दरभंगा किला का ‘नकारात्मक जिक्र’ तभी हो सकता है, जब वर्तमान बासिन्दा ‘कमजोर’ हो, चापलूसों-चाटुकारों से घिरा हो

'विश्व एड्स दिवस' पर दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल परिसर में महाराज की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते दरभंगा किले के कुमार कपिलेश्वर सिंह  

दरभंगा/पटना/नई दिल्ली: विगत मार्च महीने के 08 तारीख को, यानी 08-03-2021 को दरभंगा के सांसद गोपाल जी ठाकुर के एक प्रश्न (संख्या – 2228) का उत्तर लोक सभा में दिया जाता है। प्रश्न ‘अनस्टार्ड’ था, इसलिए सांसद के प्रश्न का उत्तर भारत सरकार का पर्यटन मंत्रालय लिखित में जवाब दिया। बिहार में, खासकर मिथिला में, लोग बाग़ ‘लिखित’ में अधिक विश्वास करते हैं। सम्मानित गोपाल जी ठाकुर तो सांसद ही हैं, स्वाभाविक है, जो भी सवाल पूछेंगे, सवाल-जवाब लिखित में होनी चाहिए, ताकि अगला चुनाव में अपने संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं को ताल ठोक कर कह सकें कि उन्होंने जनता की आवाज को देश के संसद में कितनी बार उठाया है। अब वह प्रश्न सम्मानित जनता और मतदाताओं के लिए कितना महत्वपूर्ण है, या वह प्रश्न उन मतदाताओं की रोजी-रोटी-कपड़ा-मकान-शिक्षा-दवाई-स्वास्थ आदि मसलों को कितना हल कर पाता है, यह तो श्यामा माँ ही जानती हैं या फिर दरभंगा के सांसद । 

लेकिन इतना तो यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि 30 मई, 2019 को शपथ लेने के बाद दरभंगा के सांसद भले 89 लिखित प्रश्नोत्तर किये हों, उनके संसदीय क्षेत्र में धरती पर लिखित उत्तरों का जबाब दूर-दूर तह दृष्टिगोचित नहीं होता है। अब ‘दरभंगा में हवाई अड्डा’ उनके अथक परिश्रम का ही परिणाम है, इस बात का दावा कर दें तो कहा नहीं जा सकता। खैर।  

8 मार्च, 2021 का प्रश्न था: “WILL the Minister of Tourism be pleased to state (a) whether there is any scheme/policy to conserve and develop the historical Darbhanga Raj Quila as a tourist place by declaring it as national heritage; and (b) if so, the details thereof?.  

लेकिन यह ज्ञात नहीं हो पाया आखिर सम्मानित सांसद महोदय ‘इतना तुच्छ प्रश्न’ पूछकर संसद का बहुमूल्य समय क्यों लिया। इस सवाल का जवाब तो रामबाग पैलेस, जिसे वे दरभंगा किला कहे हैं, के मुख्य द्वार के सामने डिज्नीलैंड बोर्ड के बगल में रोजी-रोटी-नौकरी-चाकरी के अभाव में वर्षों से पान-सुपारी बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण करने वाला पनवारी भी दे सकता था । वजह यह है कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद आज तक दरभंगा क्षेत्र से जितने भी विधायक से लेकर सांसद तक, पटना के विधान सभा से लेकर दिल्ली के लोक सभा तक पहुंचे, सबों ने तो जनता को बरगलाया ही। अब अगर नेताजी अपने क्षेत्र के लोगों को कहें कि ‘मैंने लोक सभा में या विधान सभा में प्रश्न पूछा, या उनके लोग-बाग़ उनका प्रचार-प्रसार सोशल मीडिया पर करते रहें,  इससे आम नागरिकों और मतदाताओं को क्या फर्क पड़ता है। वह तो किसी भी समय पूछ सकता हैं “सरकार….. काम-काज के की भेलै? ननकिरबा के रोजगार लेल बैंक से लोन दिया दियौ न, अपने गारंटी ल लेल जाय, ननकिरबी के बियाह केना हेतै…..इत्यादि-इत्यादि।”

