काश !! ऐसे परामर्श संसद के दोनों सदनों के सांसदों के साथ साथ भारत के सभी राज्यों के विधान सभा और विधान परिषदों के सदस्यों के सदन में निर्वाचन के बाद भारतीय सेना में सेवा देने को कहा होता। क्या जो सरकारी क्षेत्र में नौकरी करना चाहते हैं, मातृभूमि की सेवा करना सिर्फ उन्ही का धर्म और कर्तब्य है ? एक बहुत बड़ा सवाल है।
वैसे यदि सरकारी दस्तावेज को माने तो भारतीय सेना में या किसी भी पैरा-मिलिट्री फ़ोर्स में सेवा के दौरान वीरगति को प्राप्त करने वाले सैनिक “शहीदों” की श्रेणी में नहीं आते हैं। वे सिर्फ नौकरी करते हैं और मृत्युपरान्त सरकारी नियम के तहत उन्हें आजीवन पेंशन और एक्सग्रेसिया के रूप में १५ लाख रुपये उनके परिवार को दिया जाता है।
बहरहाल, भारत को ब्रितानिया हुकूमत से, उसकी जंजीर से मुक्ति दिलाने के लिए न जाने कितने सपूत अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपनी जान दी, परन्तु १५ अगस्त १९४७ को जब देश आजाद हुआ तब से लेकर आज तक, स्वतंत्र भारत के सपूत आज भी भारत की सीमाओं पर अपनी-अपनी कुर्बानिया देकर मातृभूमि की रक्षा कर रहे हैं और यह कार्य अनंतकाल तक चलता रहेगा, भले भारत सरकार इन फौजियों को मातृभूमि के सुरक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने पर भी उन्हें “शहीद” का दर्जा दे अथवा नहीं ।
भारत में चाहे कितना ही विकास हो, कितने ही ‘स्मार्ट सिटीज’ बन गए हों, बन रहे हों; कितनी ही वैज्ञानिक विकास हो रहे हों जिससे भारत को विश्व के मानचित्र पर वहां के लोग रख दिए हो, या फिर रखते रहेंगे; परंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी भारत एक गांवों का देश है और देश की विशेषता शहरों में नहीं बल्कि गांवों में ही बसती है।
दो लाख पैंसठ हजार ग्राम पंचायतों के समुच्चय से जो भारत बनता है वह उस शहरी भारत से बिल्कुल अलग और निराला है जिसमें रहने के लिए हम अभिशप्त हैं। भारत के हर गांव एक स्वतंत्र और संप्रभु ईकाई हैं। उनकी अपनी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था है। इन व्यवस्थाओं का विधिवत आंकलन करके उन्हें समझे बिना भारत को समग्रता में समझना नामुमकिन है।
वैसे भारत का शायद ही कोई भूभाग होगा, कोई गाँव होगा, जहाँ की माताएं, बहने, पत्नियां अपने-अपने पुत्र, भाई और पतियों को मातृभूमि की रक्षा के लिए भारतीय सेना में नहीं भेजे होंगे। परंतु भारत में एक गाँव ऐसा है, जो फौजियों के गाँव के नाम से ही जाना जाता है। इस गाँव के प्रत्येक परिवार का कोई न कोई सदस्य भारतीय सेना में सम्मिलित है।
उत्तर प्रदेश के इलाके में गाजीपुर जिले में एक गाँव है गहमर। यह गाँव बिहार-उत्तरप्रदेश की सीमा पर बसा है और क़रीब आठ वर्गमील में फैला है। गहमर गाँव न सिर्फ एशिया के सबसे बड़े गाँवों में गिना जाता है, बल्कि इसकी ख्याति फौजियों के गाँव के रूप में भी है। इस गाँव के करीब दस हज़ार फौजी इस समय भारतीय सेना में जवान से लेकर कर्नल तक विभिन्न पदों पर कार्यरत हैं, जबकि पाँच हज़ार से अधिक भूतपूर्व सैनिक हैं !
सन १५३० में कुसुम देव राव ने ‘सकरा डीह’ नामक स्थान पर इसे बसाया था। यह गाँव गाजीपुर से ३८ किमी की दूरी पर स्थित है। गहमर में एक रेलवे स्टेशन भी है जिससे यह पटना और मुगलसराय से जुड़ा हुआ है।
लगभग 80 हज़ार आबादी वाला यह गाँव 22 पट्टी या टोले में बँटा हुआ है और प्रत्येक पट्टी किसी न किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के नाम पर है। यहाँ के लोग फौजियों की जिंदगी से इस कदर जुड़े हैं कि चाहे युद्ध हो या कोई प्राकृतिक विपदा यहाँ की महिलायें अपने घर के पुरूषों को उसमें जाने से नहीं रोकती, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित कर भेजती हैं। गाँव में सभी जाति के लोग रहते हैं, लेकिन सर्वाधिक संख्या राजपूतों की है और लोगों की आय का मुख्य स्रोत नौकरी ही है।
प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध हों या 1965 और 1971 के युद्ध या फिर कारगिल की लड़ाई, सब में यहाँ के फौजियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। विश्वयुद्ध के समय में अँग्रेजों की फौज में गहमर के 228 सैनिक शामिल थे, जिनमें 21 मारे गए थे ! इनकी याद में गहमर मध्य विधालय के मुख्य द्वार पर एक शिलालेख लगा हुआ है।
गहमर के भूतपूर्व सैनिक अपने गाँव से लड़कों को भारतीय सेना में बहाली के लिए आवश्यक तैयारी में भी मदद करते हैं। गाँव के युवक गाँव से कुछ दूरी पर गंगा तट पर स्थित मठिया चौक पर सुबह–शाम सेना में बहाली की तैयारी करते नजर आते हैं।
यहाँ के युवकों की फौज में जाने की परंपरा के कारण ही भारतीय सेना गहमर में ही भर्ती शिविर लगाया करती थी, परंतु समयांतराल शिविर लगाने की परंपरा समाप्त कर दी गयी और अब यहाँ के लड़कों को अब बहाली के लिए लखनऊ, रूड़की, सिकंदराबाद आदि जगह जाना पड़ता है।
वैसे, गहमर भले ही गाँव हो, लेकिन यहाँ शहर की तमाम सुविधायें विद्यमान हैं। गाँव में ही टेलीफ़ोन एक्सचेंज, दो डिग्री कॉलेज, दो इंटर कॉलेज, दो उच्च विधालय, दो मध्य विधालय, पाँच प्राथमिक विधालय, स्वास्थ्य केन्द्र आदि हैं। गहमर रेलवे स्टेशन पर कुल 11 गाड़ियाँ रूकती हैं और सबसे कुछ न कुछ फौजी उतरते ही रहते हैं लेकिन पर्व-त्योहारों के मौक़े पर यहाँ उतरने वाले फौजियों की भारी संख्या को देख ऐसा लगता है कि स्टेशन सैन्य छावनी में तब्दील हो गया हो।