नर्मदा वैल्ली में ‘सरदार पटेल’ और इण्डिया गेट पर ‘सुभाष बाबू’ यानी ‘गुलिवर एंड लिलिपुट’ – आंकिये जरूर किसे कितना तवज्जो मिला 

तस्वीर को देखें और सोचें

इण्डिया गेट (नई दिल्ली) : इस तस्वीर को आप देखें। यह तस्वीर नर्मदा वैली में 597 फीट ऊंची सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा की है। इस प्रतिमा को अपने मानस-पटल पर आंककर दिल्ली के इण्डिया गेट पर स्थित 28 फीट ऊंची कनोपी को देखें, जहां नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा को रखने का प्रस्ताव है। फिर निर्णय आप करें – कौन बड़ा, कौन बौना? 

यदि नर्मदा वैली में बनी सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा की ऊंचाई को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में तत्कालीन नेताओं की भागीदारी के आकलन का आधार माना जाए, तो पटेल की प्रतिमा के सामने दिल्ली में प्रस्तावित बंगाल के नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा का अनुपात 21:1 का अनुपात होगा । यानी, नेताजी सुभाष बोस की प्रतिमा की ऊंचाई, नर्मदा वैली में स्थापित सरदार पटेल की प्रतिमा के सामने बौना ही नहीं बल्कि ‘गुलिवर एंड लिलिपुट’ जैसी होगी। गणित अनुसार सरदार पटेल की प्रतिमा की ऊंचाई जहाँ 597 फीट है (सिर्फ प्रतिमा की ऊंचाई), वहीँ दिल्ली के इण्डिया गेट परिसर में स्थापित होने वाली नेताजी सुभाष बोस की प्रतिमा की ऊंचाई 28 फीट है। 

गणित के ज्ञानियों का मानना है कि 597 फीट ऊंचाई के सामने 28 फीट की ऊंचाई को उसी प्रकार आंका जा सकता है, जैसे ‘गुलिवर एंड लिलिपुट’ में लिलिपुट की स्थिति थी। पहली नवम्बर, 2018 के ‘इंडिया टुडे’ के अंक में ‘दिव्या स्पंदना’ ने जिस कदर ‘सरदार पटेल की प्रतिमा और नरेंद्र मोदी की ऊंचाई की तस्वीर की तुलना इन शब्दों में की थी: “Is that a bird dropping?” यदि देखा जाए तो दिल्ली के इण्डिया गेट पर प्रस्तावित बंगाल के नेताजी सुभाष बोस की प्रतिमा का हाल इससे बेहतर नहीं होगा। 

इण्डिया गेट पर कैनोपी जहाँ सुभाष बोस की प्रतिमा स्थापित करना प्रस्तावित है। तस्वीर : आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम

उससे भी दुखद बात यह है कि ‘जॉर्ज पंचम जहाँ थे, उस स्थान पर भारतीयता का झंडा लहराने वाले तीन महान लोगों को स्थान मिला – एक शिवाजी को ‘गेटवे ऑफ़ इण्डिया’ पर और दूसरे नेताजी सुभाष बोस को ‘इण्डिया गेट’ पर। इन दोनों स्थानों पर जॉर्ज पंचम की प्रतिमा थी। जॉर्ज पंचम की प्रतिमा को दशकों पहले हटाया गया था। गेटवे ऑफ़ इण्डिया पर विवेकानंद भी स्थापित हुए। 

वर्तमान राजनीतिक दृष्टि से भारत के लोग चाहे जितनी तालियां ठोक लें, आने वाले समय में जब भी सुभाष बोस का नाम लिया जाएगा, उनकी प्रतिमा को स्थापित करने की बात होगी, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर तालियां ठोकी जाएगी; अंग्रेजी हुकूमत के जॉर्ज पंचम का नाम भी लिया ही जायेगा – यही सत्य है । 