जहाँ तक दरभंगा किला के अंदर रहने वाले किला के स्वामी का सवाल है, जो अपने राज्य के प्रत्येक नागरिक को वह सभी सुख-सुविधाएँ दे सकते हैं, चेहरे पर खुशियां दे सकते हैं, मुस्कान दे सकते हैं, बच्चों को विद्यालय भेज सकते हैं, बीमारों को दवाइयां उपलब्ध करा सकते हैं, वस्त्रहीन का शरीर ढँक सकते हैं  – वे तो ‘विश्व एड्स दिवस’ मना रहे हैं। जरुरी भी है। बिहार के किसी अन्य राज्यों की तुलना में, दरभंगा में एड्स से पीड़ितों की संख्या औसतन अधिक है। क्योंकि भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक सन 2019 तक भारत में 23.49 लाख लोग हैं जो HIV/AIDS (PLHIV) से पीड़ित हैं। दरभंगा में कुछ वर्ष पूर्व तक HIV/AIDS से पीड़ित लोगों की संख्या हज़ारों में थी। खैर, एक बात यहाँ भी समझ से परे है कि एड्स महामारी की रोकथाम के लिए नेशनल मेडिकोज आर्गेनाईजेशन ने डीएमसीएच के ‘एनाटॉमी विभाग में स्थित महाराज की प्रतिमा को क्यों चुना? महाराज की प्रतिमा पर माल्यार्पण और हरी झंडी के बाद साईकिल यात्रा – दूर-दूर तक एड्स बीमारी की रोकथाम से सम्बन्ध नहीं रखता। 


दरभंगा किला (प्रवेश द्वार बाएं), बीच में दरभंगा के वर्तमान सांसद गोपाल जी ठाकुर और दाहिना लोक सभा में पूछे गए प्रश्न ‘Whether there is any scheme/policy to conserve and develop the historical Darbhanga Raj Quila as a tourist place by declaring it as national heritage?

बहरहाल, दरभंगा के सांसद के प्रश्न को देखकर ऐसा लगता है कि भारत सरकार के पर्यटन मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल को सेकेण्ड भी नहीं लगा होगा उत्तर देने में। उस प्रश्न के जबाव में मंत्री महोदय ने संसद को तो बताया ही, सम्मानित गोपाल जी ठाकुर साहब को भी ‘लिखित’ उत्तर दिया और कहा: “AS per the information given by the Archeological Survey of India (ASI), there is no provision under Ancient Monuments and Archjeological Sites and Remainbs Act, 1958 to declare any place as National Heritage,. Further, at present there is no proposal under consideration to declare Darbhanga Quila as a Monument of National importance under the provision of AMASR Act, 1958. (b): Does not arise.

बहरहाल, सम्मानित सांसद साहब को कैसे बताया जाय कि हुकुम आपके प्रश्न पूछने के कोई छः वर्ष पूर्व इस विषय पर पटना उच्च न्यायालय में प्रश्नोत्तर हो चुका है। वादी-प्रतिवादी जवाब-तलब कर चुके हैं। वादी अपना पक्ष मोटा में बांधकर प्रतिवादी के सामने प्रस्तुत कर चुके हैं। अंततः पटना उच्च न्यायालय ने कह भी दिया कि अगर सरकार ऐसी कोई अधिसूचना जारी करती है, अखबार में इश्तेहार देते हैं कि प्रदेश के 100-साल पुराने भवनों ‘ऐतिहासिक और पुरातत्व’ मानकर ‘घरोहर भवन/परिसर’ घोषित कर सकती हैं तो ‘वादी’ को इतना घबराने की कोई बात नहीं। लेकिन एक बात तो मानना पड़ेगा कि सांसद महोदय के कार्यालय में जो भी महाशय प्रश्नावली का चयन करते हैं, वे बहुत बेहतर इन्शान हैं। हां, ‘गृह-कार्य’ की कमी है। ऐसे प्रश्नों को सीधा नहीं पूछकर ‘पूछड़ी’ पहले केंद्रीय सर्कार और मंत्री को पकड़ना चाहिए। 

