#भारतभाग्यविधाता : भारत के 28 राज्यों, 8 केंद्र शासित प्रदेशों के लोगों और ‘राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर’ के नेता का अनुपात 243824:1 का अनुपात है

बिहार राज भवन, पटना। तस्वीर: नवभारत टाइम्स के सौजन्य से

गया / पटना : आप माने अथवा नहीं, लेकिन सांख्यिकी तो यही कहता है कि भारत के लोगों और देश के 28 राज्यों, 8 केंद्र शासित प्रदेशों के विधानसभा, विधानपरिषद, राज्यसभा और लोकसभा में प्रत्यक्ष और परोक्ष चुनावों में चयनित भारत के भाग्य विधाताओं (सदस्यों) का अनुपात 243824:1 का अनुपात है। यानी दो लाख तैतालीस हज़ार आठ सौ चौबीस लोगों को हांकने के लिए एक नेता हैं। इसे दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि देश के 2,43,824 लोग अपने ही देश के एक नेता को अपने चुनाव क्षेत्र के लोगों के लिए सपर्पित रखने में ‘काबिल’ नहीं है। इतने लोग एक राजनेता को दुरुस्त करने के लायक हैं। क्योंकि देश के मतदाता ‘उम्मीदवार’ को नहीं, बल्कि ‘राजनीतिक पार्टी’ को ‘वोट’ देते हैं। वैसी स्थिति में अगर उम्मीदवारों को ‘बिना आंके’ चयनित करेंगे, फिर ‘राइट टू रिकॉल’ का प्रयोग कैसे करेंगे ?

“राइट टू रिकॉल” आजकल बिहार में सक्रिय हो रहे हैं। राजनीतिक संस्थाओं की तरह, अगर ‘राइट टू रिकॉल’ प्रदेश के राजनेताओं जैसा प्रदेश की समस्याओं का राजनीतिकरण कर कुर्सी के आकर्षण-क्षेत्र में ढुकने, कुर्सी से चिपकने और चिपके रहने की इक्षा से ग्रसित नहीं है; तो अपने ज्ञापन में जिन मूलभूत समस्याओं को उजागर करने की कोशिश किया है, प्रशंसा योग्य है। बिहार ही नहीं, देश के अन्य सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सत्ता के आकर्षण क्षेत्र में भ्रमण-सम्मेलन करने वाले लोग आम आदमी की मज़बूरी की बातों को विपरण कर सत्ता में ढुकने का अनवरत प्रयास करते आये हैं और यह परंपरा चलती रहेगी जब तक मतदाता राजनीतिक पार्टी को नहीं, बल्कि अपने-अपंने क्षेत्रों के उम्मीदवारों को तराजू पर तौलकर, नाप-जोखकर वोट देंगे।  

चाहे खेत-खलिहान की बात हो, किसानों की बात हो, शिक्षा की बात हो, दवा-दारू की बात हो, पत्रकारिता की बात हो – सभी क्षेत्रों में सत्ता के चापलूस और चाटुकार चतुर्दिक कसरत करते नजर आएंगे। लेकिन सरकारी क्षेत्रों से प्राप्त होने वाली सुख-सुविधाएँ ‘रोग-मुक्त’ हो, ‘स्वस्थ’ रहे; इसके लिए उनके मन में शायद ही कोई सकारात्मक विचार पनपता है। अगर ऐसा होता तो 28 राज्यों, 8 केंद्र शासित प्रदेशों के कोई 4121 विधानसभा के सम्मानित सदस्यगण, 426 विधानपरिषद् के सदस्यगण, 545 माननीय लोकसभा और 245 माननीय राज्यसभा के सदस्यगण, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से देश के 130 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं – अपने-अपने क्षत्रों के मतदाताओं को पांच वर्षों पर मुखातिब नहीं होते। सांख्यिकी दृष्टि से भारत के कुल 130 करोड़ की आवादी पर विधानसभा-विधानपरिषद-राज्यसभा-लोकसभा के कुल 5335 सदस्यों का अनुपात 243824:1 का अनुपात है। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत के 243824 लोग एक राजनेता को दुरुस्त करने के लायक हैं? 

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व्यावहारिक तौर पर यदि देखा जाए तो “नहीं” – सैद्धांतिक रूप की तो बात ही नहीं करें। क्योंकि विधानसभा और लोकसभा में भारत के मतदाता “अपने पसंदिता उम्मीदवारों” को चुनकर भेजते हैं। यह भी सैद्धांतिक और व्यावहारिक दृष्टि में अंतर है। कोई भी मतदाता (सैकड़े 90 फीसदी) उम्मीदवारों के नाम, उनके कार्य को मद्दे नजर मतदान नहीं करता है। “राजनीतिक पार्टियों” का “ठप्पा” प्रमुख भूमिका निभाती है। फिर अगर नेताजी अपने-अपने विधानसभा, विधानपरिषद, राज्यसभा अथवा लोकसभा क्षेत्रों में जनता की, मतदाता की इक्षाओं के अनुरूप कार्य नहीं किये, वैसी स्थिति में उनकी क्या गलती है? इस बात को भारत के मतदाता अथवा बिहार के मतदाता कभी सोचे हैं? शायद नहीं। खैर।    