अगर प्रधान मंत्री बंगाल पर अधिपत्य स्थापित करने के लिए, बंगाल के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ‘सुभाष बोस’ नामक ‘राजनीतिक पत्ते” की चाल चले हैं; तो उन्हें जॉर्ज पंचम द्वार, जिसे महाराष्ट्र के लोगों के साथ-साथ भारत के लोग ‘गेटवे ऑफ़ इण्डिया’ के नाम से जानते हैं, उसके ‘आर्क’ में अथवा सामने के खुले स्थान पर स्थापित करते। गेटवे ऑफ़ इण्डिया का नाम ‘सुभाष बोस’ के नाम पर करते। जॉर्ज पंचम इसी रास्ते भारत में आये थे। सुभाष बोस के 125वें जयंती पर ही सही, गेटवे ऑफ़ इण्डिया भारत के लोगों को ‘सुभाष मार्ग’ के नाम से लोकार्पित करते। 

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लेकिन सवाल यह है कि क्या महाराष्ट्र के लोग सुभाष बोस को स्थान देंगे? शायद नहीं क्योंकि वहां छत्रपति शिवाजी हैं। महाराष्ट्र के लोगों के लिए सबसे पहले छत्रपति शिवाजी है। गेटवे ऑफ़ इण्डिया पर अगर किसी का अधिकार है तो वह छत्रपति शिवाजी का है। लेकिन दुःर्भाग्य यह है कि सं 1911 में गेटवे ऑफ़ इण्डिया का निर्माण जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी के भारत आगमन के उपलक्ष्य में उनके स्वागतार्थ बनाया गया था। आज 100 साल बाद भी, भले छत्रपति शिवाजी उस परिसर के एक कोने में अपने भव्यरूप में विराजमान हैं; फिर भी वह स्थान छत्रपति शिवाजी के नाम से नहीं जाना जाता है। वैसी स्थिति में महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में आज भी ब्रितानिया सरकार के स्वागतार्थ गेटवे ऑफ़ इण्डिया खड़ा है। अब यह नहीं कहेंगे की महाराष्ट्र में अगर भाजपा के सर्कार होगी, तो गेटवे ऑफ़ इण्डिया का नाम बदल दिया जायेगा। 

मुंबई में गेटवे ऑफ़ इण्डिया

अगर आप गेटवे ऑफ़ इण्डिया का भ्रमण-सम्मलेन किये हैं तो आपको अवश्य याद होगा कि जिस रास्ते सुरक्षा-कवच को पार करते हम-आप गेटवे ऑफ़ इण्डिया परिसर में कदम रखते हैं; छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा हमारे-आपके दाहिने हाथ खड़ी दिखती है। इतना ही नहीं, प्रतिमा का मुख गेटवे ऑफ़ इण्डिया की ओर ही है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे छत्रपति शिवाजी खुद जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी के स्वागतार्थ खड़े हों। यहाँ यह स्पष्ट करना कठिन है कि हम किसका सम्मान कर रहे हैं ?

क्योंकि इतिहास के पन्ने पर गेटवे ऑफ़ इण्डिया का गोदना जॉर्ज पंचम और क्वीन मेर्री के नाम सी गुदाया रहेगा। उसी तरह, दिल्ली के इण्डिया गेट पर जहाँ बंगाल के सुभाष बोस बौ की प्रतिमा को स्थापित करने का प्रताव है – वह भी जॉर्ज पंचम का ही है। 