दूसरी बात, यह भी बताना नितांत आवश्यक है कि दरभंगा राज किला के मालिक/मालकिन तो अपने पुस्तैनी सम्पत्तियों के रख-रखाव के प्रति ‘उदास’ ही नहीं, ‘नेत्रहीन’ भी हैं; लेकिन दरभंगा संसदीय क्षेत्र के लोग, मिथिला के लोग, सम्मानित लालजी ठाकुर और पूर्व के लोक सभा सांसदों के मतदाताओं की सोच पर भी ‘ग्रहण’ लगा है। अगर दरभंगा राज परिवार के लोगों को, दरभंगा के लोगों को, राजनेताओं को, मतदाताओं को, विद्वानों को, विदुषियों को, छात्रों को, छात्राओं को, रिक्शावाला को, रेडीवालों को, सब्जीवालों को, बनियों को, व्यवसायिओं को, शौचालय सफाई कर्मचारियों को, महिलाओं को, पुरुषों को, ठठेरों को, बहरों को, धुनियों को, हलवाईयों को – किसी को भी उन ऐतिहासिक ईमारतों, भव्य/विशाल भवनों, किलाओं से, उसकी गगनचुम्बी दीवारों से, ईंटों से, रंगों से तनिक भी स्नेह, प्यार, मोहब्बत होता तो शायद आज संसद महोदय लो संसद में न तो प्रश्न पूछना पड़ता और ना ही उस किला के दीवारों के नीचे से आते-जाते लोगों को शर्मशार होना पड़ता। सच तो यही है। 

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ज्ञातव्य हो कि श्रीनारायण दास (तीन बार), अनिरुद्ध सिन्हा, श्याम नंदन मिश्रा,  रामेश्वर साहू, सत्यनारायण सिन्हा, बिनोदानंद झा, ललितनारायण मिश्रा, सुरेंद्र झा ‘सुमन’,  हरी नारायण मिश्रा, विजय कुमार मिश्रा, सकीलुर रहमान, मोहम्मद अली अशरफ फातिमी (दो बार), कीर्ति आज़ाद और गोपाल जी ठाकुर – सं 1952 से 2019 तक के विभिन्न लोक सभाओं में दरभंगा जिला (तत्कालीन और बाद में विभाजित) के तीन लोक सभा क्षत्रों – दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर – से दस्तक दिए। श्रीनारायण दास के दूसरे मर्तबा सांसद के समय काल के अंत (1962) के आस-पास ही दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह अपनी अंतिम सांस लिए, उसी दरभंगा किला से कुछ दूर स्थित नरगौना पैलेस में, जिस दरभंगा किला के बारे में दरभंगा के वर्तमान सांसद लोक सभा में प्रश्न किये कि ‘क्या इस किले को पर्यटन के दृष्टि से उन्ननय करने हेतु सरकार ले रही है?’ 

सन 1952 से 2021 के 7 मार्च तक संसद में किसी भी सांसदों ने यह सवाल नहीं पूछा था। खैर। दुर्भाग्य तो यह है की दरभंगा किला के अंदर रहने वाले लोगों की, महाराजा डॉ सर कामेश्वर सिंह की सम्पत्तियों के हिस्सेदारों की मानसिकता इतनी रुग्ण हो गयी है कि चाहर दीवारी के बाहर के लोग पटना के विधान सभा से लेकर दिल्ली के लोग सभा तक “खिल्ली” उड़ा रहे हैं; परन्तु “सरकार सुतले छथिन …सुतले सुतल महाराजक सभ्यता, संस्कृति, धरोहर, शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान कें पुनः स्थापित कय रहल छथिन।”

महाराजाधिराज की अंतिम ‘जीवित’ पत्नी महारानी अधिरनी कामसुन्दरी जी और महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के अनुज राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के तीसरे पुत्र कुमार शुभेश्वर सिंह के छोटे पुत्र कुमार कपिलेश्वर सिंह से आर्यावर्तइण्डियननेशन कॉम अनेकों बार बात करने की कोशिश किया, अन्तर्वीक्षा हेतु याचना किया, संवाद प्रेषित किया, फोन की घंटी टनटनाया – लेकिन निरुत्तर रहा। महरानीअधिरानी के द्वारा स्थापित महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन के कर्ताधर्ता श्री उदयनाथ झा से फोन पर बात कर निवेदन किया। उन्होंने कहा: “आज तक महारानी सार्वजनिक रूप से नहीं आयी हैं। आज तक किसी भी प्रेस संवाददाता से बात नहीं की है। निवेदन का कोई अर्थ नहीं है।” 