गया जिले के राइट टू रिकॉल के महासचिव डी पी सिन्हा, बिहार कामगार श्रमिक संघ के राष्ट्रीय महामंत्री डॉ विनय कुमार विष्णुपुरी 21-मुख्य बिंदुओं पर भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद, राज्यपाल फागु चौहान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को एक ज्ञापन प्रेषित किये हैं।  साथ ही, यह उम्मीद भी किये हैं कि उन बिंदुओं पर सरकार और व्यवस्था सकारात्मक रुख अपनाएगी। 

ज्ञापन में सर्वप्रथम सभी शिक्षण- प्रशिक्षण, सरकारी- गैर सरकारी संस्थान में शिक्षण- प्रशिक्षण की गुणवत्ता में गुणात्मक सुधार लाने की बात की गई है। ज्ञापन में कहा गया है कि बिहार भारत का एक ऐसा राज्य है जो शिक्षा के स्तर में भारत के 38 राज्यों में सबसे नीचे है। पहले कभी बिहार नालंदा और विक्रमशिला जैसी शिक्षण संस्थाएँ विश्व भर में विख्यात थे । बिहार में आज अधिकांश कॉलेज डिग्री बेचने का अड्डा बन चुका है, डिग्री प्राप्त हेतु मुंह मांगी रकम चुकाई जाती है और डिग्री खरीद की जाती है। प्रदेश के गैर-सरकारी कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज, आईटीआई एवं इंजीनियरिंग कॉलेज आदि के कारनामें आजकल प्रदेश से प्रकाशित समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर लबालब दिखते हैं। 

ज्ञापन के अनुसार, उच्च शिक्षा पाने के लिए प्रति वर्ष 1,00,000 से अधिक छात्र बिहार से बाहरी राज्यों में पलायन कर रहे हैं। जहां प्रवेश के नाम पर शिक्षा के दलाल धन उगाही कर लेते हैं। इसके अलावा बिहार में कोचिंग, गैर सरकारी संस्थानों और पब्लिक स्कूलों का गढ़ है जहां सरकारी विद्यालयों/महाविद्यालयों में नामांकन करा लेते हैं, परंतु कोचिंग करने का रास्ता चुन लेते हैं क्योंकि विद्यालयों/महाविद्यालयों में पढ़ाई नहीं होती है या फिर गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई नहीं होती है।

इतना ही नहीं, सरकारी संस्थान भगवान भरोसे हैं। कुछ में व्यवस्थाओं की कमी है तो कुछ में शिक्षकों की कमी है। बिहार में अधिकतर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की संरचना बदहाल है। विद्यालय में शिक्षक पढ़ाते हैं उनके खुद के बच्चे प्राइवेट विद्यालय में पढ़ते हैं बिहार में आंगनबाड़ी केंद्र से लेकर यूनिवर्सिटी तक की शिक्षा व्यवस्था बदहाल है। जबकि प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए शिक्षा के नाम पर खर्च किए जाते हैं। 

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बिहार राज में आंगनबाड़ी की संख्या 80211 है जहां 3 साल से 6 साल के बच्चे समय बिताते हैं और उन्हें पौष्टिक भोजन तथा प्रारंभिक अक्षरों का ज्ञान दिया जाता है। आंगनबाड़ी केंद्रों पर छह प्रकार की सेवाएं दी जाती है, मसलन: आहार, टीकाकरण और विटामिन ए की आपूर्ति, स्कूल पूर्व शिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा, माताओं के लिए पोषण सम्बन्धी शिक्षा और स्वास्थ्य जांच। आंगनबाड़ी केंद्रों का संचालन आंगनबाड़ी सेविका के जिम्मे होता है। एक केंद्र पर 40 बच्चों को नामांकन करने का प्रावधन है आंगनबाड़ी केंद्र के माध्यम से भोजन, सूखा राशन अथवा पैसे दिए जाते हैं। आंगनबाड़ी केंद्रों की सेहत कागज पर बेहतर दिखाई देती है परंतु धरातल पर बेहद खराब है। बिहार में आंगनबाड़ी केंद्रों के नाम पर घोटाला नियमित रूप से जारी है। 

बिहार विधान सभा

ज्ञापन में इस बात पर विशेष उल्लेख किया गया है कि पोषाहार के नाम पर बच्चों को खिचड़ी खिलाई जाती है वह भी बिना दाल के। केंद्र पर बच्चों की उपस्थिति 10 से 12 होती है परंतु हाजरी राशन खर्च 40 बच्चों का दिलाया जाता है इसी प्रकार हर मद में सिपर्फ घोटाला होता है इसकी चिंता किसी को नहीं है यदि आंगनबाड़ी केंद्रों की जांच किसी स्वच्छ एजेंसी से कराई जाए तो करोड़ों, अरबों रुपए घोटाला का पर्दापफाश हो सकता है।