इण्डिया गेट का निर्माण कार्य  10 फरवरी, 1921 को प्रारम्भ हुआ और 12 फरवरी, 1931 को सं 1914-1921 के बीच तत्कालीन भारतीय सैनिक, जो ब्रितानिया सरकार के तहत कार्य करते थे, जो फ़्लैंडर्स, मेसोपोटामिया, पर्शिया, पूर्वी अफ्रीका, गालीपोली में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान, तीसरा एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध में मृत्यु को प्राप्त किये, उन 90000 सैनिकों को समर्पित किया गया। यह अलग बात है कि सभी ब्रितानिया हुकूमत काल में लड़ते-लड़ते मृत्यु को प्राप्त किये थे, लेकिन थे तो भारतीय ही न। इसे एडविन लुट्येन्स ने बनाया था। 1972 में आज़ाद भारत के सैनिक जो बांग्लादेश लिबरेशन वॉर में मृत्यु को प्राप्त किये, उनके सम्मानार्थ इस संरचना के बीच में ‘अमर जवान ज्योति’ का निर्माण किया गया। खैर, सन 1972 और 2022 के बीच जिस तरह दिल्ली सल्तनत के बगल से गुजरने वाली यमुना की धाराओं में प्रतिवर्तन हुआ, यमुना में पानी का रंग बदला, नदी में पानी का आयात का स्वरुप बदला, दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक परिवेश भी बदलाव से अछूता नहीं रहा। कहते हैं :  सोच बदलो – देश बदलेगा। 

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अगर नेताजी सुभाष बोस को भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उनकी आहुति को देखा जाय तो इतना दावे के साथ कहा जा सकता है कि ‘सुभाष बोस का स्थान 28 फीट ऊंचाई वाले जॉर्ज पंचम के कैनोपी पर दिया जाता है तो यह मातृभूमि की स्वाधीनता, भारत की भारतीयता बरकरार रखने वाले योद्धाओं का अपमान है। चाहिए तो यह कि सुभाष बोस को अंग्रेजी हुमुकत से चली आ रही “बीटिंग रिट्रीट” वाले स्थान पर, जिसे भारत के लोग “विजय चौक” के नाम से जानते हैं – सड़क के बीचोबीच – इण्डिया गेट के आकार प्रकार में किया जाता। नहीं तो नेताजी की प्रतिमा की स्थिति भी उसी तरह लगेगी जैसे सरदार पटेल की प्रतिमा के नीचे नरेंद्र मोदी की तस्वीर दिख रही थी। 

इतना ही नहीं, मुंबई में गेटवे ऑफ़ इण्डिया का नाम भारत के इतिहास से मिटा कर छत्रपति शिवाजी के नाम पर कर दिया जाता। क्योंकि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में देश की स्वतंत्रता के लिए शिवजी ने जो मुगलों से लड़ाई लड़ी थी, वैसे योद्धा भारत में – या तो राजस्थान में महाराणा प्रताप ही हुए या फिर बिहार में बाबू कुंवर सिंह। लेकिन आज के राजनीतिक परिवेश में मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों को उत्सर्ग करने वाले वीर योद्धाओं और उनके परिवार तथा परिजनों का क्या हाल है, यह तो वही परिवार जानता है – जिसने अपने परिजनों को खोया। शेष तो सभी विगत 75 वर्षों से उन योद्धाओं की राजनीति करते आये हैं, राजनीति कर रहे हैं, करते रहेंगे। 

इतना ही नहीं, जिस सुभाष बोस की प्रतिमा को इण्डिया गेट परिसर में स्थापित करने से संबंधित प्रस्ताव को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के 73 वें गणतंत्र दिवस से कुछ दिन पूर्व भारत के लोगों को बताएं, वह भी तब जब वे दिल्ली से बाहर थे। जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी के भारत आगमन वाले जगह – गेटवे ऑफ़ इण्डिया – पर शिवाजी की प्रतिमा को 26 जनवरी, 1961 को, यानी 11वे गणतंत्र दिवस पर लोकार्पित किया गया था। इस दिवस से आठ महीना, 25 दिन पूर्व 1 मई, 1960 को महाराष्ट्र से अलग होकर गुजरात राज्य अपने अस्तित्व में आया था। 

नर्मदा वैली में बनी सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा

आज जहाँ शिवाजी की प्रतिमा लगी है, वहां जॉर्ज पंचम की प्रतिमा थी, जिसे जी के म्हात्रे ने बनाया था। जॉर्ज पंचम के अलावे म्हात्रे देश में कोई 300 से अधिक प्रतिमा बनाये थे । महाराष्ट्र के लोग तो यह भी कहते हैं कि जब शिवाजी उस स्थान पर विराजमान हुए थे, जॉर्ज पंचम की प्रतिमा मुंबई लोक निर्माण विभाग के एक टीन से ढंके-धीरे स्थान पर रख दिया गया था। बाद में उसी अजायबघर में स्थान मिला। बहरहाल, दिल्ली वाले जॉर्ज पंचम कहाँ हैं यह तो एन डी एम सी वाले बताएँगे। 