हकीकत यह है कि आज अगर कुमार राजेश्वर सिंह, कुमार कपिलेश्वर सिंह दरभंगा राज की अमानतों को, धरोहरों हो, पुरातत्वों को, इतिहास को, संस्कृति को बचाने, सुरक्षित रखने और घरोहर बनाने के लिए सार्वजनिक रूप से, चतुर्दिक चापलूसों, चाटुकारों से घिरी चहारदीवारी लो लाँघ कर आगे आएं, तो किसकी मजाल हैं कि दरभंगा किला के बारे में कोई सवाल पूछ ले, चाहे संसद में ही क्यों न हो। क्योंकि जो संसद आज देखे हैं, वे भौंचक्के हैं, कल पुनः यहाँ आ पाएंगे अथवा नहीं। लेकिन जिसके दरभंगा किले का स्वामी सन 1933-1946 तक कौंसिल ऑफ़ इस्टेट का अहम्अ सदस्य हो, सन 1946-1952 तक भारत के संविधान सभा का सदस्य हो, और सन 1952 से अपनी अंतिम सांस तक (2 अक्टूबर, 1962) तक भारतीय संसद के ऊपरी अहम्अ सदस्य हो; उसके किले के नाम की राजनीति ? यह तो तभी संभव है जब दरभंगा किला का वर्तमान बासिन्दा ‘कमजोर’ हो, सोच की किल्लत हो, चापलूसों और चाटुकारों से घिरा हो, सत्य सुनने में पीड़ा होता हो।   

बहरहाल,  सर कामेश्वर सिंह अपने जीते-जी अपनी वसीयत में लिखे थे: “शिड्यूल ‘A’ में वर्णित संपत्ति उनकी पत्नी महारानी राज्यलक्ष्मी को उनके जीवंत पर्यन्त रहने के लिए दिया जाता है। वे इस महल का रहने के अतिरिक्त किसी और ने उद्देश्य में नहीं करेंगी। वे इस भवन में रह सकती हैं, यहाँ के सभी फर्नीचरों और अन्य सुख-सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकती हैं। कोई भी व्यक्ति उनके इस कार्य में किसी भी तरह का व्यवधान नहीं कर सकता है। जब उनकी मृत्यु हो जाएगी तब यह संपत्ति हमारे सबसे छोटे भतीजे राजकुमार शुभेश्वर सिंह को सम्पूर्णता के साथ चली जाएगी।” शिड्यूल ‘A’ में रामबाग यानि दरभंगा राज फोर्ट के अंदर वाला विशालकाय भवन है। यानि महारानी राज्यलक्ष्मी की मृत्यु के बाद यह संपत्ति राजकुमार शुभेश्वर सिंह की हो जाएगी। महारानी राजलक्ष्मी की मृत्यु सन 1976 में, यानी महाराजाधिराज की मृत्यु के 14 वर्ष बाद हुई और कुमार शुभेश्वर सिंह भी अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनकी मृत्यु आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्रों की अंतिम सांस लेने के कोई दो वर्ष बाद 2004 में हुयी।

लेकिन, मई 4, 2015 को पटना उच्च न्यायालय दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के रामबाग पैलेस से सम्बंधित एक याचिका को रद्द कर देता है। याचिका में महाराजाधिराज के भतीजे दिवंगत कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – वादी होते हैं; जबकि प्रतिवादी में कला, संस्कृति और युवा विभाग, बिहार सरकार के सचिव, विभाग के उप-सचिव, पुरातत्व विभाग के निदेशक, अधीक्षक (पटना अंचल), दरभंगा के जिला मजिस्ट्रेट, सब-डिविजनल अधिकारी और अंचल अधिकारी होते हैं। विषय होता है “सरकार द्वारा बिहार के एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स के अधीन दरभंगा के रामबाग पैलेस को एन्सिएंट मोन्यूमेंट की श्रेणी में रखने से पूर्व लोगों से उनका विचार, ऑब्जेक्शन माँगना। लोगों से आपत्ति मांगने से संबंधित सूचना के प्रकाशन के साथ ही दरभंगा राज फोर्ट में रहने वाले लोगों में खलबली मच जाती है।   

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हड़बड़ी के वियाह आ कनपट्टी में सिंदूर

उक्त सूचना के प्रसार के तुरंत बाद दिवंगत कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – पटना उच्च न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि बिहार सरकार के डिप्टी सेक्रेटरी, आर्ट, कल्चर और यूथ डिपार्टमेंट द्वारा दिनांक 17 अगस्त, 2010 को जारी एक अधिसूचना, जिसमें उपरोक्त अधिकारी ने ‘आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1976 के अधीन लोगों से ‘ऑब्जेक्शन’ मांगे थे की दरभंगा स्थित महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के दरभंगा राज फोर्ट को क्यों नहीं “बिहार एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स रिमेंस” के अधीन ले लिया जाय, निरस्त कर दिया जाय। 

