन्मभूमि मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण करवाया गया था।

इसकी सच्चाई जानने के लिये इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने विवादित धर्मस्थल के आसपास मार्च २००३ में पुरातात्विक खुदाई करवायी थी।

इन घटनाक्रमों के बीच उत्तर प्रदेश शिया सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी ने अगस्त २०१७ में उच्चतम न्यायालय में शपथपत्र दाखिल कर विवादित धर्मस्थल को हिन्दुओं को सौंपने का आग्रह किया और लखनऊ में मुस्लिम बाहुल्य इलाके में ‘मस्जिद-ए-अमन’ तामीर करवाने का आग्रह किया।

श्री रिजवी ने कहा था कि बाबर के नाम से किसी भी मस्जिद का निर्माण देश में नहीं होना चाहिये। उन्होंने इस सम्बन्ध में माहौल तैयार करने के लिये हाल ही में अयोध्या का दौरा किया था। अखिल भारतीय अखाडा परिषद के अध्यक्ष नरेन्द्र गिरि और श्रीरामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष नृत्य गोपालदास और अन्य पक्षकारों से मुलाकात की थी।

कानूनी दांवपेंचों और ऐतिहासिक घटनाक्रमों को अपने में संजोये अयोध्या विवाद ने विभिन्न न्यायालयों में ६९ वर्ष गुजार दिये हैं। लोगों को उम्मीद है कि इसका फैसला जल्दी आयेगा हांलाकि यह बताने की स्थिति में अभी कोई नहीं है कि अंतिम रुप से इस विवाद का हल कब होगा। (अयोध्या से वार्ता के सौजन्य से)

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