जहाँ तक, प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का सवाल है, बिहार के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में शिक्षा का साम्राज्य फैला हुआ है। बिहार में प्राथमिक/माध्यमिक विद्यालयों पर नजर रखने के लिए प्रखंड संसाधन केंद्र खोले गए थे, परंतु इसके रक्षक ही भक्षक बन बैठे हैं। इन सरकारी विद्यालयों में बुनियादी जरूरतों वाले ढांचे का भी अभाव हैं। यहां योग्य शिक्षकों का अभाव है तथा इन विद्यालयों एवं व्यवस्था पर निगरानी रखने वाले निरीक्षक निष्क्रिय हैं। इसके साथ ही शिक्षक और छात्र का अनुपात में अंतर है। किसी-किसी विद्यालय में तो एक ही शिक्षक हैं। इन सब के साथ इन विद्यालयों में भी कई तरह के मिलने वाली राशि का बड़ा घोटाला होते आ रहा हैं। सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं है। 

शिक्षा को बेहतर बनाने की योजना सिर्फ कागज पर ही सीमित है। कई गांव में स्कूल का अपना भवन नहीं है। किसी स्कूल में शौचालय नहीं है तो कहीं पानी की व्यवस्था नहीं है। शिक्षा के स्तर में भारत के 38 राज्यों में सबसे नीचे है। कहीं-कहीं विद्यालयों में शिक्षकों की उपस्थिति रहते हुए भी पढ़ाई नहीं होती है। यही कारण है कि किसी भी सरकारी शिक्षक का कोई भी बच्चा सरकारी विद्यालय में नहीं पढ़ता है। सभी शिक्षक अपने अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं । विद्यालय के प्रधनाध्यापक हमेशा कागज पन्नों को दुरुस्त करने में लगे रहते हैं। एक विद्यालय की निगरानी के लिए विद्यालय स्तर से लेकर मंत्रालय तक कई समितियां एवं निगरानी समितियां तथा पदाधिकारियों की नियुत्तिफ व गठन किया गया है, परंतु सभी कागजों पर है। सरकारी विद्यालयों में जो भी बच्चों कुछ देख रहे हैं वह सभी आम आदमी के बच्चे हैं उन्हें ना तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल रही है, ना तो बेहतर संस्कार ही मिल रही है।

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ज्ञापन के अनुसार, कॉलेज अपने छात्रों को आगे की पढ़ाई के लिए डिग्री और डिप्लोमा प्रदान करता है और विश्वविद्यालय एक उच्च शिक्षा और अनुसंधन का केंद्र है जो अपने छात्रों को डिग्री और पुरस्कार प्रदान करता है। अिऽल भारतीय उच्च शिक्षा की शिक्षा सर्वेक्षण रिपोर्ट 2019-20 के मुताबिक बिहार में विभिन्न प्रकार के 35 विश्वविद्यालय हैं जिनमें निजी विश्वविद्यालय और केंद्रीय विश्वविद्यालय भी शामिल है। इन विश्वविद्यालयों के अधीन कई सरकारी और गैर-सरकारी कॉलेज हैं जो जनसंख्या के हिसाब से काफी कम है। इन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में क्लासरूम शिक्षकों तथा अन्य सुविधाओं विश्वविद्यालयों के विभिन्न विभागों में इक्विपमेंट्स की स्थिति बिहार में दयनीय है।

कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। गलत शिक्षा नीतियों के कारण लगातार उच्च शिक्षा पतन की ओर जा रहा है। सैकड़ों कॉलेज डिग्री बांट रहे हैं हजारों विद्यार्थी की भी भीड़ लगी है। यहां के शिक्षक निष्क्रिय है, छात्रों में भी सक्रियता नहीं है। शिक्षा व्यवस्था राजनीति की भेंट चढ़ गई है। कॉलेजों में नामांकन करा कर छात्रा छात्राएं ट्यूशन व कोचिंग में पढ़ाई करने पर मजबूर हैं। सरकारी कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में मोटी रकम का घोटाला किया जा रहा है जो ताजा उदाहरण मगध् विश्वविद्यालय के कुलपति के यहां करोड़ों रुपए कैश का पकड़ा जाना तथा अन्य संपत्ति को भ्रष्टाचार से जमा/ख़रीदा जाना है मगध् विश्वविद्यालय तो सिपर्फ वानगी है। हर कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में रुपयों का घोटाला का चल चल रहा है।

वहीं प्राइवेट कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भी प्रतिवर्ष अरबों रुपए की वसूली आम छात्रा/छात्राओं से की जाती है, परंतु पढ़ाई में यह सिस्टम भी बिहार में फेल है। प्राइवेट कॉलेज और विश्वविद्यालयों का शिक्षण प्रशिक्षण में स्थिति और खराब है। यह सिर्फ डिग्री बांटने का काम करती है। बिहार में शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए आंगनबाड़ी केंद्र से लेकर विश्वविद्यालयों तक गुणवत्तापूर्ण युत्तफ शिक्षकों की बहाली, भवन, अन्य सुविधएं सुनिश्चित करनी होगी।

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