बहस होता है। वादी के तरफ से यह कहा जाता है कि उक्त विभाग द्वारा जारी इस सूचना और आमंत्रण का कोई महत्व नहीं है। यह भी कहा जाता है कि उक्त कानून के सेक्शन 2 (a) के आलोक में उक्त दरभंगा राज फोर्ट को ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता है। वादी पक्ष यह भी तर्क दिए कि नियमानुसार उसी स्थान / भवनों को उक्त नियमों के तहत ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता है जो न्यूनतम 100-वर्ष पूरे नहीं किये हों। और इस नियम के तहत, वादी के अनुसार, चूँकि दरभंगा राज फोर्ट 100 वर्ष की आयु के नहीं हैं, अतः नियमनुसार यह ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता। 

वादी की “घबराहट” को मद्दे नजर रखते प्रतिवादी के तरफ से यह कहा गया कि विभाग और सरकार के तरफ से अभी महज “ओब्जेक्शन’ आमंत्रित किये गए हैं की दरभंगा राज फोर्ट को आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1976 के अधीन क्यों नहीं “बिहार एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स रिमेंस” के अधीन ले लिया जाय ? ऑब्जेक्शन मांगने के पीछे लोगों का विचार आमंत्रित करना था, ताकि विभाग और सरकार इस दिशा में समुचित कार्रवाई कर सके। यदि किसी को इस दिशा में आपत्ति होगी, स्वाभाविक है, उनके विचार को भी विभाग और सरकार बहुत ही प्राथमिकता से अध्ययन और जांच करेगी ताकि निर्णय लेने में सरकार के तरफ से कोई चूक या भूल नहीं हो जाय । 

नियमों के अनुसार, कोई भी ऐसी चीज जो 100 साल या इससे अधिक पुरानी हो तो वह ‘पुरातात्विक’ है। इस ऐतिहासिक निर्णय का श्रेय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के एंटीक्वटीज एंड आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1972 को जाता है। यह कानून 1976 से लागू हुआ। इसका मकसद भारतीय सांस्कृतिक विरासत की बहुमूल्य वस्तुओं की लूट और उन्हें गैर-कानूनी माध्यमों से देश से बाहर भेजने पर रोक लगाना था। वैसे, इसके सिर्फ नकारात्मक और अनपेक्षित परिणामों का अतिरेक ही सामने आया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि यह कानून इतने कड़े और अभावग्रस्त नियमों से भरा हुआ है कि बेईमान ‘कला के सौदागर’ सरकारी अधिकारियों और कस्टम अधिकारियों के साथ मिलीभगत कर अपना रास्ता निकाल ही लेते है। 

अधिनियम के अनुच्छेद 2(1) (अ) के अनुसार कोई भी ऐसी चीज जो ‘ऐतिहासिक महत्व’ की हो या 100 साल या इससे अधिक पुरानी हो तो वह ‘पुरातात्विक’ है। और हर किसी को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पास ऐसी प्रत्येक वस्तु का पंजीकरण कराना और उसके चित्र खिंचवाना अनिवार्य होता है फिर भले ही चाहे वह कोई व्यक्ति हो, कोई संगठन हो या कोई संस्थान (उदाहरण के तौर पर कोई मंदिर) । कानून का अनुच्छेद 11 पुरावशेषों और कलाकृतियों के आयात, निर्यात और देश के भीतर भी एक जगह से दूसरी जगह लाने-ले जाने को नियंत्रित करता है और किसी भी व्यक्ति के ऐसा करने पर प्रतिबंध लगाता है। ऐसा करने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार या उसकी किसी एजेंसी को होता है।  यदि कोई व्यक्ति ऐसा करना चाहे तो उसे (यदि वस्तु काे देश के भीतर ही एक जगह से दूसरी जगह ले जाता है) इसके लिए जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी. यदि उस वस्तु का आयात या निर्यात किया जाना है तो विदेश व्यापार के महानिदेशक एवं कस्टम विभाग से अनुमति लेनी होगी। बहरहाल, इस नियम में अनेकानेक खामियों के मद्दे नजर, पूर्व केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के समय में कानून मंत्रालय के एक सेवानिवृत्त सचिव को काम सौंपा कि वे इस कानून की सभी खामियों को दूर करने, सुधार के उपायाें और नए सिरे से कानून बनाने पर प्रस्ताव बनाये जाए। हालांकि, सेवानिवृत्त न्यायाधीश मुकुल मुदगल समिति ने इस कानून में सुधार के लिए अपनी रिपोर्ट के रूप में 2012 में प्रस्तावित उपायों का जो चिट्ठा सौंपा था। 