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बहरहाल, गेटवे ऑफ़ इण्डिया की ऊंचाई लगभग 85 फिट है और उसका केंद्रीय हिस्सा कोई 49 फीट ऊँचा है। स्वाभाविक है, दिल्ली के इण्डिया गेट स्थित जॉर्ज पंचम के कनोपी की ऊंचाई से लगभग दुगुना। अब अगर स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तत्कालीन महापुरुषों के योगदान को, आज़ाद भारत में बन रहे प्रतिमाओं और उसका अनावरण हेतु स्थानों की बात को देखा जाय, तो सम्पूर्ण इण्डिया गेट परिसर में सिर्फ और सिर्फ तीन युवकों की प्रतिमा का स्थान होना चाहिए – भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव। 

सवाल यह है कि आज़ाद भारत के लोगों ने ‘निर्णय लेने का अधिकार’ पूर्णतः राजनेताओं पर छोड़ दिया। गूगल के इस युग में स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारियों को सोशल मिडिया पर ही नमन और श्रद्धांजलि दिया जाता है – कट एंड पेस्ट – के माध्यम से। लेकिन मेरा मानना है कि आजाद भारत में आगामी 23 मार्च, 2031 को जिन तीन युवाओं को फांसी पर चढ़े 100 वर्ष हो जाएंगे, इण्डिया गेट पर सिर्फ और सिर्फ उनका ही अकधिकार है । लेकिन, इन 90 वर्षों में आज भी भारत की राजनीतिक गलियारे में जितना भगत सिंह का नाम जीवित है, राजगुरु और सुखदेव का नाम नहीं है। यह हम नहीं, भारत का कोई भी नागरिक अपने कलेजे पर हाथ रखकर कह सकता है, बशर्ते वह अपनी आत्मा की बात को बिना राजनीति के सुने। 

कल ही तो देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण किया। अनावरण करते उन्होंने ऐलान किया कि यह होलोग्राम प्रतिमा नेताजी की ग्रेनाइट प्रतिमा तैयार होने तक रहेगी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती को लेकर सालभर चलने वाले उत्सव के तहत उसी स्थान पर प्रतिमा का अनावरण किया जाएगा। वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती पर भारत मां के वीर सपूत को श्रद्धांजलि दी। सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि भारत की धरती पर पहली स्वतंत्र सरकार की स्थापना करने वाले हमारे नेताजी, जिन्होंने हमारे भीतर एक संप्रभु और मजबूत भारत का विश्वास जगाया, की भव्य प्रतिमा इंडिया गेट के पास डिजिटल रूप में स्थापित हो रही है। जल्द ही इस होलोग्राम प्रतिमा के स्थान पर ग्रेनाइट की विशाल प्रतिमा लगेगी। उन्होंने कहा कि यह प्रतिमा आजादी के महानायक को कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि होगी। यह प्रतिमा हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं, हमारी पीढ़ियों को राष्ट्रीय कर्तव्य का बोध कराएगी।

खैर, आप चाहे एल्युमिनियम की प्रतिमा बनाएं, चांदी, सोने, सीमेंट-बालू को सानकर या फिर ग्रेनाइट की प्रतिमा बनाकर स्थापित करें। अगर आज़ाद भारतीय समाज में उन महान क्रांतिकारियों का नाम, प्रतिमा अपने-अपने राजनीतिक उद्येश्य की पूर्ति हेतु की जाती है, तो हम उन महान आत्माओं का सम्मान नहीं, बल्कि अपमान कर रहे हैं और यह सवाल कई लाख करोड़ का है। 

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