वादी-प्रतिवादी की बातों को बहुत ही तन्मयता के साथ अदालत सुनता है। अदालत का मानना था कि नियम के सेक्शन 3 (1) के तहत राज्य सरकार को यह अधिकार है कि वह ऐसी स्थिति में किसी भी प्रकार की सूचना जारी करें। इन बातों का कोई महत्व नहीं है की किस नियम के किस सेक्शन, सब-सेक्शन के तहत क्या लिखा है। यह महज लोगों से आपत्ति लेने सम्बन्धी सूचना है। अदालत का कहना था कि अगर वादी पक्ष यह मानता है कि दरभंगा राज फोर्ट की आयु 100 वर्ष नहीं हुई है, और इसे किसी भी कानून के तहत एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है तो उन्हें स्वतंत्रता है कि वे इस सम्बन्ध में अपना सम्पूर्ण विचार, आपत्ति, सम्बद्ध विभाग के अधिकारी के पास प्रस्तुत करें। अदालत यह भी स्वीकार किया कि उस समय इस मामले में अदालत का हस्तक्षेप ठीक नहीं होगा। और इस तरह वादी राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह द्वारा दायर याचिका निरस्त हो जाता है।  

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बहरहाल, कहा जाता है कि दरभंगा राज लगभग 2410 वर्ग मील में फैला था, जिसमें कोई 4495 गाँव थे, बिहार और बंगाल के कोई 18 सर्किल सम्मिलित थे। दरभंगा राज में लगभग 7500 कर्मचारी कार्य करते थे। आज़ादी के बाद जब भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त हुआ, उस समय यह देश का सबसे बड़ा जमींदार थे। इसे सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है। लोक-चित्रकला, संगीत, अनेकानेक विद्याएं या क्षेत्र की पूंजी थी। लोगों का कहना है कि वर्त्तमान स्थिति के मद्दी नजर, दरभंगा राज के सभी लोगों की निगाह दरभंगा राज फोर्ट यानी करीब 85 एकड़ भूमि के बीचोबीच स्थित रामबाग का विशाल भवन है। आज भवन की कीमत जो भी आँका जाय, इस सम्पूर्ण क्षेत्र यानी दरभंगा के ह्रदय में स्थित 85 एकड़ भूमि की व्यावसायिक कीमत क्या होगी, यह आम आदमी नहीं सोच सकता है। वजह भी है : सरकारी आंकड़े के अनुसार “दरभंगा के लोगों का प्रतिव्यक्ति आय 15, 870/- रूपया आँका गया है और इतनी आय वाले लोग लाख, करोड़, अरब, खरब रुपयों के बारे में सोच भी नहीं सकते। वह जीवन पर्यन्त उस राशि पर कितने “शून्य” होंगे, सोचते जीवन समाप्त कर लेगा। परन्तु सोच नहीं पायेगा। 

दरभंगा राज फोर्ट / किले के निर्माण के लिए कलकत्ता की एक कम्पनी को ठेका दिया गया  किन्तु, जब तीन तरफ से किले का निर्माण पूर्ण हो चूका था और इसके पश्चिम हिस्से की दीवार का निर्माण चल रहा था कि भारत देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी मिल गयी  और देश में प्रिंसली स्टेट और जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो गया। परिणाम यह हुआ कि अर्धनिर्मित दीवार जहाँ तक बनी थी , वहीँ तक रह गयी और किले का निर्माण बंद कर दिया गया |

भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने 1977-78 में इस किले का सर्वेक्षण भी कराया था , तब , इसकी ऐतिहासिक महत्वता को स्वीकार करते हुए किले की तुलना दिल्ली के लाल किले से की थी | किले के अन्दर रामबाग पैलेस स्थित होने के कारण इसे ‘ राम बाग़ का किला’ भी कहा जाता है | किले के निर्माण से काफी पूर्व यह इलाका इस्लामपुर नामक गाँव का एक हिस्सा था जो की मुर्शिमाबाद राज्य के नबाब , अलिबर्दी खान , के नियंत्रण में था | नबाब अलिबर्दी खान ने दरभंगा के आखिरी महाराजा श्री कामेश्वर सिंह के पूर्वजों यह गाँव दे दिया था | इसके उपरांत सन 1930 ई० में जब महाराजा कामेश्वर सिंह ने भारत के अन्य किलों की भांति यहाँ भी एक किला बनाने का निश्चय किया तो यहाँ की मुस्लिम बहुल जनसँख्या को जमीन के मुआवजे के साथ शिवधारा, अलीनगर, लहेरियासराय, चकदोहरा आदि जगहों पर बसाया। किले की दीवार काफी मोटी है। दीवार के उपरी भाग में वाच टावर और गार्ड हाउस बनाए गए थे। 

अनेकानेक लेख प्रकाशित हैं इस किले के बारे में । किले की दीवारों का निर्माण लाल ईंटों से हुई है | इसकी दीवार एक किलोमीटर लम्बी  है | किले के मुख्य द्वार जिसे सिंहद्वार कहा जाता है पर वास्तुकला से दुर्लभ दृश्य उकेड़े गयें है | किले के भीतर दीवार के चारों ओर खाई का भी निर्माण किया गया था। उस वक्त खाई में बराबर पानी भरा रहता था। कहा जाता है कि महाराजा महेश ठाकुर के द्वारा स्थापित एक दुर्लभ कंकाली मंदिर भी इसी किले के अंदर स्थित है। कहा जाय है कि महाराजा महेश ठाकुर को देवी कंकाली की मूर्ति यमुना में स्नान करते समय मिली थी | प्रतिमा को उन्होंने लाकर रामबाग के किले में स्थापित किया था। यह मंदिर राज परिवार की कुल देवी के मन्दिर से भिन्न है और आज भी लगातार श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। किले के अंदर दो महल भी स्थित हैं | सन 1970 के भूकम्प में किले की पश्चिमी दीवार क्षतिग्रस्त हो गयी , इसके साथ ही दो पैलेस में से एक पैलेस भी आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गयी | इसी महल में राज परिवार की कुल देवी भी स्थित हैं | यह महल आम लोगों के दर्शनार्थ हेतु नहीं खोले गए हैं|वैसे दुखद बात यह है की दरभंगा महाराज की यह स्मृति है अब रख – रखाव के अभाव में एक खंडहर में तब्दील हो रहा है | शहर की पहचान के रूप में जाने वाले इस किले की वास्तुकारी पर फ़तेहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजे की झलक मिलती है |

बहरहाल, दरभंगा राज की अन्य धरोहरों की तरह दरभंगा राज किला का स्वास्थ भी अच्छा नहीं है। महाराजाधिराज की सम्प्पतियों के बंटबारे के बाद, कोई भी लाभार्थी, महाराजा के समानार्थ ही सही, कभी दरभंगा राज फोर्ट के तरफ ध्यान नहीं दिए। सम्पूर्ण फोर्ट का परिसर आवक-जावक रास्ता बन गया। संरक्षण के अभाव में किले की दीवारें क्षतिग्रस्त होने लगीं। ईंटों को मिट्टी खाने प्रारम्भ कर दिए। जल-जमाव किले के दीवार को और भी कमजोर बना दिया है, और इसके ढहने का भी खतरा बना हुआ है | अनेकानेक स्थानों पर दीवारों के उपरी हिस्से में पीपल के पौधे अपनी जड़ो से दीवारों को कमजोर करते जा रहें हैं। इतना ही नहीं, दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह के समय इस दरभंगा फोर्ट में पैर रखना एक सम्मान की बात होती है; आज उनकी मृत्यु के बाद राज परिवार के लोगों ने रामबाग  परिसर की कीमती जमीन को बेचना शुरू कर दिया। आज सैकड़ों मकान इस परिसर के अंदर दीखते हैं। उस मिटटी की जिसे महाराजा के समय पूजी जाती थी, आज उनके परिवार के लोग बाग़ के साथ-साथ उस परिसर में रहने वाले नित्य रौंदते हैं – आवक-जावक रास्ता है। इतना ही नहीं, अब तो होटल और सिनेमा घर भी बन गए हैं।  

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